पाश्चात्य न्याय में अनुमान प्रमाण
न्यायदर्शन में महर्षि गौतम ने अनुमान प्रमाण को परिभाषित किया है । साङ्ख्य-दर्शन में महर्षि कपिल ने उसकी कुछ और विशेषताएं बताई हैं । पाश्चात्य जगत् में भी इस विषय पर विशेष विचार किया गया है । इन विचारों को भारतीय परम्परा से पूर्णतया भिन्न माना जाता है । इस लेख में मैंने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि वास्तव में यहां केवल शब्दों का भेद है और वास्तव में ये समान हैं ।
विषय को समझने के लिए हमें न्याय आदि के वचनों का पुनर्वलोकन करना पड़ेगा । प्रथमतः गौतम की प्रत्यक्ष प्रमाण की परिभाषा देखिए –
इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ॥१।१।४॥
अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण वह ज्ञान है जो कि इन्द्रिय और उसके अर्थ के संयोग से उत्पन्न होता है । इसमें यह ध्यान रखना है कि वह ज्ञान (अव्यपदेश्यम्=) शब्दों द्वारा उपदिष्ट न हो (क्योंकि तब वह शब्द प्रमाण की श्रेणी में आ जायेगा); (अव्यभिचारि=) संशयात्मक न हो (अंधेरे, व्यवधान, आदि के कारण अस्पष्ट न हो); (व्यवसायात्मकम्=) पूर्णतया निश्चित हो ।
इस प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर अनुमान प्रमाण को परिभाषित किया गया है –
अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च ॥१।१।५॥
अर्थात् प्रत्यक्ष के आधार पर जो निष्कर्ष निकाला जाता है वह अनुमान प्रमाण होता है । वह प्रमाण तीन प्रकार का होता है – पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ।
इन तीनों को थोड़ा और समझते हैं –
- पूर्ववत् – इसमें पूर्व जो कारण वस्तु होती है, उससे कार्य का ज्ञान किया जाता है । यथा – अग्नि (कारण) को देखकर हम समझ जाते हैं कि उसके आस-पास का क्षेत्र गर्म होगा; वहां हाथ ले जाने में हम सकुचायेंगे । यहां अग्नि कारण है और उष्णता उसका कार्य ।
- शेषवत् – इसमें शेष जो कार्य वस्तु होती है, उससे कारण का ज्ञान किया जाता है । यथा – धूम्र को देखकर हमें अग्नि के उस स्थान में होने का ज्ञान हो जाता है । यहां धूम्र कार्य है और अग्नि उसका कारण ।
- सामान्यतोदृष्ट – जहां कोई कार्य-कारण सम्बन्ध उपलब्ध नहीं होता, तथापि बहुत दृष्टान्तों से वह सम्बन्ध निश्चित हो जाता है, उसे इस प्रमाण के अन्तर्गत रखा जाता है । यथा – जीव जो उत्पन्न होता है, उसका मरण निश्चित है । यहां जन्म और मरण में कोई तार्किक सम्बन्ध दृष्ट नहीं है, परन्तु इतने प्राणियों को इतने वर्षों से हम देखते आ रहे हैं कि उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो कि तीन सौ वर्ष से अधिक आयु का हो । इससे हम निश्चित रूप से कह सकते है कि ऊपर दिया कथन अवश्य ही सही है ।
इन सम्बन्धों को ’व्याप्ति’ रूप में भी समझा जाता है । धूम्र-अग्नि के उदाहरण में, धूम्र को व्याप्य कहा जाता है और अग्नि को व्यापक । सो, व्यापक हेतु से व्याप्य का ज्ञान होता है । इस सम्बन्ध को व्याप्ति-सम्बन्ध कहा जाता है ।
