योगदर्शन में वर्णित चित्त-वृत्तियों का विश्लेषण
पतञ्जलिमुनि के द्वारा रचित योगदर्शन में मानव चित्त-वृत्तियों का वर्णन है । ये वृत्तियां और कुछ नहीं, हमारे सोचने के प्रकार हैं, मस्तिष्क के काम करने के विभिन्न आयाम हैं । इनको रोकने से समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, जोकि मोक्ष तक पहुंचाती है – यही योगदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । इसलिए चित्त-वृत्तियो को समझना अत्यावश्यक है । इनमें से कुछ तो अत्यन्त स्पष्ट हैं, और हमें आसानी से समझ में आ जाती हैं, परन्तु दूसरी ओर, कुछ को चित्त-वृत्ति के रूप में समझना कठिन है । व्यासभाष्य इस विषय में कुछ प्रकाश डालता है, परन्तु ग्रन्थ को अधिक स्पष्टीकरण की अपेक्षा है । इसी प्रयास में मैंने यह लेख लिखा है ।
योगदर्शन में पांच चित्त-वृत्तियां वर्णित हैं । ये हैं – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति
(प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय: ॥१।६॥) ।
यदि हम निद्रा और स्मृति को पहले देखें, तो ये सामान्यतया स्पष्ट हैं । निद्रा में चित्त का बाहरी व्यापार बन्द हो जाता है, और वह अन्तर्मुखी हो जाता है । पतञ्जलि मुनि कहते हैं कि इस वृत्ति में इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले ज्ञान का अभाव होता है (अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥१।१०॥ ) । परन्तु इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उस अवस्था में चित्त पूरी तरह से बन्द हो जाता है । नहीं, उस समय की भी हमें स्मृति होती है – सपनों की, नींद के पक्केपन की – हम गाढ़ी नींद में बेखबर होकर सोए या फिर हल्की नींद सोए । और स्वप्न में तो चित्त स्मृतियों को लेकर अनेकों कहानियां बुन डालता है । इन्द्रियों से भी कुछ विषय निद्रा में हम तक पहुंचते हैं – अगर कोई ज़ोर की आवाज़ करे अथवा बिजली जलाए, तब भी हम उठ जाते हैं । अर्थात् बहुत सीमित रूप से चित्त निद्रा में भी इन्द्रियों से ज्ञान ग्रहण करता रहता हैं ।
इसी प्रकार स्मृति भी समझना कठिन नहीं है । पतञ्जलि कहते हैं कि जिन अनुभूत विषयों को हम अपने चित्त में कैद करके रखते हैं, भूलने नहीं देते हैं, वे स्मृति हैं (अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृति: ॥ १।११॥ ) । यह स्मृति कम्प्यूटर की memory की तरह है । जो हमारे सामने आया, और हम पर प्रभाव छोड़ गया, उसे हमने memory में save कर लिया । लेकिन यहां एक अकथित तथ्य भी है – जो स्मृति मेंsave हो गया, वह तो स्मृति है ही, परन्तु उस memory को access करना “स्मृति-वृत्ति” है । जब हम अनुभूत विषय को याद करते हैं, तब जिस क्रिया को चित्त करता है, वह स्मृति-वृत्ति है । वृत्ति चित्त का “व्यवहार” होने से, वस्तुत: इन दोनो प्रक्रियाओं – save करना औरaccess करना – को इस ग्रन्थ में स्मृति-वृत्ति द्वारा कहा गया है । दूसरी स्मृति – जो हमारे चित्त में बसी तो है, परन्तु जिसके बारे में हम इस समय सोच नहीं रहें हैं – वह चित्त का “व्यवहार” न होने से इस शास्त्र में उसका संदर्भ नहीं है ।
अब देखिए प्रमाण । हम तो प्रमाण को सत्य को परखने का तरीका समझते हैं । यहां तो चित्त-वृत्ति कहा गया है ! यह सोचने का तरीका कैसे है ? पतञ्जलि कहते हैं कि प्रमाण तीन प्रकार के होते हैं (प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि ॥१।७॥) –
(१) प्रत्यक्ष – जो इन्द्रियों से वर्तमान में ग्रहण हो रहा हो ।
