योगदर्शन में समाधि

पातञ्जल योगदर्शन में समाधि प्रकरण में कुछ ऐसी संज्ञाएं आती हैं जिनसे इस विषय में कुछ संशय उत्पन्न हो जाते हैं । यह विषय कठिन है, तथापि यहां मैं इसका कुछ स्पष्टीकरण देने का प्रयास कर रही हूं । यह लेख जिन्होंने योगदर्शन के व्यास-भाष्य का अध्ययन किया है, उनके लिए विशेषकर लाभदायी है । क्योंकि योगदर्शन के पढ़ने-पढ़ाने वाले बहुत हैं, सो उनके समक्ष अपने विचार रख रही हूं । 

योगदर्शन में एक सूत्र आता है – 

वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्  सम्प्रज्ञातः ॥१।१७॥

जिसका प्रायः अर्थ इस प्रकार किया जाता है – वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता रूपों को प्राप्त करने से सम्प्रज्ञात समाधि होती है । इस प्रकार इस सूत्र में ‘समाधिः’ की अनुवृत्ति ली जाती है ।

परन्तु इस सूत्र के व्यास-भाष्य से हमें कुछ अन्य अनुवृत्ति प्राप्त होती है – “वितर्कश्चित्तस्यालम्बने स्थूल आभोगः। … तत्र प्रथमश्चतुष्टयानुगतः समाधिः सवितर्कः ।” अर्थात् वितर्क  स्थिति में चित्त स्थूल विषयों का आलम्बन करता है। … इन चार में प्रथम समाधि चारों (चित्तों) से अनुगत होने वाली सवितर्क समाधि कहलाती है । अर्थात् ‘वितर्क’ चित्त का विशेषण है और ‘सवितर्क’ समाधि का । इससे निष्कर्ष निकला कि ‘सम्प्रज्ञात’ भी चित्त का विशेषण है और उस चित्त से अनुगत अवस्था को ‘समाधि’ कहा जाता है । सो, जब चित्त ‘वितर्क सम्प्रज्ञात’ होता है, तब समाधि ‘सवितर्का’ होती है, अर्थात् वितर्क चित्त को लिए हुए । और यह सही भी प्रतीत होता है क्योंकि यहां चित्त का ही प्रकरण चल रहा है और समाधि का प्रकरण आगे आता है । तीन सूत्र छोड़कर, पतञ्जलि मुनि स्वयं कहते हैं –

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक  इतरेषाम् ॥१।२०॥

अर्थात् अन्यों के चित्त श्रद्धा, वीर्य, स्मृति और समाधि वाले होते हैं । यहां यदि ‘चित्त’ को छोड़, ‘समाधि’ की अनुवृत्ति ली जाए, तो अर्थ बनेगा – ‘समाधिपूर्वक समाधि’ । व्याख्याकारों द्वारा आग्रह करके यह अर्थ लिया भी गया है, परन्तु स्पष्टतः यह वाक्य सम्यक् नहीं है और पतञ्जलि का मत कुछ अन्य है ! इस सूत्र से भी ज्ञात होता है कि १।१७ में ‘चित्तः’ की अनुवृत्ति ही सही है और इस सूत्र में समाधिपूर्वक चित्त की बात की गई है ।

यहां इस ‘बाल की खाल खींचने’ का प्रयोजन यह है कि हम पाद में आगे दी गई समाधियों को सही रूप में समझ सकें । सत्रहवें सूत्र में वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता को सम्प्रज्ञात समाधियों के नाम से पढ़ने के कारण हम आगे के सूत्रों में दी गई सवितर्का, निर्वितर्का, सविचारा, निर्विचारा नाम वाली सबीज समाधियां, अध्यात्मप्रसाद देने वाली अनन्तर दशा और निर्बीज समाधियों को पहचानने में भूल कर जाते हैं । क्या ये अन्तिम चार नई समाधियां हैं ? यदि नहीं हैं, तो इनमें और सत्रहवें सूत्र की समाधियों में क्या साम्य है ? इनके नामों में तो साम्य प्रतीत होता है, तथापि वे भिन्न भी हैं ! दूसरी ओर, यदि ये नई हैं, तो इनका पूर्व बताई समाधियों से क्या सम्बन्ध है ? क्या ये ‘असम्प्रज्ञात’ समाधियों के प्रकार हैं जो पूर्व नहीं कही गई थीं ? परन्तु सवितर्का तो स्पष्टतः निम्न स्तर की समाधि है, जबकि व्यास ने असम्प्रज्ञात को सम्प्रज्ञात से उच्चतर स्तर की समाधि बताया है । तो यह भी हल ठीक नहीं हो सकता । 

