सांख्यदर्शन में पुरुष के अर्थ
जबकि लोकव्यवहार में ‘पुरुष’ शब्द से, महिला से अन्य, आदमी का ग्रहण होता है, प्राचीन इतिहास में प्रायः इसके अर्थ आत्मा होते हैं । यह आत्मा दो हो सकते हैं – परमात्मा अथवा जीवात्मा । कभी-कभी श्लेषालंकार द्वारा दोनों एक साथ भी सूचित होते हैं । सांख्यदर्शन में भी परम्परया ‘पुरुष’ शब्द से जीवात्मा व परमात्मा – दोनों अर्थ लिए गए हैं, जैसा कि उदयवीर शास्त्री जी ने अपनी सांख्य-व्याख्या में कहा है – “यद्यपि सांख्यशास्त्र में ‘पुरुष’ पद का प्रयोग चेतनमात्र के लिए होता है, उसमें परमात्मा और जीवात्मा सबका समावेश हो जाता है … (सांख्यदर्शनम्, सूत्र १।१५ की व्याख्या)” । वास्तव में, कौन-सा अर्थ सांख्य में अभिप्रेत है, इस लेख में मैं यह प्रमाण-सहित निरूपित कर रही हूं ।
सांख्य में ‘पुरुष’ शब्द बाइस सूत्रों में पठित है –
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१।१॥
प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टनात् पुरुषार्थत्वम् ॥१।३॥
असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥१।१५॥
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात्
पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं, तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि, पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥१।२६॥
संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्य ॥१।३१॥
नानुश्रविकादपि तत्सिद्धिः साध्यत्वेनावृत्तियोगादपुरुषार्थत्वम् ॥१।४७॥
तद्धाने प्रकृतिः पुरुषो वा ॥१।९८॥
जन्मादिव्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम् ॥१।११४॥
प्रकृतिवास्तवे च पुरुषस्याध्याससिद्धिः ॥२।५॥
पुरुषार्थं करणोद्भवोऽप्यदृष्टोल्लासात् ॥२।३६॥
पुरुषार्थं संसृतिर्लिङ्गानां सूपकारवद्राज्ञः ॥३।१६॥
स्वप्नजागराभ्यामिव मायिकामायिकाभ्यां नोभयोर्मुक्तिः पुरुषस्य ॥३।२६॥
नैकान्ततो बन्धमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादृते ॥३।७१॥
न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् ॥५।४६॥
प्रकृतिपुरुषयोरन्यत् सर्वमनित्यम् ॥५।६८॥
न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वादिदोषात् ॥५।७४॥
यथा दुःखात् क्लेशः पुरुषस्य न तथा सुखादभिलाषः ॥६।६॥
सुखलाभाभावादपुरुषार्थत्वमिति चेन्न द्वैविध्यात् ॥६।९॥
अपुरुषार्थात्वमन्यथा ॥६।१८॥
पुरुषबहुत्वं व्यवस्थातः ॥६।४५॥
अहङ्कारः कर्ता न पुरुषः ॥६।५४॥
यद्वा तद्वा तदुच्छित्तिः पुरुषार्थस्तदुच्छित्तिः पुरुषार्थः ॥६।७०॥
अनुवृत्ति द्वारा इस पद का विषय अन्य सूत्रों में भी ग्रहीत होता है, तथापि उन अन्य सूत्रों में भी वही अर्थ होगा जो इन मुख्य सूत्रों में है, इसलिए हम प्रायः इन्ही सूत्रों को देखेंगे, आवश्यकता पड़ने पर अन्यों को भी देख लेंगे ।
अब एक-एक करके इन सूत्रों में ‘पुरुष’ पद के अर्थ देखते हैं ।
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१।१॥
