कर्म और फल – १

एक महाशय जी से वार्तालाप करते हुए, कर्म और फल के विषय में एक मतभेद उभर के आया । उनका विश्वास था कि मनुष्य के जाति, आयु और भोग उसके जन्म पर निर्धारित हो जाते हैं, और फिर उन्हें जीवनपर्यन्त कोई नहीं बदल सकता । यह विषय अवश्य ही जटिल है, और इसको कोई मनुष्य पूर्णतया समझ नहीं सकता, ऐसा मेरा विश्वास है । जैसे गीता कहती है, गहना कर्मणां गतिः (४।१७) – कर्म और उनके फलों का विषय हमारे लिए समझना अत्यधिक कठिन है । तथापि हमारे जानने योग्य जो विषय हैं, वे वेद, दर्शनशास्त्र, मनु-स्मृति, आदि, में निरूपित हैं । उनके ज्ञानालोक में, इस लेख में इस विषय पर मैं अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रही हूं । 

महाशय जी के कथन का आधार है योगदर्शन का यह सूत्र – सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः ॥२।१३॥ इसको समझने के लिए इससे पिछला सूत्र भी पढ़ना पड़ेगा – क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥२।१२॥ इन सूत्रों का अर्थ इस प्रकार है – कर्माशय वह है जो कर्म करने के बाद बन जाता है, और फल देने के बाद निवृत्त हो जाता है । उन कर्माशयों के मूल में अविद्यादि क्लेश होते हैं । इन कर्माशयों को इस जन्म में और भावी जन्मों में भोगना पड़ता है । क्लेशों के बने रहते, उन कर्माशयों के फल होते हैं – जाति, आयु और भोग । यहां ’जाति’ अर्थात् किस योनि में जीवात्मा जन्म लेगी – वृक्ष, मछली, कीट-पतङ्ग, कुत्ता-बिल्ली, मनुष्य, आदि; ’आयु’ अर्थात् उस योनि में उसकी आयु कितनी लम्बी होगी; और ’भोग’ अर्थात् उस आयु में उसको कितने सुख या दुःख झेलने पड़ेंगे । यदि हम ऊंची योनि में जन्म लेते हैं, तो हम अपने जीवन को बदलने में अधिक सक्षम होते हैं, हमारी कर्म और भोग में स्वतन्त्रता अधिक होती है, और हमारे भोगों के प्रकार अधिक होते हैं । यथा – नीची योनि का पेड़ अपने स्थान से हिल तक नहीं सकता; आंधी, बारिश, धूप – सभी को उसे सहना पड़ता है , जबकि उससे ऊंची योनि का एक भेड़िया गुफा की शरण ले सकता है, और सबसे ऊंचे पायदान पर मनुष्य तो सुन्दर घर बान्ध सकता है । दूसरी ओर, भेड़िया केवल मांस ही खा सकता है, परन्तु मनुष्य तो अनेकों प्रकार के व्यञ्जनों के स्वाद ले सकता है । इस प्रकार योनि और भोग सम्बद्ध हैं । फिर, जितनी हमारी आयु लम्बी होगी, उतना ही भोग का समय अधिक मिलेगा । एक समय में जीव इतना ही भोग कर सकता है, सारे भोग एक-साथ नहीं कर सकता । सो, यदि आयु लम्बी है, तो भोग भी अधिक है । इस प्रकार आयु और भोग भी सम्बद्ध हैं । फिर एक योनि और एक आयु में भी कम या अधिक सुख होते हैं, जैसे कोई मनुष्य गरीबी झेलता है, कोई धनी होता है । इस प्रकार, तीनों ही विषय एक-दूसरे से जुड़े हैं, उनको पूर्णतया अलग करना कठिन है । फिर भी, व्यवहार में, हम इनके अलग-अलग अर्थ आसानी से समझ सकते हैं । 

