उपमा प्रमाण और अलंकार
न्यायशास्त्र में उपमान, अथवा उपमा, को प्रमाणों में गिना गया है । परन्तु अलंकारशास्त्र में उपमा अलंकार भी मानी गई है । सो, क्या यह एक ही वस्तु है अथवा भिन्न ? इस लेख में मैं अपने कुछ विचार प्रस्तुत कर रही हूं ।
इससे पहले कि हम उपमा की चर्चा करें, हम अलंकारशास्त्र में पाए जाने वाले कुछ अन्य अलंकारों को देखते हैं, जिनकी संज्ञा तो दर्शनशास्त्रों से मेल खाती है, परन्तु उनका अलंकार रूप भिन्न है – यह अलंकारशास्त्र ने स्वयं बताया है ।
अनुमान
यहां पहले देखते हैं अनुमान । प्रमाण के रूप हमें इसे भली-भांति जानते हैं, जहां प्रत्यक्ष के आधार पर, तर्क के अनुसार कुछ निष्कर्ष निकाला जाता है, यथा – सूर्य गगन में इस समय ऊपर है, तो दोपहर हो रही होगी । इस ज्ञान को उत्पन्न करने के कारण यह प्रमाण हुआ । अलंकार में कुछ भेद होता है, यथा – अवश्य ही यह अपने प्रियतम का स्मरण कर रही है, क्योंकि इसको अपनी सुध-बुध ही नहीं है । यहां कार्य-कारण भाव तो है, परन्तु उसमें केवल सम्भावना है, निश्चितता नहीं है । स्पष्टतया यह वाक्य ज्ञानोत्पत्ति के लिए नहीं है, अपितु रसोत्पत्ति के लिए है । इसको पढ़कर हममें रोमांच उत्पन्न होता है, जबकि पूर्व वाक्य नीरस सा है ! यह भेद अलंकारशास्त्र में स्पष्टतया निरूपित है । मैं तो कहूंगी कि आज जो लोक में हम अनुमान शब्द से ‘सम्भावना’ अर्थ समझते हैं, और उसको निश्चित ज्ञान का माध्यम नहीं मानते, उसका कारण यह अलंकारशास्त्र की समान संज्ञा, परन्तु भिन्न प्रयोग है, क्योंकि आज अलंकारशास्त्र लोक में अधिक प्रिय है, न्यायशास्त्र कम ।
सामान्य
सामान्य न्याय में समान धर्म का द्योतक होता है, परन्तु वैशेषिक के अर्थ में अधिक प्रसिद्ध है – दो और दो से अधिक वस्तुओं के बीच समान पदार्थरूप धर्म, यथा – गौ वह है जिसके गले से चर्बी लटकी हो; सो, वह चर्बी गौओं का सामान्य हुआ । अब यह एक अलंकार भी होता है, जहां दो या उससे अधिक वस्तुओं के धर्म की समानता के कारण एक वस्तु दूसरों को छुपा देती है । जैसे – चांदनी रात में चन्दन से लिपटी सुन्दरी जैसे गायब हो गई – इस वाक्य में, चांदनी और चन्दन-जनित श्वेत वर्ण के साम्य को लेकर, कवि चांदनी से नायिका को ‘ढक’ देता है । पुनः हम यहां देखते हैं कि न्याय-वैशेषिक में ज्ञानोत्पत्ति के लिए सामान्य को पारिभाषित किया गया है, जबकि अलंकारशास्त्र में रसोत्पत्ति-प्रकार के अनुसार सामान्य का विभागीकरण किया गया है ।
यही भेद हम अन्य अलंकारों में देखते हैं जो दर्शनशास्त्रों से संज्ञासाम्य रखते हैं, जैसे – हेतु, विशेष, व्याघात, अर्थापत्ति, विकल्प, व्यतिरेक, अन्योऽन्य, आदि । इन सभी में अलंकारशास्त्र स्वयं दर्शाता है कि ये अलंकार दर्शनों के तथ्यों से भिन्न हैं । (इस से यह भी ज्ञात होता है कि अलंकारशास्त्र ने ये कल्पनाएं दर्शनों से ग्रहण की हैं, और इसलिए वह निश्चित रूप से परवर्तीय ग्रन्थ है ।)