अब हम पाश्चात्य प्रणाली को समझते हैं । उन्होंने व्याप्य और व्यापक को ’दशा’ बताया । सो, एक दशा से दूसरी दशा का ज्ञान होता है, ऐसे उनका कथन होता है । इन दशाओं को वाक्यों के रूप में समझा जाता है । यथा – “धुंआ है, सो अग्नि होगी ।” यहां “धुंआ है” यह एक दशा है, और “अग्नि है” यह दूसरी दशा है, और पहली दशा से दूसरी दशा सिद्ध होती है । यदि हमें पहले वाक्य को ’क’ पुकारें और दूसरे को ’ख’, तो चिह्न-रूप में इन दोनों के सम्बन्ध को इस प्रकार लिखा जाता है : क => ख, अर्थात् क वाक्य से ख वाक्य सिद्ध होता है ।
अब इस सम्बन्ध के कुछ विशेष प्रकार जाने जाते हैं –
- पर्याप्त (sufficient) – जैसे, किसी का सिर काटा गया, तो उसकी मृत्यु निश्चित हुई होगी । यहां सिर काटने का ज्ञान होना मृत्यु के ज्ञान के लिए पर्याप्त है, हमें और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है । परन्तु मृत्यु अन्य कारणों से भी सम्भव है । इसलिए मृत्यु होने में यह अनिवार्य कारण नहीं है ।
- अनिवार्य (necessary) – जैसे, जिसको एड्स का रोग है, उसके शरीर में निश्चित रूप से ऐच्०आइ०वी० कीटाणु है । यहां यदि रोग है, तो कीटाणु का होना अनिवार्य है । परन्तु, यदि कीटाणु है तो यह आवश्यक नहीं की रोग उत्पन्न हो – कई लोगों को रोग नहीं भी होता । इसलिए कीटाणु का ज्ञान रोग के विषय में निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है ।
अब यदि हम इन वाक्यों को सूक्ष्मता से देखें, तो पर्याप्त दशा में, ’सिर कटना’ कारण है ’मृत्यु’ कार्य का, अर्थात् कारण से कार्य का निश्चय किया गया । और अनिवार्य दशा में, एड्स कार्य है ऐच्०आइ०वी० कीटाणु कारण का; सो, कार्य से कारण का पता लगाया गया । पाश्चात्य प्रणाली में इस कार्य-कारण सम्बन्ध को कहा नहीं गया है, परन्तु ये सदैव इस प्रकार ही होंगे । इसको हम ऐसे समझ सकते हैं – कारण से सदा ही कार्य उत्पन्न हो, यह आवश्यक नहीं; परन्तु कार्य के लिए कारण होना आवश्यक है । यह अनिवार्यता का नियम है, जहां हम कार्य देखकर कारण का तो पता कर लेते हैं, परन्तु कार्य सदैव कार्य को नहीं उत्पन्न करता । दूसरी ओर, कार्य अनेकों कारणों से उत्पन्न हो सकता है, परन्तु उनमें से एक भी कारण उसको उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है । इसी बात को ऊपर के दृष्टान्त भी दर्शा रहे हैं । इस प्रकार ’पर्याप्त सम्बन्ध’ ’पूर्ववत् अनुमान’ के समतुल्य है, और ’अनिवार्य सम्बन्ध’ ’शेषवत् अनुमान’ का ही रूप है । कमी है तो इतनी कि भारतीयों ने कार्य-कारण सम्बन्ध को भली प्रकार समझा, जबकि पाश्चात्य सभ्यता ने इसको प्राथमिकता नहीं दी । मेरे अनुसार, भारतीय प्रणाली ही श्रेष्टतर है क्योंकि उसमें सम्बन्ध के भागों को सही प्रकार से समझा जाता है । तथापि पाश्चात्य प्रकार के भी अपने कुछ गुण हैं, जो कि इन सम्बन्धों को समझने में उपयोगी हैं, और जिनको हम आगे थोड़ा देखेंगे ।
अब लेते हैं सामान्यतोदृष्ट को । पाश्चात्य प्रणाली में, अनुमान को दो भागों में बांटा गया है – एक, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्ध से कार्य अथवा कारण को देखकर, हम क्रमशः कारण अथवा कार्य का निर्णय करते हैं, जैसा कि हमने ऊपर देखा । इसको निष्कर्षात्मक तर्क (deductive logic) कहा जाता है । उसके विपरीत, एक इन्डक्टिव लौजिक (inductive logic) कही गई है, जिसमें अनेकों दृष्टान्तों से नित्य सम्बन्ध का ज्ञान किया जाता है । इस प्रकार यह तर्क-प्रकार पूर्णतया सामान्यतोदृष्ट के समतुल्य है ।
