महर्षि दयानन्द सरस्वती और न्यायदर्शन

    यह तो प्रसिद्ध ही है कि आर्य समाज के प्रणेता, महर्षि दयानन्द, वाद करने में अपराजेय थे । इसी कौशल को देखकर उनके गुरु, स्वामी विरजानन्द, ने उनसे गुरु दक्षिणा में वेदों, आर्ष-ग्रन्थों और वैदिक धर्म का पुन: प्रतिष्ठापन मांगा । ऋषि ने भी इस कार्य में अपना जीवन बलि चढ़ा दिया । आइये, सत्यार्थ-प्रकाश में बिखरी पड़ी महर्षि की इस कला के कुछ उदाहरणों को न्यायदर्शन के परिपेक्ष में समझते हैं, जिससे न्याय के सिद्धान्त हमारी बुद्धि में भी उतर जाएं, और हमारी तर्क-शक्ति भी तीव्र हो । यदि आप न्यायदर्शन के सिद्धान्तों से परिचित न हों, तो देखें दयानन्द-सन्देश के सितम्बर, २०११, के अंक में मेरा लेख – ’न्यायदर्शन – एक परिचय’ ।

महर्षि के तर्क कुछ कठिन होने के कारण, पहले हम न्यायदर्शन का ही एक सरल उदाहरण लेते हैं । सूत्र है – 

    दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् ॥ ३।१।१ ॥ 

अर्थात् देखने और छूने से एक ही भैतिक विषय (अर्थ) का ग्रहण होने से, ग्रहीता=आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है । यहां आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न बताने के लिए वादी कह रहा है, कि यदि ग्रहीता एक और इन्द्रियों से भिन्न न होता, तो हर इन्द्रिय अपना-अपना विषय ग्रहण करती, और एक ही पदार्थ को आंख रूप से जानती और हाथ स्पर्श से, परन्तु दोनों यह न जान पाते कि यह पदार्थ एक ही है !

    इस एक वाक्य को यदि हम वाद के पञ्च अवयवों में विभाजित करें, तो ऐसा होगा –

प्रतिज्ञा – आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है ।

हेतु – प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एक इन्द्रिय अर्थ के एक आयाम को ग्रहण करती है, पर ग्रहण करने वाला उन सब आयामों को एक अर्थ में ग्रहण करता है ।

उदाहरण – जैसे, दर्शन और स्पर्शन से एक अर्थ ग्रहण होता है (जैसे, किसी कपड़े को छूते समय) ।

उपनय – विषय को एक रूप में ग्रहण करने वाली कोई अकेली इन्द्रिय नहीं हो सकती । सो एक रूप में ग्रहण करने वाली कोई दूसरी सत्ता है, जिसे हम आत्मा कहते हैं । यहां, एकत्व-ग्रहण इन्द्रियों का कार्य (effect) है । इससे हम कारण (cause) का अनुमान लगा रहे हैं कि एकत्व-ग्रहण करने वाला कोई और है । कार्य से कारण का अनुमानशेषवत् अनुमान कहलाता है । सो, उक्त हेतु से साध्य (प्रतिज्ञा) तक पहुंचने में शेषवत् अनुमान का प्रयोग उपनय में हुआ ।

निगमन – अनेकों इन्द्रियों से (जैसे देखने और छूने से) एक ही अर्थ का ग्रहण होने से (हेतु), ग्रहीता=आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है (प्रतिज्ञा) ।

    इस प्रकार एक वाक्य में ही सभी पञ्च अवयव सूक्ष्म रूप से उपलब्ध हैं । यहां, उदाहरण थोड़ा अनावश्यक-सा है, क्योंकि दर्शन और स्पर्शन स्वयं इन्द्रियां ही हैं । इससे हम ऊहा कर सकते हैं कि उदाहरण सर्वदा आवश्यक नहीं होता, हेतु ही पर्याप्त हो सकता है । परन्तु, गौतम पांच से कम अवयवों को, formal वाद में, निग्रहस्थान (हार) मानते हैं । 

    दूसरे, ऐसा प्रतीत होता है कि एक छोटा-सा वाद, इस पञ्चावयव के कारण, बहुत लम्बा, और सम्भवत: समझने में थोड़ा कठिन भी हो गया । इस बात को समझने के लिए एक उपमा की आवश्यकता है । एक सब्ज़ीवाला भी प्रतिदिन गणित कर लेता है । तो फिर, रेखागणित, calculus, आदि की क्या आवश्यकता ? वो इसलिए कि जब पृथ्वी का परिमाण जानना हो, तो सब्ज़ीवाले की गणित कुछ काम नहीं करेगी ! जिन कठिन विषयों को न्याय से हमें परखना है, यह प्रक्रिया हमें वहां गल्ती करने से बचा सकती है । प्रमाणों, सिद्धान्तों को सही प्रकार जानने से, हम उनकी सत्यता पर ठीक रूप से विचार कर सकते हैं । 