आश्चर्य की बात यह है कि उपमा को इस प्रकार विशेषित नहीं किया गया है । अपितु उपमा का जो विस्तृत वर्णन अलंकारशास्त्र में प्राप्त होता है, उसके अंश दर्शनों को समझने में प्रयोग किए गए हैं । जैसे कि उपमा के चार अंश – उपमेय, उपमान, उपमावाचक और सामान्य धर्म – दर्शनशास्त्रों में अलग-अलग वर्णित नहीं मिलते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि ये अलंकारशास्त्र की देन हैं । फिर इनमें से एक या अनेकों के लोप के अनुसार उपमा का वर्गीकरण भी परवर्तीय दर्शन-भाष्यों ने अपना लिया लगता है । सम्भवतः, इसी कारण से अलंकारशास्त्र में भी उपमा अलंकार को प्रमाण से भिन्न नहीं कहा गया है । परन्तु मेरे अनुसार भेद तो स्पष्ट है ! न्याय का एक प्रसिद्ध उदाहरण है – कोई व्यक्ति नीलगाय देखने जंगल जा रहा है, परन्तु उसको नीलगाय के लक्षण नहीं ज्ञात हैं, तो वह किसी जानकार से पूछता है । जानकार कहता है, “नीलगाय गाय जैसी होती है ।” गाय की उपमा प्रवासी के लिए पर्याप्त होती है और वह जंगल में नीलगाय को पहचान लेता है । इस प्रकार उपमा(न) प्रमाण से ज्ञान की उत्पत्ति हो गई । दूसरी ओर, अलंकारशास्त्र में उपमा का प्रसिद्ध उदाहरण है – चांद जैसे मुख वाली स्त्री – चंद्रमुखी । यहां स्त्री की सुन्दरता को दर्शाने के लिए चांद का प्रयोग किया गया है, परन्तु यह किसी नए ज्ञान को नहीं प्रकट करता, केवल रसपूर्ण ढंग से स्त्री की सुन्दरता की छवि प्रस्तुत करता है । यह प्रयोग दर्शनशास्त्रों में मान्य नहीं होगा । चरणकमल, मृगनयनी, आदि, इसी प्रकार के अन्य प्रयोग हैं । दूसरी ओर नीलगाय वाला उदाहरण काव्य में अलंकार नहीं माना जाएगा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि उपमा प्रमाण रूप में कुछ और है, और अलंकार रूप में कुछ और ।
यहां कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि उपमालंकार निरर्थक है, या केवल रसोत्पत्ति करता है – उपमा भी कुछ ज्ञान प्रदान करती है, जैसे – चन्द्रमुखी की उपमा में मुख की सुन्दरता का अवश्य ग्रहण होता है । परन्तु उस ज्ञान की अपेक्षा, आनन्द की अनुभूति अधिक होती है । इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि अलंकार में सामान्य धर्म पूर्णतया सामान्य नहीं होता, परन्तु कवि की प्रतिभा से वह सामान्य ‘बनाया’ जाता है, वह कृत्रिम साम्य होता है । जैसे ‘चरण’ और ‘कमल’ की सुन्दरता में कोई सामान्य नहीं है, परन्तु कवि ने अपनी विलक्षण बुद्धि से उनमें समानता को जन्म दे दिया, जिसने हममें विचित्र आनन्द की अनुभूति उत्पन्न कर दी, जिसे अलंकारशास्त्र में ‘रस’ कहा जाता है ।
फिर प्रश्न उठता है कि वेद तो ज्ञानग्रन्थ भी हैं और काव्य भी, तो उनमें उपमा का कौनसा प्रयोग मिलता है – प्रमाण का अथवा अलंकार का ? निरुक्त आदि में जो उद्धरण प्राप्त होते हैं, उनसे प्रतीत होता है कि वेदों में प्रमाणरूप उपमा ही प्राप्त होती है, जैसे –