इस प्रकार लेख का मुख्य विषय तो पूर्ण हो गया, परन्तु जब हम इतना दूर आ ही गए हैं, तो इन सम्बन्धों के विषय में कुछ और जान लेते हैं । कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं जिनमें कार्य-कारण सम्बन्ध दोनों प्रकार से एकरूप होता है । यथा – हीमोफिलिया एक रोग है जो केवल वंशाणुओं (जीन, gene) के दोष से उत्पन्न होती है । इसका यह अर्थ है कि यदि हम जानते हैं कि किसी को यह रोग है, तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उस व्यक्ति में वह जीन-दोष प्राप्त है । दूसरी ओर, यदि हमें यह ज्ञात हो जाए कि किसी व्यक्ति में यह जीन-दोष है, तो हम यह भी जान लेंगे कि इस व्यक्ति में वह रोग है । ऐच्०आइ०वी० कीटाणु से भिन्न, यह दोष कभी बिना उजागर हुए नहीं रह सकता । इससे यह प्राप्त हुआ कि इस दशा में हम कारण (जीन में दोष) से कार्य (रोग) का पता लगा सकते हैं, या फिर कार्य से कारण का । दूसरे शब्दों में पूर्ववत् और शेषवत् अनुमान, दोनों ही यहां उपलब्ध हैं । इसको पाश्चात्य तर्क में पर्याप्त और अनिवार्य दशा (necessary and sufficient condition) कहा जाता है । भारतीय इसे समव्याप्ति कहते हैं, जहां कार्य और कारण तुल्य रूप से परस्पर व्याप्त हों । चिह्नों में इसको ऐसे लिखा जाता है : क => ख और ख => क । इसके विपरीत जब एक दिशा में ही सम्बन्ध होता है, तब इस प्रकार लिखा जाता है : क => ख परन्तु ख ≠> क । इसको विषमव्याप्ति कहते हैं, जैसा कि शेषवत्, पूर्ववत्, आदि उदाहरणों में ऊपर दिखाई गई थी ।
यह भी एक तथ्य है कि जब क => ख, तब निश्चित रूप से एक दूसरा सम्बन्ध भी सत्य होता है : ~ख => ~क (ख न होने से, क नहीं होता) । जैसे – वर्षा है, तो बादल होगा; और बादल नहीं है, तो वर्षा नहीं हो सकती । इनमें प्रथम वाक्य को अन्वय-व्याप्ति कहते हैं और द्वितीय को व्यतिरेक-व्याप्ति । कभी-कभी व्यतिरेक-व्याप्ति उपलब्ध होती है । उससे फिर अन्वय-व्याप्ति को भी जान लिया जाता है ।
इस उपर्युक्त तथ्य से यह निकलता है कि समव्याप्ति में दो अन्वयव्याप्ति ही नहीं होतीं, अपितु दो व्यतिरेक-व्याप्तियां भी होती हैं – क => ख, ख => क, ~ख => ~क, ~क => ~ख । ऊपर दिए तीसरे उदाहरण से हम इन व्याप्तियों को समझ सकते हैं – यदि हीमोफिलिया है तो जीन-दोष होगा । यदि जीन-दोष है तो हीमोफिलिया होगा । यदि जीन-दोष नहीं है तो हीमोफिलिया भी नहीं होगा । यदि हीमोफिलिया नहीं है तो जीन-दोष भी नहीं होगा ।
इस प्रकार व्याप्ति सम्बन्धों को जानकर हम उन विषयों को जानने में समर्थ हो जाते हैं जो इन्द्रियों से उपलब्ध नहीं होते । कपिल कहते हैं –
अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वह्नेः ॥१।२५॥
अर्थात् जो इन्द्रियों से उपलब्ध नहीं होते हैं, उन विषयों का बोध अनुमान से किया जाता है, जैसे पर्वत पर उठते धूम से हम वहां स्थित अदृष्ट अग्नि का ज्ञान कर लेते हैं । वस्तुतः, हम कह सकते हैं कि मंगल तक पहुंचने के लिए जो-जो अन्वेषण किया जाता है, वह ९० प्रतिशत अनुमान प्रमाण होता है !
