क्या सांख्यदर्शन अनीश्वरवादी है ?
मध्यकाल से यह धारणा बन गई है कि महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत सांख्यदर्शन ईश्वर की सत्ता को नकारता है । इस विषय पर प्रकाश डालते हुए, मैंने अप्रैल २-४, २०२३, को काठमाण्डू, नेपाल, में संस्कृति व धर्म के अध्ययन के दक्षिण व दक्षिणपूर्वी एशियाई समवाय (South and Southeast Asian Association for the Study of Culture and Religion, SSEASR) के द्वारा आयोजित नवीं संगोष्ठी में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया । उसी पत्र का कुछ विवरण इस लेख में दे रही हूं ।
जबकि सांख्यदर्शन आज भी प्रसिद्ध है, तथापि उसमें अनीश्वरवाद की अवधारणा के कारण उसपर जैसे कलंक-सा लगा हुआ है । इस कलंक का आधार कपिल के सूत्र न होकर, उसपर लिखी टीकाएं हैं । इनमें से सबसे पुरानी और प्रसिद्ध टीका है ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका । इसमें सभी सूत्रों की व्याख्या नहीं पाई जाती और वैसे तो कपिल के ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद पर यह मूक ही है । यह करीब ३५०ई० की मानी जाती है । फिर चौदहवीं शताब्दी की सांख्यसूत्र या सांख्य-प्रवचन-सूत्र के नाम से एक और टीका प्रसिद्ध है, जिसमें कि विशेष रूप से अनीश्वरवाद का वर्णन पाया जाता है । इस धारणा का मुख्य कारण है कपिल का यह सूत्र – ईश्वरासिद्धेः (१।९२), जिसका अर्थ है “ईश्वर के असिद्ध होने के कारण” । सरसरी दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ कि कपिल ईश्वर को असिद्ध बता रहे हैं, सही ही प्रतीत होता है । परन्तु यह वाक्य अपूर्ण है; इसको पूर्ण वाक्य के समान पढ़ना बहुत भ्रमात्मक है । सूत्रात्मक ग्रन्थों में आगे-पीछे के सूत्रों से शब्दों की अनुवृत्ति चलती है । अनुवृत्तियों को देखकर ही अर्थनिर्धारण करना दर्शनकार के प्रति न्याय करना है । इसलिए हम इस सूत्र के प्रसंग को समझने का प्रयास करते है । सभी सूत्रों में दी गई अनुवृत्तियां मेरे द्वारा दी गई हैं, क्योंकि आजतक किसी ने इन अनुवृत्तियों को लिखित रूप में नहीं दिया है; तथापि ये प्रचलित व्याख्याओं से प्रेरित हैं ।
सूत्र १।९२ का प्रकरण
वस्तुतः, यह प्रकरण प्रत्यक्ष प्रमाण का है, जहां कपिल मुनि ने प्रत्यक्ष को परिभाषित किया है और उसके विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला है । यहां पहला सूत्र है –
यत् सम्बद्धं सत् तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत् प्रत्यक्षम् ॥१।८९॥ अनुवृत्तिः –प्रमाणम् ॥
अर्थात् जो (इन्द्रिय विषय से) सम्बद्ध होते हुए, उस (विषय) के आकार का उल्लेख करता है, वह विज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण होता है । न्यायदर्शन में गौतम ने भी कुछ ऐसी ही परिभाषा दी थी, कि जो इन्द्रियों का उनके विषय से सम्पर्क होने से असंशयात्मक ज्ञान हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण कहाता है ।[1]
अगले सूत्र में कपिल इसी विषय को आगे बढ़ाते हैं –
योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः ॥१।९०॥ अनुवृत्तिः –प्रमाणम्, प्रत्यक्षम् ॥
अर्थात् योगियों का अबाह्य प्रत्यक्ष होने के कारण, (उनके अतीन्द्रिय पदार्थों के) प्रत्यक्ष में कोई दोष नहीं है ।
पूर्व सूत्र पर प्रश्न उठता है कि योगिजन तो अतीन्द्रिय पदार्थों, जैसे जीवात्मा, प्रकृति के सूक्ष्म परिणाम, आदि, को प्रत्यक्ष करते बताए गए हैं, परन्तु आपने पिछले सूत्र की परिभाषा में केवल इन्द्रियात्मक ग्रहण का ही वर्णन किया है; तो क्या योगियों के इस प्रत्यक्ष को प्रामाणिक न माना जाए ? कपिल बताते हैं कि योगियों को अबाह्य प्रत्यक्ष भी होता है । वे अपनी ‘आन्तरिक इन्द्रिय’, वस्तुतः आत्मा, से भी देख सकते हैं । पतञ्जलि भी इससे सहमत थे, यह योगदर्शन के तृतीय ‘विभूतिपाद’ से जान पड़ता है । तथापि उन्होंने उस ग्रहण को न प्रत्यक्ष बोला, न स्पष्टतः प्रामाणिक कहा; तथापि यही उनका आशय था, यह विभूतिपाद में स्पष्ट हो जाता है । अन्य प्राचीन ग्रन्थों में भी हम योगियों के इस ग्रहण को मान्यता प्राप्त होते हुए पाते हैं । परन्तु, कपिल ही हैं जिन्होंने स्पष्टरूप से इस ग्रहण को ‘प्रत्यक्ष’ की श्रेणी में रखा है और उसकी प्रामाणिकता में कोई दोष नहीं है, यह बताया है । यह परिभाषा ‘प्रत्यक्ष’ की सीमा को बहुत बढ़ा देती है !
