छान्दोग्योपनिषद् की देव-असुर कथा
छान्दोग्य के प्रथम प्रपाठक के द्वितीय खण्ड में देवों और असुरों के प्रसिद्ध युद्ध की कथा है । वस्तुतः यह हमारी सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों का ही अन्तर्द्वन्द्व है । आख्यायिका सुरुचिपूर्ण ढंग से परमात्मा-प्राप्ति का मार्ग बताती है ।
देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे उभये प्राजापत्यास्तद्ध देवा उद्गीथमाजह्रुरनेनैनानभिभविष्याम इति ॥ १।२।१ ॥
प्रसिद्ध है कि प्रजापति की सन्तान, देव और असुर, किसी काल में युद्ध करने लगे । इसलिए देव उद्गीथ को ले आए और सोचने लगे कि इससे हम असुरों को जीतेंगे । यह औपमिक वर्णन है, जहां प्रजापति जीवात्मा है, और देव और असुर क्रमशः इन्द्रियों की सात्त्विक और तामसिक प्रवृत्तियां हैं । सो, ओम् की उपासना से सात्त्विक प्रवृत्ति बढ़ेगी और दुष्प्रवृत्तियों का नाश होगा, ऐसा जीवात्मा ने सोचा ।
ते ह नासिक्यं प्राणमुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे । तं हासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात् तेनोभयं जिघ्रति सुरभि च दुर्गन्धि च पाप्मना ह्येष विद्धः ॥ १।२।२ ॥
उन देवों ने नासिका में स्थित प्राण को उद्गीथ मानकर उपासना की, अर्थात् नासिका में स्थित प्राण पर ध्यान लगाया । परन्तु असुरों ने उस प्राण को पाप से बीन्ध दिया । इसलिए वह सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों ही सूंघता है । पाप से वह विद्ध है । अर्थात् आरम्भ में हमें नासिका स्थित प्राणों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । परन्तु इससे हम कुछ ही दूर जा पायेंगे क्योंकि कभी सुगन्ध हमें विह्वल करेगी और कभी दुर्गन्ध । इसलिए यह उपासना ब्रह्म को पाने के लिए पूर्ण नहीं है ।
इसी प्रकार अगले प्रवाक में वाणी को अनुपयुक्त बताया गया क्योंकि वह सच भी बोलती है और झूठ भी । किसी मन्त्र का जप करके यदि हम उपासना करेंगे, तो कभी हम उसके अर्थ पर विचार करेंगे (सत्य बोलेंगे) और कभी नहीं (मन में कुछ और होठों से कुछ बोलेंगे) । इसलिए यह उपासना भी बहुत दूर नहीं ले जाती है ।
फिर नेत्र से उपासना बताई गई, जहां किसी वस्तु को हम देखकर ध्यान लगाएं । परन्तु आँख कभी दर्शनीय और कभी अदर्शनीय वस्तु देखती है । अर्थात् हम कभी केन्द्रित वस्तु पर ध्यान रखते हैं, और कभी हमारा ध्यान उस वस्तु से हट जाता है । इसलिए यह भी अपूर्ण है ।
इसी प्रकार श्रोत्र श्रवणीय और अश्रवणीय दोनों को सुनता है । अर्थात् हम यदि किसी शब्द पर ध्यान लगायेंगे तो कभी उसको सुनेंगे और बीच में कोई दूसरा शब्द आ गया तो उससे हमारा ध्यान टूट जायेगा ।
फिर मन को उपासनीय बनाया । तो मन वह भी सोचता है जो सोचने योग्य है और जो सोचने योग्य नहीं है । मन की चञ्चलता के कारण उसको वश में रखना अतीव कठिन होता है ।
अथ ह य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे । तं हासुराः ऋत्वा विदध्वंसुर्यथाश्मानमाखणमृत्वा विध्वंसेत् ॥१।२।७॥
अन्त में, जो यह मुख्य प्राण है (मुख में स्थित अथवा प्रधान श्वास-निःश्वास), उसकी उन्होंने उपासना की । उस तक असुर पहुंच कर ध्वंस हो गए, जिस प्रकार कठिन पत्थर पर कोई अन्य वस्तु प्रहार करे तो वही ध्वंस हो जाती है ।
