राजा का धर्म

आजकल चारों ओर ऐसी अराजकता फैली हुई है, और शासन के नाम पर ऐसी भयंकर लूट मची हुई है, कि हम भूल से गए हैं कि नेता हमारे आदरणीय होने चाहिए । देश की इस शोचनीय स्थिति को देखकर, मनुस्मृति में दिए राजा और व्यवस्था के आदर्श ऐसे लगते हैं, जैसे किसी स्वर्ग के लिए हों ! वे विस्मृत न हो जाएं, और भारतवर्ष में पुनः एक दिन ऐसा आए, कि हमारे नेता और शासक इन आदर्शों पर चलें, इसलिए इस लेख में मैं राजा के मुख्य धर्मों पर प्रकाश डाल रही हूं ।

प्रथम तो मनु बताते हैं कि राजा कि आवश्यकता ही क्यों है – क्या हम बिना राजा के अधिक सुखी हो सकते हैं ? –

अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात् ।

रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभुः ॥ मनु० ७।३ ॥

अर्थात् बिना राजा के इस लोक में सब ओर अराजकता फैल जायेगी, जिसके कारण सब लोग सब ओर से भय को प्राप्त होंगे (इस स्थिति का आज हम पर्याप्त मात्रा में अनुभव कर रहे हैं !) । इन सबकी रक्षा के लिए परमात्मा ने राजा को बनाया । अर्थात् राजा का प्रमुख धर्म प्रजा की रक्षा करना है । क्या आज कोई भी नेता यह समझता है ?! ऐसा ही प्रतीत होता है कि वे अपनी सुरक्षा और समृद्धि को ही सर्वोपरि मानते हैं !

फिर मनु बताते हैं कि राजा को कैसा होना चाहिए –

इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च ।

चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः ॥ मनु० ७।४ ॥

ईश्वर ने जो राजा की सृष्टि की (उपर्युक्त श्लोक में), उसमें इन्द्र, अनिल = वायु, यम, अर्क = सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्र और वित्तेश = कुबेर के शाश्वत् अंश, अर्थात् उनके मुख्य, सार-रूप अंश होने चाहिए । अर्थात् राजा में इन दैवी शक्तियों के मुख्य गुण पाए जाने चाहिए । ये मुख्य गुण क्या हैं, यह मनु स्वयं आगे बताते हैं ।

वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति ।

तथाभिवर्षेत् स्वं राष्ट्रं कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ॥ मनु० ९।३०४ ॥

जिस प्रकार इन्द्र, या प्रकृति की वृष्टि-शक्ति, वर्ष में चार माह वर्षा करके सबको तृप्त कर देता है, वैसे ही राजा को अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि-शान्ति-उन्नति की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहिए । उसको अपनी प्रजा को ऐश्वर्य-युक्त करना चाहिए । यह उसका इन्द्र-व्रत कहलाता है ।

अष्टौ मासान् यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः ।

तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ मनु० ९।३०५ ॥

जिस प्रकार शेष आठ मास सूर्य, अपनी किरणों के द्वारा, सब वस्तुओं में से जल हरता रहता है, उसी प्रकार राजा भी, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, नित्य कर की वसूली करे । यह उसका अर्कव्रत होता है । यहां एक विशेष बात और यह देखनी चाहिए कि ७।४ और उपर्युक्त श्लोक में (और इनसे सम्बद्ध ९।३०३ में भी) सूर्य को जो ’अर्क’ कहा गया है, वह ’कर’ का उल्टा है ! इसीलिए इस विशेष शब्द का प्रयोग किया गया है ।

प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः ।

तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ॥ मनु० ९।३०६ ॥

जिस प्रकार वायु सब वस्तुओं में प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार राजा को गुप्तचरों द्वारा अपनी राष्ट्र के हर भाग में प्रवेश करके, वहां की सूचना रखनी चाहिए । यह उसका मारुत-व्रत कहलाता है । जो राजा अपनी प्रजा के अनकहे दुःख-दर्द नहीं जानेगा, और उनका समाधान नहीं करेगा, वह आगे जाकर स्वयं अपने पद से च्युत होगा । 

यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति ।

तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतं ॥ मनु० ९।३०७ ॥

जिस प्रकार यम, अर्थात् परमात्मा का नियन्त्रक स्वरूप, समय आने पर कर्मानुसार सब को प्रिय या अप्रिय कर्मफल देकर नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार राजा को प्रजा को दण्ड और लाभ देकर नियन्त्रण में रखना चाहिए । यह उसका यम-व्रत होता है ।

वरुणेन यथा पाशैर्बद्धः एवाभिदृश्यते ।

तथा पापान् निगृह्णीयाद्व्रतमेतद्धि वारुणम् ॥ मनु० ९।३०८ ॥

जिस प्रकार वरुण = पानी के भँवर में मनुष्य जाल में बंधा हुआ सा दीखता है, उसी प्रकार राजा को पापियों को कारागार के बन्धन में डालना चाहिए, जिससे अन्य प्रजा भय-रहित होकर रह सके । यह उसका वारुण-व्रत होता है ।

परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः ।

तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चान्द्रव्रतिको नृपः  ॥ मनु० ९।३०९ ॥

जिस प्रकार पूरे चाँद को देखकर मानव हर्ष करते हैं, वैसी ही प्रकृति राजा की होनी चाहिए । अर्थात् राजा की आर्थिक व नैयायिक व्यवस्था से सन्तुष्ट जन उसको देखकर आह्लादित होने चाहिए । वही राजा चान्द्रव्रतिक कहलाता है ।

प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु ।

दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतं ॥ मनु० ९।३१० ॥

जिस प्रकार अग्नि शाक, धातु, आदि के दोषों को जला देती है, उसी प्रकार राजा को चाहिए कि वह पापकर्मों में प्रतापी और तेजस्वी हो, अर्थात् स्वयं भयभीत न हो, अपितु पापी को भय दिलाए, और दुष्ट मन्त्री, अधिकारी तक को भी कठोर दण्ड दे । राजा के प्रतिनिधि ही यदि अत्याचार करेंगे, तो प्रजा में न्यायव्यवस्था स्थापित ही नहीं हो सकती । यह राजा का आग्नेय-व्रत होता है ।

यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् ।

तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतं ॥ मनु० ९।३११ ॥

जिस प्रकार पृथ्वी सब प्राणियों को, बिना भेद-भाव के, समान भाव से धारण करती है, उसी प्रकार राजा को सारी प्रजा का पक्षपात-रहित होकर पालन-पोषण करना चाहिए । यह उसका पार्थिव व्रत कहलाता है । इसी पृथ्वी को ऊपर दिए श्लोक (७।४) में वित्तेश कहा गया था, क्योंकि पृथ्वी से ही सब सम्पदा प्राप्त होती है ।

एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यमतन्द्रितः ।

स्तेनान् राजा निगृह्णीयात् स्वराष्ट्रे पर एव च ॥ मनु० ९।३१२ ॥

ऊपर दिए सारे व्रतों के द्वारा और अन्य उपायों के द्वारा भी, आलस-रहित होकर, राजा सर्वदा अपने राष्ट्र और दूसरे देशों से आए हुए घुसपैठी चोरों को अपने वश में रखे ।  किसी भी प्रकार की हानि से, हर सम्भव उपाय के द्वारा, प्रजा और राष्ट्र को राजा बचाए । इसी कारण से उसकी नियुक्ति होती है । यही उसका परम धर्म होता है ।

मनु ने तो इतने प्राचीन काल में ही राजा के लिए इतने कठोर मापदण्ड दे दिए; क्या हममें से कोई भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता है ?