कपिल इस विषय में एक और महत्त्वपूर्ण वाक्य कहते हैं –
प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् ॥१।६५॥
अर्थात् दो या अधिक वस्तुओं के प्रतिबन्ध (व्याप्ति-सम्बन्ध) से प्रतिबद्ध (व्याप्य) का ज्ञान होना अनुमान कहलाता है । यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहां प्राचीन विचारक प्रमाणों को सत्य तक पहुंचने का साधन मानते थे, वहां उन प्रमाणों से उत्पन्न ज्ञान की संज्ञा भी उस प्रमाण के अनुसार ही थी ।
पाश्चात्य प्रणाली को ऊपर से देखा जाए तो भारतीय प्रणाली से पूर्णतया भिन्न लगती है, परन्तु गहराई से परखने पर ज्ञात होता है कि यह भारतीय विद्या के समान ही है । इस समानता को मैंने इतनी बार देखा है कि मुझे विश्वास हो गया है कि सारी विद्याएं भारत से निकल कर ही पश्चिम में पहुंची हैं । लगभग दसवीं शताब्दी के बाद से यह विद्या पश्चिम से भारत वापस आने लगी, अपभ्रंशित अथवा अपूर्ण अवस्था में, परन्तु तब तक हमारी अपनी विद्याओं का इतना ह्रास हो चुका था कि हमें ये बड़ी अनोखी लगीं और हमने इनको दोनों हाथों से बटोर लिया । हमारी अपनी समझ और भी पिछड़ गई । हमें अपने प्राचीन ग्रन्थों की प्रायः उस समय की ही व्याख्याएं उपलब्ध हैं और वे व्याख्याएं सर्वथा सम्यक् नहीं हैं । पहले तो प्राचीन ग्रन्थ ही बहुत कम उपलब्ध हैं; और जो हैं, उनकी व्याख्याएं अनेक अंशों में गड़बड़ हैं । इसलिए हमें इन प्राचीन ग्रन्थों को नए सिरे से समझना चाहिए, और आज जब पश्चिम में बहुत अन्वेषण हो चुका है, तब उससे मिलान करते जाना चाहिए । जो बातें पश्चिम के विचारों से ग्रहण करने योग्य हैं, उन्हें अपने ज्ञान में पिरो लेना चाहिए, जैसे ऊपर दर्शाई गई चिह्नात्मक पद्धति, जो कि बड़े संक्षेप में विचार उपस्थित कर देती है । ऐसा करते समय मैंने पाया है कि कई तथ्य जो हमारे ऋषि कह गए, उससे आज मानवता अनभिज्ञ है । इसलिए इन प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने में अभी भी बहुत उपयोगिता है । अपने पूर्वजों के महान् चिन्तन पर विश्वास करते हुए जब हम इन ग्रन्थों को पढ़ेंगे, तो अनन्तर काल में जो इन विषयों पर सन्देह उत्पन्न किए गए हैं – अनुमान से केवल अन्दाज होता है, सही ज्ञान नहीं; शब्द तो झूठ भी हो सकता है, तो प्रमाण कैसे मानें, इत्यादि, इत्यादि, सब संशय दूर हो जायेंगे ।