योगदर्शन में क्लेश

    योगदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है – मोक्ष । मोक्ष अर्थात् इस शरीर और उससे सम्बद्ध सुख-दुखों से मुक्ति । शरीर हमें प्राप्त होता है हमारी कुछ कमियों, कुछ अज्ञान के कारण । उनमें से कुछ अज्ञान क्लेश कहलाते हैं । “क्लेश” का अर्थ है दु:ख । योगदर्शन में दिए क्लेश स्वयं दु:ख तो नहीं हैं, परन्तु सब दु:खों के कारण हैं । पतञ्जलि मुनि ने बड़ी सूक्ष्मता से इनका विवरण किया है । फिर भी उसमें कुछ अनकही बातें हैं जिनको उभारने का मैंने इस लेख में प्रयत्न किया है । 

    ऋषि ने क्लेशों को पांच में विभाजित किया है, परन्तु स्वयं बताया है कि, वास्तव में, ये सब एक क्लेश के ही विभिन्न आयाम हैं (“अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां०” योग०२।४) । यह एक क्लेश है – 

१) अविद्या – सरल रूप में – “जैसे को तैसा न मानना” । विस्तार से, ऋषि कहते हैं –

        अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ २।५ ॥

अर्थात् अनित्य में नित्य, अशुद्ध में शुद्ध, दु:ख में सुख और दूसरे में अपने को मानना अविद्या है । सूत्र में दिये हमारे भ्रमों में मुख्य है – दूसरी वस्तु में अपने को मानना । यहां ’दूसरी वस्तु’ से ऋषि का संकेत ’शरीर’ से है । शरीर अनित्य है, परन्तु हम उसे नित्य मानते हैं । शरीर मल से भरा होने के कारण अपवित्र होता है; हम स्नान, पूजा, आदि करके “पवित्र हो गया” – ऐसा मानने लगते हैं । शरीर के सुखों को हम सुख मानते हैं, जबकि वास्तव में वे दुःख ही होते हैं । शरीर में चैतन्य न होने पर भी हम उसे ही चेतन मानते हैं । इन सारे भ्रमों की जननी वस्तुतः एक है, जो कि अगले क्लेश में निरूपित है –

२) अस्मिता – अर्थात् जब हम देखने वाले और दिखाने वाली बुद्धि आदि को एक समझते हैं –

    दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥ २।६ ॥ 

यहां ’दर्शन-शक्ति’ से सभी इन्द्रियों का ग्रहण है । वस्तुतः, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को मिलाकर पूरा शरीर ही लक्षित है । सो, जो हम अपने चेतन स्वरूप और अचेतन शरीर में भेद नहीं कर पाते, यह इतना बड़ा भ्रम है कि अन्य सभी भ्रम इसी ’अविद्या’ पर आधारित होते हैं, जैसे –

३) राग – शरीर के सुखों से उत्पन्न उस वस्तु के प्रति जो हमारा प्रेम या इच्छा उत्पन्न हो जाती है, वह राग कहलाती है –

    सुखानुशायी रागः ॥ २।७ ॥

जैसे – शरीर से उत्पन्न होने से, हमें हमारे बच्चे प्रिय होते हैं । वस्तुतः, हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है – वे स्वतन्त्र आत्मा हैं, हम स्वतन्त्र । फिर भी, हम उन्हें जैसे अपना ही अंश मानते हैं । इसी प्रकार, हमें वे अनुभव पुनः दोहराने की इच्छा होती हैं, जो हमें सुखकारी लगे थे, जैसे – जलेबी खाना । सुख तो आत्मा को ही हुआ, लेकिन उसका कारण आत्मा नहीं था, शरीर था । जलेबी के सारे आंश शरीर को गये, हमें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । फिर भी सुखी हम हुए – शरीर और अपने को एक मानने के कारण ! 