अर्थात् तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति के लिए अत्यन्त पुरुषार्थ की आवश्यकता है । जबकि ‘पुरुषार्थ’ का सरल अर्थ ‘पुरुष के लिए’ होता है, तथापि अर्थविस्तार से यह ‘पुरुष के लिए किया गया प्रयत्न’ हो जाता है । यह दूसरा अर्थ यहां अभिप्रेत है । तब भी ‘पुरुष’ पद से दोनों अर्थों का ग्रहण सम्भव है । वह इस प्रकार – १) परमात्मा की प्राप्ति के लिए अत्यन्त प्रयत्न, अथवा २) जीवात्मा की प्राप्ति के लिए अत्यन्त प्रयत्न । अब इनमें से कौन-सा अर्थ लिया जाए ? सो, इसके लिए आगे के सूत्रों को देखना पड़ेगा । वह तीसरे सूत्र में ही हमें प्राप्त हो जाता है –
प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टनात् पुरुषार्थत्वम् ॥१।३॥
जैसे प्रतिदिन की भूख के लिए प्रयत्न करना पड़ता है, उसी प्रकार तीन दुःखों के निवारण के लिए भी सर्वदा प्रयत्नशील रहने के कारण समाधि आदि प्रयत्न पुरुषार्थ हैं (क्योंकि वे प्रयत्न शारीरिक प्रयत्न न होने के कारण यहां सन्देह उत्पन्न हो सकता है कि इन्हें प्रयत्न माना ही क्यों जाए) । वैसे तो समाधि भी परमात्मा की प्राप्ति के लिए की जा सकती है, तथापि यह अर्थ यहां कपिल मुनि को अभीष्ट नहीं है, जैसा कि हम आगे और भी देखेंगे । अर्थात् ‘पुरुषार्थ’ से यहां जीवात्मा की प्राप्ति ही अभिप्रेत है । यही अर्थ सभी व्याख्याकारों ने लिया है ।
अगले सूत्र में भी कुछ सन्देह बना रहता है –
असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥१।१५॥
अर्थात् इस पुरुष का (प्रकृति से) संग = चिपटना नहीं है । स्पष्टतः, यह वाक्य परमात्मा के लिए उपयुक्त है ही; परन्तु क्या यह जीवात्मा के लिए सही है ? क्या परमात्मा और जीवात्मा में यही भेद नहीं है कि परमात्मा प्रकृति से कभी नहीं जुड़ता और जीवात्मा प्राकृतिक शरीर से युक्त होता है ? सो, पहले तो यहां जीवात्मा के शरीर में बन्धन के कारणों का प्रकरण चल रहा है, जिससे कि यहां परमात्मा अर्थ लेना सही नहीं है । उदयवीर शास्त्री जी भी कहते हैं –“ … यहां बन्ध कारणों का प्रसंग होने से, ‘पुरुष’ पद जीवात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ समझना चाहिए ।” दूसरे, यही इस सूत्र का मर्म है जो कपिल स्पष्ट करना चाहते हैं कि यद्यपि जीवात्मा प्राकृतिक शरीर से संलग्न है, उसमें और शरीर में किंचित् दूरी सदैव बनी रहती है, जिसे वे आगे के एक सूत्र में पुनः बताते हैं –
न नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्य तद्योगस्तद्योगादृते ॥१।१९॥
अर्थात् जीवात्मा, जो कि नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव वाला है, का (प्रकृति के साथ) वह योग नहीं हो सकता उपर्युक्त योग के सिवा । जिस योग की यहां बात हो रही है, वह सूत्र १।१५ में वर्णित सूत्र ही है । वह ऐसा योग है, जो कि साथ होते हुए भी संग नहीं है, लिपटन होते हुए भी स्पर्श नहीं है ।
इस प्रकार इस सूत्र में ‘पुरुष’ के अर्थ परमात्मा करना अनर्थ होगा । तो फिर, सम्बद्ध सूत्र १।१५ में भी परमात्मा अर्थ नहीं लिया जा सकता ।
अगला सूत्र सांख्य का प्रसिद्धतम सूत्र है –
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात्
पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं, तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि, पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥१।२६॥
