यज्ञ केवल रूपक हैं या कुछ और भी?

पूज्य पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक आर्य समाज के मूर्धन्य विद्वानों में से एक रहे हैं, और सदैव रहेंगे । उनकी कृतियों की गहनता व प्रामाणिकता आर्यसमाजी ही नहीं, अपितु सभी मान्यताओं के अध्येता मानते हैं । इसलिए जब पिछले दिनों मैंने उनकी पुस्तक ‘श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय’ का स्वाध्याय करते समय उनका यज्ञों के विषय में मत यह पाया कि सभी अग्निहोत्र केवल सृष्टि के क्रिया-कलापों के रूपक हैं और द्रव्ययज्ञ वस्तुतः वेदों में वर्णित नहीं हैं, तो मुझे बहुत झटका लगा । स्वामी दयानन्द ने तो यज्ञों को पर्यावरण का शोधक बताया है और उनको न करना पाप घोषित किया है, तो युधिष्ठिर जी यहां क्या कह रहे हैं, उनका यह मत क्यों बना – यह जानने की मैंने चेष्टा की । इसी अनुसन्धान का संक्षिप्त वर्णन मैं नीचे दे रही हूं ।

पहले हम महर्षि दयानन्द सरस्वती का इस विषय पर मन्तव्य देखते हैं । सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में वे होम की अनिवार्यता का कथन प्रश्नोत्तर रूप में इस प्रकार करते हैं –

प्रश्न : होम से क्या उपकार होता है?

उत्तर : सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख, और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य, और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है ।

प्रश्न : चन्दनादि घिसके किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो । अग्नि में डालकर व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं ।

उत्तर : जो तुम पदार्थविद्या जानते, तो कभी ऐसी बात न कहते, क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता । देखो, जहां होम होता है, वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी । इतने ही से समझलो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होके, फैलके वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है ।

प्रश्न : जब ऐसा ही है, तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर, आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा ।

उत्तर : उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकालकर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक शक्ति नहीं है । और अग्नि का ही सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके, बाहर निकालकर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है ।

प्रश्न : तो मन्त्र पढ़के होम करने का क्या प्रयोजन है ?

उत्तर : मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जाएं, और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें । वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे ।

प्रश्न : क्या इस होम करने के बिना पाप होता है ?

उत्तर : हां, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से दुर्गन्ध उत्पन्न होके, वायु और जल को बिगाड़कर, रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से, प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है । इसलिए उस पाप के निवारणार्थ, उतना सुगन्ध या उससे अधिक वायु और जल में फैलाना चाहिए । और खिलाने-पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख-विशेष होता है । जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है, उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है । परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि पदार्थ न खावें, तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके । इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना भी चाहिए । परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है, इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है ।                                                                                     (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास)

जबकि उपर्युक्त उद्धरण थोड़ा लम्बा है, और बहुतों को यह ज्ञात भी होगा, तथापि प्रकृत विषय को समझने के लिए इस सम्पूर्ण प्रकरण का पुनः स्मरण बहुत आवश्यक है । यहां स्वामी जी की वैज्ञानिक सूक्ष्म बुद्धि पर तो अचम्भा होता ही है, परन्तु उनके स्पष्ट कथन से विषय में कोई संशय नहीं रह जाता !

इसके विपरीत,‘श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय’ पुस्तक में युधिष्ठिर मीमांसक जी लिखते हैं – “… जितने भी अग्न्याधान से लेकर सहस्रसंवत्सरसाध्य पर्यन्त श्रौतयज्ञ हैं, वे जो इस ब्रह्माण्ड में पृथिवी की रचना से लेकर प्रलयपर्यन्त दैव या आसुर यज्ञ हैं, उनका प्रत्यक्ष बोध कराने के लिए ऋषि-मुनियों द्वारा कल्पित किए गए हैं । वेद में साक्षात् उक्त यज्ञ आधिदैविक हैं, द्रव्य-यज्ञों का साक्षात् विधान वेद में नहीं है । वेदोक्त आधिदैविक यज्ञों का ज्ञान कराने के लिए, उनके अनुसार जिन द्रव्यमय यज्ञों की कल्पना ऋषि-मुनियों ने की, उनमें यथावत् साम्य होने से, आधिदैविक यज्ञों के विधायक मन्त्रों का ही द्रव्यमय यज्ञों में यथावत् विनियोग किया गया ।” – अग्न्याधान अध्याय, श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय । आगे वे ब्राह्मणों में निर्दिष्ट वेदिनिर्माण की प्रक्रियाओं का पृथिवी की सृष्टि से साम्य दर्शाते हैं । आधुनिक विज्ञान के अनुसार, इस वर्णन में कुछ त्रुटियां हैं । वेद व ब्राह्मण वचनों से वे यह साम्य स्थापित करते हैं, जैसे कि – इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्याः (यजुर्वेदः २३।६२) – यह वेदि पृथिवी के पर भाग के अन्त का रूपक है । वैदिक वस्तुओं के आध्यात्मिक अर्थ भी वे प्रदर्शित करते हैं, जैसे गार्हपत्य अग्नि का वीर्याग्नि से साम्य । इसमें भी कई अवैज्ञानिक अंश हैं ।