अर्थात् जब हम अपनी श्वास-निःश्वास पर ध्यान लगाते हैं, तो कोई भी वस्तु हमारा ध्यान डिगा नहीं सकती । प्राण धीरे-धीरे स्वयं हल्के हो जाते हैं, और ध्यान और भी गाढ़ा हो जाता है । सारी मनोवृत्तियां रुक जाती हैं, और परमात्मा का सान्निध्य होने लगता है ।
एवं यथाश्मानमृत्वा विध्वंसत एवं हैव स विध्वंसते । य एवंविदि पापं कामयते । यश्चैनमभिदासति स एषोऽश्माखणः ॥१।२।८॥
इसी प्रकार, जो भी इस उपर्युक्त रहस्य को जानने वाले के लिए किसी पाप की कामना करता है और उसको दबाता है, तो वह वैसे ही विध्वंस हो जाता है जैसे कठिन पत्थर को चोट मारने पर कोई वस्तु विध्वंस हो जाती है । वह यह (तत्त्वज्ञ) कठिन पत्थर (चट्टान) हो जाता है ।
उद्गीथ के तत्त्व, अर्थात् ब्रह्म, को जान लेने वाला सबसे ऊपर उठ जाता है । फिर कोई भी उसको हानि नहीं पहुंचा सकता ।
नैवेतेन सुरुभि न दुर्गन्धि विजानात्यपहतपाप्मा ह्येष तेन यदश्नाति यत्पिबति तेनेतरान् प्राणानवत्येतमु एवान्ततोऽवित्त्वोत्क्रामति व्याददात्येवान्तत इति ॥१।२।९॥
पापरहित इस (मुख्य प्राण) से (योगी) न सुगन्ध (और अन्य उपरिलिखित सभी पाप से अयुक्त विषयों) को जानता है, न दुर्गन्ध (और अन्य उपरिलिखित सभी पापयुक्त विषयों) को जानता है । इसकी सहायता से (योगी) जो भी खाता और पीता है, उसे वह (मुख्य प्राण) अन्य प्राणों (अपान, समान, व्यान व उदान) की रक्षा करता है । यदि (मनुष्य) उसको इस प्रकार न जानता हुआ शरीर से उत्क्रमण करता है (मरता है), तो अन्त में वह मुंह खोल देता है (प्राण जैसे उससे क्षुभित होकर उसका मुंह फाड़ कर निकल जाते हैं) । यह अन्तिम वाक्य प्रचलित अर्थ है । मेरे अनुसार यह न पूर्व के वाक्यों से और न आगे के वाक्यों से मेल खाता है । अर्थ इस प्रकार अधिक ठीक लगते हैं – इस (पूर्वकथित पापयुक्त अथवा अपापयुकत वृत्तियों) को न जानता हुआ, वह उनसे ऊपर उठ जाता है और अन्त में (प्राणों को भी वि+आ+ददाति=) छोड़ जाता है, मुक्ति प्राप्त कर लेता है । अर्थात् ’अवित्त्वा’ के अर्थ ’न विजानाति’ से जोड़ने चाहिए, न कि किसी अन्य अयोगी मनुष्य की चर्चा यहां लानी चाहिए ।
तं हाङ्गिरा उद्गीथमुपासाञ्चक्र एतमु एवाङ्गिरसं मन्यन्तेऽङ्गानां यद्रसः ॥१।२।१०॥
अङ्गिरा ऋषि ने उस मुख्य प्राण को उद्गीथ के रूप में उपासा । (योगी जन) उसको ही ’अङ्गिरस’ मानते हैं क्योंकि वह अङ्गों का रस है (उनका आधार है) । यहां ’अङ्गिरा’ को ऋषि न मानकर यदि हम यौगिक अर्थ लें – वह जिसने अङ्गों के आधार को जान लिया है, वह योगी – तो यह सभी उन योगियों के लिए सम्भव है जिन्होंने मुख्य प्राण को अङ्गिरा के रूप में उपासा ।
इसी प्रकार अगले प्रवाक में बताया गया है कि यह मुख्य प्राण ’बृहस्पति’ भी माना गया है क्योंकि बड़ी वाणी का यह पति है, वाणी उस पर आश्रित है । वाणी इसलिए बड़ी है क्योंकि ज्ञानार्जन के लिए यह अनिवार्य है । सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को वह प्राप्त है ।
अगले प्रवाक में मुख्य प्राण को ’आयास्य’ कहा गया है क्योंकि वह मुख से आता-जाता है ।
तेन तं वको दाल्भ्यो विदाञ्चकार । स ह नैमिषीयामुद्गाता बभूव । स ह स्मैभ्यः कामानागायति ॥१।२।१३॥
इस उपर्युक्त प्रकार से वक दाल्भ्य ऋषि ने उस उद्गीथ परमात्मा को जाना । वे नैमिषारण्य में रहने वाले अन्य ऋषियों के उद्गाता बन गए । वे उनकी कामनाओं को गाने लगे और उनको पूरा करने लगे ।
