योगदर्शन में क्लिष्टाक्लिष्ट चित्तवृत्तियां

ऋषि पतञ्जलि प्रणीत योगदर्शन में पाँच प्रकार के सोचने के प्रकार दिए हुए हैं, जिनको कि चित्तवृत्तियां कहा जाता है । इनको क्लिष्ट और अक्लिष्ट में विभक्त किया गया है । व्याख्याओं से यहां समझा जाता है कि प्रत्येक वृत्ति का क्लिष्ट और अक्लिष्ट भेद होता है, जिससे कि कुल दस प्रकार की वृत्तियां होती है । परन्तु, इन वृत्तियों के वर्णन से प्रतीत होता है कि सभी वृत्तियां क्लिष्ट और अक्लिष्ट नहीं होती – वे इनमें से एक भी हो सकती हैं । दूसरे, क्लिष्ट वृत्ति तो सरलता से समझ में आती है, परन्तु अक्लिष्ट वृत्ति की व्याख्या नहीं की गई है । यह लेख इन विषयों पर प्रकाश डालता है ।

उपर्युक्त विषय पर चर्चा करने से पहले, हम इन संज्ञाओं को समझ लेते हैं । चित्तवृत्ति सोचने का प्रकार है । पतञ्जलि ने इसके पाँच प्रकार बताए हैं, जो कि क्लिष्ट या अक्लिष्ट हो सकते हैं – वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥१।५॥ ये प्रकार हैं – प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥१।६॥ – अर्थात् प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा व स्मृति । ये सोचने के प्रकार कैसे हैं, इस विषय पर मैंने कुछ वर्ष पूर्व विस्तार से लिखा था (लेख का शीर्षक: ’योगदर्शन में वर्णित चित्त-वृत्तियों का विश्लेषण’), वहां देख लें । इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है –

  • प्रमाण – अर्थात् इन्द्रियों से प्रत्यक्ष  देखना, सुनना, आदि; तर्क से अनुमान  लगाना; और भाषा-द्वारा ज्ञानार्जन करना (आगम) – प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥१।७॥
  • विपर्यय – जो जैसा है, उसे वैसा न समझना, अर्थात् मिथ्याज्ञान – विपर्ययो  मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥१।८॥ इसका मुख्य अर्थ है – शरीर से आत्मीयता का होना । यह आत्मा का सबसे बड़ा अज्ञान है, जो अन्य सभी अज्ञानों के मूल में स्थित है । उसके कारण आत्मा सुखी-दुःखी आदि होता है ।
  • विकल्प – जो केवल शब्दों पर आधारित हो, परन्तु जिसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध न हो – शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥१।९॥ अर्थात् काल्पनिक कहानियां, और, उपलक्षण से – चित्र, चलचित्र, आदि आदि ।
  • निद्रा – जिसमें इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले ज्ञान का अभाव हो – अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥१।१०॥ इसमें स्वप्न और सुषुप्ति, दोनों का समावेश है ।
  • स्मृति – जिसमें पूर्व अनुभवों को याद किया जाए या याद रखा जाए – अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥१।११॥ रटने आदि की प्रक्रिया भी यहां सम्मिलित है ।

अब क्लेश का अर्थ समझते हैं, जिससे कि क्लिष्ट व अक्लिष्ट वृत्तियां समझ आएंगी । पतञ्जलि कहते हैं, “अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ॥२।३॥” अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूपी पाँच क्लेश हैं, जिनके मूल में है अविद्या – अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम् … ॥२।४॥ इस अविद्या की परिभाषा इस प्रकार है – अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यश्चिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥२।५॥ अर्थात् अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख, अनात्मा में आत्मा जानना अविद्या है, अर्थात् मिथ्याज्ञान । जैसा मैंने ऊपर भी इंगित किया, मुख्य रूप से इसका प्रयोजन शरीर और आत्मा के सम्बन्ध से है – शरीर के समान, आत्मा अपने को अनित्य, अपवित्र, दुःखी और अनात्मा (शरीर में अपनी सत्ता को नकारना) समझती है, जबकि है इसका उल्टा । अन्य क्लेशों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है– 