इसी स्थान पर उन्होंने वैदिक सिद्धान्त मीमांसा में अपने विचारों का और अधिक विवरण देने की बात कही है, सो मैंने उस पुस्तक में भी उनका पूरा लेख पढ़ा । लेख है ‘श्रौतयज्ञों की मीमांसा’ और उसमें उन्होंने श्रौतयज्ञ रूपी द्रव्ययज्ञों को वेदप्रमाणित दर्शाया है, हवि, घृतादि, द्रव्यों का निरूपण किया है, उसके प्रमाण में अनेकों वेदमन्त्रों को उद्धृत किया है । परन्तु अन्त में वे अपने ही मत को पूर्णतया उलटते हुए कोष्ठकों में एक अनुच्छेद जोड़ते हैं – “यह लेख मैंने सन् १९३५ के मध्य में ‘दिवाकर’ नामक मासिक पत्रिका के वेदांक (अक्टूबर, १९३५) के लिए लिखा था ।[1] उस समय तक मैं ब्राह्मणग्रन्थों, श्रौतसूत्र एवं मीमांसा में प्रतिपादित द्रव्यमय श्रौतयज्ञों को आध्यात्मिक और आधिदैविक जगत् का रूपक मानते हुए भी, इन्हीं श्रौतयज्ञों का प्रतिपादन ही वेद में भी मानता था । परन्तु आगे वैदिक वाङमय के बार-बार अनुशीलन से मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि वेदमन्त्रों में प्रतिपादित यज्ञ ‘सृष्टि-यज्ञ’ ही हैं । उन्ही का निदर्शन कराने के लिए ब्राह्मणादिग्रन्थोक्त श्रौतयज्ञों का ऋषियों ने प्रतिपादन किया है । अर्थात् द्रव्यमय श्रौतयज्ञ सृष्टियज्ञ के रूपक अथवा व्याख्यान हैं ।”

अब पण्डित जी का मतपरिवर्तन किन कारणों से हुआ, उनका जबकि कुछ संकेत हमें श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय पुस्तक में प्राप्त हो रहा है, तथापि वह पूर्णतया उनके पूर्व मत को खण्डित करने में असफल है । श्रौतयज्ञों की याज्ञिक प्रक्रियाएं अत्यन्त क्लिष्ट होती हैं, और ब्राह्मणादि ग्रन्थ स्वयं उनको सृष्टि की गतिविधियों का प्रतीकरूप में वर्णन करते हैं, जैसे सूर्य व  चन्द्र का आकाश में भ्रमण का प्रतीक, आदि । तथापि उनमें यज्ञों से पुण्य ग्रहण करने की वार्ता को भी, ब्राह्मग्रन्थों में ही नहीं, अपितु उपनिषद्, रामायण, महाभारत, आदि, में भी स्पष्टरूप से कहा गया है । यह पुण्य कैसे उत्पन्न होता है, उसको स्वामी दयानन्द ने उपर्युक्त संवाद में बताया – पर्यावरण के सुधार से, आसपास के सभी प्राणियों को रोगमुक्त करने से । तब इस विषय को युधिष्ठिर जी ने क्यों त्यागा, इस विषय पर सम्भवतः किसी ने भी आगे कार्य नहीं किया है । मैं तो उनके दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूं । मुझे यह सही नहीं लगता कि वर्षभर चलने वाले कई यज्ञ प्रतीक मात्र थे । प्रतीक मानने पर “स्वर्गकामो यजेत्, पुत्रकामो यजेत” आदि वचनों का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता ! पण्डित जी ने अपने लेख में स्वयं यज्ञ न करने से हानि बताने वाले अंश उद्धृत किए हैं, जैसे –

अयज्ञियो हतवर्चा भवति ॥अथर्ववेदः १२।२।३७॥ – अर्थात् होम न करने वाले की बुद्धि, शक्ति, तेज आदि वर्चस्व का नाश हो जाता है (वैसे यहां सन्दर्भ मृतक को जलाने वाली अग्नि का है और यह उद्धरण सही नहीं है) । इसमें कुछ भी आधिदैविक अंश नहीं है !

