छान्दोग्य में उद्गीथ
छान्दोग्य के आरम्भ में ओम् की उद्गीथ रूप में उपासना करने का उपदेश है । इसके प्रथम प्रपाठक, प्रथम खण्ड में इस विषय का सुन्दर वर्णन है । वैसे तो छान्दोग्य पर अनेकों व्याख्याएं उपलब्ध हैं, जो कि प्रायः शंकर के भाष्य से प्रेरित हैं । परन्तु मुझे कुछ भिन्न अर्थ समझ में आया । उसी को इस लेख में विस्तार से लिख रही हूं ।
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत । ओमिति ह्युद्गायति तस्योपव्याख्यानम् ॥ १।१।१ ॥
प्रचलित अर्थ है – ओम् – इस अक्षर, उद्गीथ की ही उपासना (मनुष्य) करे । (वेदवित् अथवा सामगान करने वाले अथवा ब्रह्मवित्) इस ओम् को ही उच्च स्वर में गाते हैं । यह उपनिषद् उस ओम् का उपव्याख्यान हैं । ’उद्गीथ’ का अर्थ है – ऊंचे स्वर में गाया हुआ, अर्थात् बढ़-चढ़ के वर्णित । मेरे अनुसार, यहां अर्थ हैं – ओम् – इस अक्षर, उद्गीथ की ही उपासना (मोक्षार्थी) करे । वेद इस ओम् को ही बढ़-चढ़ के गाते हैं । वस्तुतः, वे उस ओम् का उपव्याख्यान हैं । मेरे ये अर्थ इसी खण्ड के पांचवें, नवें और दशमे प्रवाक् से पोषित हैं, जहां स्पष्टतः ओम् को ही उद्गीथ कहा गया है । परमात्मा जिनका निज नाम ओम् है, वे अविनाशी हैं, और वेदों के मुख्य विषय हैं । इसी प्रकार अन्य प्रवाकों में भी मेरे अर्थ किञ्चित् भिन्न हैं । जहां अधिक भिन्न हैं, वहां मैंने दोनों अर्थ दे दिए हैं ।
एषां भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपो रसोऽपामोषधयो रस ओषधीनां पुरुषो रसः पुरुषस्य वाग्रसो वाच ऋग्रस ऋचः साम रसः साम्न उद्गीथो रसः ॥ १।१।२ ॥
इन भूतों का पृथिवी रस है (अन्तिम विकार है; अन्यों से उत्पन्न जैसे उनका सार है) । पृथिवी का जल रस हैं (उसका सहकारी है) । जल का ओषधि है (पृथिवी और जल मिल कर ओषधि उत्पन्न करते हैं । सृष्टि-क्रम में पहले पृथिवी बनती है । फिर उसके ठण्डा होने पर, जल उपलब्ध होते हैं । उसके बाद ही स्थावर पौधे, वृक्ष आदि उत्पन्न होते हैं) । ओषधियों का पुरुष रस है (ओषधियों के उत्पन्न हो जाने पर जङ्गम प्राणियों की सृष्टि होती है, जिनमें पुरुष = जीवात्मा ओषधियों से पोषित शरीर से सम्बद्ध होता है) । पुरुष का रस वाणी है (प्राणियों में अन्तिम सृष्टि मनुष्य की होती है, जो अपनी वाणी के कारण ही मुख्यरूप से अन्य जन्तुओं से विशिष्ट हैं । वाणी से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है) । वाणी का रस ऋचाएं अर्थात् वेद हैं (वाणियों में उच्चतम वेदवाणी है – उसमें सबसे अधिक ज्ञान निहित है) । ऋचा का रस साम है (जिन वेद-मन्त्रों में परमात्मा की उपासना विशेष-रूप से है, वे ही साम हैं । वस्तुतः, वे ही वेद के सार हैं) । साम का रस उद्गीथ है (सामों का प्रतिपाद्य विषय परमात्मा है) ।
स एष रसानां रसतमः परमः परार्ध्योऽष्टमो यदुद्गीथः ॥ १।१।३ ॥
इन आठ रसों में (पृथिवी, जल, ओषधि, पुरुष, वाक्, ऋक्, साम, उद्गीथ), आठवां जो उद्गीथ है, वह रसों का भी रस है, परम है, सर्वोत्कृष्ट है ।
कतमा कतमर्क् कतमत् कतमत् साम कतमः कतम उद्गीथ इति विमृष्टं भवति ॥ १।१।४ ॥
(उपर्युक्त वाक् के विभागों में) कौन-कौन सी ऋक् हैं, (उनमें से) कौन-कौन सी साम और (उनमें से) कौन-कौन से उद्गीथ हैं, यह विचारणीय विषय है ।
वागेवर्क् प्राणः सामोमित्येतदक्षरमुद्गीथः । तद्वा एतन्मिथुनम् यद्वाक् च प्राणश्चर्क् च साम च ॥ १।१।५ ॥
