न्यायदर्शन – एक परिचय
प्राचीन भारत के छ: दर्शन-शास्त्रों मे से एक है न्याय-दर्शन । ’दर्शन’ का अर्थ है – देखना । सो सम्पूर्ण सृष्टि को यथार्थतया समझाना दर्शनों का ध्येय है । Physics, Chemistry की तरह ये एक ही सच्चाई – तत्त्व-ज्ञान – को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाते हैं । दर्शन-शास्त्र वेदों के उपांग कहे जाते हैं । उपांगों में उपनिषद भी सम्मिलित हैं । परन्तु उपनिषदों में मुख्यतया जीवात्मा-परमात्मा का सम्बन्ध वर्णित किया गया है, वह भी अनेक बार कथाओं, अलंकारों, आदि काल्पनिक माध्यमों से । दूसरी ओर, दर्शन-शास्त्रों में परमात्मा, जीवात्मा और सृष्टि का ज्ञान है, और वे विषय-वस्तु को सीधा-सीधा कहते हैं – विज्ञान की पाठ्य-पुस्तक के समान । इन सभी का लक्ष्य मोक्ष है । मोक्ष के लिए सृष्टि का ज्ञान भी आवश्यक है, ऐसी इनकी मान्यता है । वेद भी कहते हैं – “अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥ यजु० ४०।१४ ॥” अर्थात् = अविद्या = सांसारिक ज्ञान से मृत्यु को पार करके, पारलौकिक विद्या (ब्रह्म और जीव के विषय में) से मोक्ष को प्राप्त करना चाहिए ।
न्याय-दर्शन में सत्य को तर्क के द्वारा स्थापित करने की प्रक्रिया बताई गई है । उसके सिद्धान्त अन्य पांचों दर्शन उपयोग में लाते हैं । अंग्रेज़ी में इसे logic, deductive + inductive reasoning, syllogistic reasoning कहा जायेगा । आधुनिक तर्क दो प्रकार के माने जाते हैं –
१) Deductive reasoning जिसमें साधारण से विशेष तक पहुंचते हैं, जैसे – “सब फलों में बीज होते हैं । सेब में बीज होता है । इसलिए वह फल है ।”
२) Inductive Reasoning जिसमें विशेष से साधारण का पता लगाते हैं । इसे थोड़ा सावधानी से प्रयोग करना पड़ता है, नहीं तो गल्ती की सम्भावना है । जैसे – “यह चिड़िया चोंच से दाना खा रही है । तो इसकी जैसी अन्य चिड़ियां भी ऐसे ही दाने खाती होंगी ।”
न्याय-दर्शन में दोनों ही प्रकार के तर्क पाए जाते हैं ।
यह महर्षि गौतम की रचना है । ’गौतम’ उनका गोत्र(पारिवारिक)-नाम था । उनका निज-नाम ’मेधातिथि’ था । वे ’अक्षपाद’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे । काल के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है । एक स्रोत के अनुसार इनका काल राम के काल से भी पूर्व था । पाश्चात्य विद्वानों ने तो १५० ई० इसको माना है । यह तो भारतीय परम्परा के अनुसार अमान्य ही प्रतीत होता है, क्योंकि, अन्य भारतीय ग्रन्थों के अनुसार भी, गौतम का काल अवश्य ही २००० वर्ष से कहीं अधिक प्राचीन है ।
न्याय बताता है कि सत्य तक पहुंचने के लिए, प्रमाणों और सिद्धान्तों का आश्रय आवश्यक है । सिद्धान्त वह है जो प्रमाण से सिद्ध कर दिया गया हो । सो, ’प्रमाण’ को ही न्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय माना गया है । ये प्रमाण ४ प्रकार के हैं –
१) प्रत्यक्ष – वह ज्ञान जो इन्द्रियों (5 senses) से उत्पन्न हो, जहां कोई संशय न हो, केवल निश्चय हो । यदि कोई बीच में बाधा हो, जैसे आंखों के आगे पर्दा, तो उसे प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कहा जाएगा । यदि धुंधला दिख रहा हो, तो उसे प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कहा जाएगा । यदि कानों से हम शब्द सुनें और उसे सारंगी का शब्द पहचाने, तो वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । इसका प्रसिद्ध उदाहरण है – घट या घड़ा – जो सामने दिख रहा हो, और उसमें कोई शंका न हो ।