तस्य ब्राह्मणस्यानग्निकस्य नैव दैवं दद्यान्न पित्र्यं न चास्य स्वाध्यायाशिषो न यज्ञ आशिषः स्वर्गङ्गमा भवन्ति ॥गोपथब्राह्मणम्, पूर्वभागे प्रपाठकः २, कण्डिका २३ ॥ – अर्थात् जो ब्राह्मण होम नहीं करता, उसके दैव = पूर्वकृत (सु)कर्म व पित्र्य = पैतृक सम्पत्ति (उत्तम फल) नहीं देते, न उसे स्वाध्याय व यज्ञ से प्राप्त आशीर्वाद रूपी फल स्वर्ग पहुंचाने वाले होते हैं । यहां भी कोई आधिदैविक अंश नहीं है !

ये वचन भी तो वेद व ब्राह्मणग्रन्थ के हैं, तो इन्हें युधिष्ठिर जी ने कैसे नकार दिया, मेरी यह समझ के परे है…

अपनी ओर से मैं यज्ञों की सार्थकता को प्रमाणित करने वाले व उनसे पर्यावरण पर प्रभाव दर्शाने वाले कतिपय मन्त्रों को उद्धृत कर रही हूं । आशा है इनसे यज्ञों के केवल प्रतीकात्मक होने की सोच पर विराम लगेगा !

पृथिवि देवयजन्योषध्यास्ते मूलं मा हिँसिषं

व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः … ॥यजुर्वेदः १।२५॥

अर्थात् (महर्षि दयानन्द भाष्य से संक्षेपित) – हे (देव) सूर्यादि जगत् के प्रकाश करने तथा (सवितः) ऐश्वर्य देने वाले प्रभो ! (ते) आपकी कृपा से मैं (देवयजनि) विद्वानों के यज्ञ करने की स्थान (ते) यह जो (पृथिवी) भूमि है, और (ओषध्याः) जो यवादि ओषधियां हैं, उनके (मूलम्) वृद्धि करने वाले मूल (अर्थात् पृथिवी और यज्ञ) को (मा हिँसिषम्) नष्ट न करूं । और मैं (पृथिव्याम्) अनेक सुखों को देनी वाली भूमि पर (यः) जिस यज्ञ का अनुष्ठान करती हूं, वह (व्रजम्) जलवृष्टिकारक मेघ को (गच्छ) प्राप्त हो और (गोष्ठानम्) सूर्य की किरणों के प्रभाव से (वर्षतु) उन वृद्धिकारक याज्ञिक पदार्थों को वह बरसाए, और (ते) उस (द्यौः) सूर्य के प्रकाश को (बधान) बांध दे (उसके गुणों को पृथिवी पर ले आए) ।

यहां यज्ञ से प्राप्त विभिन्न लाभों को स्पष्टतः बताया गया है और आधिदैविक अंश यहां न्यून ही है । महर्षि भावार्थ में तात्पर्य को और भी स्पष्ट करते हैं – “ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान् मनुष्यों को पृथिवी का राज्य तथा उसी पृथिवी में तीन प्रकार के यज्ञों और ओषधियों, इनका नाश कभी न करना चाहिए । जो यज्ञ अग्नि में हवन किए पदार्थों का धूम मेघमण्डल को जाकर, शुद्धि के द्वारा, अत्यन्त सुख करने वाला होता है, इससे यह यज्ञ किसी पुरुष को कभी छोड़ने योग्य नहीं है ।”

इसी विषय पर एक और सुन्दर मन्त्र है –

स्वाहा यज्ञं मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात् ।

स्वाहा द्यावापृथिवीभ्याँ स्वाहा वातादारम्भे स्वाहा ॥यजुर्वेदः ४।६॥

अर्थात् (हे प्रभो ! आपकी आज्ञानुसार) मैं (यज्ञम्) यज्ञ को (मनसः) वेदप्रोक्त विज्ञान की पद्धति से व पूरे मनोयोग से (स्वाहा) कल्याण के लिए, (उरोः) विस्तृत (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष लोक, (द्यावापृथिवीभ्याम्) द्यौ व पृथिवी लोकों, व (वाताद्) वायु की (स्वाहा) शुद्धि व कल्याण के लिए (आरभे) आरम्भ करती हूं ।