वाणी ही ऋचा है, प्राण साम है, और ओम् यह अक्षर उद्गीथ है । ये युगल हैं – वाक् और प्राण, ऋक् और साम । (इनका अटूट सम्बन्ध है । इनको जान लेने से उद्गीथ प्राप्त होता है । वेदों का प्राण परमेश्वर और उसकी प्राप्ति के मार्ग का उपदेश है ।)
तदेतन्मिथुनमोमित्येतस्मिन्नक्षरे संसृज्यते । यदा वै मिथुनौ समागच्छत आपयतो वा तावन्योन्यस्य कामम् ॥१।१।६ ॥
ये (दोनों) मिथुन (युगल) इस अक्षर (ओम्) में सृष्ट होते हैं (ओम् का सृजन करते हैं, उसको प्राप्त कराते हैं) । (जिस प्रकार एक स्त्री-पुरुष का) जब एक जोड़ा (प्रीतिपूर्वक) पास आता है और मिलता है, तब एक-दूसरे की कामना पूर्ण कराता है (उसी प्रकार ये युगल मिलकर सन्तान रूप में ओम् को प्राप्त कराते हैं) । अर्थात् जब जीवात्मा प्राण से वाणी के द्वारा वेदमन्त्रों को उच्चारित करके, ओम् की उपासना करता है, तब ही उसकी कामना – परम ब्रह्म – उसको प्राप्त होता है । यही ब्रह्म की प्राप्ति का एकमात्र पथ है ।
आपयिता ह वै कामानां भवति, य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्ते ॥ १।१।७ ॥
जो इस प्रकार जानकर, उद्गीथ (ब्रह्म) की उपासना करता है, वह (सारे) कामों का प्रापक होता है । अर्थात् जब जीव इस गति को प्राप्त करने की स्थिति तक पहुंचता है, तब तक उसकी शारीरिक कामनाएं उसको पहले ही छोड़ चुकी होती हैं । उसकी एक ही कामना बच रहती है – वह है परमात्मा से योग । उसकी वह कामना उद्गीथ की उपासना = समाधि में पूर्ण हो जाती है ।
तद्वा एतदनुज्ञाक्षरम् । यद्धि किञ्चानुजानात्योमित्येव तदाहैषो एव समृद्धिर्यदनुज्ञा । समर्द्धयिता ह वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्ते ॥ १।१।८ ॥
प्रचलित अर्थ – यह अक्षर (ओम्) अनुज्ञा है (अनुमति देने में प्रयुक्त होता है) । जब (कोई) कुछ अनुमति देता है, तो ओम् ही कहता है । जो यह अनुज्ञा है, यही समृद्धि है । जो, इस प्रकार जानता हुआ, उद्गीथ की उपासना करता है, वह सारे कामों का वर्धन कर लेता है । यहां ’समृद्धि’ को भिन्न व्याख्याकारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाया है । एक मान्यता है कि जो समृद्ध है, वही अनुमति दे सकता है, दीन नहीं । सो, उसी की सारी कामनाएं पूरी होती हैं । दूसरी व्याख्या है कि ’समृद्ध’ का अर्थ यहां ’अनुग्रह’ है । सो, ओम् कहकर वह मांगने वाले पर अनुग्रह करके उसकी कामनाओं की पूर्ति करता है । जबकि ये गौण अर्थ माने जा सकते हैं, परन्तु इनका सन्दर्भ से और उद्गीथ की उपासना से कोई भी सम्बन्ध नहीं है । इसलिए ये इस स्थान पर बड़े ही अटपटे लगते हैं । मेरे अर्थ इस प्रकार हैं –
अनुज्ञा के यहां यौगिक अर्थ हैं – बाद में जाना हुआ[1] । सो, वेदों के जानने और उपासना के बाद ही ओम् को जाना जाता है । वह ओम् की अनुज्ञा ही उसका वर्धन करती है । जो विद्वान् उद्गीथ की इस प्रकार उपासना करता है, वह अपनी (सारी) कामनाओं का वर्धन करने वाला होता है, अर्थात् अपने में ओम् के दर्शन का वर्धन करता है । इसी विषय का आगे विस्तार किया गया है –
तेनेयं त्रयी विद्या वर्तते ओमित्याश्रावयत्योमिति शंसत्योमित्युद्गायत्येतस्यैवाक्षरस्यापचित्यै महिम्ना रसेन ॥ १।१।९ ॥