अब, कर्मों के विषय में हमें यह समझना चाहिए कि उनके कर्माशय एक अकाउण्ट की तरह होते हैं । उनमें से ’सञ्चित कर्म’, हमारे सेविंग अकाउण्ट की तरह, पुण्यात्मक और पापात्मक कर्माशयों को अलग-अलग जोड़ते जाते हैं; ’प्रारब्ध कर्म’ वे हैं जो इस जन्म में फलित होने हैं, जैसे सेविंग अकाउण्ट से उनको करन्ट अकाउण्ट में ट्रास्फर कर दिया गया हो; ’क्रियमाण कर्म’ वे हैं जो इस जन्म में हमारे कर्मों के कारण जुड़ रहे हैं । क्रियमाण कर्मों में से कुछ तो सद्य फल देते हैं, जबकि दूसरे सञ्चित में जुड़ जाते हैं । जैसे शेर ने शिकार किया, तो उसे भोजन प्राप्त हुआ; यदि नहीं किया तो नहीं मिला – यह सद्य फल देने वाला क्रियमाण कर्म हुआ । और व्याध ने दया करके शेर को छोड़ दिया, तो वह दया-कर्म सञ्चित कर्म में जुड़ जायेगा ।

अब हम देखते हैं कि इन जाति, आयु और भोग को इस जीवन में बदला जा सकता है कि नहीं । महाशय जी की मान्यता है कि ये नहीं बदले जा सकते, क्योंकि योगसूत्र के प्रमाण के अलावा, उन्होंने निजी जीवन में भी पाया है कि बहुत संयमी जीवन व्यतीत करने वाले और अत्यन्त नेक जन भी भयंकर बीमारियों से पीड़ित होते हैं और अनेक कष्ट भोगते हैं, जबकि अनेक व्यभिचारी और दुराचारी लोग मजे में जीवन व्यतीत करते हैं । महाशय जी को यह वेदना है कि कितने आर्यसमाजी नित्य हवन और सन्ध्योपासना करते हैं, तथापि उनकी आयु और स्वास्थ्य अन्य मांसाहारियों और मद्यपान करने वालों से न्यून होता है । निर्दोष जीवन जीने के बाद भी उन्हें सुख-भोग प्राप्त नहीं होता । अवश्य ही, यह हम सभी का आंखों-देखा, भुक्ता हुआ सत्य है ! इससे मुझे महाभारत का वह प्रकरण याद आता है जिसमें युधिष्ठिर अत्यन्त व्यथित होकर अपने भाइयों से कहते हैं कि, “दुर्योधन ने तो सदा पाप किए और वह महलों में रह रहा है, और हमने सदा धर्म से जीवन निर्वाह किया, फिर भी हम जंगलों में विचर रहे हैं ।” इन तीनों का विश्लेषण हम एक-एक करके करते हैं ।

निश्चित रूप से जाति को बदलना असम्भव है । जिस योनि में हम पैदा हुए हैं, यहां तक कि जिस गृह में हम उत्पन्न हुए हैं, उसे हम स्वयं नहीं बदल सकते । सो, बाकी बचते हैं आयु और भोग । इनमें से पहले लेते हैं भोग । यह आज की परिस्थिति में मुख्यतः धन पर निर्भर है, और धन परिश्रम पर । हां, अवश्य ही कुछ लोग धनी परिवार में जन्म लेते हैं और उनको उसके लिए अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता, और गरीब परिवार वाले को उसको एकत्र करने में औरों से कहीं अधिक परिश्रम करना पड़ता है । परन्तु क्या वे दोनों ही अपने प्रारब्ध को बदल सकते हैं ?

प्रथम एक शेर का उदाहरण लेते हैं । सम्भव है कि शेर के प्रारब्ध में एक दिन भोजन प्राप्त करना लिखा है । तथापि वह आलस्य करता है और शिकार के लिए नहीं जाता है । उसके प्रारब्ध के कारण, शिकार उसकी गुफा के सामने से निकलता है, फिर भी सिंह अपनी आंखें नहीं खोलता । तो क्या उसे उस दिन भोजन प्राप्त हो जायेगा ? नहीं, कदापि नहीं ! कितना भी उसके भाग में भूखा रहना न हो, तथापि उसका आलस्य सद्य फल देगा और प्रारब्ध को भी उलट देगा । इसी प्रकार यदि आपके गृह में भोजन बनाने के सभी पदार्थ उपलब्ध हों, तथापि आप भोजन बनाने में आलस करें, तो उस दिन आपको भोजन मिल ही नहीं सकता । भाग्यवश, पड़ोसी आकर आपको बना-बनाया भोजन देने के लिए घर पर आए, परन्तु आप द्वार तक ने खोलें, तो इसमें न तो परमात्मा को दोष दिया जा सकता है, न आपके भाग्य को ; दोष केवल आपके आलस्य का होगा ! इसीलिए सुभाषित कहता है –