इसी प्रकरण को आगे ले जाते हुए कपिल कहते हैं –
लीनवस्तुलब्धातिशयसम्बन्धाद्वादोषः ॥१।९१॥ अनुवृत्तिः –प्रमाणम्, प्रत्यक्षम्, योगिनाम् ॥
अर्थात् या लीन वस्तु (जिसका विनाश हो गया हो) से अतिशय रूप से सम्बन्ध होने से, उसके ग्रहण में भी कोई दोष नहीं है ।
यह सम्बन्ध भी योगिजन स्थापित कर पाते हैं कि जो वस्तुएं या क्रियाएं भूत में हुईं, परन्तु वर्तमान में नहीं हैं, उनको भी जान लेते हैं । पतञ्जलि ने तो भविष्य के कुछ अंश का ज्ञान होने का भी वर्णन किया है ।[2] इस प्रकार, योगियों की सिद्धियों को यहां मान्यता दी गई है ।
यहां यह पूछा जा सकता है कि यह तो पिछले सूत्र से भी ग्रहण किया जा सकता था, कपिल ने एक और सूत्र क्यों रचा, क्योंकि सूत्रात्मक ग्रन्थों में लाघव को बहुत महत्त्व दिया जाता है । तो, पूर्व सूत्र में कपिल ने केवल वर्तमान अतीन्द्रिय वस्तुओं की चर्चा की थी; इस सूत्र द्वारा वे बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि वर्तमान से भिन्न ‘प्रत्यक्ष’ भी योगियों को होता है और वह प्रामाणिक है ।
यहां तक सूत्रों की व्याख्याओं में विशेष मतभेद नहीं है । अब आता है विवादास्पद सूत्र –
ईश्वरासिद्धेः ॥१।९२॥ अनुवृत्तिः – प्रमाणम्, अबाह्यप्रत्यक्षम्, योगिनाम् ॥
इस सूत्र की जो प्रचलित व्याख्या मैंने पूर्व में दी थी, उसमें इस सूत्र को प्रत्यक्ष के प्रकरण से बाहर लिया जाता है, और इसको स्वतन्त्र वाक्य मानते हुए, “सः न विद्यते” का अध्याहार किया जाता है, जिससे अर्थ बनता है – क्योंकि ईश्वर (प्रमाणों से) सिद्ध नहीं है, इसलिए उसकी सत्ता नहीं है । परन्तु यह व्याख्या न तो ‘प्रत्यक्ष’ के प्रकरण से मेल खाती है, न उससे पूर्व के प्रकरणों से और न ही पश्चात् के प्रकरण से ।
यदि हम प्रत्यक्ष प्रकरण के अनुसार व्याख्या करें, उपर्युक्त अनुवृत्तियों के साथ, तो अर्थ बनता है – यदि योगियों के अबाह्य प्रत्यक्ष को हम प्रमाण न मानें, तो ईश्वर असिद्ध हो जाएगा । वैसे तो ईश्वर के लिए मुख्य प्रमाण वैदिक ‘शब्द’ है, तथापि हम मनुष्यों को प्रत्यक्ष प्रमाण से सबसे अधिक सन्तुष्टि होती है – यदि किसी वस्तु के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाए, तो हमें कोई संशय नहीं रहता । इसलिए कपिल ने यहां योगियों के प्रत्यक्ष में परमात्मा के सान्निध्य को भी गिना है ।
यहां भी प्रश्न किया जा सकता है कि सूत्र १।९० में अतीन्द्रिय वस्तुओं में ही परमात्मा की भी गणना हो जाती है, तो अन्य सूत्र की आवश्यकता क्यों थी । सो, परमात्मा एक बहुत ही विशेष वस्तु है जिसके विषय में, अतीन्द्रिय वस्तुओं की गणना कर लेने पर भी, संशय बना रह सकता है । इसलिए कपिल ने उसको स्पष्टरूप से बता दिया । यह भी जानना चाहिए कि यह अभ्युपगम सिद्धान्त का प्रयोग है, जिसमें किसी तथ्य को बिना परीक्षण किए मान लिया जाता है, ये देखने के लिए कि उससे निकले निष्कर्ष अन्य प्रमाणों से बाधित होते हैं कि नहीं ।[3] सो, यहां वस्तुतः परमात्मा को पूर्वप्रमाणित मानकर (सर्वतन्त्र सिद्धान्त), यह बताया गया है कि योगियों का अबाह्य प्रत्यक्ष यदि नकारा गया, तो परमात्मा को भी नकारना पड़ेगा, जो कि किसी को मान्य न होगा ।
