चार सींग वाला बैल
वेदों में एक विचित्र मन्त्र पाया जाता है जो एक अद्भुत बैल का वर्णन करता है । यह मन्त्र ऋग्वेद और यजुर्वेद में प्राप्त होता है । इससे इस मन्त्र का महत्त्व ज्ञात होता है । इस मन्त्र के इतने अर्थ पाए जाते हैं जितने कि कम ही मन्त्रों के पाए जाते हों ! इसलिए यह मन्त्र पर्याप्त प्रसिद्ध भी है । इस विशेष मन्त्र और उसके कुछ अर्थ मैं इस लेख में प्रदर्शित कर रही हूं । यही नहीं, इस मन्त्र से सम्बद्ध कुछ रोचक अंशों को भी निरूपित करूंगी ।
यह मन्त्र इस प्रकार है –
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आ विवेश ॥ ऋक्०४।५८।३, यजु०१७।९१॥
ऋग्वेद में – ऋषिः – वामदेवः, देवताः – अग्निः सूर्यो वापो वा गावो वा घृतं वा, छन्दः – भुरिक् पङ्क्तिः, स्वरः – पञ्चमः
यजुर्वेद में – ऋषिः – वामदेवः, देवता – यज्ञपुरुषः, छन्दः – विराडार्षी त्रिष्टुप्, स्वरः – धैवतः
प्रथम तो हम यहां पाते हैं कि, जबकि दोनों स्थानों में ऋषि एक ही है, तथापि, अन्य तीनों अंशों में भेद है । इससे दोनों स्थलों में अर्थभेद प्राप्त होता है । ऋषि ‘वामदेव’ का अर्थ है ‘सुरूपयुक्त विद्वान्’, जो कि अर्थ हमें ऋग्वेद ४।१६।१८ मन्त्र की महर्षि दयानन्द की व्याख्या से प्राप्त होता है । यह अर्थ कैसे घटता है, वह आगे देखेंगे । दूसरे, ऋग्वेद में जो देवताओं की बहुलता है, वह मन्त्र के अनेक अर्थों को ज्ञापित करती है । इन सभी अर्थों पर तो व्याख्याएं मुझे प्राप्त नहीं हुईं, तथापि अधिकतर अर्थों की हुईं । तीसरे, स्पष्टतः, यहां किसी जीवन्त बैल की चर्चा नहीं हो रही, परन्तु रूपक अलंकार द्वारा किसी अन्य वस्तु (‘महान् देव’ नामक उपमेय) की बात हो रही है । वे वस्तुएं अनेक हैं, जिसके कारण विभिन्न अर्थ प्रतिपादित हुए हैं ।
इन अर्थों के दो मुख्य स्रोत हैं – यास्कीय निरुक्त व पातञ्जल महाभाष्य । महर्षि दयानन्द सरस्वती ने दोनों स्थलों पर जो अर्थ दिए हैं, वे इन्हीं पर आधारित हैं । इसलिए पहले इनको देखेंगे, परन्तु सर्वप्रथम शाब्दिक अर्थ देख लेते हैं ।
शाब्दिक अर्थ
एक महान् कान्तिमान बैल, जिसके चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ हैं, और जो तीन प्रकार से बद्ध है, वह उच्च स्वर में चिल्लाता है और मरणधर्मियों में सब ओर से प्रवेश करता है ।
अब देखते हैं निरुक्त में दिए अर्थ ।
यास्कीय निरुक्त में दिए अर्थ
निरुक्त में ऋग्वैदिक मन्त्र की व्याख्या इस प्रकार है – चत्वारि शृङ्गेति वेदा वा एत उक्तास्त्रयो अस्य पादा इति सवनानि त्रीणि, द्वे शीर्षे प्रायणीयोदयनीये, सप्त हस्तासः सप्त छन्दांसि, त्रिधा बद्धस्त्रेधा बद्धो मन्त्रब्राह्मणकल्पैर्वृषभो रोरवीति । रोरवणमस्य सवनक्रमेण ऋग्भिर्यजुर्भिः सामभिर्यदेनमृग्भिः शंसन्ति यजुर्भिर्यजन्ति सामभिः स्तुवन्ति । महो देव इत्येष हि महान् देवो यद्यज्ञो मर्त्याँ आ विवेशेत्येष हि मनुष्यानाविशति यजनाय ॥निरुक्तम् अ०१३, ख०७॥