उद्यमेनैव  सिध्यन्ति  कार्याणि  न  मनोरथैः ।

न  हि  सुप्तस्य  सिंहस्य  प्रविशन्ति  मुखे  मृगाः ॥

अर्थात् कार्य इच्छाओं से सिद्ध नहीं होते, अपितु परिश्रम से ही होते हैं, जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुंह में मृग नहीं घुस जाते हैं । 

इस विषय में कि पुरुषार्थ करने पर ही फल प्राप्त होता है, सम्भवतः आप को भी कोई सन्देह न हो । परन्तु यदि मैं आपको उल्टा उदाहरण दूं कि यदि शेर शिकार पर निकला तो उसको भोजन प्राप्त हो गया, तब अवश्य ही आपको आपत्ति होगी कि यदि उसके प्रारब्ध में नहीं है, तो नहीं भी मिलेगा ! और यह सही भी है । यह एक नियम है कि पुरुषार्थ के बिना प्रारब्ध से नियत फल भी नहीं मिलता, परन्तु पुरुषार्थ करने पर परमात्मा के ऊपर निर्भर है कि वे फल इस समय देते हैं या रोक लेते हैं, विशेषकर जब वह फल हमारे प्रारब्ध में नहीं था । इसीलिए गीता कहती है –कर्मण्येवाधिकारस्ते  मा  फलेषु  कदाचन …॥ २।४७ ॥ – तेरा अधिकार केवल कर्म करने का है, फल प्राप्त करने का नहीं ।

यदि पुरुषार्थ आपके प्रारब्ध को बदलने में असमर्थ हो, तो वेद के वे सारे मन्त्र निष्फल हो जाएं जो आपको पुरुषार्थ करने को प्रेरित करते हैं, यथा – कुर्वन्नेवेह  कर्माणि  जिजीविषेच्छतं  समाः … ॥ यजु० ४०।२ ॥ यदि हम पूरे मनोबल से किसी कार्य में जुट जायें, तो परमात्मा हमारे प्रारब्ध तक को बदल देगा । यदि वह सकारात्मक फल को रोक सकता है, तो नकारात्मक फल को भी तो वैसे ही रोक सकता है !

अब लेते हैं आयु । निश्वयेन, इसको प्रमाणित करना अत्यधिक दुष्कर है, क्योंकि किसे पता है कि किसी की आयु कितनी है ! तथापि यह सर्वमान्य सत्य है कि यदि हम विष लेते हैं, तो हमारा बचना कठिन है । इसी प्रकार वैज्ञानिकों ने पाया है कि धूम्रपान करने से कैंसर द्वारा शीघ्र मृत्यु होना प्रायः निश्चित है । भोग के समान यहां भी, यह प्रमाणित करना सरल है कि व्यसनों से हमारी आयु घटती है, परन्तु व्यायाम आदि से आयु बढ़ती है, यह कहना कठिन हो जाता है । यही महाशय जी का संशय भी है । वेद, आयुर्वेद, आदि, ग्रन्थों का इस विषय में प्रमाण तो है ही, परन्तु हमें यह भी समझना चाहिए कि जब नकारात्मक परिणाम निश्चित है, तो सकारात्मक परिवर्तन भी सम्भव होगा ही ! वैज्ञानिक क्यों कहते हैं कि व्यायाम से आयु बढ़ती है, यदि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता ? क्योंकि उन्होंने बहुत से लोगों पर अनुसन्धान करके इस सत्य को पाया । इसलिए यह मानना गलत है कि कोई अपनी आयु को परिवर्तित नहीं कर सकता । 