हमारी उपर्युक्त व्याख्या सही है, इसका परीक्षण करने के लिए आगे का सूत्र भी देखते हैं –
मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः ॥१।९३॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरासिद्धेः ॥ अध्याहारः – जगतः ॥
अर्थात् यदि परमात्मा अप्रमाणित हुए, तो केवल मुक्त और बद्ध आत्माओं के सिवा अन्य का अभाव होने से, ब्रह्माण्ड की भी सिद्धि नहीं हो पाएगी ।
यह भी अभ्युपगम सिद्धान्त का प्रयोग है । किसी बुद्धिमान् सत्ता द्वारा ही इस ब्रह्माण्ड की रचना हो सकती है, और अगले ही सूत्र में बताया जाता है कि मुक्त और बद्ध जीवात्माएं इस कार्य को करने में असक्षम हैं,[4] इसलिए परमात्मा को सिद्ध न मानने पर, जगत् को ही असिद्ध मानना पड़ेगा । यह अभाव प्रमाण का भी प्रयोग है ।
यहां प्रचलित अर्थ है – मुक्त और बद्ध आत्माओं के सिवा और कुछ न होने से, पुनः परमात्मा असिद्ध है । इस अभाव प्रमाण में यह दोष है कि कपिल तो प्रकृति की सत्ता को भी मानते हैं । इस वाक्य में उसको न गिनने का कारण नहीं बनता । उपर्युक्त व्याख्या में यह प्रश्न नहीं उठ रहा था क्योंकि केवल बुद्धिमान् सत्ताओं की चर्चा हो रही थी, परन्तु यहां विद्यमानता की बात कही जा रही है । इसलिए यह अर्थ सही न होगा । उदयवीर शास्त्री जी ने दोनों सूत्रों में ईश्वर के उपादानकारणत्व की चर्चा को माना है, परन्तु उसका भी यहां प्रकरण आगे-पीछे नहीं दीख रहा है । इस प्रकार, उपर्युक्त दोनों सूत्रों की व्याख्या में प्रसंगानुकूल परिवर्तन आवश्यक व उपयु्क्त जान पड़ता है । यही नहीं, प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय में भी हमारे ज्ञान में बहुत बढ़ोतरी होती है ।
सूत्र ५।१०-१५ के प्रसंग में भी इस विषय पर कुछ और चर्चा होती है । उनको हम आगे देखेंगे । उससे पहले, कपिल के परमात्माविषयक सकारात्मक वाक्य भी देख लेते हैं ।
कुछ सकारात्मक वाक्य
स हि सर्ववित् सर्वकर्ता ॥३।५६॥ अनुवृत्तिः – पुरुषस्य, अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात् ॥
इस सूत्र के प्रचलित अर्थ स्वतन्त्र वाक्य के रूप में हैं – वह (परमात्मा) ही सब जानने वाला और सब करने वाला है । मेरे अनुसार यह सूत्र भी प्रसंगानुसार पढ़ा जाना चाहिए, जो कि ‘हि’ शब्द से इंगित है । इसलिए मैंने ऊपर सूत्र के साथ अनुवृत्तियां भी दर्शाई हैं । उनके साथ इसका अर्थ इस प्रकार है – जबकि जीवात्मा प्रकृति का कार्य नहीं है, तथापि उसका प्रकृति से योग परवशता के कारण होता है । यह पिछला सूत्र कहता है ।[5] इस सूत्र में उस सत्ता का वर्णन किया गया है जिसके वश में जीवात्मा है – (इसलिए) ही वह सब जानने वाला, सब स्थानों में उपस्थित व सारे कर्म करने वाला हुआ । यहां ‘वित्’ से सर्वज्ञानी व सर्वविद्यमान – दोनों ही अर्थ निकलते हैं, ‘विद ज्ञाने’ व ‘विद सत्तायाम्’ धातुओं से निष्पन्न होने से ।
