यमों का यथार्थ अनुपालन

कोई धार्मिक संस्था अपना भवन-निर्माण कर रही थी । उसको सर्वकार से चार मंजिल बनाने की अनुमति मिली । परन्तु उन्होंने म्युनिस्पैलिटी के कमिश्नर से भेंट करके उनसे दो और मंजिल बनाने की अनुमति मांगी । कमिश्नर ने कहा, “चिंता मत करो । बना लो । बाद में कभी उसको ’रैग्युलराइज’ कर दिया जाएगा ।” बस, उस संस्था ने प्रसन्नता से दो और मंजिल बना दीं । यह रैग्युलराइजेशन् वास्तव में गैर-कानूनी इमारतों को बड़ी सस्ती पैनल्टी से कानूनानुमोदित कर देता है । बिल्डर प्रायः इसका सहारा लेकर, अनुमोदित बिल्डिंग प्लैन से अधिक बनाकर, बाद में सब ठीक करवा लेते हैं । तो आप सोच रहे होंगे कि इसमें क्या बुराई है और मैं इसे अपने लेख में क्यों दे रही हूं । यह जानने के लिए आगे पढ़िए ।

अधिकतर जन जो स्वव्यवसाय चलाते हैं, ऐसी या समान परिस्थिति उनके सामने भी कई बार आती होगी । इसलिए उनको यह उपर्युक्त क्रियाकलाप सम्भवतः ठीक ही लगे । प्रायः, आयकर बचाने में भी हम अत्यधिक श्रम लगाते हैं, और किसी तरह थोड़ा-सा पैसा बचा लेने पर भी बहुत गर्व अनुभव करते हैं । कानून के अनुसार बचाया टैक्स तो ठीक है, परन्तु आय छुपाने आदि के प्रकार क्या ठीक हैं ? इसको समझने के लिए, एक बार फिर योगदर्शन वर्णित यमों और नियमों पर सरसरी दृष्टि दौड़ा लेते हैं –

यम

  • अहिंसा – किसी प्राणी से कभी वैर न रखना ।
  • सत्य – जो जैसा है, उसे वैसा ही मानना, बोलना और करना ।
  • अस्तेय – मन, वाणी या कर्म से स्वामी की आज्ञा के बिना वस्तु का उपयोग न करना ।
  • ब्रह्मचर्य – उपस्थेन्द्रिय का संयम करना ।
  • अपरिग्रह – भौतिक वस्तुओं का व्यर्थ संग्रह न करना ।

नियम

  • शौच – शरीर, मन व परिसर की शुद्धता ।
  • सन्तोष – जितना धर्म पालन करते हुए धन अर्जित किया हो, उससे प्रसन्न होना ।
  • तप – धर्म के निर्वहन में जो कष्ट या सुख आएं, उनको समान रूप से देखना और सहना ।
  • स्वाध्याय – ओम् का जप और मोक्षपरक ग्रन्थों का परिशीलन ।
  • ईश्वरप्रणिधान – जो भी मानसिक, वाचिक और शारीरिक कर्म करें, उसे ईश्वर को समर्पित करते जाएं, फल की कामना न करें ।

वास्तव में, यम धर्म के ही घटक हैं, जब कि नियम दैनिक व्यवहार से सम्बद्ध हैं । इनमें से कोई भी सर्वकार के कानून का पालन करना चाहिए, ऐसा नहीं कहता । सम्भवतः इसी लिए हम पाते भी हैं कि अधिकांश जन टैक्स न देने में अपनी बुद्धिमत्ता समझते हैं । तो क्या सर्वकार के कानून का पालन धर्म है या नहीं ? इस प्रश्न पर विचार ही हमें यहां करना है ।