इस विषय पर पहले हम व्यास का मत पूर्णतया जान लेते हैं – “वितर्कश्चित्तस्यालम्बने स्थूल आभोगः । सूक्ष्मो विचारः । आनन्दो ह्लादः । एकात्मिका संविदस्मिता । तत्र प्रथमश्चतुष्टयानुगतः समाधिः सवितर्कः । द्वितीयो वितर्कविकलः सविचारः । तृतीयो विचारविकलः सानन्दः । चतुर्थस्तद्विकलोऽस्मितामात्र इति । सर्व एते सालम्बना ॥ व्यासभाष्य १।१७॥”  – अर्थात्  वितर्क चित्त का आलम्बन स्थूल विषय होते है । विचार में सूक्ष्म, आनन्द में ह्लाद और अस्मिता चित्त में एकात्मता के ज्ञान (का आलम्बन होता है) । इन वितर्क आदि चारों चित्तों से युक्त पहली समाधि सवितर्क है । द्वितीय समाधि वितर्क से रहित (परन्तु विचार, आनन्द और अस्मिता से अनुगत) सविचार समाधि होती है । तीसरी विचार से भी रहित (सानन्द समाधि होती है) । चौथी आनन्द से भी रहित अस्मितामात्र (सास्मिता समाधि) होती है । ये सभी (किसी विषय का आश्रय लेने के कारण) सालम्बना होती हैं । 

इस प्रकार आगे कही सवितर्का आदि समाधियों को व्यास ने समाधि ही माना है और वितर्क आदि को चित्त माना है ।

अब हम इन वितर्कादि समाधियों के पतञ्जलि के विवरण को देखते हैं । पहले वे समापत्ति = समाधि की परिभाषा देते हैं –

क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव  मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु  तत्स्थतदञ्जनता  समापत्तिः ॥१।४१॥

अर्थात् जैसे स्वच्छ मणि में (पीछे रखी वस्तु उसके अन्दर समाई दिखती है, उसी प्रकार ) चित्त की वृत्तियां क्षीण हो जाने पर, ग्रहीता (=जीवात्मा), ग्रहण (विषय का ज्ञान) और ग्राह्य (विषय) में स्थित होकर, चित्त जो उनके स्वरूपाकार होता है, उसे समापत्ति (समाधि) कहते हैं । अर्थात् चित्त अपनी ओर से जो अनुमान आदि ज्ञान जोड़ता है, वे नहीं जोड़ता – केवल विषय, उसके ज्ञान और आत्मा की अस्मिता का बोध कराता है ।

परन्तु आरम्भिक समाधियों में कुछ ज्ञान जोड़ता भी है, यथा –

तत्र  शब्दार्थज्ञानविकल्पैः  सङ्कीर्णा  सवितर्का  समापत्तिः ॥१।४२॥

अर्थात् उस क्षीणवृत्ति की स्थिति में, जहां शब्द, उसका अर्थ (विषय) और उस अर्थ के ज्ञान का मिश्रित विकल्प (मिश्रित बोध) बना रहता है, वहां सवितर्का समाधि होती है । अर्थात्, जब हम गौ शब्द सुनते हैं, तो तुरन्त ही हमें गौ पशु का बोध हो जाता है – शब्द को हम बिना उसका अर्थ किए जैसे सुन ही नहीं पाते । तुरन्त ही हम स्मृति से शब्द का अर्थ निकालते हैं और चित्त में पशु का चित्र उभर आता है । इस संकीर्णता को पतञ्जलि ने सम्भवतः ‘वितर्क’ इसलिए कहा है कि इसमें चित्त की स्मृति-शक्ति का प्रयोग होता है । 

इसके विपरीत –

स्मृतिपरिशुद्धौ  स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा  निर्वितर्का ॥१।४३॥

अर्थात् स्मृति के साफ हो जाने पर, शब्द-विषय मात्र का ज्ञान होता है, उससे सम्बद्ध ज्ञान शून्य जैसा हो जाता है । इसे निर्वितर्का समाधि कहते हैं । यहां निर्वितर्का संज्ञा सम्भवतः इसलिए है कि यहां स्मृति आदि चित्तवृत्तियों का समावेश नहीं होता, केवल प्रत्यक्ष – जो कि सबसे सरल चित्तवृत्ति होती है, बच्चे व अन्य जीव भी इसका प्रयोग करते हैं – रह जाती है) ।

