पूर्वमीमांसा के आधार पर दिए गए कुछ नैयायिक निर्णय
अपने लेख ‘पूर्वमीमांसोपदिष्ट अर्थिकरण की प्रक्रिया’ में मैंने महर्षिजैमिनिकृत पूर्वमीमांसा के कुछ सिद्धान्त दर्शाए थे, जिनके द्वारा वेद व इतर ग्रन्थों के अर्थ किए जाते हैं । उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, इस लेख में मैं मीमांसा पर आधारित कतिपय कठिन अभियोगों के निर्णयों का विवरण दे रही हूं । ये सभी सर्वोच्च न्यायालय के प्रसिद्ध न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू की पुस्तक K. L. Sarkar’s Mimansa Rules of Interpretation, Tagore Law Lecture Series – 1905, ed. Justice Markandeya Katju, से उद्धृत हैं और उन्हीं के द्वारा निर्णीत हैं । काटजू जी मीमांसा के अच्छे जानकार रहे हैं, यह तो इन निर्णयों से स्पष्ट हो ही जाता है !
- उदय सिंह बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम (ऐल०आइ०सी०)
१९९८ में यह निर्णय दिया गया । एक बार उदय सिंह अपने स्कूटर पर जा रहा था, जब उसकी ट्रक के साथ दुर्घटना हो गई । इसके कारण उसके दाएं पैर को काटना पड़ा और उसकी दाईं बाजू में लकवा हो गया । उदय सिंह ने ऐल०आइ०सी० का बीमा कर रखा था । पौलिसी के अनुसार मृत्यु अथवा स्थायी अपंगता होने पर क्षतिपूर्ति के लिए धनराशि दी जानी थी । ‘स्थायी अपंगता’ के अन्तर्गत दोनों आंखों का जाना, या दोनों पैरों का कटना, या दोनों हाथों का कटना, अथवा एक हाथ और एक पैर का कटना निर्दिष्ट था । उदय सिंह का लकवापन यहां नहीं गिना गया था । इसलिए ऐल०आइ०सी० ने उसकी मांग अस्वीकार कर दी ।
उदय सिंह ने अभियोग चलाया और सुनवाई इलाहाबाद उच्च न्यायालय तक पहुंची । वहां, न्यायाधीश काटजू ने कहा कि यहां श्रुति सिद्धान्त लगाना सही न होगा, अर्थात् जैसा लिखा है, उसे सीधे-सीधे वैसा ही पढ़ना न्याय न होगा । पौलिसी की निर्दिष्ट दशाओं से स्पष्ट है कि वहां जीविकोपार्जन कर पाने में पूर्णतया बाधा से प्रयोजन है, अर्थात् यह उसका लक्षित अर्थ है । निर्दिष्ट दशाओं को केवल लिंग मानकर, उनका जो अन्तर्निहित तात्पर्य है, वह समझना आवश्यक है । हाथ या पैर के ‘कट जाने’ को ‘अपंगता’ के रूप में पढ़ना चाहिए, न कि केवल ‘कटने’ के अर्थ में । इस प्रकार, मीमांसा के लिंग सिद्धान्त के अनुसार उन्होंने ऐल०आइ०सी० से उदय सिंह को उपयुक्त धनराशि देने को कहा । यह निर्णय अन्य किसी नियम से सम्भव न था, क्योंकि यह विषय न्याय-संहिता में नहीं पाया जाता !
मीमांसा के भाष्यों में इसका उदाहरण प्राप्त होता है – “काकेभ्यो दधि रक्षताम्” अर्थात् कौओं से दही सुरक्षित करो । यहां केवल कौए ही नहीं, अपितु सभी जीव-जन्तुओं से दही बचाने का अर्थ समझना चाहिए, अर्थात् कौआ यहां उपलक्षण-मात्र है । वैदिक साहित्य में यह एक बहुत लोकप्रिय सिद्धान्त है । पाणिनि ने अपने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी में भी इसका खुल कर प्रयोग किया है, यथा – यू स्त्र्याख्यो नदी (१।४।३) – अर्थात् ईकारान्त व ऊकारान्त स्त्रीवाचक शब्दों की अष्टाध्यायी में ‘नदी’ संज्ञा होगी । यहां नदी स्वयं इस सूत्र के अन्तर्गत है । उसके समान सभी शब्दों का उपलक्षण के रूप में ग्रहण करके, उन सभी शब्दों की संज्ञा ही ‘नदी’ रख दी गई !