अस्मिता – शरीर से आत्मीयता मानना 

राग – भौतिक वस्तुओं में आसक्ति 

द्वेष – भौतिक वस्तुओं से घृणा

अभिनिवेश – मृत्यु का भय

संक्षेप में, जो सत्य है, वह अक्लिष्ट है, और जो मिथ्या है, वह क्लिष्ट है । जिस सोच में किसी भी क्लेश का लेश होगा, वह क्लिष्ट वृत्ति होगी; और जो वृत्ति उससे रहित होगी, वह अक्लिष्ट वृत्ति कहाएगी । इसको ध्यान में रखते हुए, वृत्तियों को समझने का प्रयत्न करते हैं ।

वृत्तियों की क्लिष्टता/अक्लिष्टता

इस विषय में भाष्यकार व्यास मुनि की व्याख्या इस प्रकार है – “क्लेशहेतुका  कर्माशयप्रचये  क्षेत्रीभूता  क्लिष्टाः । ख्यातिविषया  गुणाधिकारविरोधिन्योऽक्लिष्टाः । क्लिष्टप्रवाहपतिता  अप्यक्लिष्टाः  क्लिष्टच्छिद्रेष्वप्यक्लिष्टा  भवन्ति । अक्लिष्टच्छिद्रेषु  क्लिष्टा  इति ॥भाष्य १।५॥ अर्थात् क्लिष्ट वृत्तियां वे हैं जो क्लेश से उत्पन्न होती है और कर्म-सम्बन्धी वासनाओं को उत्पन्न करती हैं । अक्लिष्ट वृत्तियां वे हैं जो आत्मा की पृथक् सत्ता विषयक होती हैं और प्राकृतिक गुणों का विरोध करती हैं (अर्थात् शरीर को आत्मा पर हावी नहीं होने देतीं) । क्लिष्ट वृत्तियों से भी अक्लिष्ट वृत्ति उत्पन्न हो सकती है, और अक्लिष्ट के दोष से क्लिष्ट । अर्थात् ये दोनों सामान्यतः अपनी जैसी वृत्ति को ही उत्पन्न करती हैं, परन्तु कभी-कभी विपरीत वृत्ति को भी उत्पन्न कर सकती हैं । 

इस सब से इन दोनों ही वृत्तियों पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता । इसलिए हम एक-एक वृत्ति का विश्लेषण उपर्युक्त चर्चा के अनुसार करते हैं, सरल से कठिन के क्रम में ।