यास्क बताते हैं कि यहां वृषभ अग्निहोत्र-रूपी वह महान् यज्ञ है जिसका मनुष्यों को अनुष्ठान करना चाहिए, जिसके द्वारा (देवः=) ज्ञान व सुख का प्रकाश फैलता है । यह यज्ञ कैसा हो ? इस विषय में कहते हैं – चार वेद उसके सींग हों (जो इसकी रक्षा करते हैं), तीन सवन उसके पाद हों (जिन तीन कालों में उसका अनुष्ठान होना चाहिए), दो सिर प्रायणीय व उदयनीय (अस्त व उदय) काल हों (वे दो काल ही उसके आयोजन के लिए श्रेष्ठतम हैं), गायत्र्यादि सात छन्द उसके सात हाथों के समान हों (जो वेदमन्त्रों को ग्रहण करते हैं), तीन प्रकार के बन्धन मन्त्र, ब्राह्मण व कल्प हों (याज्ञिक क्रियाएं इनके निर्देशानुसार हों) । रोरवण का अर्थ है : प्रातः, मध्यन्दिन व सायं सवन के क्रम से ऋक्, यजु व साम के द्वारा यज्ञ का करना, जहां ऋक् से शंसा, यजुः से यजन और साम से स्तवन करने का शब्द किया जाए । यह महान् देव मनुष्यों को प्राप्त होता है (जिससे कि वे सुखों को प्राप्त कर सकें) । यहां यास्क ने ‘मर्त्यान्’ से केवल मनुष्यों का ग्रहण किया है, अन्य प्राणियों का नहीं, क्योंकि मनुष्य ही अग्निहोत्र करने में समर्थ हैं । परन्तु यही नहीं, वेद-मन्त्र आदेश दे रहा है कि मनुष्यों को इस ‘वृषभ’ = सुखों के वर्षक का अवश्य ग्रहण करना चाहिए । पुनः, यहां यज्ञ का विषय लिए जाने से, हमें इस व्याख्या का ग्रहण यजुर्वेद के मन्त्र के लिए करना चाहिए, क्योंकि यजुर्वैदिक मन्त्र की देवता ‘यज्ञपुरुष’ है ।
निरुक्त के उपर्युक्त वाक्य की व्याख्या में श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार पालीरत्न जी ने एक अन्य व्याख्या दी है – इस यज्ञ-रूपी ब्रह्म के चार सींग चार वेद हैं, इसके तीन पैर तीन लोक हैं, सृष्टि व प्रलय इसके दो सिर हैं, और इसके गायत्री आदि सात छन्द सात हाथ हैं । यह सुखवर्षक यज्ञ-ब्रह्म ऋक्, यजु व साम, अर्थात् स्तुति, प्रार्थना व उपासना – इन तीन प्रकारों से बन्धा हुआ है (इन द्वारा मनुष्य उसको ‘बान्ध’ सकता है – प्राप्त कर सकता है) । वह ब्रह्म तीनों लोकों में गर्जना करता है , तथा वह महान् देव संगति के लिए मनुष्यों में प्रवेश करता है ।
अब हम महाभाष्य में दिए अर्थ को देखते हैं ।
पातञ्जल महाभाष्य में दिए अर्थ
पतञ्जलि मुनि ने भी ऋग्वैदिक मन्त्र का ग्रहण करते हुए, उसकी संस्कृतभाषापरक व्याख्या की है – चत्वारि शृङ्गाणि । चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च ॥ त्रयो अस्य पादाः । त्रयः काला भूतभविष्यद्वर्तमानाः ॥ द्वे शीर्षे । द्वौ शब्दात्मानो नित्यः कार्यश्च ॥ सप्त हस्तासो अस्य । सप्त विभक्तयः ॥ त्रिधा बद्धः । त्रिषु स्थानेषु बद्ध उरसि कण्ठे शिरसि च ॥ वृषभो वर्षणात् ॥ रोरवीति शब्दं करोति । कुत एतत् ? रौति शब्दकर्मा ॥ महो देवो मर्त्याँ आ विवेशेति । महान् देवः शब्दः । मर्त्या मरणधर्माणो मनुष्यास्तानाविवेश । महता देवेन नः साम्यं यथा स्यादित्यध्येयं व्याकरणम् ॥महाभाष्यम् अ०१।पा०१।आ०१॥