तथापि हम पाते हैं कि कोई नेक जन कैंसर से अत्यधिक कष्ट पाकर ३५ वर्ष में मर गया । उसने व्यायाम आदि उपाय भी किए थे । तो क्या सम्भव है कि उसकी निर्धारित आयु २५ थी, और उसने अपने उपायों से उसे ३५ वर्ष कर लिया ? क्या यह भी सम्भव नहीं हो सकता है कि उसकी मृत्यु और भी भयंकर होनी थी, परन्तु अपने नेक आचरण से उसने अपनी स्थिति थोड़ी सुधार दी ? हम कैसे जाने कि परमात्मा ने किस आधार पर किसी को क्या फल दिया ?! वस्तुतः, हम कभी नहीं जान सकते कि पहली स्थिति क्या थी और हमारे प्रयासों से वह क्या हो गई । वेदादि के दिशानिर्देश से ही हम सान्त्वना करनी पड़ेगी । और जब प्रारब्ध हमारे प्रयासों से बलवत्तर पड़े, तब परमात्मा की शरण में जाना ही एक उपाय शेष रहता है, और जो हो रहा है, उसको हंसते-हंसते स्वीकारना आवश्यक हो जाता है । इसका जीवन्त उदाहरण थे महर्षि दयानन्द सरस्वती जिन्होंने अत्यन्त कष्ट में अपना शरीर त्यागा, परन्तु अन्तकाल तक अपना उपचार कराया, जिससे कि परमात्मा की इस अमूल्य देन की यथासम्भव रक्षा कर सकें  । परमात्मा और उसकी कर्म-फल व्यवस्था में उनका विश्वास अडिग रहा ।

उनकी कथा पर चिन्तन करने पर, मुझे लगता है कि जो पवित्र लोग होते हैं, उनपर आपदाएं कभी-कभी इतनी अधिक आती देखी जाती हैं, उसके कुछ विशेष कारण हैं । प्रथम, हम अपनी स्वयं की सहन-शक्ति तब तक नहीं जान पाते जब तक हम पर आपदा नहीं पड़ती । जो अध्यात्म-मार्ग पर चल रहा होता है, वह संकट की घड़ी में परमात्मा को कोसने लगे, तो समझो कि वह परमात्मा की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुआ । परमात्मा तो, त्रिकालज्ञ होने से, पूर्व ही जानते हैं कि हम उत्तीर्ण होंगे कि नहीं, पर हमें अपनी कमी या पूर्णता दर्शाने का उसका यही प्रकार है । द्वितीय, यदि इस परीक्षा में हम उत्तीर्ण हो जाते हैं, तो हमें अपनी शक्ति तो ज्ञात हो ही जाती है, परन्तु अन्यों के लिए भी हम आदर्श बन जाते हैं, जिस प्रकार स्वामी दयानन्द की मृत्यु-पर्यन्त धैर्य और ईश्वर-भक्ति हम सभी के लिए प्रेरक है । तीसरे, इसमें मेरे पास कुछ प्रमाण तो नहीं हैं, केवल अन्यों के अनुभव का ज्ञान है – जो अत्यन्त भले लोग होते हैं, वे जाते-जाते अपने सारे दुष्ट-कर्माशय जैसे भोग जाते हैं, जिससे कि अगले जन्म में परमात्मा उनको बहुत सुखपूर्ण जीवन दे सके । दूसरी ओर, दुष्ट लोग प्रायः यौवनावस्था में, पूर्ण स्वस्थ होते हुए, चल बसते हैं जैसे अफ्रीका का इदि अमीन या पाकिस्तान का ज़िया उल हक़ । इनका जीवन देखकर तो लगता है कि इन्होंने अपने किए का कुछ भी फल नहीं भोगा । परन्तु सम्भवतः, परमात्मा उनके सारे पुण्य उनको इस जन्म में भुक्ता देता है, जिससे कि अगले जन्म में, केवल पापकर्मों के कारण, उन्हें वह नीची योनि में डाल सके । 

इस प्रकार, जहां एक ओर पूर्व जन्म के कर्म इस जन्म में भी हमारे सुख-दुःख का निर्धारण करते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर हमारा इस जन्म का प्रयास या आलस्य हमारी स्थिति को सुधारने या बिगाड़ने में अवश्य कारगर होता है । सो, वेद के उपदेशानुसार, हमें सदा ही पुरुषार्थ करते रहना चाहिए, और सौ वर्ष की आयु की कामना करते हुए, सब आयु- या बल-नाशक व्यसनों से दूर रहना चाहिए, व ज्ञान और पुण्य को दोनों हाथों से बटोरने में लगे रहना चाहिए । परमात्मा हमारे किसी भी नेक प्रयास को अनदेखा नहीं करेगा, यह विश्वास सदा प्रबल रहना चाहिए, व हमें कभी भी हतोत्साह नहीं होना चाहिए ।