आगे –

एतयैव  सविचारा  निर्विचारा  च  सूक्ष्मविषया  व्याख्याता ॥१।४४॥

अर्थात् ऊपर के दो सूत्रों से सविचारा और निर्विचारा समाधियां, जिनका वितर्का से केवल इतना अन्तर होता है कि इनमें विषय सूक्ष्म होता है, भी व्याख्यात हो गईं ।

इस सूत्र से अर्थापत्ति द्वारा हम अनेक निष्कर्ष निकाल सकते हैं –

  • स/निर्-वितर्का समाधि में स्थूल विषय होता है और स/निर्-विचारा में सूक्ष्म । इसलिए जो व्यास ने कहा था कि वितर्का में विचारा भी सम्मिलित होती है, वह सही नहीं है । वस्तुतः, वितर्का समाधि में निपुण/विशारद होने पर, जीवात्मा परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थों को साक्षात् करने लगता है, जैसा कि पतञ्जलि ने अगले सूत्र में स्वयं कहा है – सूक्ष्मविषयत्वं  चालिङ्गपर्यवसानम् ॥१।४५॥ – विचारा समाधि में अलिङ्ग = प्रधान वा मूल प्रकृति तक साक्षात्कार होता है । यह सूक्ष्मविषय का प्रत्यक्षीकरण वितर्का समाधि में नहीं होता, विचारा में ही होता है ।
  • १।४२ सूत्र में जो शब्द-विषय कहा गया है, उससे सभी स्थूल विषयों का ग्रहण कर लेना चाहिए ।
  • सविचारा समाधि में प्रत्यक्ष की जा रही वस्तु का अन्य ज्ञान से सम्बन्ध रहेगा, जो कि निर्विचारा में नहीं रहेगा । इसीलिए इन समाधियों के ये नाम हैं – सविचारा में वस्तु को पहचानने की चेष्टा बनी रहेगी, जबकि निर्विचारा में विषय के आलम्बन में कोई भी विचार नहीं रहेगा, केवल प्रत्यक्षीकरण रहेगा ।

आगे –

ता  एव  सबीज  समाधिः ॥१।४६॥

अर्थात् ऊपर कही दो प्रकार (स/निर्-वितर्का और स/निर्-विचारा) की समाधियां सबीज = सालम्बन है ।

इससे यह अर्थ निकला कि आगे पढ़ी गई ‘सानन्दा’ व ‘सास्मिता’ (मेरे दिए नाम!) समाधियां सालम्बन नहीं हैं । इस प्रकार पुनः व्यास का मत सही नहीं है !

पतञ्जलि आगे की समाधियों को स्पष्ट करते हैं –

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥१।४७॥

अर्थात् निर्विचार में विशारद प्राप्त हो जाने पर, आत्मा को आनन्द मिलता है । जबकि यहां स्पष्टतया कहा नहीं गया है, और भाष्य में भी ऐसा नहीं बताया गया है, तथापि यह आनन्द सम्प्रज्ञात चित्त से युक्त समाधि की ही चर्चा हो रही है । जब चित्त विचार करना बन्द करने लगता है, तब वह पारदर्शी होने लगता है और आत्मा अपने स्वरूप की झलक प्राप्त करने लगती है । प्रकृति-रहित इस रूप को देखकर, आत्मा में अभूतपूर्व सन्तोष उत्पन्न होता है । यह आनन्द सम्प्रज्ञात चित्त है । इस समाधि की अन्य विशेषताओं में से एक है –

तज्जः  संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥१।५०॥

अर्थात् समाधि से जनित संस्कार अन्य संस्कारों को बाधते हैं । इस प्रकार जो संस्कार समाधि-अवस्था से बाहर निकलने पर, जागृत अवस्था में बनते हैं, वे अब बनना बन्द होने लगते हैं । तथापि समाधि-जनित संस्कार भी अन्ततः हैं तो संस्कार ही, इसलिए उनको भी दूर करना आवश्यक है । इसका उपाय है –