(२) अनुमान – जो पूर्व प्रत्यक्ष किए विषय के व्यवहार से हम अन्य विषयों के बारे में – उनके व्यवहार को देखे बिना – जान सकते हैं । जैसे – एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने के लिए किसी पदार्थ में गति होना आवश्यक है, यह जानकर हम किसी भी स्थानान्तरण में गति का अनुमान लगा सकते हैं ।
(३) आगम – जो आप्त, ज्ञानी लोगों ने देखा और अनुमान लगाया है, उसका शब्दों में उपदेश ।
यह तो हो गया ज्ञान-रूप में अर्थ । परन्तु ज्ञान भी स्मृति में बसे तथ्य होते हैं, और जैसे हमने ऊपर देखा, जिसके बारे में हम इस समय सोच नहीं रहें हैं, वह चित्त-वृत्ति नहीं कहाती । इसलिए जिस ज्ञान के बारे में अभी सोच नहीं रहें हैं, वह यहां नहीं कहा जा रहा है । अब यदि हम इन प्रमाणों को वृत्ति-रूप में देखें तो ऐसा समझें –
(१) प्रत्यक्ष – इन्द्रियों से आते हुए signals जब चित्त में पहुंचते हैं तो चित्त उनको पहले तो वे जैसे हैं, वैसे उनको समझता है – यह प्रकाश है,यह गन्ध है, यह शब्द है, इत्यादि । फिर वह स्मृति में बसे database में खोजता है, और पुराने अनुभव से मिलाप करके जान लेता है कि इस signal का अर्थ क्या है – यह लाल रंग है, यह गुलाब की सुगन्ध है, यह दूरदर्शन पर विज्ञापन आ रहा है, इत्यादि । इस प्रकार हम उपलब्ध विषय का निर्णय कर लेते हैं – यह वस्तु क्या है, यह समझ लेते हैं । ये सब प्रक्रियाएं “प्रत्यक्ष चित्त-वृत्ति” में सम्मिलित हैं ।
(२) अनुमान – ऊपर प्रत्यक्ष में हमने विषय को पहचान लिया । अब हम उसके बारे में और जानना चाहते हैं । “सामने आती परिचित स्त्री उमा है” – यह हमने प्रत्यक्ष से जान लिया । हमने पिछली बार उमा को जब देखा था तब क्या प्रसंग था? स्मृति ने उत्तर दिया – “पिछले सप्ताह यह शिमला जा रही थी । अवश्य ही यह वापस आ गई है या फिर गई ही नहीं ।” यह क्रम अनुमान का है । सो इसके अन्तर्गतanalysis और reasoning आ जाते हैं । किसी भी वैज्ञानिक विषय को पढ़ते समय इस वृत्ति का प्रयोग होता है । जैसे गणित में सवाल सुलझाते समय । परन्तु, उदाहरणानुसार, छोटे-छोटे विषयों में भी इस वृत्ति का हर समय प्रयोग होता ही रहता है ।
(३) आगम – जब आचार्य कोई नई चीज़ बताते हैं तो उनके शब्दों के साथ-साथ हमारे मन में एक चित्र खिंचता जाता है । जहां हम किसी विचार या वस्तु से पूर्ण रूप से अनभिज्ञ होते हैं, वहां हम उपमा के प्रयोग से उसको समझते हैं । जैसे गुरु ने कहा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूम रही है, तो हम मानस-पटल पर दो गेंदों को देखते हैं – एक सुनहरे रंग की जो बीच में स्थिर है, और एक नीले-हरे रंग की जो उसके चारों ओर अंडाकार रेखा में घूम रही है । यह मानसिक चित्रण के द्वारा शब्दों का समझना आगम चित्त-वृत्ति है ।
शब्दों को समझने की प्रक्रिया कुछ अलग ही होती है । पहले हम कानों में पड़ती हुई ध्वनियों को अलग-अलग शब्दों के रूप में पहचानते हैं । फिर उन शब्दों से स्मृति में स्थित अर्थ तक पहुंचते हैं । फिर सब शब्दों के अर्थों को मिलाकर वाक्य के मानसिक चित्र तक पहुंचते हैं । अभ्यास के साथ हम ये सब इतनी जल्दी कर लेते हैं, कि हमको इन सोपानों का आभास भी नहीं होता । पर यदि आप बच्चे को भाषा सीखते हुए देखें, तो आप समझेंगे कि भाषा समझना कितना complex कार्य है और क्यों यह मनुष्य में ही विकसित हो पाई है । इसमें मस्तिष्क का एक विशेष भाग कार्य करता है, जो केवल भाषा को ही समझने का कार्य करता है !