    वास्तव में जो हमें तृप्ति देते हैं, वे हैं ज्ञान, और अपना व प्रभु का साथ । ये हमारे शरीर के लिए नहीं होते, हमारे लिये ही होते हैं । इनसे भी हमें लगाव हो सकता है, जैसे – वेद-पाठी को पढ़ने में ही इतना आनन्द आने लगता है कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता । वेदों ने इसको भी हेय कहा है – 

    अन्धन्तमः प्र विशन्ति येऽविद्यामुपासते ।

    ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रतः ॥यजु०४०।१२ ॥

अर्थात् जो अविद्या = भौतिक विषयों के ज्ञान में लगे रहते हैं, वे अज्ञान के अन्धकार को प्राप्त करते हैं; परन्तु उससे भी गहरे अन्धकार को वो प्राप्त होते हैं, जो विद्या = शब्दार्थ-सम्बन्ध में ही रत रहते हैं, आचरण में कुछ भी नहीं लाते । 

    दूसरी ओर, तपस्वी को परमात्मा का साथ इतना लुभावना लगने लगता है, कि वह समाधि से बाहर ही नहीं निकलना चाहता । उसके लिये शिष्यों को मार्ग दिखाना भी कष्टप्रद व्रत के समान होता है । इसीलिए, इस ज्ञान-प्रदान को संन्यास-आश्रम के कर्तव्यों और पञ्चमहायज्ञों में ब्रह्म-यज्ञ में गिनाया गया । अर्थात् समाधि में बैठे रहना और परोपकार न करना भी हेय है । फिर भी, ये लगाव अविद्या की कोटि में नहीं आते – केवल शरीर-जनित संस्कार ’राग’ कहाते हैं । 

४) द्वेष – राग के विपरीत, जो वस्तु हमारे शरीर को कष्ट देती है, उससे हम दूर रहना चाहते हैं । 

        दु:खानुशायी द्वेष: ॥ २।८ ॥

जैसे – एक बार कांटे के चुभ जाने पर हम सभी नुकीले पदार्थों को डर-डर कर छूते हैं । यहां पर भी कष्ट तो शरीर को होता है, परन्तु दुःख का अनुभव हम करते हैं, और फिर हममें द्वेष-विकार उत्पन्न हो जाता है । हर प्रकार की ईर्ष्या, रोष, डर, किसी भी वस्तु से कतराना, द्वेष के प्रकार हैं । पुनः, जो अनिच्छा शरीर से सम्बद्ध न हो, उसे द्वेष नहीं कहते, जैसे – योगी की असत्य में अनिच्छा ।

५) अभिनिवेश – शरीर से आत्मीयता एक और भयंकर डर हमारे मन में उत्पन्न करती है – मृत्यु का भय । मनुष्य ही नहीं, हर प्राणी इस भय से परिचित है, इसको समीप से जानता है । माता को इसको बच्चे को सिखाना नहीं पड़ता, और बहुत ज्ञानी होने पर भी यह भय दूर नहीं होता –

        स्वरसवाही विदुशोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेश: ॥ २।९ ॥ 

ये डर जन्म लेते ही उत्पन्न हो जाता है, और मृत्यु पर ही साथ छोड़ता है । हां, यदि हमने मृत्यु से पहले अपने सच्चे रूप को देख लिया, तब यह डर छूट जाता है । 

    इस प्रकार शरीर से आत्मीयता ही वास्तव में अन्य सभी अविद्याओं की जड़ है ।

    आगे पतञ्जलि बताते हैं कि इन क्लेशों के कारण जो हम कर्म करते हैं, वे ही कर्म-फल के देने वाले बनकर, हमें इस जन्म और भावी जन्मों में झेलने पड़ते हैं ।

    इस क्रम से छूटने का एक ही उपाय है – मोक्ष । उसके लिए, हमें क्लेशों को धीरे-धीरे कम करते जाना है । अष्टाङ्ग-योग इसका मार्ग है । परन्तु सामान्य साधकों के लिए उन्होंने कहा है कि वे उनमें से तीन अंशों को अवश्य अपनाएं – तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान । इनको उन्होंने ’क्रिया-योग’ कहा । यह भगवद्-गीता में बताये क्रिया-योग से भिन्न है । अधिक कठिन न होते हुए भी, यह क्रिया-योग अत्यधिक शक्तिशाली है । विशेष रूप से, यदि हम अपने सारे कर्मों को प्रभु को समर्पित कर देते हैं (ईश्वर-प्रणिधान), तो उससे हमारी अनेकों अशुद्धियां अपने-आप ही समाप्त हो जाती हैं ।