तस्यापि  निरोधे  सर्वनिरोधान्निर्बीजः  समाधिः ॥१।५१॥

अर्थात् उन सानन्द समाधि जनित संस्कारों का भी निरोध हो जाने पर, सब संस्कारों का बनना बन्द हो जाता है । यह निर्बीज समाधि होती है । सानन्दा समाधि में ऋतम्भरा प्रज्ञा चित्त का विषय होती है । वह भी इस समाधि में विषय नहीं रहती । इस प्रकार इस स्थिति में चित्त कार्य करना ही बन्द कर देता है, पूर्णतया निरालम्बन हो जाता है । तब आत्मा अपने को स्पष्टतया देख पाती है । इसलिए इस समाधि को ‘सास्मिता’ कहते हैं (अस्मिता = अपने होने का भाव) ।

इस प्रकार समझने से १।१७ में बताये गए चित्तों के स्वरूपों का उन-उन समाधियों के साथ सम्बन्ध स्पष्ट हो जाते हैं; अन्यथा यह मानना पड़ेगा कि पतञ्जलि ने अपने मुख्य विषय को  १।१७ में संज्ञा देकर ही छोड़ दिया, उनका विवरण ही नहीं दिया ! 

परन्तु १।१८वें सूत्र के भाष्य पर, निर्बीज समाधि को व्यास ने एक नई संज्ञा दी है – ‘असम्प्रज्ञात’ समाधि । पहले हम सूत्र देखते हैं –

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः  संस्कारशेषोऽन्यः ॥१।१८॥ अनुवृत्तिः – चित्तः ॥

सत्रहवें सूत्र में बताए चित्त-प्रकारों से अन्य वह चित्त है जिसमें अभ्यास द्वारा प्रत्ययों = ज्ञानों का विराम हो गया है और जिसमें केवल संस्कार ही शेष रहे हैं । ये वे संस्कार हैं जो कि राग-द्वेष से सम्बद्ध नहीं हैं, क्योंकि पूर्व ही विरक्ति द्वारा उनका तो नाश कर दिया गया है, प्रत्युत ये वे संस्कार हैं जिनके द्वारा हम शरीर से प्रत्यय = अपने शरीर और संसार का ज्ञान इन्द्रियों आदि द्वारा प्राप्त करते हैं । इसलिए ये शुद्ध ही होते हैं ।  

यहां व्यास कहते हैं – “सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य समाधिरसम्प्रज्ञातः । … विरामप्रत्ययो निर्वस्तुक आलम्बनीक्रियते । स चार्थशून्यः । तदभ्यासपूर्वकं हि चित्तं निरालम्बनमभावप्राप्तमिव भवतीत्येष निर्बीजः समाधिरसम्प्रज्ञातः ॥” – अर्थात् चित्त की सारी वृत्तियों के अस्त हो जाने पर, चित्त संस्कारशेष और निरुद्ध हो जाता है । उस चित्त की समाधि को ‘असम्प्रज्ञात’ कहते हैं । वह चित्त विरामप्रत्यय = किसी वस्तु का आलम्बन नहीं करता । वह विषयशून्य होता है । विरामप्रत्यय के अभ्यासपूर्वक चित्त ही निरालम्बनता का भाव प्राप्त करता है और उस चित्त की यह निर्बीज समाधि असम्प्रज्ञात होती है ।

यहां ध्यान देने योग्य है कि सम्पूर्ण योगदर्शन में पतञ्जलि ने कहीं भी ‘असम्प्रज्ञात’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है । और यदि निर्बीज समाधि असम्प्रज्ञात है तो फिर ‘अस्मिता’ समाधि कौन सी है – यह तो व्यास अथवा पतञ्जलि ने बताया ही नहीं ! वस्तुतः यहीं चित्त और समाधि में भेद महत्त्वपूर्ण हो जाता है । १।१७ में जो समाधि-चित्त कहे गए हैं, वे सब आसन ग्रहण करके, आंखे बन्द करके, श्वास-प्रश्वास को हल्का करके, इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके उपलब्ध होते हैं । वे आंखे खोल के, चलते-फिरते नहीं उपलब्ध होते । जागृत अवस्था में जब चित्त निरालम्बन होता है, उस दशा को १।१८ में कहा गया है । तब वह संस्कारशेष चित्त ‘अन्य’ ही होता है, जिसका वर्णन पतञ्जलि इस प्रकार करते हैं –

प्रसङ्ख्यानेऽप्यकुसीदस्य  सर्वथा  विवेकख्यातेर्धर्ममेघः  समाधिः ॥४।२९॥ अनुवृत्तिः – चित्तस्य ॥