इसी प्रकार विपर्यय और विकल्प वृत्तियों को ज्ञान रूप में समझना आसान है, परन्तु चित्त-वृत्ति रूप में समझना कठिन है । आइये, हम इनको भी समझें ।
विपर्यय – पतञ्जलि कहते हैं कि यह मिथ्याज्ञान है, जिससे हम जैसे को तैसा नहीं समझते, कुछ और ही समझ बैठते हैं (विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥१।८॥) । जैसे – जीवात्मा समझता है कि वह यह शरीर है, जबकि वह है कुछ और । यदि हम सूत्र २।५ में दी अविद्या की परिभाषा (अनित्याशुचिदु:खानात्मासु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥२।५॥) – अनित्य में नित्य, अशुचि में शुचि, दु:ख में सुख, अनात्मा में आत्मा – से मिलाएं, तो यह विपर्यय-वृत्ति अविद्या-क्लेश के बराबर ही है, क्योंकि दोनों ही मिथ्याज्ञान हैं । यहां तक कि “ध्यानहेयास्तद्वृत्तय: (२।११)” में पतञ्जलि क्लेशों को वृत्तियां ही कहते हैं । लेकिन पुन:, ज्ञान तो चित्त-वृत्ति नहीं है – वह तो मस्तिष्क में बैठी कुछ स्मृतियां है ! वस्तुत:, यह विपर्यय ज्ञान चित्त-वृत्ति तब बनता है, जब इस ज्ञान के आधार पर हम कुछ व्यवहार करते हैं । जैसे – शरीर पर चोट लगने से हम दु:ख का अनुभव करते हैं । यहां चोट तो प्रकृति से बने इस जड़ शरीर को लगी, लेकिन कष्ट हम अपने में अनुभव करते हैं । सो मिथ्याज्ञान के कारण, प्रत्यक्ष, आदि, में दु:ख-सुख, राग-द्वेष, आदि, करना, अर्थात् emotions, विपर्यय-वृत्ति हैं ।
अब विकल्प । पतञ्जलि कहते हैं – यह वह वृत्ति है जो शब्दों में ही बसी होती है – जो वस्तु-स्थिति नहीं होती है, उसको कहती है (शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प: ॥१।९॥) । तो यह तो आगम और विपर्यय का मिश्रण हो गया ! नहीं, यह काल्पनिक वृत्ति कही जा रही है, जिससे एक कथाकार कहानी लिखता है, एक चित्रकार अपना चित्र बनाता है, एक संगीतकार अपनी कृति बनाता है । इसीलिए इसका नाम “विकल्प” सही भी है – क्योंकि इसमें पूरी तरह विकल्प ही विकल्प है, जैसा हम चाहें वैसा ही सोच लें, उस विचार के आधार पर कोई कृति बना लें, और चाहें तो मन में ही ख़्याली जाल बुनते रहें । और यह किसी दूसरे की काल्पनिक कृति समझने में भी कार्य करती है – जब हम किसी की कहानी पढ़ते है, चित्र देखते हैं, संगीत सुनते है, तब हम जो चित्रण करते हैं, समझते हैं, वह भी विकल्प है । वहां भी हमें अपने अनुसार समझने की पूरी छूट है – कोई एक गाना सुनकर हंस देता है, कोई रो देता है । सो, यह कल्पना-वृत्ति है । वास्तविकता पर आधारित है, परन्तु वास्तविकता है नहीं !