यहां ’उद्गाता’ का अर्थ यज्ञ में ऋग्वेद के मन्त्रों को बोलने वाला माना गया है, क्योंकि यह लौकिक अर्थ है । मेरे अनुसार ’उद्गीथ को कहने वाला इसलिए उद्गाता’ अर्थ यहां अधिक सम्यक् है । सो, परमात्मा को देख लेने के बाद, उन्होंने परमात्मा की ही सीख सबको दी । और ऋषियों की कामना क्या होती है ? केवल प्रभु को पाना । सो, उन्होंने प्रभु की स्तुतियां, उसको पाने का मार्ग बताया, और अन्यों को भी उसे प्राप्त कराया । यही अर्थ यहां सन्दर्भ से उपयुक्त है ।
आगाता ह वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्त इत्यध्यात्मम् ॥१।२।१४॥
जो इस प्रकार जानकर अक्षर उद्गीथ को उपासता है, वह कामों को प्राप्त कराने वाला हो जाता है (कामों की व्याख्या पूर्ववत्) । यह अध्यात्म विषय पूरा हुआ (परमात्मा को कैसे पाएं, यह ज्ञान पूरा हुआ) ।
इस खण्ड में यह तो बताया ही गया है कि कैसे मुख्य प्राण पर ध्यान लगाने से ही परमात्मा-प्राप्ति होती है, परन्तु, मेरे अनुसार, इतना लम्बी देवासुर की आख्यायिका देने का एक और भी प्रयोजन है । यहां ध्यान में मग्न होने का क्रम दिया गया है । ध्यानावस्थित होने के लिए, हमें पहले नासिका-स्थित प्राण पर ध्यान लगाना चाहिए । अर्थात् प्राणायाम करना चाहिए । कुछ समय बाद, हमें ओम् का जाप करना चाहिए । फिर बन्द चक्षु पर ध्यान करना चाहिए । फिर कानों में आती ध्वनियों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । इस सबसे हमारा मन शान्त हो जायेगा । अब इसी शान्त मन को हमें देखना चाहिए । फिर हमें हृदय-प्रदेश पर ध्यान लगाकर, मुख्य प्राण को आते-जाते देखना चाहिए । जबकि सुगन्धि-दुर्गन्धि, सुन्दर दृश्य-बुरे दृश्य, अच्छी धुन-बुरी ध्वनि से हमारे मन में अनुकूल-प्रतिकूल विचार उठते हैं, प्राण के विषय में हम कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं सोच सकते । इससे हमारा अन्तःकरण एकाग्र और निर्मल हो जाता है । यही इस खण्ड का उपदेश है ।
ऋषियों की ’कामनाओं’ को भी सही प्रकार से समझना चाहिए, क्योंकि यह वचन अनेकों बार उपनिषदों में आता है – ये कोई प्रजा-पशु की कामनाएं नहीं होती हैं । वे तो सब विरक्तात्माएं हैं जिन्होंने संसार का कारोबार बहुत पहले छोड़ दिया होता है । उनकी एक ही कामना बच रहती है – वह है परमात्मा का सान्निध्य । उस उद्गीथ के प्राप्त हो जाने पर उनकी खोज पूरी हो जाती है, उनकी अन्तिम इच्छा पूरी हो जाती है, उन्हें जैसे सारे सुख मिल जाते हैं । जहां-जहां उपनिषदों में आता है कि ईश्वर को पाने वाला प्रजावान्-पशुवान् हो जाता है, वहां ऐसा इसलिए नहीं लिखा होता है कि उन्हें वास्तव में ये सब प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु इसलिए कि जिससे हम उनके आनन्द को कुछ-कुछ समझ पाएं । हमारी बुद्धि में भौतिक सुख ही सुख होते हैं । परन्तु परमात्म-सुख तो अलौकिक है, उसे समझाना ही असम्भव है !
पहले खण्ड में ओम् को उद्गीथ बताया गया था, उसको वेदों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय बताया गया था । उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, इस खण्ड में उद्गीथ को उपासना के द्वारा प्राप्त करने के लिए एक आलंकारिक आख्यायिका के साथ समझाया गया है । यही इस खण्ड का आध्यात्मिक विषय है ।