    अब हम महर्षि का न्याय का प्रयोग देखते हैं ।

प्रकरण १

    सप्तम समुल्लास में प्रश्न उठता है – ईश्वर साकार है या निराकार ? महर्षि कहते हैं – “निराकार, क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता ।” यहां तर्क के अवयव इस प्रकार हैं –

प्रतिज्ञा १ – “ईश्वर निराकार है” । 

हेतु १ – “क्योंकि जो साकार होता”। यह अभ्युपगम-सिद्धान्त (आगे देखिए) है । इसको लेकर, हम इसको ही प्रतिज्ञा बनाकर, पहले इसका परीक्षण करते हैं, क्योंकि इसका परीक्षण अधिक आसान है, और इसके निर्णय से पहली प्रतिज्ञा का भी उत्तर निकल आयेगा । सो,

    प्रतिज्ञा २ – ईश्वर साकार है ।

    हेतु २ – साकार वस्तु व्यापक नहीं होती । यहां ’साकार होना’ कारण है, और ’व्यापक न होना’ कार्य है । सो, यह पूर्ववत् अनुमान हुआ । 

    उपनय २ – परन्तु यह सर्वतन्त्र (सर्वमान्य) सिद्धान्त है कि ईश्वर व्यापक है । इसलिए यहां विप्रतिषेध (contradiction) है ।

    निगमन २ – व्यापक होने के कारण, ईश्वर साकार नहीं है ।

उपनय १ – ईश्वर साकार नहीं है ।

निगमन १ – ईश्वर निराकार है (प्रतिज्ञा १), क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता (हेतु २)।”

    व्यापकत्व को असिद्ध मानकर, अगले वाक्य में महर्षि उसको भी सिद्ध करते हैं । अगला वाक्य है – “जब व्यापक न होता, तो सर्वज्ञतादिगुण भी ईश्वर में न घट सकते, क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित होते हैं, तथा शीतोष्ण, क्षुधा-तृषा और रोग-दोष, छेदन-भेदन, आदि, से रहित नहीं हो सकता ।” यहां –

प्रतिज्ञा १ – ईश्वर व्यापक है ।

हेतु १ – जब व्यापक न होता । यह अभ्युपगम-सिद्धान्त है । सो – 

    प्रतिज्ञा २ – ईश्वर व्यापक नहीं है, अर्थात् परिमित है ।

    हेतु २ – परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित होते हैं । पुनः, यह पूर्ववत् अनुमान है। 

    उदाहरण २ – ईश्वर में सर्वज्ञतादि अपरिमित गुण नहीं हैं ।

    उपनय २ – परन्तु यह सर्वतन्त्र-सिद्धान्त है कि ईश्वर सर्वज्ञ है । यह विप्रतिषेध आ गया ।

    निगमन २ – सर्वज्ञतादि अपरिमित गुण होने के कारण, ईश्वर अव्यापक नहीं हो सकता ।

उपनय १ – ईश्वर अव्यापक नहीं है ।

निगमन १ – ” ईश्वर व्यापक है (प्रतिज्ञा १), क्योंकि जो व्यापक न होता, तो सर्वज्ञतादिगुण भी उसमें न घट सकते (हेतु २) ।”

“तथा शीतोष्ण, क्षुधा-तृषा और रोग-दोष, छेदन-भेदन, आदि, से रहित नहीं हो सकता” – यह एक और हेतु है, जिसका विश्लेषण समान है ।

    प्रकरणानुसार, सिद्धान्त को समझते हैं । सिद्धान्त ४ प्रकार के होते हैं –

(१) सर्वतन्त्र – किसी एक शास्त्र में प्रतिपादित सिद्धान्त परन्तु, अन्य सभी शास्त्रों के द्वारा भी मान्य । जैसे – भौतिकी में ’परमाणु’ का सिद्धान्त प्रतिपादित है, और रसायन व जीव शास्त्र भी इसको स्वीकारते हैं ।

(२) प्रतितन्त्र – एक शास्त्र में प्रतिपादित, परन्तु दूसरों में असिद्ध माना गया सिद्धान्त । जैसे – डार्विन के द्वारा प्रतिपादित Theory of Evolution वैदिक मतानुसार सही नहीं है ।