अर्थात् जागृत अवस्था में भी, जो चित्त कुत्सित विषयों में आत्मभाव नहीं रखता है, अपितु सब प्रकार से विवेकख्याति में रहता है, वह उसकी धर्ममेघ समाधि होती है । यह ‘समाधि’ वस्तुतः जागृतावस्था में होती है । यहां ‘समाधि’ चित्त में स्थित न होकर, आत्मा में स्थित होती है । इसीलिए इसे पतञ्जलि ने समाधिपाद में नहीं गिनाया है, प्रत्युत इसे कैवल्यपाद में गिनाया है, क्योंकि यहां आत्मा में चित्त का आलम्बन समाप्त होने लगता है । केवल शरीर को चलाते रहने के लिए कुछ संस्कार ही शेष रहते हैं; उन्ही का ग्रहण १।१८ में किया गया है । सांख्य भी इसका अनुमोदन करता है –

जीवन्मुक्तश्च ॥… चक्रभ्रमणवद्धृतशरीरः ॥ संस्कारलेशस्तत्सिद्धिः ॥ साङ्ख्य० ३।७८, ८२-८३॥

अर्थात् जिन आत्माओं को विवेकख्याति हो जाति है, वे जीते हुए भी मुक्त हो जाती हैं (शरीर से बाधित नहीं होतीं, स्वतन्त्र होकर भी भ्रमण करती हैं) । जैसे बल हटाने पर, चक्र कुछ समय बाद भी घूमता रहता है, उसी प्रकार वे शरीर धारण किए रहती हैं (वस्तुतः, उनको शरीर की आवश्यकता नहीं रहती) । इस शरीर-धारण के लिए लेशमात्र संस्कार बने रहते हैं । यहां से हम समझ पाते हैं कि ये वे संस्कार हैं जो शरीर से केवल इतनी आत्मीयता बनाए रखते हैं कि आत्मा शरीर को हिलाने-डुलाने, भोजन ग्रहण करने, आदि, में सफल हो; नहीं तो यदि वह शरीर से इतना अलग हो गया कि वह उसे चला भी न पाए, तो उस शरीर की शीघ्र ही मृत्यु हो जायेगी और जीवन्मुक्तों जैसे जन प्राप्त ही न होंगे !

यहां ‘सम्प्रज्ञात’ शब्द के अर्थों पर विचार करना भी अनुपयुक्त न होगा । ‘सम्प्रज्ञात’ का अर्थ है ‘भली प्रकार, विशेष प्रकार से जानने वाला’ । सो, वितर्क से लेकर अस्मिता तक, चित्त जागृतावस्था में अपना व्यवहार करता रहता है, हमें अपने और संसार का ज्ञान देता रहता है, भले ही वह व्यवहार समाधि में क्षीण होते-होते, सास्मिता समाधि में प्रायः बन्द ही क्यों न हो गया हो । इसके बाद वह स्थिति आती है जब जागृतावस्था में भी चित्त कार्य न के बराबर करता है; इसे धर्ममेघ समाधि कहते है और इसमें चित्त ‘जानना’ बन्द कर देता है ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि योगदर्शन के समाधिपाद में जिन चित्तों को १।१७ में गिनाया गया है, उन्हीं का सम्बन्ध समाधि से आगे १।४१-५१ में जोड़ा गया है । और जो ‘अन्य’ चित्त का १।१८ में संकेत आता है, वह चित्त की समाधि से भी उच्चतर दशा है, जिसका विस्तृत वर्णन कैवल्यपाद में आता है, जहां वह चित्त प्रकृति में लय हुआ बताया गया है और आत्मा शरीर से स्वतन्त्र होने लगती है । तब जो अवस्था होती है, उसे ‘धर्ममेघ समाधि’ कहा गया है । यह समाधि चित्त नहीं, अपितु आत्मा में होती है । एक प्रकार से यह समाधि होती ही नहीं, प्रत्युत आत्मा की अखण्ड (अविप्लवा) विवेकख्याति होती है । भाष्यकार व्यास ने जो ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ बताई है, वैसे पद का पतञ्जलि ने ग्रन्थ में कहीं भी प्रयोग नहीं किया है । इसी प्रकार उपाय-प्रत्यय योगी आदि जो विचार भाष्य में प्रस्तुत किए गए हैं, वे सब व्यास के व्यक्तिगत विचार हैं; पतञ्जलि के सूत्रों में कहीं इनका आधार नहीं मिलता । लेख में दिए प्रकार से समझने से ग्रन्थ के सभी वाक्य सुस्पष्ट हो जाते हैं और नई-नई संज्ञाओं और स्थितियों की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।