पिछले सूत्र में कपिल ने सामान्यतोदृष्ट प्रमाण का प्रयोग करते हुए बताया कि यह हमें दीखता है कि न तो प्रकृति, न जीवात्मा ही, परस्पर एक-दूसरे का योग करते हैं । यदि ऐसा होता, और प्रकृति के वश में जीव होता, तो प्रकृति मशीन की तरह एक ही प्रकार के जीव उत्पन्न करती । यदि आत्मा के वश में शरीर का चयन होता, तो वह सबसे सुन्दर व शक्तिशाली शरीर चुनती, अर्थात् केवल मनुष्य शरीर । परन्तु संसार में हम असंख्य प्रकार के जीव देखते हैं, जिनमें से कुछ में दुःख की मात्रा अधिक और कुछ में सुख की मात्रा अधिक दिखाई पड़ती है । इससे तीसरी सत्ता का बोध होता है जो कि, पूर्वकृत कर्मों के आधार पर, आत्माओं को विभिन्न शरीरों से संयुक्त करती है । यदि यह मान्य है, तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि वह सत्ता जीवों के सारे कर्मों को जानती है । इसके लिए उसे सर्वज्ञानी व सर्वविद्यमान होना ही पड़ेगा । साथ-साथ, उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों को गढ़ कर, जीव के जीवन में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करनी पड़ेंगी जिससे उसे उसके कर्मों का फल मिल सके । इसलिए उसका सर्वकर्ता होना भी आवश्यक हो जाता है । इस प्रकार, कपिल तर्कों से परमात्मा के गुणों व कार्यों की स्थापना करते हैं । यह स्थापना प्रचलित अर्थ में नहीं जान पड़ती क्योंकि वहां प्रसंग की अवहेलना की गई है और वाक्य को अपने में पूर्ण पढ़ा गया है ।
यहां अगला सूत्र देखना भी आवश्यक है –
ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा ॥३।५७॥ अनुवृत्तिः – पुरुषस्य, कृतकृत्यता, स हि सर्ववित् सर्वकर्ता ॥
अर्थात् इस प्रकार के ईश्वर की सिद्धि से पुरुष (जीवात्मा) की कृतकृत्यता (मोक्ष) भी सिद्ध हो जाती है ।
यहां प्रचलित अर्थ है – पिछले सूत्र के गुण-कर्म वाले ईश्वर की सिद्धि (सिद्धा=) प्रमाणित होती है । इस व्याख्या में कुछ दोष हैं, पहला तो यह कि प्रचलित व्याख्यानुसार कपिल ने इस प्रकार के ईश्वर की सिद्धि की ही नहीं ! दूसरे, ‘सिद्धिः सिद्धा’ – इस प्रकार का प्रयोग व्याकरणानुकूल नहीं है, क्योंकि ‘सिद्धिः’ पुंल्लिंग है और ‘सिद्धा’ स्त्रीलिंग । तीसरे, ३।५४ में कृतकृत्यता का प्रसंग प्रारम्भ किया गया था । यदि उपर्युक्त व्याख्याएं मानें, तो वह प्रसंग बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो गया, यह मानना पड़ेगा । यह हेय है, इसलिए यहां कृतकृत्यता का ही प्रसंग मानना चाहिए, जो कि स्त्रीलिंग में होने से, ‘सिद्धा’ का विशेष्य है ।
जब हम मेरा दिया अर्थ ग्रहण करते हैं, तो निहित तर्क निकलता है – यदि परमात्मा के आदेशानुसार जीवात्मा व शरीर का संयोग होता है, तो यह स्पष्ट ही है कि उसी के वश में इन दोनों का वियोग भी है, अर्थात् (मृत्यु तो है ही, परन्तु प्रसंगवश –) कृतकृत्यता या मोक्ष । कपिल ग्रन्थ के प्रारम्भ से ही मोक्ष को प्रमाणित करने की चेष्टा कर रहे हैं, यहां वे एक और प्रमाण देते हैं, और मोक्ष के निमित्त कारण का निर्देश करते हैं – निर्देश ही नहीं, परन्तु प्रमाण देते हैं ! इस प्रकार, प्रसंगानुकूल अर्थ करने से सही अर्थ ही नहीं, परन्तु अर्थों की युक्तियुक्तता का भी ज्ञान होता है ।