सत्त्व, रजस् व तमस् गुण जब प्रकृति में साम्य रूप से उपस्थित होते हैं, तब वह प्रकृति का मूल रूप होता है । उस प्रकृति से महत् नाम का कार्य उत्पन्न होता है, महत् से अहंकार, अहंकार से पांच तन्मात्र और ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप दोनों इन्द्रियां, तन्मात्रों से पांच स्थूलभूत, और (उन सबसे भिन्न) पुरुष – यह २५ तत्त्वों का गण (सृष्टि में प्राप्त होता है) ।
यही वह सूत्र है जहां ‘पुरुष’ से दोनों चेतन तत्त्वों – परमात्मा व जीवात्मा – का ग्रहण किया गया है । वह सही भी लगता है क्योंकि परमात्मा भी सृष्टि के भाग हैं, सर्वत्र ओत-प्रोत हैं ! तथापि हमें निर्णय करने के लिए पुनः प्रकरण को देखना चाहिए । उपर्युक्त से पूर्व सूत्र अनुमान प्रमाण की व्याख्या करता है, और इसके आगे के सूत्र बताते हैं कि ये सभी तत्त्व कैसे अनुमान प्रमाण से सिद्ध होते हैं । इस प्रसंग के अन्तर्गत ही अन्त में पुरुषविषयक सूत्र आता है –
संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्य ॥१।३१॥
प्रकृति को सिद्ध करने के उपरान्त, यह सूत्र कहता है कि प्रकृति के विभिन्न परिणाम योग-वियोग से उत्पन्न होते हैं किसी दूसरे पदार्थ के लिए – अपने लिए नहीं; इससे दूसरे पदार्थ – पुरुष – का अनुमान प्रमाण द्वारा ग्रहण होता है । (वस्तुतः, प्रकृति के परिणाम दूसरे के लिए हैं यह भी सामान्यतोदृष्ट अनुमान प्रमाण है !)
अब इस वाक्य में ‘पुरुष’ पद से परमात्मा का ग्रहण करना युक्त न होगा, क्योंकि परमात्मा प्राकृतिक विकारों का भोक्ता नहीं है – यह ब्रह्माण्ड उसने अपने रमण के लिए नहीं बनाया है, न ही वह किसी अन्य प्रकार से प्रकृति से कोई भी लाभ प्राप्त करता है । जब यहां पर परमात्मा अर्थ का ग्रहण नहीं हो रहा, तो जिस सूत्र की यह व्याख्या है, वहां भी परमात्मा का ग्रहण युक्त नहीं है, अर्थात् १।२६वें सूत्र में । वस्तुतः, १।२६ में कपिल ने उन तत्त्वों का परिगणन किया है जो सृष्टि में पाए जाते हैं; परमात्मा तो सर्वथा अदृश्य, अनुमान प्रमाण के भी परे और प्रकृति अथवा जीवात्मा से सर्वथा अयुक्त है । जितना योग जीवात्मा का प्रकृति से होता है (जैसा कि ऊपर दिया गया), उतना भी परमात्मा का किसी से नहीं होता । इसलिए उसकी गणना १।२६ सूत्र में नहीं हुई है ।
आगे बढ़ते हुए –
तद्धाने प्रकृतिः पुरुषो वा ॥१।९८॥
अर्थात् महत् आदि को यदि कार्य न माना जाए, तो ब्रह्माण्ड के विभिन्न अंश या तो अचेतन प्रकृति होंगे, या चेतन पुरुष होंगे । कहने का तात्पर्य है कि ये दोनों ही समस्त पदार्थ नहीं हो सकते क्योंकि – १) यदि प्रकृति हों, तो वे तो प्रत्यक्ष रूप से एक पदार्थ से अन्य में बदलते दीखते हैं, इसलिए मूल पदार्थ नहीं हो सकते; २) यदि पुरुष हों तो सभी वस्तुएं चेतन हों, जो भी प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है । इस प्रकार प्रकृति अथवा पुरुष, दोनों ही ब्रह्माण्ड के स्वयं उपादान कारण नहीं हो सकते । क्योंकि यहां भी पुरुष के दोनों अर्थों का ग्रहण किया जा सकता है, उसको समझने के लिए अनन्तर सूत्र देखना आवश्यक है –
तयोरन्यत्वे तुच्छत्वम् ॥१।९९॥