  • विपर्यय – इस वृत्ति को तो पतञ्जलि ने ही ’मिथ्याज्ञान’ कहा है ! व्यास इसमें और जोड़ते हैं – “सेयं पञ्चपर्वा भवत्यविद्या अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशा इति” – अर्थात् यह विपर्यय-वृत्ति ही अविद्या है, जो पाँच प्रकार की है, जिनको अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश क्लेश कहते हैं । महर्षि दयानन्द भी कहते हैं, “दूसरी (वृत्ति) विपर्यय कि जिससे मिथ्याज्ञान हो, अर्थात् जैसे को तैसा न जानना, अथवा अन्य में अन्य भावना कर लेना, इसको विपर्यय कहते हैं ।” इस प्रकार यह वृत्ति तो क्लिष्ट वृत्ति की जैसे परिभाषा ही है ! यह कभी भी अक्लिष्ट नहीं हो सकती । अक्लिष्ट चित्त में यह वृत्ति पाई ही नहीं जायेगी ।
  • विकल्प – यह वृत्ति भी यथार्थशून्य होती है । इसके उदाहरण हैं – आकाश का फूल, वन्ध्या का पुत्र, खरगोश के सींग । इस प्रकार यह कल्पना-मात्र वृत्ति है, और मिथ्याज्ञान ही है । सच्चाई को प्रकट न करने से, यह वृत्ति भी कभी भी अक्लिष्ट नहीं हो सकती, और कैवल्य प्राप्त योगी में यह पाई ही नहीं जाएगी ।
  • निद्रा – चाहे यह सुषुप्ति की स्थिति हो या फिर स्वप्नावस्था, दोनों ही स्वरूप में यहां ज्ञान का, विशेषकर यथार्थ ज्ञान का, अभाव होता है । इस कारण से इस वृत्ति का अक्लिष्ट होना असम्भवप्राय है । तथापि जीवन्मुक्त योगी भी कभी तो सोते होंगे, शरीर व चित्त की आवश्यकता के कारण । सम्भव है कि उनकी निद्रा अतिह्रस्व और बहुत समयानन्तर होती हो । सम्भव है कि उस समय भी उनकी आत्मा अपनी शक्ति से विद्यावान् रहती हो । इस विषय पर कुछ भी चर्चा न प्राप्त होने से, यहां कुछ भी कहना कठिन है । इसलिए इस वृत्ति में हम दोनों क्लिष्ट और अक्लिष्ट स्थिति मान लेते हैं ।
  • स्मृति – इसमें वस्तु-स्थिति और हमारे अपने सही या गलत अनुभव – दोनों ही पाए जाते हैं । जो भी अनुभव क्लेशों के अन्तर्गत होंगे, वे क्लिष्ट स्मृतियां होंगी, और शेष अक्लिष्ट । जैसे, जो वेद-मन्त्र और उनके अर्थ हमने स्मरण किए हैं, वे अक्लिष्ट है । परन्तु, जो किसी से विरह का जो कष्ट हमें स्मृत है, वह क्लिष्ट है । इस प्रकार इस वृत्ति में दोनों ही प्रकार सम्भव हैं ।
  • प्रमाण – यह वृत्ति अपनी परिभाषा से ही सत्य की बोधक होती है । इसलिए तीनों प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम अक्लिष्ट वृत्ति ही हैं, और क्लिष्ट हो ही नहीं सकतीं । यदि कोई भी प्रत्यक्ष वस्तु, अनुमित तथ्य या वचन सन्दिग्ध हो, तो वह प्रमाण कहलाया ही नहीं जायेगा । 

इस प्रकार हम पाते हैं कि पतञ्जलि के १।५ के कथन से यह मानना सही नहीं है कि सभी पाँच चित्तवृत्तियों के क्लिष्ट और अक्लिष्ट भेद हैं, और इस प्रकार कुल दस प्रकार की चित्तवृत्तियां हैं । वास्तव में, उस कथन में केवल यह कहा गया है कि वृत्तियां एक या दोनों प्रकार की होती हैं । सामान्य जन में प्रधानतया क्लिष्ट वृत्तियां पाई जाएंगी, परन्तु अक्लिष्ट वृत्तियों का भी समागम होगा । इसलिए उसमें पांचों वृत्तियां पाई जाएंगी । जीवन्मुक्त योगी में केवल अक्लिष्ट वृत्तियां पाई जाएंगी । इसलिए उसमें विपर्यय और विकल्प का लेश भी नहीं पाया जायेगा । तथापि प्रमाण, स्मृति और निद्रा उसमें अवश्य पाई जायेंगी । 

वृत्तियों को इस प्रकार समझने से हमें यह भी ज्ञान होता है कि किन वृत्तियों को हमें पूर्णतया रोकना है, और किनको अक्लिष्टता की ओर ले जाना है । तभी हम मोक्ष के अपने परम लक्ष्य तक पहुंचने की आशा कर सकते हैं, क्योंकि चित्त-वृत्तियों के निरोध के साथ-साथ हमें उन्हें अक्लिष्ट भी बनाना है । योग के अष्टांग दोनों में ही सहायक होते हैं ।