सूत्र ५।१०-१५ का प्रकरण
इन ६ सूत्रों को उपलब्ध व्याख्याओं ने सिद्धान्तपक्ष में रखा है । परन्तु अन्तिम तीन सूत्र पहले तीन के विरुद्ध हैं । इनमें सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए कई शब्दों को बाहर से जोड़ा गया है । इनमें पहला सूत्र है –
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः ॥५।१०॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरस्य (५।२तः) ॥ अध्याहारः – प्रत्यक्षस्य ॥
(पुनः, सर्वत्र अनुवृत्ति व अध्याहार मेरे द्वारा दिए गए हैं, जो कि आगे मेरी व्याख्या में अधिक महत्त्वपूर्ण होंगे ।) सूत्र का अर्थ है – प्रत्यक्ष प्रमाण के अभाव में ईश्वर की सिद्धि नहीं होती । यहां ‘प्रत्यक्ष’ का अध्याहार इसलिए लिया गया है कि अगले दो सूत्रों में अनुमान और शब्द प्रमाण की चर्चा होती है । १।९२ सूत्र के समान ही, यहां निष्कर्ष निकाला जाता है कि इसलिए ईश्वर का अस्तित्व नहीं है ।
आगे –
सम्बन्धाभावान्नानुमानम् ॥५।११॥ पूर्वावृत्तिः – प्रधानेन सह (५।१२तः) ॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरस्य, न तत्सिद्धिः ॥
अर्थात् प्रधान (मूल प्रकृति) के साथ सम्बन्ध के अभाव के कारण ईश्वर का अनुमान भी नहीं किया जा सकता, इसलिए भी वह असिद्ध है ।
श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य ॥५।१२॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरस्य, न तत्सिद्धिः ॥ अध्याहारः – सृष्टिः ॥
और सृष्टि प्रधान का कार्य होने का वैदिक (शब्द) प्रमाण होने से भी ईश्वर असिद्ध है (क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं है) ।
क्योंकि ये उपर्युक्त तीन तर्क सही ही प्रतीत होते हैं, इनको सिद्धान्तपक्ष मानना युक्तियुक्त प्रतीत होता है, परन्तु फिर कपिल को अनीश्वरवादी ही मानना पड़ेगा ! ईश्वरवादी मानने के लिए, कुछ व्याख्याकारों (विशेषकर आर्यसमाजी) द्वारा शब्दों का अध्याहार करके, ‘ईश्वर’ न लेकर ‘ईश्वर का परिणाम’ मान लिया जाता है, जो कि अगले तीन सूत्रों से कुछ संगत भी है, परन्तु इन अगले तीन सूत्रों में कुछ और दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इनमें से पहला है –
नाविद्याशक्तियोगो निःसङ्गस्य ॥५।१३॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरस्य, प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः (५।१०तः)
जो निःसंग है, उसका अविद्याशक्ति = प्रकृति से योग नहीं हो सकता । क्यों ? क्योंकि यदि योग होता, तो वह निःसंग कैसे कहा जा सकता ?
अब यदि इस वाक्य को ईश्वर पर घटाया जाए, तो यह बात तो इस प्रकरण में पहले ही कह दी गई है –
प्रधानशक्तियोगाच्चेत् सङ्गापत्तिः ॥५।८॥ अनुवृत्तिः – न, ईश्वरस्य, लौकिकेश्वरवत् (५।४तः)
अर्थात् यदि प्रधानशक्ति से ईश्वर का योग माना जाए तो उसमें संग की आपत्ति उत्पन्न हो जाएगी । इसलिए उसको योगरहित ही मानना पड़ेगा । वस्तुतः, ५।११ में भी यही कहा गया है, परन्तु सन्दर्भ भिन्न है । इन कारणों से ५।१३ को पुनरुक्ति मानना पड़ेगा जो कि श्रेयस्कर नहीं होगा ।