यहां भी महर्षि का भावार्थ देखने योग्य है – “मनुष्यों के द्वारा जो वेद की रीति और मन-वचन-कर्म से अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ है, वह आकाश में रहने वाले वायु आदि पदार्थों को शुद्ध करके सुखी करता है ।” वस्तुतः, यज्ञ से सूर्य की शुद्धि नहीं होती, परन्तु उससे प्राप्त जो गुण हम तक पहुंचते हैं, उनका प्रभाव कल्याणकारी हो जाता है । अन्तरिक्ष, पृथिवी व वायु पर तो यज्ञ का सीधा प्रभाव होता ही है ।

अथर्ववेद का १९।५८ सूक्त यज्ञ का शरीर पर प्रभाव वर्णित करता है । मैं यहां उसका केवल प्रथम मन्त्र दे रही हूं –

घृतस्य जूतिः समना सदेवा संवत्सरं हविषा वर्धयन्ती ।

श्रोत्रं चक्षुः प्राणोऽच्छिन्नो नो अस्त्वच्छिन्ना वयमायुषो वर्चसः ॥अथर्ववेदः १९।५८।१॥

अर्थात् (समना) यज्ञविधि को जानते हुए, (सदेवा) यज्ञविदों के सम्बन्ध से, (संवत्सरम्) वर्षभर सम्पादित (हविषा) हवि के संग (घृतस्य) घृत (की आहुतियों) का (जूतिः) वेग (संवत्सरम्) वर्षभर (वर्धयन्ती) बढ़ता रहता है । इससे (नः) हमारी (श्रोत्रम्) श्रवणशक्ति, (चक्षुः) चक्षुःसामर्थ्य और (प्राणः) श्वास-प्रश्वास (अच्छिन्नः अस्तु) क्षीण नहीं होते, बने रहते हैं, और हम (आयुषः) आयु से व (वर्चसः) तेज से (अच्छिन्नाः) वियुक्त नहीं होते ।

इस प्रकार, यज्ञ से हमें सीधे-सीधे भी शरीर व इन्द्रियों की दृढ़ता प्राप्त होती है । मैंने कुछ लोगों से सुना है कि जब से वे नित्य दो बार हवन करने लगे, तब से उनका वैद्य के पास जाना बन्द हो गया, और इस प्रकार वे २५ वर्ष से निरोगी थे !

इन उद्धरणों से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि महर्षि दयानन्द ने क्यों यज्ञ पर इतना बल दिया है । प्राचीन भारत में जो रोगों का अत्यन्त अभाव था, विशेषकर जब हम भूगोल के अन्य समकालिक देशों से तुलना करते हैं, तो उसमें, योग और आयुर्वेद के साथ-साथ, यज्ञ को भी श्रेय देना पड़ेगा । इन कारणों से मुझे युधिष्ठिर जी का यज्ञों की केवल प्रतीकात्मकता होने का मन्तव्य हेय प्रतीत होता है । प्रतीकात्मकता तो है, परन्तु वह यज्ञों का एक बहुत छोटा अंश है, ऐसी मेरी मान्यता है । उसके भुला देने पर भी, यज्ञ की सार्थकता बनी रहती है और वह कर्तव्य कर्म बना रहता है ।


[1] यह टिप्पणी कब जोड़ी गई, प्रकृत पुस्तक कब छपी, इसका विवरण मुझे प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु ‘लेखकीय वक्तव्य’ में १९६५ तक का विवरण प्राप्त होता है, तो लेख से कुछ ३० वर्षोपरान्त यह लिखी गई है ।बहुत वर्ष पहले मैंने योगसिद्धियों की सत्यता पर अपने विचार प्रस्तुत किए थे । पतञ्जलि मुनि द्वारा निर्दिष्ट सिद्धियों के प्रमाण मैं वेदों में ढूढ़ती रहती हूं । ऋषि दयानन्द द्वारा की गई एक मन्त्र-व्याख्या में मुझे एक चमत्कारी सिद्धि का प्रमाण मिला । उसी को इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं ।