शब्द प्रमाण – १
एक संस्कृत प्रोफैसर का शास्त्र-विषयक वक्तव्य सुना । वे बहुत ही प्रसिद्ध हैं और सम्प्रति एक संस्कृत विश्वविद्यालय के वाइस्-चान्सलर हैं । प्रमाणों के विषय में बताते हुए, उन्होंने कहा कि प्रत्यक्ष और अनुमान तो सिद्ध ही हैं, परन्तु शब्द प्रमाण के विषय में अनेकों शास्त्रों में संशय व्यक्त किया गया है, क्योंकि केवल शब्दों से कहे जाने से कोई पदार्थ सही कैसे माना जा सकता है । उन्होंने स्वयं अपना संशय इस विषय में व्यक्त किया और इस प्रमाण को सन्दिग्ध प्रमाण की श्रेणी में डाल दिया । यदि गौतम प्रभृति ऋषियों ने इसको प्रमाण घोषित न किया होता, तो वे सम्भवतः इसको सीधा-सीधा नकार देते । इस वचन से क्षुब्ध होकर, इस प्रमाण के विषय मैं यह लेख लिख रही हूं । अवश्य ही मेरे विचार उन तक इस लेख के माध्यम से नहीं पहुंच रहे हैं, परन्तु आशा है कि जिन पाठकों के मन में इस प्रमाण के विषय में संशय है, उसे मैं दूर कर पाऊंगी । क्या पता, कभी आचार्यों के कानों तक भी मेरे शब्द पहुंच जायें, और वे नए ग्रन्थों में प्रकट नए संशयों से ऊपर उठकर, प्राचीन ऋषियों के मत को समझ पायें…
यह सत्य है कि कोई भी व्यक्ति सच भी बोल सकता है और झूठ भी । इसीलिए हमें यह संशय होता है कि कैसे किसी के वचन को प्रामाणिक मानें । और यदि हमको वचन को प्रमाणित करना पड़ा, तो फिर वह वचन स्वयं प्रमाण नहीं माना जा सकता । यह सन्देह अवश्य ही स्वाभाविक है, परन्तु ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में इसका उत्तर दे रखा है । पहले देखते हैं कि प्रमाणों के विषय के सबसे बड़े ज्ञाता, न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम मुनि इस विषय में क्या कहते हैं –
आप्तोपदेशः शब्दः । स द्विविधो दृष्टादृष्तार्थत्वात् ॥न्यायदर्शन १।१।७, ८॥
अर्थात् आप्त = जो व्यक्ति किसी विषय का जाना-माना ज्ञाता हो, और जो किसी बाह्य प्रभाव से अपने मत को झुठला नहीं सकता, ऐसे आप्त पुरुष के वचन प्रामाणिक होते हैं । और ये वचन दो प्रकार के होते हैं – दृष्ट विषयों से सम्बद्ध और अदृष्ट विषयों से सम्बद्ध ।
पतञ्जलि ने भी यही परिभाषा स्वीकृत की है – आप्तोपदेशः शब्दः ॥ योगदर्शन १।१।७॥ कपिल ने भी यही शब्द दौहराए हैं – आप्तोपदेशः शब्दः ॥साङ्ख्यदर्शन १।६६॥ वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा वेदवचन को प्रामाणिक मानने के प्रसंग में शब्द प्रमाण को उपादेय स्वीकार करते हैं – तस्मादागमिकः (वैशेषिक ३।२।८), औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः … तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात् ॥पूर्वमीमांसा १।१।५॥, सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् ॥उत्तरमीमांसा १।२।१॥
इस प्रकार छःयों दर्शनों ने शब्द प्रमाण को स्वीकारा है । अब संशय कहां उत्पन्न हुआ ? सो, उनके व्याख्याकारों में ज्ञान की कमी के कारण इस प्रकार के संशय उत्तरकाल में हुए । आजकल, आर्यसमाज को छोड़, अन्य संस्थाओं द्वारा पढ़ाए गए पाठ्यक्रमों में इन उत्तरकालीन ग्रन्थों को ही पढ़ाया जाता है, क्योंकि वे अधिक बुद्धिगम्य हैं । उनके आधार ऋषि-प्रणीत सूत्र-ग्रन्थ, अपने संक्षेपीकरण के कारण, निश्चय ही समझने में अधिक कठिन होते हैं । स्वामी दयानन्द ने तो स्वामी विरजानन्द से मुख्य रूप से यह ही सीख पाई थी कि ऋषि-प्रणीत ग्रन्थों को ही पढ़ना चाहिए । इसलिए आर्यसमाजी प्रायः ऋषियों के बताए ग्रन्थों का अनुशीलन करते हैं । परन्तु अन्यत्र इसका पालन न करने का भारी दुष्प्रभाव हम ऊपर दिए प्रस्तावना में दिए दृष्टान्त से समझ सकते हैं !
तो फिर हम शब्द प्रमाण को झूठ/गलती से कैसे अलग करे ? इसका रहस्य ’आप्त’ शब्द में निहित है । आप्त विद्वान् वह होता है जिसने अपने विषय को निस्संशय जाना है – प्राप्त कर लिया है, और जो लौकिक प्रलोभनों के परे है । साथ-साथ उसे अपना ज्ञान बांटने की इच्छा भी होनी चाहिए । इसीलिए कहा गया है – “… पुनर्ददताघ्नता जानता संगमेमहि (ऋग्वेद ५।५१।१५)” अर्थात् (जानता) जानने वाले, (ददता) देने वाले, अर्थात् अपनी विद्या देने की इच्छा रखने वाले, और (अघ्नता) विद्या का हनन न करने वाले का हम संग करें, उसकी बात को प्रमाण मानें । इस प्रकार वेद सुन्दरता से हमें शब्द प्रमाण किसका वचन होता है, इसका उपदेश देता है ।
आजकल हम देखते हैं कि निजि कम्पनियां, संवेदनशील विषयों पर, जो उनके व्यापार के लिए कठिनाई उत्पन्न कर सकते हैं, स्वयं अनुसन्धान प्रयोगशालाएं स्थापित कर देते हैं । अब, उनमें कार्यरत वैज्ञानिक किस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, यह सब कोई समझ सकता है ! जर्मन मोटर कम्पनी, फोल्कस्वैगन, का हाल ही में ऐसा एक खुलासा हुआ, जहां वैज्ञानिकों ने डीज़ल मोटरों से होने वाले प्रदूषण को नकारा, जबकि उनके प्रयोग कुछ और कह रहे थे । अर्थात् वे वैज्ञानिक अपने विषय में पारंगत होते हुए भी आप्त नहीं थे क्योंकि वित्तैषणा ने उनको धर दबाया और उन्होंने अपनी खोजों को झुठला दिया ।
एक और संशय यह किया जाता है कि पाश्चात्य अनुसन्धान-प्रकार में केवल प्रत्यक्ष (experiments) और अनुमान (reasoning) से जो सिद्ध होता है, उसी को प्रामाणिक माना जाता है; शब्द प्रमाण जैसा कोई प्रमाण नहीं माना गया है । परन्तु यहां समझने में एक दोष है ! जब आइन्स्टाइन् ने अपनी Theory of Relativity प्रतिपादित की, जो कि केवल अनुमान प्रमाण पर आधारित थी, तब कई वैज्ञानिकों ने उस पर शंका की । परन्तु जब कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध हुए, तो कुछ वैज्ञानिकों ने परिणामों को समझकर उसका अनुमोदन किया । तभी सब वैज्ञानिकों ने, और फिर समस्त संसार ने उसको माना । परन्तु सभी वैज्ञानिकों ने स्वयं वे तथ्य नहीं परखे – परखे तो अन्यों ने, परन्तु उनकी बताई बात को सबने माना । तब प्रश्न उठता है कि किस प्रमाण से उन्होंने यह बात मानी ? संशोधक वैज्ञानिकों ने तो अपनी खोज शोधपत्र में लिख दी, परन्तु वह झूठी भी हो सकती थी । तो उस तथ्य को क्या प्रत्येक वैज्ञानिक को परख कर ही मानना पड़ेगा ? जब इसका उत्तर “नहीं” आए, तो इसका अर्थ है कि शब्द प्रमाण को भी मान लिया गया !
वस्तुतः, ज्ञान आगे ही नहीं बढ़ सकता, यदि हम शब्द प्रमाण को नकार दें । जो बच्चा अपनी माता से बोलना सीखता है – वह वस्तु दिखाती है और उसका नाम बोलती है – वहीं से हमारी शब्द प्रमाण की यात्रा निकल पड़ती है, क्योंकि हम तब भी पूछ सकते हैं कि इसमें क्या प्रमाण है कि इस जन्तु का नाम ’गधा’ है ? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है । अनन्तर जब अन्य लोग हमारे कहे को समझ जाते हैं, और स्वयं भी वही प्रयोग करते हैं, तब हमारा विश्वास सुदृढ़ हो जाता है कि हमारी मां ने हमें सही बताया (यदि हमारे मन में तब तक कुछ संशय शेष था !) । इस प्रकार शब्द प्रमाण सारे ज्ञान का, सभी सूचनाओं (communication) का आधार होता है । मनुष्य तो क्या, प्राणियों को भी थोड़ी भाषा बनानी पड़ती है जिससे कि वे एक-दूसरे को सूचित कर सकें, अपना ज्ञान बांट सकें । मनुष्यों में जो इतना अधिक ज्ञान पाया जाता है, उसमें एक मुख्य कारण यही है कि हम शब्द से, भाषा से, दूसरे व्यक्ति के साथ अपना ज्ञान बांट सकते हैं । फिर वह व्यक्ति, यदि वह चाहे तो, उसे और आगे बढ़ा सकता है । इस प्रकार छोटे से लेकर बड़े-से-बड़े ज्ञान का आधार शब्द प्रमाण ही है, इसमें किसी को भी संशय नहीं करना चाहिए ।
भारत के प्राचीन ऋषियों ने इस तथ्य को सम्पूर्णतया समझा । किस प्रकार शब्द से हमारे मस्तिष्क में ज्ञान उत्पन्न होता है, इस विषय पर उन्होंने बहुत ऊहा की, जो कि विज्ञान आज जनमानस में उपलब्ध नहीं है । उस विषय पर कुछ दर्शनग्रन्थों से उद्धरण दे रही हूं, जिससे कि उनकी सोच पुनः उज्जीवित हो सके ।
न्यायदर्शन बताता है –
आप्तोपदेशसामर्थ्याच्छब्दादर्थसम्प्रत्ययः ॥न्यायदर्शन २।१।५३॥
अर्थात् आप्त जनों के उपदेश में इतना सामर्थ्य होता है कि कहे शब्द के अर्थ की प्रतीति श्रोता को हो जाती है । इसमें सम्भवतः किसी अलौकिक शक्ति का वर्णन नहीं है, जैसा कि नवीन व्याख्याओं में कहा गया है, अपितु यह बताया गया है कि आप्त जन अपने विषय को इतनी भली प्रकार जानते हैं कि उनका उपदेश सरल और सुव्यवस्थित होता है । स्वामी दयानन्द के उपदेशों में यह बात विपुलता से दृष्टिगोचर होती है – जहां उनके साम्प्रतिक पण्डित और शास्त्री क्लिष्ट भाषा व क्लिष्टतर उदाहरणों का प्रयोग करते थे, जिसके कारण साधारण जनता शास्त्रों से विमुख हो चुकी थी, वहीं स्वामी जी ने कठिन-से-कठिन शास्त्र को सब के लिए खोल के रख दिया !
आगे चलकर इसी प्रकरण में पूर्वपक्षी वही सब आशंकाएं उठाता है जो कि मैंने पूर्व में रखी थीं –
तदप्रामाण्यामनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः ॥न्याय०२।१।५८॥
अर्थात् शब्द प्रमाण अप्रामाणिक है क्योंकि उसमें झूठ, परस्पर विरोध और पुनरुक्ति के दोष होते हैं ।
सिद्धान्ती एक-एक करके उत्तर देते हैं –
न, कर्मकर्तृसाधनवैगुण्यात् ॥ न्यायदर्शन २।१।५९॥
अर्थात् जो बात प्रामाणिक है, उसके करने में या उसके कर्ता में अथवा उसके करने के साधन में यदि कोई दोष हुआ, तो वह गलत हो जाती है । इसमें शब्द का कोई दोष नहीं है । जैसे ऊपर दिए आइन्स्टाइन् के उदाहरण में, यदि उसकी कही बात को प्रमाणित करने वाले गलत प्रकार से माप लेते, अथवा स्वयं विषय के बारे में कम जानते अथवा उनके साधन दोषपूर्ण होते, तो वे आइन्स्टाइन् सही नहीं कह रहा, इस निष्कर्ष पर पहुंचते । वास्तव में, कमी आप्त-वचन की नहीं, अपितु उनके प्रयोग की होती ।
अभ्युपेत्य कालभेदे दोषवचनात् ॥ न्यायदर्शन २।१।६०॥
दूसरे, वचन-व्याघात इस परिस्थिति में उत्पन्न हो सकता है, जब वचन मान कर, फिर सही समय पर क्रिया को न करने पर, वचन के क्रियान्वन में दोष आता है । जैसे आइन्स्टाइन् के वचन का सूर्यग्रहण के समय परीक्षण आवश्यक था । अब यदि सूर्यग्रहण को छोड़ कर किसी अन्य समय पर प्रयोग किया जाए, तो वह वचन को सिद्ध करने में असमर्थ ही होगा । मेरे अनुसार, यहां यह समझ लेना चाहिए कि प्रयोग के अन्य दोषों के कारण भी विरोध पाया जा सकता है, केवल कालभेद ही नहीं ।
अनुवादोपपत्तेश्च ॥ न्यायदर्शन २।१।६१॥
तीसरे, पुनरुक्ति का दोष इसलिए नहीं होता क्योंकि वचन की आवृत्ति अनुवाद के लिए होती है, अर्थात् सकारण होती है, निरर्थक नहीं । जैसे, आइन्स्टाइन् ने एक समीकरण को दूसरे स्थान पर इस लिए पुनः कहा क्योंकि वहां पर उनको उससे एक अन्य सिद्धान्त उपपादित करना था ।
इस प्रकार, जहां ये दोष साधारण मनुष्यों के वचनों में अवश्य पाए जा सकते हैं, आप्त वचनों में ये दोष नहीं होते । इसीलिए वे सर्वमान्य होते हैं ।
साङ्ख्य वचन के सामर्थ्य पर प्रकाश डालता है –
वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः शब्दार्थयोः ॥ त्रिभिः सम्बन्धसिद्धिः ॥ न कार्ये नियम उभयथा दर्शनात् ॥साङ्ख्यदर्शन ५।३७-३९॥
अर्थात् शब्द और अर्थ में जो सम्बन्ध है वह वाच्य और वाचक का है – इन्द्रिय से ग्रहण होने वाला पदार्थ वाच्य है और उसको कहने वाला, उसका ज्ञान कराने वाला शब्द उसका वाचक है । तीन प्रकार से (बुद्धि में) यह सम्बन्ध सिद्ध होता है – प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान से । यथा – “देखो, यह कुत्ता है” इस प्रत्यक्षीकरण से शब्द का अर्थ से सम्बन्ध स्थापित किया गया । फिर, “कुत्ते के काटने से मनुष्य मर भी सकता है” – यहां जो विद्या अनुमान से प्राप्त हुई, उसे सूचित किया जा रहा है । “भेड़िया कुत्ते के समान होता है” – इस उपमान प्रमाण से नए शब्द और अर्थ का ज्ञान हमें प्राप्त हो रहा है । इस प्रकार, शब्द केवल कार्य प्रकृति ही नहीं, अपितु कारणों को भी वर्णित करने में सक्षम है । वस्तुतः, उपरिलिखित न्यायदर्शन १।१।८ सूत्र में दृष्ट का अर्थ ’कार्य’ और अदृष्ट का ’कारण’ से ही अर्थ है । वस्तुओं, क्रियाओं, घटनाओं के हेतु अधिकतर अदृश्य होते हैं ।
पूर्वमीमांसा में शब्द प्रमाण के विषय में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य पाते हैं –
औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्धे तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात् ॥ पूर्वमीमांसा १।१।५॥
अर्थात् शब्द और उसके अर्थ का सम्बन्ध औत्पत्तिक है – उत्पन्न कराने वाला है । उसका उपदेश संशयरहित ज्ञान की उत्पत्ति करता है । अर्थ = वाच्य के न उपलब्ध होने पर भी वह प्रमाण होता है क्योंकि, बादरायण मुनि के अनुसार, वह किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता ।
यह शब्द प्रमाण की अद्भुत शक्ति है कि, जब अर्थ सामने नहीं भी होता या कभी देखा भी नहीं हुआ होता, तब भी वह उसके विषय में ज्ञान उपलब्ध कराता है । यथा – किसी ने परमाणु नहीं देखा है, परन्तु हम उसके विषय में बहुत कुछ आदान-प्रदान कर लेते हैं, उसका ज्ञान बच्चों में उत्पन्न कर देते हैं । बिना शब्द प्रमाण के यह सम्भव नहीं है ।
पुनः, यहां ध्यान देने की बात है कि, जैसे सब प्रत्यक्ष किया हुआ प्रमाण नहीं होता, क्योंकि वह संशययुक्त हो सकता है, इसी प्रकार सभी बातें शब्द प्रमाण नहीं होतीं – केवल संशयरहित उपदेश ही शब्द प्रमाण की श्रेणी में आयेगा । इस बात को भूल कर ही हम शब्द प्रमाण में संशय करने लगते हैं । हम भूल जाते हैं कि प्रत्यक्ष देखा हुआ भी व्यभिचारी = भ्रमयुक्त (जैसे मृगतृष्णा) या अव्यवसयात्मक = अनिश्चित (जैसे कोहरे में आकृति) हो सकता है (इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ॥न्याय० १।१।४॥), और अनुमान करते समय भी हम गलती कर सकते हैं । अर्थात्, सभी प्रमाण अप्रामाणिक हो सकते हैं यदि उनकी प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए कुछ आवश्यकताओं को पूर्ण न किया जाए । शब्द प्रमाण भी ऐसा ही एक प्रमाण है ।
पूर्वमीमांसा तो यहां तक कहता है कि धर्म प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है – … तत्प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात् ॥१।१।४॥ यह तो स्पष्ट ही है कि परोपकार करने से हमें भविष्य में सुख प्राप्त होगा, यह कहां प्रत्यक्ष है ?! अनुमान से भी हम इस निष्कर्ष पर कभी नहीं पहुंच सकते । सो वेद का स्वतः शब्द प्रमाण, अर्थात् जिसको किसी और वचन से अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है, ने सम्पूर्ण विश्व में धर्म का ज्ञान उत्पन्न किया और मनुष्य के स्वार्थी पशुवत् स्वभाव को परिणत किया । उसने अदृष्ट धर्म की परिकल्पना मस्तिष्क में उत्पन्न की, उसके फल, उसके लिए कर्म, सब का मनुष्यमात्र के लिए वर्णन किया ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि शब्द प्रमाण एक बहुत ही शक्तिशाली प्रमाण है । जबकि अधिकतर लोग इसको समझ नहीं पाते, तथापि वे प्रतिदिन इसका अनेक बार प्रयोग करते हैं । जिस प्रकार मनोहर ने जब उत्पला से कहा, “मैंने आज उद्यान में सुन्दर पक्षी देखा” और उत्पला उसको मानती है, तब यह मनोहर के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है, परन्तु उत्पला के लिए शब्द प्रमाण है ! ऐसा नहीं समझना चाहिए कि केवल शास्त्रों में ही प्रमाणों का प्रयोग होता है । हम अपने दैनन्दिन जीवन में प्रमाण द्वारा ही ज्ञान/सूचना उपलब्ध करते और देते हैं । और शब्द प्रमाण के बिना तो संसार का व्यवहार और मनुष्यों का ज्ञान कभी आगे ही न बढ़ पाए । इसको स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार न करने से हम इससे पूर्णतया लाभ नहीं उठा पाते । तथापि, मानें-न-मानें, हम इसके बिना जीवन तो नहीं जी सकते !