क्या यह सम्भव है कि ५।१३ में ईश्वर की नहीं, अपितु जीवात्मा की बात हो रही हो, क्योंकि कपिल ने उसको भी असंग बताया है ? –
असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥१।१५॥
यहां तो निस्सन्देह जीवात्मा की ही बात हो रही थी, तो सम्भव है कि, बिना कुछ संकेत दिए, कपिल ने प्रकरण ईश्वर से जीवात्मा कर दिया हो । सो, विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां परमेश्वर का ही विषय है, क्योंकि जीवात्मा का तो अवश्य ही प्रधानशक्ति से योग होकर ही बन्धन होता है, जैसा कि पूर्व में कपिल कह आए हैं –
तद्योगोऽप्यविवेकान्न समानत्वम् ॥१।२०॥ अनुवृत्तिः – पुरुषस्य, विचित्रभोगेषु
अर्थात् जीवात्मा का प्रकृति से योग अविवेक के कारण होता है । इसलिए ५।१३ में और इस प्रकरण में ईश्वर-विषय ही मानना पड़ेगा । परन्तु यह अर्थ त्याज्य भी हो रहा है क्योंकि इसमें पुनरुक्ति दोष है ।
सही अर्थ खोजने से पहले, आगे के दो सूत्र भी देख लेते हैं –
तद्योगे तत्सिद्धावन्योऽन्याश्रयत्वम् ॥५।१४॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरस्य, अविद्याशक्तियोगः, अनुमानम् (५।११तः)
इसका अर्थ इस प्रकार किया जाता है – यदि ईश्वर में अविद्याशक्ति का योग मान कर अविद्या की सिद्धि की जाए, तो वहां अन्योऽन्याश्रय दोष हो जाएगा ।
यहां अन्योऽन्याश्रय दोष इस प्रकार दर्शाया जाता है – अविद्या से योग होने के लिए अविद्या की पूर्व विद्यमानता आवश्यक है, परन्तु ईश्वर से योग होने पर ही अविद्या की सिद्धि हो सकती है । इस व्याख्या में यह दोष है कि अविद्या की सिद्धि की चर्चा यहां चल ही नहीं रही थी, तो उसका यहां प्रकरण मानना अयुक्त है ।
अगला सूत्र है –
न बीजाङ्कुरवत् सादिसंसारश्रुतेः ॥५।१५॥ अनुवृत्तिः – ईश्वरस्य, तत्सिद्धिः, प्रधानकार्यत्वम् (५।१२तः)
यहां अर्थ किया जाता है – उपर्युक्त अन्योऽन्याश्रय दोष बीज और अंकुर के समान नहीं है (जहां कौन-सा पहले उत्पन्न हुआ, यह स्पष्ट नहीं है), क्योंकि वेद बताते हैं कि इस संसार का आदि है – यह उत्पन्न हुआ था ।
पिछले सूत्र के उत्तर में वादी कह सकता था कि आपने जो अविद्या और अविद्यायोग में अन्योऽन्याश्रय दोष दर्शाया है, वह नहीं रहता जबकि दोनों एकसाथ सम्भव हों, जैसे कि बीज व अंकुर । सो यह सूत्र कपिल का उत्तर है जहां उन्होंने बताया कि यह उपमा इस परिपेक्ष में सही नहीं है क्योंकि (‘संसार’ शब्द से लक्षित) अविद्या विकार है और उसका आदि है, अर्थात् अविद्या पहले से विद्यमान थी । अब यहां पहले तो, कपिल ने ‘अविद्या’ छोड़कर ‘संसार’ शब्द का प्रयोग ही क्यों किया ? कहा जा सकता है कि वेदों में संसार की उत्पत्ति का निर्देश है, अविद्या का नहीं, इसलिए यहां उस शब्द का प्रयोग किया गया है । यह मान भी लें, तब भी एक अन्य अधिक गम्भीर प्रश्न उठता है कि इस तात्पर्य से तो जैसे पिछले सूत्र में बताई गई अविद्या अन्योऽन्याश्रय दोष को वे स्वयं ही नकार रहे हैं ! यह तो वचनविघात हो गया !