२) अनुमान – पहले प्रत्यक्ष कर लेने के बाद, वस्तु के एक अंश को जानकर, पूरे को जान लेने को अनुमान कहते हैं । जैसे – हमने पहले देखा कि जहां-जहां अग्नि होती है, वहां-वहां धुंआ होता है । फिर हमने धुंआ देखा । तो हमने अनुमान लगा लिया कि अवश्य ही यहां अग्नि भी होगी । वस्तुत:, जब हम किसी को पहचानते हैं, तो वह अनुमान ही होता है – स्मृति में बसी छवि से जब सामने वाले व्यक्ति के कुछ अंश मिल जाएं, तो हम जान लेते हैं कि यह वही व्यक्ति है, जो हमने पहले देखा था । गणित अधिकतर अनुमान ही है । इस प्रकार, अनजाने में, हम प्रतिदिन अनुमान का अनेकों प्रकार से प्रयोग करते हैं । परन्तु, यह लौकिक भाषा वाला अनुमान नहीं है, जहां हम अनिश्चित तथ्य को अनुमान कहते हैं । अनुमान प्रमाण में, अन्य सभी प्रमाणों के समान, कोई संशय नहीं होता, केवल निश्चय होता है (नहीं तो वह प्रमाण ही न हो !) । अंग्रेज़ी में जिसेlogic कहा जाता है, वह वास्तव में केवल अनुमान है । पाश्चात्य विचार में प्रत्यक्ष, उपमान व शब्द को औपचारिक रूप से प्रमाण रूप में नहीं स्वीकार किया जाता, परन्तु अनौपचारिक रूप से तो माना जाता ही है, जैसे – eyewitness का प्रत्यक्ष प्रमाण, analogy का उपमान, और विद्वान का कथन (शब्द) तो माना ही जाता है !
अनुमान ३ प्रकार का होता है –
२) पूर्ववत् – कारण (cause) को जानकर, कार्य (effect) को जान लेना । जैसे – हमने पहले देखा है कि विष पीने से मृत्यु होती है । अब किसी मनुष्य ने विष पी लिया(कारण)। तो हम समझ जाते हैं कि अब इसकी मृत्यु निश्चित है (कार्य) ।
(२) शेषवत् – कार्य से कारण को जानना । जैसे – किसी लड़की (कार्य) को देखकर, हम अनुमान लगा लेते हैं कि इसके माता-पिता (कारण) अवश्य होंगे ।
(२) सामान्यतोदृष्ट – यह दो वस्तुओं के बीच में वह सम्बन्ध है, जो कार्य-कारण का तो नहीं है, परन्तु सामान्य रूप से पाया जाता है । जैसे – सूर्य को हमने प्रात: पूर्व में देखा । फिर मध्याह्न में वह ऊपर दिखा । तो हम जान लेते हैं कि या तो सूर्य अपने स्थान से खिसका है, या हम खिसके हैं, अर्थात् हमारे और सूर्य के बीच में relative motion हुआ है, क्योंकि देखा गया है कि एक वस्तु की दूसरी से दिशा/दूरी यदि परिवर्तित होती है, तो अवश्य ही उनमें से एक, या दोनों ही हिलें हैं । इसे हम common logic भी कह सकते हैं ।
२) उपमान – यह है प्रत्यक्ष करी हुई वस्तु की उपमा देकर, किसी दूसरी वस्तु को जानना । जैसे – जिस प्रकार सूर्य है, उसी प्रकार रात को आकाश में दिखने वाले अन्य तारे भी सूर्य हैं । यहां बहुत आवश्यक है कि साधर्म्य प्रसिद्ध हो, उसमें कोई शंका ने हो सके । सो, यह कहना कि “जैसे राम के बाल लम्बे हैं, वैसे ही श्याम के हैं । सो, मेले में मैं श्याम को जान लूंगा” – यह उपमान प्रमाण नहीं माना जायेगा ।
२) शब्द – जो आप्त, अर्थात् ज्ञानी और सच्चे व्यक्ति के उपदेश से जानना । यहां जो ज्ञानी तो हो, परन्तु किसी स्वार्थ के कारण सच को छिपा सकता हो, उसे ’शब्द प्रमाण’ नहीं माना जायेगा । जैसे – वैज्ञानिकों ने बताया कि पृथ्वी गोल है, तो हमने यह प्रत्यक्ष न करते हुए भी मान लिया । परन्तु जब किसी पण्डित ने कहा, “इस मूर्ति में परमात्मा बसे हैं । इसपर आभूषण चढ़ाओ ।” तो हमने नहीं माना ।
शब्द दो प्रकार के हो सकते हैं –
१) दृष्ट – प्रत्यक्ष किया हुआ । जैसे – अन्तरिक्षयात्री अन्तरिक्ष में गए । उन्होंने देखा कि पृथिवी गोल है । तो जब उन्होंने हमें बताया तो हमें कोई संशय नहीं रहा ।
२) अदृष्ट – जो प्रत्यक्ष करना असम्भव है । जैसे – कर्म-फल व्यवस्था । यह हम परमात्मा, जो कि परम आप्त है, उसके उपदेश – वेदों – से जानते हैं ।
इन प्रमाणों से जो सिद्ध किए जा सके, उसे प्रमेय कहा जाता है । महर्षि गौतम ने उनको भी ग्रन्थ में सूत्रित कर दिया । वे १२ हैं – आत्मा (अर्थात् जीवात्मा), शरीर, इन्द्रिय, अर्थ (जो इन्द्रियों से ग्रहण होने वाली वस्तुएं (objects of the senses) हैं), बुद्धि (=ज्ञान), मन (मनन और शरीर चलाने वाला), प्रवृत्ति (सकाम कर्म), दोष, प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म), फल, दु:ख, अपवर्ग (मोक्ष) ।
न्यायदर्शन चर्चाओं को ४ प्रकारों में विभक्त करता है –
१) तर्क – इसमें, प्रमाणों और सिद्धान्तों के आधार पर, सत्य का पता लगाया जाता है । इसमें नियम बहुत कम होते हैं । अनेकों दृष्टिकोण यहां प्रस्तुत किए जा सकते हैं, और उनकी सत्यता पर विचार होता है । किसी भी वक्ता का कोई स्थापित मत नहीं होता है । अंग्रेज़ी में इसे brainstorming कहेंगे ।
२) वाद – वाद formal discussion होता है, जिसमें दो पक्ष होते हैं – पक्ष और प्रतिपक्ष/विपक्ष । यह दोनों अपने मत में दृढ़ होते हैं, और अपने मत की सत्यता को स्थापित करना चाहते हैं । तर्क करते समय, वे पञ्चावयवों का प्रयोग करते हैं । ये पञ्चावयव इस प्रकार हैं –
(क) प्रतिज्ञा – या hypothesis – जिस तथ्य को सत्य स्थापित करा जाना है (=साध्य), उसको कहने वाला वाक्य । उदाहरण के लिए – “राजा मर्त्य होता है ।”
(ख) हेतु – प्रतिज्ञा को स्थापित करने वाला कारण/साधन/प्रमाण/सिद्धान्त । जैसे – “सब मनुष्य मर्त्य होते हैं।” – यह एक सिद्धान्त है जो वादी के साथ-साथ प्रतिवादी को भी मान्य है ।
(ग) उदाहरण – साध्य और हेतु का साधर्म्य बताने वाला वाक्य । जैसे – “राजा मनुष्य होता है ।”
(घ) उपनय – उदाहरण से साध्य को स्थापित करने वाला वाक्य । जैसे – “इसलिए, मनुष्य के समान, राजा भी मर्त्य है ।”
(ङ) निगमन – हेतु के साथ प्रतिज्ञा को दौहराना । गणित में यह proof के अन्त में Q.E.D. statement होता है । जैसे – “सब मनुष्यों के मर्त्य होने के कारण, राजा मर्त्य होता है ।”
वाद में पञ्चावयव के इस formal structure को प्रयोग करना आवश्यक है ।
३) जल्प – वाद में जब छल, जाति और निग्रहस्थान हों, तो वह जल्प कहा जाता है । शास्त्रार्थों का अधिकतर यही स्वरूप होता है । ये अंश इस प्रकार होते हैं –
(च) छल – प्रतिपक्षी के अर्थ को समझते हुए भी, उसका दूसरा अर्थ करके उसका प्रतिषेध करना । जैसे – उपर्युक्त वाद में प्रतिपक्षी कहे – “कुत्ते भी मर्त्य होते हैं । तो आपके कथनानुसार राजा कुत्ता हो गया ।”
(छ) जाति – इसमें प्रतिषेध के लिए जो हेतु दिया जाता है, उसमें कुछ गड़बड़ होती है । वह हेतु जैसा प्रतीत होता है, पर होता नहीं है – हेतु का आभास, अर्थात् ’हेत्वाभास’ होता है । जहां छल को पकड़ना इतना कठिन नहीं होता, जाति को पकड़ना और उसका प्रत्युत्तर देना अधिक कठिन होता है । जैसे – “राजा परमात्मा का प्रतिनिधि होता है । परमात्मा अमर्त्य है । इसलिए राजा भी अमर्त्य है ।”
(ज) निग्रहस्थान – जब कोई भी वादी अपने प्रतिपादित मत के विपरीत बोल जाए, या विपक्षी के हेतु का प्रत्युत्तर न दे पाए, तो उसकी हार मान ली जाती है, और वाद वहीं पर समाप्त कर दिया जाता है । इसको निग्रहस्थान कहा जाता है ।