अवश्य ही आपके मन में आ रहा होगा कि नेता-सम्प्रदाय इतना भ्रष्ट हैं, उनके कानूनों का क्या अर्थ है ?! हम उनके कानूनों को क्यों मानें ? सो, पहले तो सरकार हमारी है, चाहे वोट हमने किसी और को क्यों न दिया हो । फिर वो जो कानून बनाएं, वह प्रत्येक को अपने पर लागू होता हुआ देखना चाहिए, अन्यों पर नहीं । कभी-कभी हम सड़क पर उलटी दिशा में चलाते हैं, क्योंकि हमें लगता है सड़क का कानून कोई नियम नहीं है, वह केवल एक सुझाव है ! यदि किसी को कोई कठिनाई न हो रही हो, तो उसको तोड़ने में कोई आपत्ति नहीं है । जैसे अगर बत्ती लाल है, परन्तु दूसरी दिशा से कोई नहीं आ-जा रहा है, तो हम अपनी गाड़ी निकाल लेते हैं । ये करते-करते ही, पता नहीं कब हम गलती कर बैठते हैं – जो और लोग आजतक हमको बचाते आए थे, उनमें से एक हमें बचा नहीं पाता, और दुर्घटना हो जाती है । तब भी सम्भवतः हम अपनी गलती नहीं मानते । कुछ ऐसा ही है सर्वकार के कानूनों का उल्लंघन । और उनमें से मुख्य हैं, अर्थ-सम्बन्धी नियम, जो कि हमारी सारी भौतिक सम्पत्ति से सम्बद्ध हैं ।

देखिए मनु इस विषय में क्या कहते हैं –

सर्वषामेव  शौचानामर्थशौचं  परं  स्मृतम् ।

योऽर्थे  शुचिर्हि  स शुचिर्न  मृद्वारिशुचिः  शुचिः ॥ मनुस्मृतिः ५।१०६ ॥

अर्थात् सब शुद्धियों में अर्थ-सम्बन्धी शुद्धि ही सबसे बड़ी है । जो अर्थ में शुचि है, वही वास्तविक शुचि है, न कि मिट्टी या पानी से होने वाली शुद्धता ।

इसका अर्थ यह हुआ कि जो भी कर-सम्बन्धी, व्यापार-सम्बन्धी, भूमि-सम्बन्धी, अन्य सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिनियम होते हैं, वे सब अनुसरणीय होते हैं, उनका उल्लंघन अपराध होता है, अधर्म होता है । हम अपने संस्कारों से कई बार इतने बन्धे होते हैं कि हमें अपने व्यवहार में ये अशुद्धि प्रतीत ही नहीं होती । हवन करके, मूर्ति-पूजा का खण्डन करके ही हम अपने को स्वामी दयानन्द का उत्तराधिकारी समझने लगते हैं… वास्तविकता तो यह है कि हवन से शुद्धि या भजन से शुद्धि का कोई अर्थ नहीं रह जाता जब हम अर्थ में, दैनिक व्यवहार में शुचिता का पालन नहीं करते । हम फिर उस वेदान्ती या मूर्ति-पूजक से भी नीचे गिर जाते हैं, जो दैनिक या साप्ताहिक हवन नहीं करता, परन्तु अपने व्यवहार में अर्थ-शुद्धि का पालन करता है ।

यदि आपको अभी भी संशय है कि सर्वकारी कानूनों का पालन होना चाहिए या नहीं, तो आइए देखते हैं मनु महाराज इन कानूनों के पालन के विषय में क्या कहते हैं –

तस्माद्धर्मं  यमिष्टेषु  स  व्यवस्येन्नराधिपः ।

अनिष्टं  चाप्यनिष्टेषु  तं धर्मः  न विचालयेत् ॥ मनुस्मृतिः ७।१३ ॥

जिस धर्म = कानून को राजा पालनीय विषयों में निर्धारण करे, और अनिष्ट व्यवहारों में अनिष्ट निर्धारित करे, उस धर्म का कोई भी उल्लंघन न करे । अर्थात् जो सर्वकार करने को कहे, वह करना चाहिए, और जिसको वर्जित करे उसे नहीं करना चाहिए । ऐसा न करना अधर्म है ।

