पूर्वमीमांसा के अनुसार शब्द नित्यता में प्रमाण
अपने लेख ‘वेदोत्पत्ति पर वेद का कथन’ में मैंने मानव सृष्टि के साथ वेदों की उत्पत्ति का विषय निरूपित किया था । वस्तुतः, वेदों का उपदेश तो अजर, अमर है, केवल उनका प्रादुर्भाव ही पुनः पुनः होता है । इस विषय पर, महर्षिजैमिनिप्रणीत पूर्वमीमांसा के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में वैदिक शब्दों की नित्यता पर प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं । महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अलौकिक ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकाके शब्दनित्यता-विषयक अध्याय में भी इस प्रकरण की चर्चा की है । लेख में पूर्वमीमांसा के इस प्रकरण की व्याख्या के साथ-साथ, मैं अपने कुछ विचार भी प्रस्तुत कर रही हूं ।
महर्षि जैमिनी ग्रन्थ के प्रयोजन का निर्देश पहले सूत्र में ही कर देते हैं – धर्म पर विचार, धर्म क्या है – उसको समझना । दूसरे सूत्र में वे बताते हैं कि जो भी (वैदिक वाक्य) किसी कर्म में प्रेरित (या उसका निषेध) करे, वह धर्म को कहने वाला (वाक्य) है । अब धर्म का ज्ञान किससे हो, इसपर विचार करना आवश्यक है । सो, प्रथम तो जो ज्ञान प्रमाणों द्वारा उत्पन्न होता है, वही सही = प्रामाणिक होता है । तो किस प्रमाण से धर्म को जाना जाए ? क्योंकि धर्म प्रेरणा-स्वरूप है, वह प्रत्यक्ष व अनुमान का विषय नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष विद्यमान वस्तु का इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न ज्ञान को बताता है और धर्म तो इन्द्रियों के परे है । फिर अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष पर आधारित है, इसलिए वह भी धर्म विषय को नहीं ज्ञापित कर सकता – यह भी स्पष्ट ही है । अब बचा शब्द प्रमाण । सो, यही धर्म को कह सकता है क्योंकि वह अनुपस्थित वस्तुओं का भी कथन कर सकता है । प्रत्युत, जो वस्तुएं केवल बुद्धि से ग्रहण की जा सकती हैं, उनमें धर्म ही नहीं, अपितु आकर्षण, किसी गुण की महानता/अधमता, इच्छा, द्वेष, आदि, आदि, अन्य अनेक ऐसी वस्तुएं हैं जो कि कभी प्रत्यक्ष नहीं की जा सकतीं ।
अच्छा तो मान लिया कि शब्द प्रमाण से ही धर्म जाना जा सकता है, परन्तु वह कौनसा शब्द प्रमाण है जिसका धर्म के निर्धारण में ग्रहण किया जा सकता है । प्रतीत होता है कि धर्म कभी समय के साथ परिवर्तित नहीं होता है – जो धर्म मानव की आदि सृष्टि में था, वही आज है । इससे यह युक्तिगत लगता है कि धर्म का प्रमाण भी नित्य होना चाहिए । यदि वेदों को यह प्रमाण माना जाए, तो फिर पहले तो उसके शब्द ही नित्य होने चाहिए । इसकी परीक्षा करते हुए, सर्वप्रथम जैमिनि अपना सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं –
औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्धे तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात् ॥पूर्वमीमांसा १।१।५॥
अध्याहार्यः – वेदानाम्, मतः
अनुवृत्तिः – धर्मः
एकवाक्यता – नित्यः (१।१।१८तः)