(३) अधिकरण – जो सिद्धान्त अन्य सिद्धान्त को भी सिद्ध कर दे । जैसे – सुख-दुःख कर्मानुसार होते हैं, इसके सिद्ध होने पर, पुनर्जन्म भी सिद्ध हो जाता है । अंग्रेज़ी में, इसे ऐसी theorem कहेंगे जिसकी corollary हो ।

(४) अभ्युपगम – जो सिद्ध न हो, परन्तु चर्चा के लिए आवश्यक होने के कारण, उसे स्वीकार कर, प्रथम विषय (प्रथम प्रतिज्ञा) की सिद्धि से पहले, इसकी परीक्षा कर के, इसको सिद्ध या असिद्ध करना । इस निर्णय से प्रथम प्रतिज्ञा का निर्णय प्रभावित होगा । इसको अंग्रेज़ी में subordinate hypothesis कहेंगे । इसका उदाहरण हमने ऊपर देखा ।

    अगले वाक्य में महर्षि निराकार होने का एक और हेतु देते हैं – “जो साकार हो, तो उसके नाक, कान, आंख, आदि, अवयवों का बनानेहारा दूसरा होना चाहिए, क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए ।” यहां केवल यह विशेष है कि ’निराकार चेतन’ इसलिए होना चाहिए, क्योंकि यदि वह साकार चेतन हुआ, तो पुन: उसको बनाने वाला कोई चाहिए । यह प्रक्रिया अनन्त तक चलती रहेगी, जब तक कोई निराकार चेतन संयोजक नहीं मिलता । इस अनन्त प्रक्रिया को ’अनवस्था दोष’ (अंग्रेज़ी में infinite loop) कहा जाता है । यह दोष मान्य नहीं होता, अर्थात् यह सर्वतन्त्र-सिद्धान्त है कि अनवस्था-दोष अमान्य है । Infinite loop Modern Logic में भी सही नहीं माना जाता है, परन्तु आजकल अमरीकी वैज्ञानिक इस सिद्धान्त की पूरी तरह अवहेलना करते हुए, बहुत-सी बुद्धूपने की theories गढ़ते हैं, जैसे – जीव पुच्छ्ल तारे (धूमकेतु) से पृथ्वी पर आए (तो पुच्छ्ल तारे पर जीव कहां से आए?!); या, उनकी Infinite Parallel Universes Theory, जिसके अनुसार यदि एक कार्य दो प्रकार से हो सकता है, तो वहां ब्रह्माण्ड दो में बट जायेगा – एक में एक प्रकार से कार्य होगा, दूसरे में दूसरे प्रकार से । यहां तो स्पष्टतः अनन्त ब्रह्माण्डों के होने को स्वीकृत किया गया है, और अपने ही सिद्धान्त – Conservation of Energy and Matter – को भुला दिया गया है !

    इसी प्रकार एक और दोष है – अन्योन्याश्रय दोष । इसमें हम एक को दूसरे पर आश्रित बताएं, फिर दूसरे को पहले पर, तो यह ’मुर्गी पहले कि अण्डा’ वाला हिसाब होने से सही नहीं होता । अनेकों नवीन नैयायिकों के तर्कों में यह दोष रहता है । जैसे – पहले, सिद्ध करतें हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ है, इसलिए सर्वव्यापक है । फिर अन्यत्र कहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक है, इसलिए सर्वज्ञ हैं !

    अगले वाक्य हैं – “जो कोई यहां ऐसे कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप-ही-आप शरीर बना लिया, तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था । इसलिए परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता, किन्तु निराकार होने से, सब जगत को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है ।” यहां, पहला वाक्य “जो कोई यहां ऐसे कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप-ही-आप शरीर बना लिया” – यह प्रतिपक्षी का कथन प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान है, जिसको महर्षि ने ऐसे प्रकट किया – “तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था” । ईश्वर को पूर्व निराकार मानकर, प्रतिपक्षी ने अपनी प्रतिज्ञा – “ईश्वर साकार है” का स्वयं खण्डन कर दिया । इसलिए यह वाद यहीं समाप्त कर दिया गया । यदि इसे formal वाद न माने, तब यह वाक्य ’विप्रतिषेध’ कहायेगा । दोनों ही पक्षों में, तर्क तो गलत ही सिद्ध हुआ ।

प्रकरण २

    सप्तम-समुल्लास के ही एक और वाद को संक्षेप में देखते हैं । प्रश्न उठता है – जो ईश्वर अवतार न लेवे तो कंस-रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो सके ?