इस प्रकार वृत्तियों को समझने पर, हम यह भी पाते हैं कि हमारी सारे सोचने के प्रकार यहां आ गए हैं । यह आवश्यक है, क्योंकि यदि हम चित्त को स्थिर करने की बात कर रहे हैं, तो हमें सभी सम्भव सोचने के प्रकारों को रोकना है, न केवल एक-दो को । और यदि हम चित्त-वृत्तियों को उपर्युक्त प्रकार से नहीं समझेंगे, तो सूत्र १।६ में हमारे कुछ सोचने के प्रकार रह जायेंगे ।
एक और बात समझने की यह है कि कोई भी वृत्ति अकेली नहीं काम करती, उसमें अन्य वृत्तियों का मिश्रण होता ही है । जैसे – प्रत्यक्ष में विषय को समझने के लिए अवश्य ही हमें स्मृति का प्रयोग करना पड़ता है । बिना स्मृति के हम हर बार विषय को नई दृष्टि से देखेंगे, उसको पहचानने में असमर्थ होंगे ! इसी प्रकार आगम में ऊपर कही “उपमा” वास्तव में अनुमान का अंश है – जब हम एक वस्तु से दूसरे को समझते हैं, तब हम दूसरी वस्तु का अनुमान लगा रहे होते हैं । ये वृत्तियां वस्तुत: हमारे समझने की आसानी के लिए हैं, चित्त तो इनका प्रयोग मिला-जुला कर ही करता है ।
अब इन वृत्तियों की तुलना अन्य शास्त्रों में बताए गए तथ्यों से करते हैं ।
कई शास्त्रों में अन्त:करण के ४ भेद माने गए हैं – मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । देखें ये इन चित्त-वृत्तियों से कैसे सम्बद्ध हैं – क्या वे एक ही है, या अलग-अलग हैं ? महर्षि ने इनको ऐसे बताया है – “… अन्त:करण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से संकल्प-विकल्प, निश्चय, स्मरण और अभिमान करने वाला जीव… (सत्यार्थ-प्रकाश, नवम समुल्लास)”। अर्थात् मन से संकल्प-विकल्प् होता है, बुद्धि से निश्चय, चित्त से स्मरण और अहंकार से अभिमान । स्वामी विद्यानन्द सरस्वती इसपर अपनी व्याख्या में लिखते हैं –
“मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार एक-दूसरे से पृथक अथवा स्वतन्त्र तत्त्व नहीं हैं, अपितु एक मन की विभिन्न शक्ति युक्त कार्य करने की स्थितिविशेष के बोधक हैं। … मनस्तत्व का एक भाग ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बाह्यजगत् का ज्ञान प्राप्त कर, कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म में प्रवृत्त होता है । इसे ’मन’ कहते हैं । इसी मनस्तत्त्व के दूसरे भाग को, जो मस्तिष्क में रहकर ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान की यथार्थता का निश्चय कर, तदनुसार आवश्यक कार्य करने का आदेश देता है, ’बुद्धि’ कहते हैं । इसी अन्त:करण के एक भाग में ज्ञानक्षेत्र के अनुभव तथा कर्मक्षेत्र के संस्कार अंकित होते हैं, और समय आने पर स्मृति-रूप में उभरते रहते हैं । अन्त:करण का यह भाग ’चित्त’ कहाता है । … इसी मनोमय तत्त्व अथवा अन्त:करण का चौथा भाग ’धृति’ अथवा ’अहंकार’ कहाता है । इस विभाग द्वारा वे सब कार्य किए जाते हैं जिनका आत्मा को प्रत्यक्षरूप से ज्ञान नहीं होता । आत्मा से एक बार स्थायी आदेश (Standing Instruction) मिल जाने के पश्चात् अभ्यास के कारण ये कार्य स्वत: होते रहते हैं । हर समय आदेश लेते रहना नहीं पड़ता । इस प्रकार एक ही मन के विभिन्न कार्यों में, हेतु होने से, उसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है ।”