अर्थात् वेदों के शब्द और अर्थ का सम्बन्ध उत्पत्ति से सम्बद्ध है । उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान उपदेश कहाता है और वह कभी असत्य अथवा व्यभिचारी नहीं होता । बादरायण ऋषि (जैमिनि के समकालीन अन्य दर्शनाचार्य) मानते हैं (जिसे जैमिनि भी पुरस्सर कर रहे हैं) कि यह प्रमाण उस अर्थ का प्रमाण होता है जो प्रत्यक्ष (या अनुमान से) उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि इस प्रमाण में अर्थ के उपलब्ध होने की अपेक्षा नहीं है ।
इस वाक्य में ‘औत्पत्तिकः’ का ‘मानव सृष्टि की उत्पत्ति’ अर्थात् ‘नित्यता’ अर्थ है, जो कि १।१।१८ सूत्र से अनुवर्तित है । यह सिद्धान्तपक्ष का प्रतिपादन हुआ । अब प्रतिपक्षी विभिन्न युक्तियों से इसका खण्डन करने की चेष्टा करता है, जिनमें से कुछ युक्तियां हमारे सन्देहों को भी निरूपित कर सकती हैं ! क्रमवार ये युक्तियां और इनके उत्तर इस प्रकार हैं –
- शब्द तो तभी सुना जाता है जब उसका उच्चारण किया जाता है । जब उसके लिए कर्म करना पड़ता है, तो वह नित्य कैसे हो सकता है ? इसपर जैमिनि समझाते हैं कि शब्द के नित्यता पक्ष में भी उसकी अभिव्यक्ति के लिए कर्म अपेक्षित है । ऐसा नहीं है कि सब शब्द नित्य होने से सर्वदा इन्द्रियों के विषय बने रहते हैं । उनको व्यक्त करने के लिए प्रयत्न करना ही पड़ता है । इसलिए यह तर्क कुछ भी प्रमाणित नहीं करता ।
- यदि शब्द नित्य होता तो वह सदा उपस्थित रहता, परन्तु वह तो उच्चारण के बाद समाप्त हो जाता है । जैमिनि कहते हैं कि शब्द जो इन्द्रियों का विषय है, वह अवश्य ही अग्राह्य हो जाता है ।
उपर्युक्त दो सूत्रों में अर्थापत्ति से यह निष्कर्ष निकलता है कि शब्द दो प्रकार के होते हैं – एक जिसका श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण होता है और एक जो बुद्धि में, ग्रन्थों में स्थित होता है । पहला शब्द दूसरे शब्द की अभिव्यक्ति मात्र होता है और अनित्य होता है । यह तथ्य कहीं भी स्पष्टतया नहीं कहा गया है । इसीलिए सबको इस प्रकरण को समझने में कठिनाई होती है । इस बात को समझ लेने पर प्रायः सभी सन्देहों का निवारण हो जाता है । - “शब्द करता है”, इस सामान्य प्रयोग से भी यही जाना जाता है कि शब्द कर्म है, और इसलिए अनित्य है । यह संशय तो उपर्युक्त दो संशयों के समान ही है, तथापि जैमिनि बताते हैं कि कथित वाक्य से केवल प्रयोग इंगित किया जाता है, उसकी नित्य या अनित्य सत्ता नहीं ।
- दो और उससे अधिक व्यक्ति एक ही शब्द का एकसाथ प्रयोग कर सकते हैं । यदि शब्द नित्य है, तो उसकी अभिव्यक्ति भी एक समय में एक होनी चाहिए । इससे यही जाना जा सकता है कि एक समान अनेक शब्द उत्पन्न हो रहे हैं अर्थात् शब्द अनित्य है । जैमिनि उत्तर देते हैं – जिस प्रकार सूर्य एक स्थान ही नहीं, अपितु सर्वत्र एकसाथ प्रकाश करता है, उसी प्रकार एक शब्द अनेक स्थान पर उच्चारित होता है ।
वस्तुतः, इस तथ्य से तो शब्द की नित्यता ही प्रकाशित होती है, न कि अनित्यता, क्योंकि शब्द का ज्ञान सर्वत्र और सर्वदा विद्यमान होने से, उसे नित्य मानना ही सही है । जैमिनि स्वयं आगे १।१।१९ सूत्र में यह बताते हैं । - पूर्वपक्षी एक और आपत्ति सामने रखता है – शब्दों में प्रकृति व विकृति रूप देखे जाने से भी शब्द को नित्य नहीं माना जा सकता । सन्धि, समास, आदि, में शब्दों के पूर्वरूप में परिवर्तन आ जाता है, जैसे ‘सत् + जन’ मिलकर ‘सज्जन’ बन जाता है । यह आपत्ति अनेकों ग्रन्थों में देखने को मिलती है, जैसे न्यायदर्शन । प्रतीत होता है कि यह अकाट्य युक्ति है । तथापि जो आगे जैमिनि कहते हैं, वही अन्यों ने भी कहा है कि – यहां दूसरा वर्ण आकर बैठ जाता है, पूर्व वर्ण का विकार नहीं होता ।