    महर्षि कहते हैं – “प्रथम, जो जन्मा है, वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है ।” यह एक सर्वतन्त्र-सिद्धान्त है, जिसे सभी भारतीय दर्शन-शास्त्र मानते हैं । परन्तु यह सामान्य बुद्धि से भी समझा जा सकता है । यह वाक्य ’हेतु’ है । महर्षि ने इसे यह बताने के लिए कहा है कि कंस आदि का नाश तो होना अवश्यम्भावी है, उसमें अवतार की आवश्यकता नहीं । इसलिए, इस हेतु को वे यहीं पर विराम देते हैं ।

    अगला वाक्य है – “जो ईश्वर अवतार = शरीर धारण किए बिना जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करता है, उसके सामने कंस-रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं ।”यहां पहला भाग तो सर्वतन्त्र सिद्धान्त है । दूसरा भाग सामान्यतोदृष्ट अनुमान है – ब्रह्माण्ड कितना बड़ा है, उसका हमें कुछ अनुमान है । रावण, आदि, कितने बड़े हैं, उसका भी अनुमान है । इससे एक-दूसरे की अपेक्षा में कौन किससे कितना बड़ा है, इसका हम अनुमान लगा सकते हैं ।

    अगला वाक्य है – “वह सर्वव्यापक होने से, कंस, रावणादि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा है ।” यहां ’सर्वव्यापकत्व’ सर्वतन्त्र, या ऊपर के प्रकरण में सिद्ध, सिद्धान्त है । इस हेतु से, पूर्ववत् अनुमान से, द्वितीय भाग सिद्ध है ।

    अगले कुछ वाक्य – “जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है । भला इस अनन्त गुणकर्मस्वभावयुक्त परमात्मा को एक क्षुद्र जीव के मारने के लिए जन्ममरणयुक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है?” – उसी तथ्य पर बल देने वाले हैं । उनमें कुछ भी विशेष नहीं ।

    अगला वाक्य है – “और जो कोई कहे कि भक्तजनों के उद्धार करने के लिए जन्म लेता है, तो भी सत्य नहीं, क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं, उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है ।” यहां “भक्तजनों के उद्धार करने के लिए जन्म लेता है” प्रतिवादी का कथन है । महर्षि अपना मत रखते हैं – “सत्य नहीं, क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं, उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है ।” इसके लिए वे हेतु देते हैं – “क्या ईश्वर के पृथिवी, सूर्य, चन्द्रादि जगत् को बनाने, धारण और प्रलय करने-रूप कर्मों से कंस-रावणादि का वध और गोवर्धन पर्वतादि पर्वतों का उठाना बड़े कर्म हैं? जो कोई इस सृष्टि में ईश्वर के कर्मों का विचार करे, तो ’न भूतो न भविष्यति’ ईश्वर के सदृश कोई है, न होगा ।” यहां वे आपको सामान्यतोदृष्ट अनुमान का प्रयोग करने की प्रेरणा दे रहे हैं !

    अगला वाक्य है – “और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता । जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि ’गर्भ में आया’ वा ’मुट्ठी में धर लिया’ । ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता, क्योंकि आकाश अनन्त और सबमें व्यापक है । इससे न आकाश बाहर जाता, न भीतर जाता । वैसे ही अनन्त, सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना-जाना सिद्ध नहीं हो सकता । जाना वा आना वहां हो सकता है, जहां न हो । क्या परमात्मा गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया? और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला? इसलिए परमेश्वर का जाना-आना, जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता ।” यहां तो महर्षि ने स्पष्ट-रूप से न्याय का प्रयोग किया है ! प्रत्यक्ष आकाश का उपमान प्रमाण देकर, वे परमात्मा के व्यापकत्व को समझाते हैं । और उस व्यापकत्व से एकदेशी अवतार को असिद्ध दर्शाते हैं ।

    इस प्रकार स्वामी दयानन्द के सत्यार्थ-प्रकाश को पढ़ते समय हम न्यायदर्शन के सिद्धान्तों का भी परिशीलन कर सकते हैं, जिससे कि हमारी तार्किक शक्ति में वृद्धि हो । वैसे तो, यह मानी हुई बात है कि यह शक्ति केवल न्याय के सिद्धान्त जान लेने से नहीं आ जाती । महर्षि के समान, कुछ लोगों को यह भगवान की देन होती है । परन्तु, यह अभ्यास से भी प्राप्त की जा सकती है, जिस प्रकार ऐड्वोकेट इसके एक रूप को सीखते हैं । सत्य को ढूढ़ने वाले को तो इसे जानना ही पड़ेगा । परन्तु, हम साधारण जनों को भी इसको पाने का अधिक से अधिक प्रयास करन चाहिए, जिससे कोई हमें आसानी से बहका न सके । और आजकल, सत्य बताने वालों से अधिक बहकाने वाले होते हैं !