उस (ओम्) के साथ यह त्रयी विद्या (वेद) रहती है – उसी को सुनाती है, उसी की प्रशंसा करती है, उसी का उच्च स्वर से गाती है; इस अक्षर की पूजा के लिए ही इस ओम् की महिमा और रस से ऋचाएं युक्त है । यहां क्रमशः “होता ओम् बोलकर ऋग्वेद का उच्चारण करता है, अध्वर्यु ओम् बोलकर यजुर्वेद का उच्चारण करता है, उद्गाता ओम् बोलकर सामवेद का उच्च स्वर से गान करता है” – ऐसा अर्थ किया गया है, लेकिन यहां यज्ञ का प्रसंग नहीं है, अपितु जीवात्मा की परमात्मा के लिए खोज का ही विषय बना हुआ है ।
तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद । नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिशदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवतीति ॥ १।१।१० ॥
इसके प्रचलित अर्थ हैं – जो (ओम् को) जानता है और जो नहीं जानता है, दोनों ही इसकी सहायता से अपने कार्य सम्पन्न करते हैं । परन्तु विद्या और अविद्या में भेद है । (उन दोनों में से) जो विद्या से, श्रद्धा से, उपनिषद के उपदेश से कार्य करता है, उसका काम अधिक फलदायक होता है । उपर्युक्त सभी इस अक्षर ओम् की ही व्याख्या है ।
मुझे अर्थ इस प्रकार प्रतीत होते हैं – वेद को इस प्रकार प्रधानता से ओम् का व्याख्यान जानने वाले, और दूसरे जो वेद में सांसारिक ज्ञान पाते हैं – वे दोनों ही वेदों के ज्ञान का उपयोग करते हैं । परन्तु ये दोनों विद्याएं भिन्न है – ओम् का ज्ञान विद्या है, सांसारिक ज्ञान अविद्या है । (इसी बात को उपनिषत्कार सप्तम प्रपाठक में नारद और सनत्कुमार की आख्यायिका में बताते हैं, जहां पर वे कहते हैं कि वेदादि तो सब नाम हैं, परम पद तो भूमा (परमात्मा) है । और बिल्कुल यही बात मुण्डक में पाई जाती है, जहां अङ्गिरा ऋषि महाशाल शौनक को बताते है – तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्यौतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुण्डक० १।१।५॥ अर्थात् वेदादि सब निम्न विद्याएं हैं । जो उस अक्षर ओम् की प्राप्ति कराए, वही उच्च विद्या है । स्वयं वेद यही कहते हैं – अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा, विद्ययामृतमश्नुते ॥यजुः ४०।१४॥ इस प्रकार सर्वत्र एक ही बात दोहराई जा रही है ।) जो उस विद्या से, उसपर श्रद्धा करते हुए, परमात्मा के निकट आसन जमा कर अपना “काम निकालता” है (अपना लक्ष्य साधता है), उसी का प्रयास सबसे अधिक लाभ वाला होता है (सांसारिक ज्ञान भौतिक सुख अवश्य प्राप्त करा सकता है, परन्तु परम सुख मुक्ति नहीं )। क्योंकि यह त्रयी विद्या निश्चय से ही ओम् का ही व्याख्यान है ।
इस प्रकार अर्थ करने से पूरे खण्ड में एक प्रसंग बना रहता है, और एक गूढ़, सुन्दर अर्थ निकलता है । इस खण्ड में यज्ञ की चर्चा नहीं हो रही है, उसको इस प्रकरण में बलात् घुसाना मुझे सही प्रतीत नहीं हो रहा । इसी प्रकार ओम् का स्वीकृति देने में प्रयोग सही नहीं प्रतीत होता । सम्पूर्ण खण्ड का ही विषय वेदों का उद्गीथ का व्याख्यान होना है । इस छिपे अर्थ को जानकर मनुष्य मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकता है ।
अगली बार मैं प्रथम प्रपाठक के द्वितीय खण्ड के इसी प्रकार अति सुन्दर अर्थ बताऊंगी ।
[1] वास्तव में, अनुज्ञा का अर्थ ’अनुमति’ इससे ही निकलता है – किसी के कुछ जताने पर, उसको उसके अनन्तर जनाना कि वह उस इच्छा को पूर्ण कर सकता है