हमारे मुख, ओष्ठ, आदि, उच्चारण-तन्त्रों की बनावट के कारण, कुछ वर्णसमूह बोलने में कठिन होते हैं, कुछ असम्भव ही । जैसे – कन्प का उच्चारण कठिन है, परन्तु कम्प का सरल; और ञ्म का असम्भवप्राय है । प्रयोग की सुविधा के लिए वर्णों में अन्तर कर दिया जाता है, नहीं तो शब्द तो वही रहते हैं और उनके अर्थ भी । - अन्त में पूर्वपक्षी कहता है – शब्द में वृद्धि भी होती है जब बहुत जन उसको एकसाथ उच्चारते हैं । यहां ‘शब्द’ से ‘ध्वनि’ का ग्रहण किया गया है, जो भी ‘शब्द’ का एक अर्थ है । जैमिनि बताते हैं – यह नाद में वृद्धि है, शब्द में नहीं ।
पुनः यहां हम प्रयोग और निराकार शब्द की सत्ता में भ्रान्ति पाते हैं । इसलिए इस भ्रान्ति का अपने मन से पूर्णतया निवारण करना हमारे लिए भी बहुत आवश्यक है ।
पूर्वपक्षियों के सब सन्देह दूर करने के बाद, जैमिनि अब शब्द के नित्य होने में निश्चयात्मक युक्तियां प्रस्तुत करते हैं । इनको गहनता से समझना अत्यावश्यक है –
- शब्द नित्य ही हैं क्योंकि उनके अर्थ दूसरों के लिए हैं । जो श्रोता या पाठक है, उसके लिए शब्द बोले या लिखे जाते हैं । यदि शब्द का अर्थ से सम्बन्ध पूर्व से वर्तमान न हो, तो शब्द किस प्रयोजन के रहेंगे ? जो एक व्यक्ति बोलेगा वह दूसरा समझ नहीं पाएगा !
परन्तु यह युक्ति तो दूसरी मानवीय भाषाओं पर भी प्रयुक्त होती है, जो कि स्पष्टतः आज हैं, कल नहीं । जैसे एक समय में पालि भाषा का बोलबाला था, आज वह कहीं भी नहीं बोली जाती । इस सन्देह का उत्तर यह है कि वेदों के विषय में सब जानते हैं कि वे पुरातन काल से वर्तमान हैं । यदि उनकी भाषा अनित्य होती, तो उसके शब्दों का अर्थों से सम्बन्ध बहुत पहले ही समाप्त हो जाता, क्योंकि अनेकों वैदिक शब्दों का प्रयोग बहुत पहले समाप्त हो गया है । जिस प्रकार सिन्धु घाटी की सभ्यता के शब्द प्रयोग के अभाव में अब नहीं समझे जाते, उसी प्रकार वैदिक शब्दों का भी लोप हो जाना चाहिए था । - फिर, ये शब्द एकसाथ सब व्यक्तियों में और सर्वदा जाने जाते हैं । जैसा हमने ऊपर देखा था, यह तथ्य शब्द की अनित्यता स्थापित नहीं करता, अपितु उसका उल्टा स्थापित करता है, कि – शब्द व्यापक हैं व देश और काल में सीमित नहीं हैं ।
जो हम कहें कि अन्य भाषाओं के लिए भी यह बात सही है, तो ऊपर दिया उत्तर यहां भी ग्रहण करना चाहिए ।
व्याख्याकार इसका एक अन्य अर्थ भी करते हैं कि एक शब्द अपने सभी विषयों में एकसाथ व्यवहृत होता है, जैसे – ‘गो’ शब्द से सभी गायों का ज्ञान हो जाता है । पहले तो यह कथन सही नहीं है क्योंकि जब हम कहते हैं, “यह गाय”, तब हम एक गाय का बोध कराते हैं; तथापि यह सही है कि ‘गो’ शब्द किसी व्यक्तिविशेष को नहीं कहता, अपितु गोजाति को कहता है, और गोजाति यदि नहीं भी रहे, तब भी उसका बोध कराता रहता है । फिर भी, इस तथ्य को मानने से शब्द नित्य नहीं हो जाता ! इसलिए मुझे यह व्याख्या त्याज्य लगती है । - पुनः, जैमिनि कहते हैं कि शब्दों के प्रयोग की कोई निर्धारित संख्या नहीं है । इसलिए भी वे नित्य हैं । यह तो पूर्व कथन का कुछ भेद लगता है ! इसलिए इसको ऐसे समझना चाहिए – वैदिक शब्दों का प्रयोग कितनी भी बार हो, वे अपना अर्थ नहीं त्यागते । परमात्मा के ज्ञान के समान, वे सदा एक ही अर्थ को कहते हैं ।