हमारे देश में यह सोच बन गई है कि किसी को कोई व्यापार करना है, तो थोड़ी हेरा-फेरी तो करनी ही पड़ती है । इस विषय में अपने अनुभव से एक कथा बताना चाहूंगी । वर्ष १९९१ में, विपरो नाम की संस्था, जो कि आजकल सुप्रसिद्ध है, उन दिनों इतनी बड़ी नहीं थी और सौफ्टवेयर-उत्पादन में अपने पैर जमाने का प्रयत्न कर रही थी । उसके संस्थापक, अज़ीम प्रेमजी, को उस समय एक मेन्फ्रेम क्म्प्यूटर खरीदने की आवश्यकता पड़ी । यह संगणक बहुत विशाल होता है, और उस समय उसका मूल्य ३.५ करोड़ रूपये था, जो कि उस समय में एक महान् धनराशि थी । संगणक अमरीका से खरीदा गया और, भारत आने पर, चैन्नई के बन्दरगाह पर सीमा शुल्क विभाग के द्वारा रोक लिया गया । उनको माल के मूल्य का कुछ प्रतिशत उत्कोच रूप में चाहिए था । प्रेमजी ने मना कर दिया । महीने निकल गए । उन्होंने कई बार अपनी मांग दोहराई । प्रेमजी भी सच के प्रेमी हैं । उन्होंने कहा, “आप रखे रहो । मैंने सारे कर जमा कर दिए हैं । मुझे आर्थिक हानि हो रही है । परन्तु मैं उत्कोच नहीं दूंगा ।” अन्त में, नौ महीनों तक परेशान करने के बाद, खीजकर, विभाग ने कम्प्यूटर छोड़ दिया । प्रेमजी को इसमें बहुत हानि का सामना करना पड़ा । सौफ्टवेयर की ग्राहक कम्पनियां इस बीच हताश होकर उनको छोड़ गईं, मुनाफे की तो बात ही क्या ! परन्तु प्रेमजी डिगे नहीं । इस कारण से, आज भी उनकी इतनी धाक है कि यदि वे कुछ कह देते हैं, तो सरकारें झुक जातीं हैं । सत्य का बल यही होता है !

जब हमारा ही आचरण शुद्ध नहीं होगा, तो हम अन्यों से क्या अपेक्षा रख सकते हैं ?! 

अधिनियमों का पालन न करने वालों के लिए मनु का बड़ा कठोर निर्देश है –

तस्यार्थे  सर्वभूतानां  गोप्तारं  धर्ममात्मजम् ।

ब्रह्मतेजोमयं  दण्डमसृजत्  पूर्वमीश्वरः ॥ मनु० ७।१४ ॥

उस धर्म का कोई उल्लंघन न कर सके, इसके लिए समाज-व्यवस्था के पूर्व ही ईश्वर ने सारे समाज-वासियों का रक्षक, कानून के साथ ही उत्पन्न, महान तेज से युक्त दण्ड को बनाया । अर्थात् कोई भी कानून निरर्थक है, यदि उसके साथ उसकी अवहेलना करने वाले का दण्ड भी निश्चित न हो । दोनों का चोली-दामन का संग है । ये कानून समाज की रक्षा के लिए होते हैं, क्योंकि अराजकता में जंगल-राज ही फैलता है, और गुण्डों का साम्राज्य होता है । हमारा प्रत्येक गैर-कानूनी कृत्य हमें सरकारी या अन्य गुण्डों के हाथ की कठपुतली बनाता है, और समाज की अराजकता में सहयोग देता है । दूसरी ओर, प्रेमजी जैसे लोग, अपने को ही शुद्ध नहीं करते, अपितु समाज को शुद्ध करने में भी अपना योगदान देते हैं । 