पतञ्जलि ने इस बैल को संस्कृत भाषा के रूप में देखा जिसके चार सींग चार प्रकार के पद – नाम (संज्ञा), आख्यात (क्रिया), उपसर्ग व निपात जैसे उसकी रक्षा करते हैं । उसके तीन पाद भूत, भविष्यत् व वर्तमान में उसको स्थित करते हैं । दो सिर उसकी जैसे दो आत्माएं हैं – नित्य और कार्य शब्द । उसके सात हाथ सात विभक्तियां हैं जो उसे अर्थ ग्रहण करना रही हैं (विभक्तियां केवल नामपदों के लिए कही गई हैं, परन्तु उपलक्षण से क्रियापदों के लकार और उपसर्ग व निपात के अव्ययीभाव का भी यहां ग्रहण कर लेना चाहिए) । तीन प्रकार से जो वह बद्ध कहा गया है, वे शब्दोच्चारण के स्थान हैं – छाती, कण्ठ व सिर । मनुष्य के शरीर में इन स्थानों से ही शब्द का उच्चारण होता है, जैसे वह इन स्थानों से बन्धा हो । वृषभ इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह (ज्ञान, और उससे सुख की) वर्षा करता है । चिल्लाना इसलिए क्योंकि शब्द ध्वन्यात्मक है । यह महान प्रकाशक देव मरणधर्मा मनुष्यों में प्रवेश करता है । जिससे हमारा इस महान् देव से साम्य हो, इसलिए व्याकरण पढ़ना चाहिए ।
कितनी सुन्दर उपमा है यह ! पुनः, पतञ्जलि ‘मर्त्यान्’ पद से केवल मनुष्यों का ग्रहण करते हैं, क्योंकि मनुष्य ही ऐसी ‘वृषभ भाषा’ बोल सकते हैं ! देवता के विषय में चिन्तन करें तो ‘भाषा’ जैसी कोई देवता तो नहीं मिलती, परन्तु ‘गौः’ (बहुवचन में ‘गावः’) मिलती है, जिसका अर्थ वाणी भी है (गौ इति वाङ्नामानि (निघण्टुः १।११)) । इसलिए यहां ऋग्वैदिक मन्त्र का ग्रहण उपयुक्त है ।
महर्षिदयानन्दकृत अर्थ
ऋग्वेद में भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द ने इस वृषभ को जगत्-रूपी यज्ञ मानते हुए बहुत ही व्यापक अर्थ किए हैं । उन्होंने चार सींगों में, उपर्युक्त दो अर्थों के साथ-साथ, विश्व-तैजस-प्राज्ञ-तुरीय नामक परमात्मा के चार स्वरूप जो सब प्रकार से जगत् की रक्षा करते हैं; धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ जो उसकी दुःखों से रक्षा करते हैं; और ‘इत्यादि’ शब्द द्वारा उन्होंने अन्य रक्षात्मक वस्तुओं का भी ग्रहण किया है । तीन पादों से उन्होंने कर्म-उपासना-ज्ञान, मन-वाक्-शरीर, इत्यादि प्राणियों के जीवन में स्थिरता देने वालों को गिना । दो सिरों से उन्होंने व्यवहार-परमार्थ, अध्यापक-उपदेशक, इत्यादि, जगत् की ‘आत्माओं’ – उसके लक्ष्यों, उसके साधनों की बुद्धि – को गिना । सात हाथों से उन्होंने सात प्राण, पञ्च कर्मेन्द्रिय-शरीर-आत्मा, आदि का ग्रहण किया, जो प्राणी को जीवन ग्रहण करवाते हैं । तीन प्रकार के बन्धनों में उन्होंने श्रवण-मनन-निदिध्यासन, ब्रह्मचर्य-सुकर्म-सुविचार को गिना, जो जीवन को नियन्त्रित करते हैं । ‘देव’ का अर्थ उन्होंने सत्कार-योग्य भी किया । इस प्रकार महर्षि ने तो जैसे पूरा वैदिक चिन्तन और आदर्श इस मन्त्र में समेट दिए !