इस प्रकार, इन सूत्रों की व्याख्याएं खरी नहीं उतरतीं और इनमें अन्तर्द्वन्द्व है । इस अन्तर्द्वन्द्व को दूर करने के लिए हम प्रकरणानुसार पुनः इन सूत्रों को देखते हैं । मनन करने पर ज्ञात होता है कि पहले तीन सूत्र पूर्वपक्षी के हैं, जहां वह ईश्वर को नकार रहा है, जो कि अर्थ उपर्युक्त व्याख्याओं के एक पक्ष के अनुसार ही है । परन्तु, अगले तीन सूत्रों के अर्थ भिन्न हैं –
सूत्र ५।१३: यह ५।१० का निराकरण है – पूर्वपक्षी ने कहा कि परमात्मा प्रत्यक्ष तो है नहीं, तो हम उसे क्यों मानें ? कपिल ने उत्तर दिया – यह सही है कि परमात्मा प्रत्यक्ष नहीं है; इसका कारण है कि वह निःसंग है और उसका अविद्याशक्ति = प्रकृति से योग नहीं है । केवल प्रकृति से बने पदार्थ का ही हम इन्द्रियों द्वारा ग्रहण कर सकते है – परमात्मा (और जीवात्मा) को ग्रहण करने के लिए विशेष उपकरणों (उपासना) की आवश्यकता है ।
सूत्र ५।१४: यह ५।११ का निराकरण है । पूर्वपक्षी ने (जैसे कपिल के उपर्युक्त तर्क को पहले ही मानते हुए) कहा कि यदि प्रकृति से परमात्मा का सम्बन्ध होता तो भी हम उसका अनुमान लगा सकते, जैसा कि इसी ग्रन्थ में हमने जीवात्मा का अनुमान लगाया । तो कपिल कहते हैं कि यदि परमात्मा को प्रकृति से युक्त होने पर ही आप उस के अस्तित्व को मानेंगे, तो जब उसका प्रकृति से योग नहीं होगा तो उसकी क्या स्थिति होगी ? प्रलय में तो उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा ! और जो वह न रहा, तो प्रकृति के विकार कौन उत्पन्न करेगा ? इस प्रकार वह प्रकृति पर आश्रित हो जाएगा और प्रकृति के विकार तो उसपर आश्रित हैं ही । इस प्रकार यह अन्योऽन्याश्रय दोष हो जाएगा । इसलिए, जबकि यह सही है कि परमात्मा प्रकृति से सम्बन्ध नहीं रखता, तथापि इससे उसकी विद्यमानता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता – यही मानना उचित है ।
सूत्र ५।१५: यह ५।१२ का निराकरण है । पूर्वपक्षी ने कहा था कि श्रुति के अनुसार प्रधान से कार्य उत्पन्न हुए, तो ईश्वर की क्या आवश्यकता ? तो कपिल बोलते हैं कि ईश्वर की आवश्यकता तभी नहीं होगी जब, बीज और अंकुर के समान, प्रधान से सृष्टि में विकार और विकार से प्रलय में प्रधान अपने आप उत्पन्न होते रहेंगे । बीज से अंकुर की उत्पत्ति होती है और अंकुर से पेड़ उत्पन्न होकर, पुनः बीज पैदा कर देता है । इस प्रक्रिया में परमात्मा का कोई हस्तक्षेप प्रतीत नहीं होता । इस प्रवाहरूपी अनादिता में जैसे किसी और व्यक्ति की कोई आवश्यकता ही नहीं – वह अपने समय से, परिस्थितियों के अनुसार चलती ही रहेगी । सृष्टि में इस प्रकार मानने में एक कठिनाई है, जिसे आज के वैज्ञानिक भी पहचानते हैं । यह सृष्टि कभी तो प्रारम्भ हुई है, यह वेदों ने बताया और अब वैज्ञानिक भी ऐसा पा रहे हैं । परन्तु उस आरम्भिक स्थिति में सृष्टि की प्रक्रिया कैसे प्रेरित हुई, यह अस्पष्ट है । प्रधान स्वयं अपने को ‘जगाकर’ परिणमित नहीं हो सकता ! अनीश्वरवादी वैज्ञानिक यह नहीं समझ पा रहे कि वह पहली प्रेरणा कहां से आई, परन्तु वेदों ने स्पष्ट बताया है कि ईश्वर ही उस ब्रह्माण्ड के आदि का निमित्त कारण है, उसी ने यह सृष्टि प्रारम्भ की । ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इसे उसका ‘तप’ भी कहा गया है । अतः, पूर्वपक्षी का कथन सही होते हुए भी, उसमें एक अन्य तथ्य को जोड़ना आवश्यक है ।
इस प्रकार, बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण युक्तियों के द्वारा कपिल ने केवल पूर्वपक्षी के तर्कों का निराकरण ही नहीं किया, परन्तु हमें ईश्वर, सृष्टि, आदि, के विषय में कुछ जानकारी भी दी । वैसे, वे तथ्य पूर्वपक्षी को मान्य थे, इसीलिए उन्हें प्रस्तुत किया गया, परन्तु हमारे लिए कुछ नया ज्ञान भी हो गया ! ईश्वरवाद और उससे सम्बद्ध मोक्षप्राप्ति का प्रकरण अगले चार सूत्रों में भी चलता है, जहां ५।१६-१७ पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हैं, और ५।१८-१९ क्रमशः उनका उत्तर देने वाले सिद्धान्तपक्ष । जिज्ञासु पाठक उस अंश को भी अवश्य पढ़ें ।