सो विद्यानन्दजी कह रहें हैं कि ये चार भेद अपनी कार्य-शक्ति के अनुसार बांटे गए हैं ।
अब हम इन्हें योगदर्शन की वृत्तियों से मिलाएं । निद्रा वृत्ति अन्त:करण के भेदों में नहीं है, क्योंकि वह अन्त:करण का कोई भाग नहीं है । बस, निद्रा में इन सभी मन के भागों में शिथिलता आ जाती है ।
स्मृति-वृत्ति तो स्मृति-रूप चित्त से अभिन्न है – यह भी स्पष्ट ही है ।
मिलाप करने से यह भी आसानी से ज्ञात हो जाता है कि प्रत्यक्ष वृत्ति मन की होती है । मन का “संकल्प” भाग जो कर्मेन्द्रियों को प्रेरित करता है, वह भाग योगदर्शन में नहीं कहा गया है, क्योंकि इस दर्शन में कर्मेन्द्रियों की शिथिलता तो, अति आसान मानकर, एक ही सूत्र में कह दी गई हैं – “स्थिरसुखमासनम् (२।४६)” । योगशास्त्र का यह प्रतिपाद्य विषय नहीं है । मन के “विकल्प” भाग में सम्भवत: विकल्प वृत्ति का अंश है ।
अनुमान, आगम और विकल्प वृत्तियां – ये निश्चयात्मक बुद्धि के कार्य हैं – इसमें भी कोई संशय नहीं है ।
अहंकार से वस्तुत: हमें अपनी आत्मा और अपने शरीर के बीच में अभिन्नता प्रतीत होती है जिससे हम शरीर में “अहं = मैं” का अनुभव करते हैं । इसके उपरान्त ही हम “अभिमान” अर्थात् “मैंने किया” – ऐसा घमण्ड करते हैं, मृत्यु से डरते हैं, राग-द्वेष करते हैं । इसलिए यह विपर्यय वृत्ति है ।
इस प्रकार जबकि योगदर्शन अन्त:करण के कार्यों पर दृष्टि डालता है, अन्त:करण के भेदों में हम उसकी कार्य-क्षमताओं पर जोर देते हैं । भेद थोड़ा सा ही है – focus अलग-अलग हैं ।
इसी विषय से सम्बद्ध, माण्डूक्योपनिषद् आदि ग्रन्थों में चेतन, शरीर-युक्त जीवात्मा की चार अवस्थाएं बताई हैं – जागरित, स्वप्न, सुषुप्ति और समाधिस्थ । पुन: ये चित्त के व्यवहारानुसार ही भेद हैं । जागरित में जीवात्मा ’बहिष्प्रज्ञ’ होता है, उसकी इन्द्रियां बाहर के विषय ग्रहण करती हैं । अर्थात् यहां निद्रा को छोड़ सभी वृत्तियां कार्य करती हैं । निद्रा के यहां दो भाग किए गए हैं – स्वप्न और सुषुप्ति । स्वप्नावस्था में जीव ’अन्त:प्रज्ञ’ होता है – वह बाहर के विषयों से असम्बद्ध हो जाता है, परन्तु चित्त अन्दर ही अन्दर स्मृतियों को तोड़-मरोड़ कर हमें प्रस्तुत करता है । सुषुप्ति में चित्त प्राय: शून्य के बराबर कार्य करता है, और जीव में भी शिथिलता आ जाती है । समाधि अवस्था तो पूरे योगदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । इसमें चित्त की सभी वृत्तियां शान्त हो जाने से, जीव के लिए संसार का भी अभाव-सा हो जाता है, और जीव अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है ।
इस प्रकार जो ग्रन्थ जिस विषय का प्रतिपादन कर रहा है, उसके अनुसार एक ही बात को थोड़ा-सा बदल कर कहता है । विषयानुसार केन्द्र-बिन्दु बदल देता है, और किसी अंश को अधिक, किसी को कम समझाता है । लेकिन मूल सिद्धान्त वही बने रहते हैं, उनमें कोई परिवर्तन नहीं आता । उनके भिन्न-भिन्न रूपों को देखकर, हमें संशय नहीं करना चाहिए ।