पूर्वमीमांसा के उदयवीरजी के भाष्य में उपलब्ध अर्थ
इन व्याख्याओं को छोड़, मुझे उदयवीर जी की बड़ी सुन्दर व्याख्या पूर्वमीमांसा (१।२।४६ सूत्र) में प्राप्त हुई, जिसे उन्होंने रामेश्वर सूरि विरचित ‘सुबोधिनी’ टीका से अनुप्राणित बताया है । वृषभ को ‘सूर्य’ का रूपक दर्शाते हुए, उन्होंने बताया कि सूर्य के चार शृंग दिन के चार प्रहर हैं, तीन पैर शीत, ग्रीष्म व वर्षा तीन प्रधान ऋतुएं हैं, दो सिर दक्षिणायन व उत्तरायण हैं, सात हाथ सप्त प्रकार की रश्मियां हैं, तीन बन्धन वही तीन सवन – प्रातः, मध्यन्दिन, सायं – हैं, वर्षा का हेतु होने से वृषभ, बिजली की गड़गड़ाहट से शब्द करने वाला, महान् प्राकृतिक देव है, जो कि जीवन का आधार होते हुए सब प्राणियों में प्रविष्ट है ।
सूर्य का प्रतीक पृथिवी पर ‘अग्नि’ मानकर इस मन्त्र को यज्ञाग्नि पर भी घटाया है । वहां चार सींग चार ऋत्विक् हैं – ब्रह्मा, उद्गाता, अध्वर्यु, होता । तीन पैर तीन सवन हैं । यजमाना और यजमान दो सिर हैं । सात हाथ सात छन्द हैं । तीन बन्धन ऋक, यजुः व साम हैं, जहां ऋक् पद्यरूप मन्त्र हैं, यजुः गद्यात्मक मन्त्र हैं, साम गीतियुक्त मन्त्र हैं । यज्ञ भी वर्षा का कारण होता है – जलों की अथवा सुखों की, इसलिए वह वृषभ हुआ । मन्त्रोच्चारण रूप में वह शब्द करता है, व प्रज्वलित होने से देव है । मानवों के द्वारा करणीय होने से उनमें आविष्ट है ।
इन सब अर्थों को मिलाकर, मन्त्र-देवता ‘सूर्यः, अग्निः, गावः, यज्ञपुरुषः’ से सम्बद्ध अर्थ तो हमें मिल गए, बचे ‘आपः’ और ‘घृतम्’ । ‘घृतं’ का एक अर्थ उदक भी होता है, परन्तु वह लेने से ‘आपः’ की पुनरुक्ति हो जाएगी; इसलिए यहां ‘घी’ अथवा अन्य कोई अर्थ लेना चाहिए । इन दो विषयों से सम्बद्ध अर्थ मुझे प्राप्त नहीं हुए ।
ऋषि ‘वामदेव’ पर चिन्तन करते हुए, मुझे प्रतीत होता है कि विद्वान् का सुरूप तो उसका ज्ञान और उसके कर्म ही होते हैं । सो, जो यहां भाषाज्ञान व यज्ञपरक अर्थ हैं, वे विद्वान को ‘सुरूप’ बनाने के लिए हैं । अन्य जो सूर्यपरक व्याख्या है, और जो जल- व घृत-परक व्याख्याएं हों, वे विद्वान् के ज्ञान का परिवर्धन करने के लिए होंगी । इसलिए वे भी ‘वामदेव’ विषय के अन्तर्गत आ जाते हैं ।
छन्द व स्वर से उत्पन्न अर्थभेद मुझे स्पष्ट नहीं है ।
पूर्वमीमांसा की व्याख्या में इस मन्त्र को ‘अविद्यमान पदार्थ’ के उदाहरण के रूप मे उद्धृत किया गया है, जिस कारण से पूर्वपक्षी मन्त्रों में दोष प्रकट करता है । महर्षि जैमिनि उत्तर देते हैं – “अभिदानेऽर्थवादः (१।२।४६)” – अर्थात् ऐसा कथन होने पर, इसे अर्थवाद = औपचारिक या आलंकारिक वर्णन मानना चाहिए । जिस प्रकार हमने यहां रूपक अलंकार पाया, इसी प्रकार ऐसे मन्त्रों में वस्तुतत्त्व को ढाक कर विवरण किया जाता है । इस प्रकार इस मन्त्र द्वारा वेदों की विवक्षा-पद्धति पर भी प्रकाश डाला गया है ।
‘चत्वारि शृङ्गाः’ मन्त्र सुन्दर उपमा का एक ज्वलन्त उदाहरण है । इतने विचित्र रूप में इतने अर्थ समा सकते हैं, यह समझना ही कठिन है ! ऊपर हमने छः अर्थ देखे । अन्य अर्थों को प्रकाशित करना अभी शेष है । आशा है कोई वैदिक विद्वान् शीघ्र ही उन अर्थों को भी सामने लाएंगे !