- और तो और, वैदिक शब्दों को प्रयोग की अपेक्षा ही नहीं है ! हम पाते हैं कि जनजातियों की भाषाएं लुप्त हो जाती हैं, क्योंकि उनका प्रयोग बन्द हो जाता है । जैमिनि बताते हैं कि वेदों के साथ कभी यह सम्भव नहीं है । चाहे कोई वह भाषा बोले या न, उस भाषा का अस्तित्व बना रहेगा । आज के परिपेक्ष में भी हम कह सकते हैं कि कोई मानव वैदिक भाषा नहीं बोलता, तथापि वेदों का ज्ञान, कुछ सीमित मात्रा में ही सही, अभी भी वर्तमान है । और, इससे भी महत्त्वपूर्ण है कि कोई परिश्रम करे तो उस ज्ञान को पुनरुज्जीवित कर सकता है, जैसे महर्षि दयानन्द ने लुप्त वैदिक ज्ञान का पुनरुद्धार किया ।
- वैदिक शब्दों का अर्थ से जुड़ने का कोई वर्णन नहीं प्राप्त होता, इसलिए ये नित्य हैं । परम्परा से हमें कहीं भी शब्दों की उत्पत्ति का कोई प्रमाण नहीं मिलता, जैसे कि हम आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति के विषय में अनुमान कर पाते हैं । अपितु हमें यही सुनने में आता है कि वेद जैसे-के-तैसे प्रकट हुए । इस प्रकार शब्दों का अर्थों के साथ संयोग न होने से, उनमें संयोग के कारण कार्यता का दोष नहीं आता । दर्शनशास्त्र हमें सदा बताते हैं कि कोई भी संयुक्त वस्तु कार्य वस्तु होगी, कारण नहीं हो सकती; और कार्य कभी नित्य नहीं होता । इसलिए शब्द व अर्थ के सम्बन्ध के संयोग की सम्भावना को दूर करना आवश्यक है ।
व्याख्याकारों ने यहां वायु के संयोग-वियोग द्वारा शब्द की उत्पत्ति होने से शब्द के कार्य होने के संशय का निराकरण माना है । यहां मुझे अनेक दोष दीखते हैं – वायु का यहां कोई कथन नहीं है । सभी संशय जैमिनि ने स्पष्टतया पहले ही निरूपित कर दिए थे और उनका एक-एक करके निराकरण कर दिया था । इसलिए यहां किसी संशय की कल्पना करना कोरी कल्पना ही है ! फिर शब्द की अभिव्यक्ति में प्रयत्न का विषय पूर्व ही छेड़ दिया गया था और उसका उत्तर भी दे दिया गया था । इस व्याख्या में पुनरुक्ति ही है, कोई नई बात नहीं है । इन सब कारणों से मेरी उपर्युक्त व्याख्या, जिसमें कोई बाहर से शब्द नहीं जोड़े गए हैं, वह सही लगती है । वैदिक शब्दों की नित्यता में वह एक प्रभावी कारण भी दर्शाती है । - जैमिनि फिर कहते हैं कि वैदिक शब्द नित्य हैं क्योंकि इसका चिह्न भी दीखता है । वेदों में परमात्मा से वेदों की उत्पत्ति के कथन को वह चिह्न माना गया है जिसकी यहां चर्चा हो रही है । परन्तु जब वैदिक शब्दों पर ही शंका करी जा रही है, तब हम उनका प्रमाण कैसे स्वीकारें ? यह तो अन्योऽन्याश्रय दोष हो जाएगा ! इसलिए, मेरे अनुसार यहां अर्थ है – हम यह भी देखते हैं कि कोई वेदों के लेखक होने का दावा नहीं करता । रामायण, महाभारत, आदि, सभी प्राचीन ग्रन्थों से किसी लेखक का नाम जुड़ा होता है । वेदों में ऐसा नहीं है । यह एक चिह्न है कि वेद अपौरुषेय हैं, और इसलिए नित्य हैं ।
मीमांसा में वैदिक शब्दों की नित्यता का प्रकरण तो यहीं समाप्त हो जाता है, परन्तु वैदिक वाक्यों के अर्थों के विषय में चर्चा आगे चलती है । वह प्रकरण भी बहुत रोचक है । इस प्रकरण की युक्तियों को जानकर, हमें पुनः स्वामी दयानन्द के वचनों को पढ़ना चाहिए जिससे यह विषय हमारे मन में अच्छे प्रकार बैठ जाए ।