इतिहास की ओर यदि दृष्टि दौड़ाएं, तो पाएंगे कि भारत में सबसे अधिक सम्पन्न और सुव्यवस्थित समाज हुआ करता था, जबकि शेष विश्व में, जिसके पास बाहुबल होता था, उसके पास सब कुछ होता था और उसकी प्रजा प्रायः दुःखी रहती थी । भारत में इस सुव्यवस्था का कारण वेदोपदिष्ट समाज और मनूपदिष्ट नियम और दण्ड-व्यवस्था थी । मनु कहते हैं –

दण्डः  शास्ति  प्रजाः  सर्वा  दण्ड  एवाभिरक्षति ।

दण्डः  सुप्तेषु  जागर्ति  दण्डं  धर्मं  विदुर्बुधाः ॥ मनु० ७।१८॥

दण्ड ही समाज को अनुशासन में रखता है । बदले में, दण्ड ही सबकी रक्षा करता है । सोते हुओं में दण्ड ही जागता है, अर्थात् प्रजा भी तभी चैन से सो सकती है, जब दण्ड-व्यवस्था उस समय भी चौकन्नी रहे । ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते हैं । अर्थात् कानून का रखवाला दण्ड प्रजाओं की रक्षा के लिए इतना आवश्यक है कि उसके न होने का अर्थ है कि राज्य में अधर्म अवश्य ही फैलेगा, सब जन अपराध करने में स्वछन्द होंगे, समाज में किसी भी प्रकार का व्यवसाय पनप नहीं सकेगा । इतनी गहरी सोच भारत में ही पाई जाती है, और सहस्रों वर्ष पूर्व से ! यह आज की विडम्बना है कि कानून के रखवाले ही कानून को तोड़ने की सलाह देते हैं ! तथापि हम उनके विषय में चर्चा न करके कानून तोड़ने वालों के बारे में ही विचार करते हैं ।

ऊपर दी घटना का विश्लेषण करते हैं कि उस कृत्य से क्या अधर्म किया गया । जब हम भवन-निर्माण अधिनियम का पालन नहीं करते हैं, तो वह कानूनन तो अपराध हो ही जाता है, और समाज में अव्यवस्था का कारण बनता ही है, परन्तु उसके और भी आयाम होते हैं । हम सत्य का उल्लंघन करते हैं, क्योंकि हमने जो भवन के चित्र अनुमोदित करवाए थे, वे झूठे हो गए । हम चोरी भी करते हैं क्योंकि जिसकी आज्ञा हमने प्राप्त नहीं की, उसे हम प्राप्त करते हैं । हम परिग्रह = लोभवश अधिक भूमि/स्थान हथियाते है । यह तो यमों का अपालन हुआ । नियमों में, हम अर्थ-शौच का आचरण नहीं करते । नियमपूर्वक जो हमें प्राप्त था, उससे सन्तुष्ट नहीं होते । अधिक जगह न मिलने के कारण, जो कठिनाइयां हमें सहन करनी पड़ती, उस तप को करने में हम असफल होते हैं । ईश्वर को हम ऐसा अपना कृत्य क्या समर्पित करेंगे, जिसे हमें सर्वकार से ही छिपाना पड़ रहा है ?! इस प्रकार, इस एक कृत्य से, केवल कानून ही नहीं, प्रायः सभी यम-नियमों का भी हम उल्लंघन कर जाते हैं…

इस सब से निष्कर्ष निकला कि हवन न करना और मूर्तिपूजन करना इतने बड़े अपराध नहीं हैं, जितना कि सम्पत्ति-विषयक अशुद्धता है । इससे न केवल कारावास हो सकता है, अपितु परमात्मा की व्यवस्था में भी खैर नहीं होती । अन्त में कबीर के वचन को स्मरण कराना चाहूंगी – कबिरा ठगे सो आपनो, दूजो ठगे न कोय !