वेदों में भी यह पद्धति यत्र-तत्र-सर्वत्र पाई जाती है, यथा – पुँल्लिंग का प्रायः स्त्रीलिंग भी अर्थ समझना चाहिए, यथा – यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत … (यजुर्वेदः ३१।१४) – अर्थात् जो पुरुष-परमात्मा उनकी हवि का ग्रहण करता है, उसके द्वारा विद्वज्जन ध्यान-धारणा-समाधि रूप मानस-यज्ञ का विस्तार करते हैं । यहां ‘देवाः’ से केवल पुरुष साधकों का ग्रहण करना सही न होगा, विदुषी स्त्रियों का भी ग्रहण करना आवश्यक है ।
पुनः, यह मन्त्र देखिए – शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये … (यजुर्वेदः ३६।१२) अर्थात्प्राकृतिक शक्तियां हमारे लिए इष्ट पदार्थों का सृजन करें और सब जल हमारे पीने के लिए कल्याणमय हों । यहां ‘आपः’ से जल ही नहीं, अपितु सभी भोग्य पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार, एकवचनात्मक प्राण व इन्द्रिय शब्दों से पांचों प्राण व पांचों इन्द्रियों का ग्रहण होता है । ऐसे अनन्त उदाहरण वेदों में मिल जायेंगे ।
- सरदार मोहम्मद अनसार खान बनाम उत्तर प्रदेश सरकार
यह निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय में १९९२ में न्यायाधीश काटजू द्वारा दिया गया । यहां विवादित विषय था कि एक माध्यमिक विद्यालय के यदि दो लिपिक (क्लर्क) एक ही दिनांक को नियुक्त हुए हों, और यदि एक की ही पदोन्नति सम्भव हो, तो किसको वरिष्ठ माना जाएगा ? जो वरिष्ठ था, उसी को मुख्य लिपिक की पदवी मिलनी थी, परन्तु वरिष्ठता नियुक्ति दिनांक से गिनी जाती है । अब, इस विषय में न्याय-संहिता मूक थी । तो काटजू साहब ने पाया कि लिपिक तो नहीं, परन्तु अध्यापकों के विषय में एक अध्यादेश था – यदि दो अध्यापक एक दिनांक को नियुक्त हुए हों, और उनमें से केवल एक की पदोन्नति होनी हो, तो उनमें से जिनकी आयु अधिक हो, उसे वरिष्ठ माना जाएगा । मीमांसा के अतिदेश नियम का सहारा लेकर, काटजू जी ने निर्णय दिया कि जो नियम अध्यापकों के लिए है, वही लिपिकों के लिए भी लगना चाहिए, और दोनों लिपिकों में से जिसकी आयु अधिक होगी, उसे पदोन्नति प्राप्त हो । दोनों की आयु में तो भेद था ही, इसलिए एक की उन्नति हो गई ।
मीमांसा का अतिदेश नियम कहता है कि जहां कोई विधि न प्राप्त हो, तो अन्य समान विधि से उसको समझना चाहिए । उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों में प्रकृति यागों का विस्तार से वर्णन है, जैसे कि दर्शपौर्णमास, परन्तु उनके विकृति यागों का नहीं, जैसे सौर्य याग । तो जिस ग्रन्थ में सौर्य याग का विवरण है, यदि वहां कुछ विधि कम दिखे, तो उसे दर्शपौर्णमास (जिस प्रकृति यज्ञ का सौर्य यज्ञ विकृति है) की विधि से ग्रहण करना चाहिए ।
हिन्दू समाज के नियमों में पूर्व से ही इस अतिदेश सिद्धान्त का प्रयोग किया जाता रहा है, जैसे – दायभाग के विषय में औरस पुत्र, अर्थात् अपनी पत्नी से उत्पन्न सन्तान के लिए पूर्णतया निर्देश हैं, परन्तु दत्तक पुत्र के विषय में कुछ नहीं कहा गया । सो, जो नियम औरस सन्तान के दायभाग के लिए बताए गए थे, उन्हें ही दत्तक पुत्र के लिए भी घटाया जाए, ऐसा अतिदेश किया गया है ।
अधिदेशों में सर्वदा ही सभी स्थितियां नहीं कही जा सकतीं । यही वह सिद्धान्त है जिसके द्वारा एक से अनेक स्थितियों के नियम समझे जा सकते हैं ।
वेदों में यह सिद्धान्त इस प्रकार प्रयुक्त होता है – सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषँ स्वाहा (यजुर्वेदः ३२।१३) – अर्थात् सभा का वह अद्भुत पति राजा का प्रिय व काम्य होता है जिसकी बुद्धि सत्य और असत्य में भेद कर सकती है । वैसी बुद्धि, हे परमात्मन् ! आप मुझे प्रदान करें । जबकि यहां राजा की सभा के प्रसंग में स्पष्टतः ‘सभापति’ का ग्रहण किया गया है, तथापि सभी जनों को सदैव ऐसी बुद्धि की कामना करनी चाहिए । आगे के दो मन्त्रों में पुनः सब मनुष्यों द्वारा मेधा की कामना होने से यह अर्थ पुष्ट होता है ।
- त्रिभुवन मिश्र बनाम जिला स्कूल निरीक्षक