४) वितण्डा – जिस जल्प में प्रतिपक्षी अपना मत सामने न रखे, केवल पक्षी के मत का खण्डन करता जाए, उसे वितण्डा कहते हैं ।
इन विभागों में यह समझना आवश्यक है कि छल और जाति/हेत्वाभास तर्क और वाद में भी होते हैं, तभी तो एक मत/सोच गलत होती है और एक सही ! भेद इतना है कि तर्क और वाद में सभी वादी सत्य की खोज में होते हैं – वे जो हेतु प्रस्तुत करते हैं, वे गलत हो सकते हैं, परन्तु उनको वादी वास्तव में सत्य मानता है । जल्प और वितण्डा में दोनों पक्ष अपनी विजय को अधिक चाहते हैं, सत्य को कम ! इसलिए जानते हुए भी, झूठे हेतुओं का आश्रय लेते हैं ।
हेत्वाभास से बचने के लिए, उनको जानना अत्यन्त आवश्यक है । महर्षि गौतम ने इसीलिए इनको एक पूरे अध्याय में बताया है । यहां मैं केवल एक मुख्य हेत्वाभास बताती हूं । वह है सव्यभिचार, या अनैकान्तिक, हेत्वाभास । इसमें कारण और कार्य में one-to-one correspondence नहीं होती । अर्थात्, यदि एक कारण से अनेक कार्य सम्भव होते हैं, तो हम कारण से कार्य का निर्धारण नही कर सकते । इसी प्रकार, यदि एक कार्य के अनेक कारण हो सकते हैं, तो हम कार्य से कारण का निर्धारण नही कर सकते । जैसे, कोई कहे –
“वर्षा हुई है । तो बादल आए होंगे ।” यहां वर्षा (कार्य) का एक ही कारण होता है – बादल । सो यह अनुमान सही है । अब यदि कोई कहे –
“बादल हैं । सो, वर्षा होगी ।” तो यह अनुमान सही न होगा, क्योंकि बादल ’कारण’ के दो ’कार्य’ हैं – वर्षा और वर्षा का अभाव ।
गौतम के ऋषि होने के कारण, वे केवल तर्क के अंशों तक ही सीमित नहीं रहे । उन्होंने अन्य भी अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य बताए, जो अधिकतर प्रथम अध्याय में पाए जाते हैं । परिचय के लिए, मैं यहां उनमें से कुछ बताती हूं –
१) किसी वस्तु में जीवात्मा है या नहीं, यह कैसे बताय जाए ? तो गौतम कहते हैं – यदि उसमें इच्छा हो, द्वेष हो, प्रयत्न कर रहा हो, सुख की अनुभूति हो, दू:ख की अनुभूति हो, और ज्ञान हो, तो जान लेना कि यह जड़ नहीं, चेतन है । कम्प्यूटरों में artificial intelligence की इतनी चर्चा होने के बाद भी, आप पायेंगे कि वे इन मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते !
२) मोक्ष के पथ का गौतम ने विस्तार बताया है – पहले मिथ्याज्ञान को दूर करो, उससे दोष (राग और द्वेष) दूर होंगे । दोषों के दूर होने पर प्रवृत्ति – यश, धन, आदि को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न – दूर हो जायेगी । प्रवृत्ति के दूर होने से फल की आवश्यकता न होने से, जन्म बाधित हो जायेगा । जन्म के बाधित होने से दु:ख कट जायेंगे । और दु:खों का न होना ही तो अपवर्ग (मोक्ष) है !
३) न्याय इनमें से मिथ्याज्ञान पर ही वार करता है । परन्तु गौतम बताते हैं कि, पूर्ण तत्त्वज्ञान के लिए, समाधि आवश्यक है।
इस प्रकार, न्यायदर्शन तत्त्वज्ञान के अन्वेषक के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अस्त्र है । जिनका मानना है कि केवल भक्ति से ही परमात्मा की प्राप्ति सम्भव है, वे जानें कि भक्ति से ज्ञान नहीं होता, परन्तु ज्ञान से भक्ति अवश्य होती है, और वह भक्ति सच्ची होती है – परमात्मा की मूर्ति के आभूषणों के वर्णन, उनके बाल-क्रीडाओं के वर्णनों में उसे फंसाया नहीं जा सकता । सत्य-ज्ञान के प्रकाश के लिए, हम औरों से नहीं, तो अपने से ही वाद-विवाद करें, अन्धविश्वासों को तोड़ें और त्यागें, सत्य को पाएं और अपनाएं ।