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽजायत ॥यजुर्वेदः ३१।११॥
पुरुषसूक्त का यह प्रसिद्ध मन्त्र समाज के विभागीकरण की शिक्षा तो देता ही है, परन्तु अनिर्वचनीय परमात्मा के विषय में भी ज्ञान देता है । अर्थ है – उस मानवाकार के रूप में कल्पित पुरुष-परमेश्वर का मुख ब्राह्मण-वर्ग है; उसकी दो बाहुएं क्षत्रिय-वर्ग है; उसकी जंघाएं वैश्य-वर्ण है; और उसके पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं । यहां स्पष्ट ही है कि परमात्मा का यह वास्तविक स्वरूप नहीं है । परन्तु वह रूप तो शब्दों में समा ही नहीं सकता ! इसलिए विभिन्न उपायों से हम उसको समझने का यत्न करते हैं । उनमें से एक यह है । ये चार वर्ण वस्तुतः प्रभु के ही कार्य करते हैं, परन्तु अपनी-अपनी योग्यतानुसार । ब्राह्मण उसका उपदेश जनाते हैं, क्षत्रिय उसकी न्यायपूर्ण व्यवस्था को स्थापित करते हैं, वैश्य उसके दिए विभिन्न धनों की वृद्धि कर उनको अन्यों के लिए उपलब्ध कराते हैं और शूद्र इन सब वर्णों को गति प्रदान करने के लिए आवश्यक सेवा-कार्य करते हैं । इस प्रकार यहां ब्राह्मण आदि वास्तविक रूप में ईश्वर के अंग नहीं है, परन्तु उपमान के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं – सर्वत्र ‘इव’ अर्थात् ‘जैसा’ यहां अभिप्रेत है, उसे जोड़ना आवश्यक है । परमात्मा और वर्णव्यवस्था का ज्ञान देने के कारण, यह उपमा(न) प्रमाण है, न कि उपमा अलंकार । इस प्रकार उपमा प्रमाण का प्रयोग वेदों में यत्र-तत्र प्राप्त होता है, परन्तु इन स्थलों पर उसको ‘उपमा अलंकार’ कहना सही न होगा ।
मैंने पाया है कि अलंकार रूप में भी उपमा का प्रयोग वेदों में अनेकत्र दृष्टिगोचर होता है –
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः ।
उशतीरिव मातरः ॥यजुर्वेदः ३६।१५॥
यहां स्तोता प्राणिदायक जलों को जैसे सम्बोधित करते हुए कहते हैं – हे जलों ! जो तुम्हारा सबसे कल्याणकारी रस है, तुम हमें उसका सेवन कराओ, जिस प्रकार सन्तान को दूध पिलाने के लिए माताएं आतुर होती हैं । यहां माताओं की उपमा से जल के कल्याणकारी तत्त्व के ज्ञान में कोई वृद्धि नहीं होती, परन्तु उपमा से प्रार्थना की रुचि अवश्य बढ़ जाती है – हम जैसे अपने मन में चित्र बना सकते हैं कि जल भी, मां के सदृश, हमें स्वादिष्ट, पुष्टिवर्धक तत्त्व देने को उद्यत हो रहे हैं । महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र के भाष्य में बताया कि होम से जो जल पवित्र हो जाते हैं, उनका यहां कथन है । उन्होंने मन्त्र में उपमालंकार होने का भी कथन किया है । वस्तुतः यहां उपमा अलंकार ही है, प्रमाण नहीं । उपर्युक्त “ब्राह्मणोस्य …” मन्त्र में महर्षि दयानन्द ने उपमा अलंकार नहीं कहा है, प्रत्युत कुछ भी नहीं कहा है । तथापि, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि यहां महर्षि उपमा के प्रमाण स्वरूप का अनुमोदन कर रहे हैं । अपने सीमित स्वाध्याय के अनुसार, मुझे लगता है कि महर्षि ने भी अपने वेदभाष्य में उपमा अलंकार और प्रमाण में कहीं भी भेद नहीं किया है – कहीं भी “इस मन्त्र में उपमा प्रमाण है”, ऐसा नहीं लिखा है ।