पुनः यहां शैक्षिक संस्था का विवाद था । वह इस प्रकार था – माध्यमिक शिक्षा संस्था के प्रधानाध्यापक के सेवानिवृत्त हो जाने पर कौन अस्थायी रूप से भारनिर्वहन करे ? इस विषय पर एक खंडपीठ ने निर्णय दिया था कि सबसे वरिष्ठ अध्यापक अस्थायी प्रधानाध्यापक हो, जबकि दूसरी खंडपीठ ने कहा कि इस पद पर नियुक्ति करने का अधिकार प्रबन्धन समिति का है । इन दो विरुद्ध निर्णयों में से किस निर्णय का पालन हो ? काटजू ने १९९२ में मीमांसा के सामंजस्य सिद्धान्त के अनुसार अपना निर्णय सुनाया – साधारणतः, वरिष्ठ अध्यापक को ही यह पद मिलना चाहिए, परन्तु विशिष्ट परिस्थितियों में, जैसे जब वरिष्ठ अधिकारी पर कुछ आरोप हों, तब प्रबन्धन समिति इस पद पर नियुक्ति कर सकती है । इस प्रकार, दोनों हि पक्षों का इस निर्णय में सामंजस्य हो गया, किसी को भी नकारा नहीं गया ।
मीमांसा का सामंजस्य सिद्धान्त ऐसी ही स्थितियों को निबटने के लिए है जहां दो वाक्यों में विरोध प्रतीत हो रहा हो । इस विषय को समझाने के लिए व्याख्याकारों ने नष्टाश्व-दग्धरथ न्याय बताया है – दो प्रवासी अलग-अलग घोड़ागाड़ी से जा रहे थे । वे दोनों रात को एक सराय में रुके । सराय में आग लग गई । एक के घोड़े भाग गए और दूसरे का रथ जल गया । अब दोनों ही आगे जाने में असमर्थ ! तो उन्होंने एक-दूसरे की सहायता की – एक के रथ में दूसरे के घोड़ों को जोत कर, उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की ।
व्याख्याओं में यज्ञों के ऐसे प्रकरण बताए गए हैं, जहां एक ग्रन्थ एक विधि कहता है, दूसरा दूसरी । इस विरोध को दूर करने के लिए सामंजस्य सिद्धान्त ही एकमात्र आश्रय है, जो दोनों या अनेकों विधियों को साथ लेकर चलता है ।
वेदों में ऐसा विरोधाभास तो इतनी बार आता है कि बिना अर्थ का सामंजस्य किए हुए, हम वेदों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग ही दें ! यथा – प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते … (यजुर्वेदः ३१।१९) अर्थात् प्रजापति परमात्मा ब्रह्माण्ड रूपी गर्भ में, बिना जन्म लिए, अनेक प्रकार से जन्म लेता है । यहां ‘जन्म’ के दो पृथक् अर्थ करना आवश्यक हैं, नहीं तो वाक्य ही निरर्थक हो जायेगा । सो, सामंजस्य सिद्धान्त से अर्थ बना – प्रजापति स्वयं तो किसी शरीर से विशेष रूप से संयुक्त नहीं होता – ‘जन्म’ नहीं लेता, परन्तु जड़ पदार्थों व चेतन जीव-जन्तु प्रजा के रूप में वह अपने अस्तित्व को ‘प्रकट’ करता है – ‘जन्म’ लेता है ।
मन्त्र तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः (यजुर्वेदः ४०।५) अर्थात वह हिलता है, वह नहीं हिलता । वह दूर है, वह पास है । वह सबके अन्दर है, वह इस सब के बाहर है – यहां तो व्याघात ही व्याघात है ! इसी प्रकार परमेश्वर को कहीं ‘क्रतु’ और कहीं ‘अक्रतु’ पुकारा गया है । इन सभी स्थलों पर हमें सामंजस्य का प्रयोग करना चाहिए ।
जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है, इस सिद्धान्त का प्रयोग करने के लिए विशेष ज्ञान व बुद्धि की आवश्यकता है, लिंग व अतिदेश के समान सरलता यहां नहीं है ।
इस प्रकार हम पाते कि मीमांसा के सिद्धान्त कई प्रकरणों को समझने के लिए लाभकारी ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो जाते हैं । इससे जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ की आज के समय में जो अवहेलना हो रही है, वह अत्यन्त शोचनीय है । न्यायसंहिता के लिए ही नहीं, वेदसंहिता के लिए ही नहीं, अपितु स्वयं धर्म को समझने के लिए पूर्वमीमांसा एक आवश्यक साधन है । इसीलिए तो महर्षि जैमिनि ने अपने कालजयी ग्रन्थ का आरम्भ इन शब्दों से किया है – अथातो धर्मजिज्ञासा । वस्तुतः, वेदों का धर्मोपदेश जहां-जहां अस्पष्ट है, वहां मीमांसा के सिद्धान्त ही हमें अर्थ के पार पहुंचा सकते हैं । व्याख्याएं केवल ब्राह्मण-ग्रन्थों से उदाहरण लेकर लिखी गई हैं । मीमांसकों को इन सिद्धान्तों को वेदों पर भी घटाना चाहिए, जैसा कि मैंने ऊपर दिए उदाहरणों में दर्शाया है ।