परम्परया यहां अर्थ किए जाते हैं – क्योंकि सृष्टि प्रत्यक्षतः या तो चेतन-तत्त्वों या अचेतन-तत्त्वों की बनी है, तो इनसे अन्य किसी तीसरे गुण वाले मूल उपादान कारण का ग्रहण सम्भव नहीं । स्पष्टतः, इस व्याख्या में ‘तुच्छत्वम्’ पद का कोई अर्थ नहीं बनता । इसलिए यह व्याख्या त्याज्य है । सही अर्थ इस प्रकार हैं – यदि प्रकृति और पुरुष से अन्य की उपादानता को माना जाए, अर्थात् ईश्वर का ग्रहण किया जाए, तो ईश्वर में तुच्छत्व आ जाएगा – वही सब वस्तुओं का अधिष्ठाता है और वही सब वस्तुओं के रूप में अधिष्ठित हो जाएगा; इसलिए उसकी भी उपादानता ग्रहण नहीं की जा सकती । इस प्रकार, वस्तुतः, इस सूत्र में बड़े ही स्पष्ट रूप से ‘पुरुष’ पद से ईश्वर को अलग रखा गया है !
देखते हैं अगला सूत्र –
जन्मादिव्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम् ॥१।११४॥
इस अत्यन्त सरल सूत्र में कहा गया है कि जो जन्म, मरण, आदि, व्यवस्था जीवों में देखी जाती है, वह जीवात्माओं के संख्या में अनेक होने का परिचायक है । किसी भी प्रकार से यहां परमात्मा का ग्रहण करना दोषयुक्त ही होगा ! न तो उसमें जन्मादि पाए जाते हैं, और न ही उसमें बहुत होने का हम कोई कारण पाते हैं ।
अनन्तर, मोक्ष के प्रकरण में कपिल कहते हैं –
प्रकृतिवास्तवे च पुरुषस्याध्याससिद्धिः ॥२।५॥
और प्रकृति की वास्तविकता सिद्ध हो जाने पर (जो कि पहले अध्याय में कर दिया गया), पुरुष के मिथ्याज्ञान (कि वह ही शरीर है) सिद्ध हो जाता है ।
पुनः, परमात्मा में तो किसी प्रकार के मिथ्याज्ञान की सम्भावना है ही नहीं, इसलिए यहां केवल जीवात्मा का ही ग्रहण हो सकता है ।
अगले सूत्र में भी दुविधा का कोई अवकाश नहीं रहता –
पुरुषार्थं करणोद्भवोऽप्यदृष्टोल्लासात् ॥२।३६॥
अर्थात् पुरुष के लिए इन्द्रिय-रूपी करणों का उद्भव होता है, जो कि पूर्व जन्म के कर्मों (अदृष्ट) के अनुसार होते हैं ।
संचित पाप और पुण्य के अनुसार जीवात्मा की योनि निर्धारित होती है, और उसके द्वारा इन्द्रियां (केंचुए की उतनी इन्द्रियां नहीं होती जितनी कि मनुष्य की, और न ही उतनी सक्षम) । यह करणों का उद्भव पुरुष के लिए है । क्योंकि परमात्मा को किसी भी करण की आवश्यकता नहीं है, इस वाक्य में भी पुरुष शब्द से केवल जीवात्मा अभिप्रेत है ।
पुरुषार्थं संसृतिर्लिङ्गानां सूपकारवद्राज्ञः ॥३।१६॥
यहां प्रकरण सूक्ष्म शरीर का है, सो ‘लिङ्ग’ से वही अर्थ अभिप्रेत है । सूत्र का अर्थ है – पुरुष के लिए सूक्ष्म शरीर एक स्थूल शरीर से दूसरे में गमन करता है, जिस प्रकार राजा का रसोइया राजा के साथ जाता है । सूत्र २।३६ के समान, यहां भी स्पष्टतः ‘पुरुषार्थ’ में ‘पुरुष’ का अर्थ केवल जीवात्मा ही हो सकता है, क्योंकि परमात्मा का न तो सूक्ष्म शरीर है, न स्थूल, और न ही जीवात्मा के इस आवागमन से उसका कुछ लाभ है । कपिल ने ‘पुरुष’ के आगे कोई और विशेषण नहीं लगाया है जिससे जीवात्मा का ज्ञान हो, क्योंकि इस पद से वे सर्वत्र ही जीवात्मा को बताना चाहते हैं, परमात्मा को नहीं । यदि हम यह सोचें कि कपिल ने ऐसा इसलिए किया कि प्रकरण से स्पष्ट है कि जीवात्मा का विषय है या परमात्मा का, तो हमें यह भी समझना चाहिए कि १।१ व १।३ सूत्रों में जो सन्देह उत्पन्न किया गया है, वहां भी कपिल के अनुसार सन्देह का कोई अवकाश नहीं था – वहां भी जीवात्मा का ही प्रकरण था !