उर्वशी-पुरूरवा, सरमा-पणि, आदि, की जो आख्यायिकाएं वेद में प्राप्त होती हैं, उनको भी उपमालंकार के रूप में समझना चाहिए । इस प्रकार उपमालंकार के भी उदाहरण वेदों में उपलब्ध होते हैं ।
उपमा के विषय पर चर्चा होने से, यहां यास्कीय निरुक्त का वचन बताना भी प्रसंगानुकूल होगा । निरुक्त ने केवल उपमा प्रमाण की चर्चा की है, उपमालंकार की नहीं । यास्क ने उपमार्थक चार निपात गिनाए हैं – इव, न, चित्, नु । इनमें एक ‘इव’ ही एकार्थक है, ‘जैसे’ के अर्थ में, अन्यों के अन्य भी अर्थ हैं । इन सब के विषय में भी थोड़ा समझ लेते हैं ।
- इव – इसका उदाहरण-मन्त्र दिया गया है – “अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्व … (ऋग्वेदः १०।८४।२) – अर्थात् हे सात्त्विक रोषयुक्त राजन् ! आप अग्नि के समान ज्वलन्त होकर शत्रु को अभिभूत कीजिए । यहां राजा के तेजस्वी गुण को उपमार्थक ‘अग्नि’ प्रदर्शित करता है और उसकी नाश-शक्ति को भी कहता है । इसलिए यहां उपमा प्रमाण ही है, अलंकार नहीं ।
- न – यह शब्द लौकिक भाषा के समान वेदों में भी प्रतिषेधार्थक तो होता ही है, परन्तु वेदों में इसका उपमावाचक के रूप में भी प्रयोग मिलता है, यथा – “हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम … (ऋग्वेदः ८।२।१२)” – अर्थात् मन भर के सात्त्विक दूध, दही, आदि, को पीकर, मनुष्य अपने दुर्स्वभावों से उस प्रकार लड़ता है, जैसे कि सुरापान किया हुआ व्यक्ति उन्मत्त होकर लड़ता है । यहां मदमस्त शराबी की तुलना सात्त्विक आहार ग्रहण करने वाले व्यक्ति से उसके बल का ज्ञान कराने के लिए की गई है । यह सामान्य धर्म ‘बल’ दोनों में वास्तव में समान है, न कि मुख और चन्द्र के समान कुछ अलौकिक सामान्यता लिए हुए । इसलिए यह प्रमाण है, अलंकार नहीं ।
निषेधार्थक ‘न’ का उदाहरण यास्क देते हैं – “… नेन्द्रं देवममंसत … (ऋग्वेदः १०।८६।१)” – अर्थात् तुम सब (गृहस्थी) इन्द्र-देव (=जीवात्मा) को न जान सकोगे (यदि यज्ञ नहीं करोगे) । निषेधार्थक और उपमावाचक ‘न’ को पता करने के लिए यास्क एक अद्भुत उपाय देते हैं – निषेधार्थक ‘न’ लक्षित शब्द के पूर्व आता है, यथा – “न इन्द्रं”; और उपमार्थक ‘न’ लक्षित शब्द के पश्चात् आता है, यथा – “दुर्मदासो न” । वेदों का अर्थ करने वालों के लिए यह एक अनमोल ‘टिप’ है ! - चित् – यह शब्द वेदों में तीन अर्थों में पाया जाता है – एक पूजा के अर्थ में, दूसरा उपमावाचक के रूप में और तीसरा अन्य पदार्थ की निन्दा करने के लिए । इनमें उपमा का उदाहरण इस प्रकार है –
चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादानिधातोः ।
न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥ऋग्वेदः १।४१।९॥
अर्थात् जैसे जुए में एक खिलाड़ी के द्वारा चार पांसे फेंकते समय दूसरा खिलाड़ी घबराता है कि क्या पांसा पड़ने वाला है, उसी प्रकार धर्मभीरु व्यक्ति को दुर्वचन की इच्छा नहीं करनी चाहिए (क्योंकि पांसे के समान वह क्या फल देगा, यह अनिश्चित है) । यहां रोचक ढंग से कठोर वचन से बचने का निर्देश है । इस कारण यहां कुछ सन्देह होता है कि यह अलंकार है या फिर प्रमाण, तथापि भय जो यहां सामान्य धर्म है, वह दोनों उपमान और उपमेय में एकदम बराबर है । इसलिए यहां प्रमाण मानना ही सम्यक् है, न कि अलंकार । - नु – यह भी अनेकार्थक निपात है, जिसके यास्क मुनि ने तीन अर्थ गिनाए हैं – हेतु, निश्चय के लिए पुनः पूछने के अर्थ में और उपमावाचक के रूप में । इस अन्तिम का उदाहरण है –
अक्षो न चक्रयोः शूर बृहन् प्र ते मह्ना रिरिचे रोदस्योः ।
वृक्षस्य नु ते पुरुहूत वया व्यूतयो रुरुहुरिन्द्र पूर्वीः ॥ऋग्वेदः ६।२४।३॥
अर्थात् हे पराक्रमी, बहुतों द्वारा पुकारे जाने वाले, परमैश्वर्यवान परमात्मन् ! चक्रों की धुरी के समान आपने पृथिवी और सूर्य को बांध रखा है – यह तथ्य आपकी बड़ी महिमा को प्रकट करता है । (और) वृक्ष की फैली हुई शाखाओं के समान, आप की विविध प्रकार की रक्षण क्रियाएं प्राचीन काल से (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय से) प्रादुर्भूत हुई हैं (और सर्वत्र व्याप्त हो रही हैं) । यहां दोनों ‘न’ और ‘नु’ को हम उपमावाचक के रूप में पाते हैं । और दोनों ही उपमाएं परमात्मा की शक्तियों को सफलतापूर्वक प्रमाणित कर रही हैं, इसलिए यहां उपमा प्रमाण है ।
उपर्युक्त से ज्ञात होता है कि उपमा प्रमाण और समान-संज्ञक अलंकार में भेद है, और वे दोनों ही प्रकार वेदों में पाए जाते हैं, क्योंकि वेद ज्ञान का प्रकाश ही नहीं करते, परन्तु काव्य के भी मूलग्रन्थ है, जिसके कारण उनमें विभिन्न रस भी पाए जाते हैं । प्रमाण और अलंकार का भेद अलंकारशास्त्र में उपमा के विषय में स्पष्टतया नहीं कहा गया है, इसलिए जहां भी उपमा पाई जाती है, वहां उपमा अलंकार मान लिया जाता है । यह सही नहीं हैं, इसी को प्रकट करना मेरा इस लेख में मुख्य उद्देश्य था । तथापि, जैसा कि हम उपर्युक्त उदाहरणों में देखते हैं, प्रमाण के रूप में वेदों में उपमा अधिक प्रतीत होती है, जो कि होना भी चाहिए, क्योंकि प्रमुखतया वेद ज्ञानग्रन्थ हैं । साथ ही यास्कीय निरुक्त के आधार पर, वेदों के उपमावाचक पदों से हमारा परिचय हुआ । इससे ज्ञात हुआ कि वेदों के अर्थ करने में कितनी प्रकार की क्लिष्टताएं आड़े आ सकती हैं, और यह कार्य ऋषियों के हाथ में छोड़ना ही क्यों सार्थक है !