वस्तुतः, यह प्रकरण महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में उठाया है –
प्रश्न (पूर्वपक्ष) –
ईश्वरासिद्धेः (१।९२) ॥
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः ॥५।१०॥
सम्बन्धाभावान्नानुमानम् ॥५।११॥
(अर्थात् क्रमशः) प्रत्यक्ष से घट सकते ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ॥
क्योंकि जब उसकी सिद्धि में प्रत्यक्ष ही नहीं, तो अनुमानादि प्रमाण नहीं हो सकता ॥
और व्याप्ति-सम्बन्ध न होने से अनुमान भी नहीं हो सकता । पुनः प्रत्यक्षानुमान के न होने से शब्द प्रमाण आदि भी नहीं घट सकते । इस कारण ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ॥
उत्तर – यहां ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, और न ईश्वर जगत् का उपादानकारण है, और पुरुष से विलक्षण अर्थात् सर्वत्र पूर्ण होने से परमात्मा का नाम ‘पुरुष’ है और शरीर में शयन करने से जीव का भी नाम पुरुष है…
महर्षि के इन वचनों में ये विषय ध्यान देने योग्य हैं –
- महर्षि ने इन वाक्यों को पूर्वपक्ष में डाला है, न कि सिद्धान्तपक्ष ।
- १।९२ में उन्होंने ‘प्रत्यक्ष’ का सन्दर्भ लिया है ।
- “न ईश्वर जगत् का उपादानकारण है” वाक्य से उदयवीर शास्त्री आदि आर्यसमाजियों ने ५।१० में ‘ईश्वर का परिणाम’ अर्थात् उसका उपादानकारणत्व अर्थ लिए हैं । परन्तु महर्षि ने वह अर्थ ५।११ के लिए दिया है । जैसा कि हमने भी ऊपर बताया, यहां अर्थ “ईश्वर का प्रकृति से सम्बन्ध नहीं है” है जिसका महर्षि के अर्थ से थोड़ा भेद है । परन्तु अगले ही वाक्य “और पुरुष से विलक्षण…” से हम जान सकते हैं कि यहां महर्षि सूत्रवार अर्थ नहीं कर रहे हैं । उन्होंने पूर्वपक्षी के वाक्यों का खण्डन नहीं किया है, जैसा कि कपिल ने भी नहीं किया है, परन्तु उनके कारण को समझाया है, पुनः कपिल के समान । इस प्रकार पूर्वपक्षी के वाक्य सही होते हुए भी, उनका निष्कर्ष उसने सही नहीं निकाला है, यही इस प्रकरण का तात्पर्य है ।
इस पूरे प्रसंग का सार यह है कि ईश्वर इन्द्रियों का विषय नहीं है, उसको अन्तरात्मा से ही पाया जा सकता है । इसीलिए योगियों का उपासना-प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में आता है, जबकि वह ‘प्रत्यक्ष’ इन्द्रियों से सम्बद्ध नहीं है । परन्तु हमारे जैसे भोगियों के लिए उन योगियों और वेद का शब्द प्रमाण ही उपलब्ध है । उसपर शंका न करते हुए, हमें सर्वदा ईश्वर में आस्था रखनी चाहिए और उसके आदेशों के अनुसार कर्म करना चाहिए ।
सांख्यदर्शन को तार्किकशास्त्र नहीं माना जाता है, परन्तु सत्य तो यह है कि न्यायदर्शन में गौतमद्वारा वर्णित लगभग सभी अंशों के उदाहरण, उनके प्रयोग इस ग्रन्थ में पाए जाते हैं । इन युक्तियों के द्वारा, कपिल ने जीवात्मा, परमात्मा व प्रकृति की सत्ता, प्रकृति के विकारों, जीवात्माओं के बहुत्व, आदि अनेक कठिन विषयों को स्थापित किया है । ये विषय आज भी तर्क की परिधि के बाहर माने जाते हैं, क्योंकि कपिल के तर्कों को ठीक से समझा नहीं गया है । सूत्रों को पूर्वपक्ष व सिद्धान्तपक्ष में बांटने वाले संकेत कम मिलते हैं । इसलिए उनकी व्याख्या करते समय, उत्पन्न दोषों पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए । तभी हम कपिल के लक्षित अर्थ तक पहुंच सकते हैं । इसी अनवधानता के कारण कपिल को अनीश्वरवादी घोषित कर दिया गया है – यह तो घोर अन्याय है !
[1] इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसयात्मकं प्रत्यक्षम् ॥न्यायदर्शनम् १।१।४॥
[2] परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥योगदर्शनम् ३।१६॥
[3] अपरीक्षिताभ्युपगमात् तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगमसिद्धान्तः ॥न्यायदर्शनम् १।१।३१॥
[4] उभयथाप्यसत्करत्वम् ॥१।५९॥
[5] अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ३।५५॥