अगला सूत्र मोक्ष के साधन विषयक है –
स्वप्नजागराभ्यामिव मायिकामायिकाभ्यां नोभयोर्मुक्तिः पुरुषस्य ॥३।२६॥
अध्याहारः – कर्मणाम्
अनुवृत्तिः – ज्ञानस्य, न समुच्चयविकल्पौ
जैसे स्वप्न की अवास्तविक और जागरण की वास्तविक स्थितियों में कोई समुच्चय और विकल्प नहीं होता – कुछ स्वप्नावस्था, कुछ जागरितावस्था जैसी कोई स्थिति नहीं होती, उसी प्रकार दोनों ज्ञान और कर्म का पुरुष की मुक्ति-प्राप्ति में कोई समुच्चय-विकल्प नहीं होता । स्पष्टतः, यहां भी ‘पुरुष’ के परमात्मा अर्थ नहीं हो सकते, क्योंकि जिसमें बन्ध ही नहीं, उसमें मुक्ति कैसी !
अगले सूत्र में बन्ध के कारण की चर्चा है –
नैकान्ततो बन्धमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादृते ॥३।७१॥
अर्थात् पुरुष के मोक्ष और बन्ध किसी भी उपाय से पूर्णतया युक्तियुक्त नहीं होते, अविवेक मानने को छोड़, अर्थात् अविवेक के द्वारा ही मोक्ष और बन्ध दोनों पूर्णतया स्पष्ट होते हैं । यहां भी परमात्मा में बन्ध और मोक्ष न होने के कारण, इस सूत्र में पुरुष का अर्थ एक ही हो सकता है ।
अगला सूत्र वेदों के नित्यत्व के प्रकरण में है और उनके अपौरुषेयत्व को समझाता है –
न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् ॥५।४६॥
अनुवृत्तिः – वेदानाम्
अर्थात् वेद पौरुषेय नहीं हैं क्योंकि उनकी रचना करने वाले पुरुष का अभाव है – ऐसा कोई पुरुष नहीं मिलता जो उनको बनाने का अधिकार जताए । अब यहां यदि ‘पुरुष’ या ‘पौरुषेय’ से दोनों जीवात्मा और परमात्मा ग्रहण किए जाएं, तब तो सूत्र का कोई अर्थ ही न रह जाएगा, क्योंकि यदि परमात्मा ने भी वेद नहीं बनाए, और न जीवात्मा ने, तो फिर सृष्टि में और तो कोई इस कार्य के योग्य बचता ही नहीं ! इसलिए यहां दोनों ‘पुरुष’ और ‘पौरुषेय’ में जीवात्मा का ही ग्रहण है, जिससे सूत्र का तात्पर्य बनता है कि किसी मानव ने वेदों को नहीं रचा है ।
इसी प्रकरण में आगे कपिल ‘पौरुषेय’ को परिभाषित करते हैं –
यस्मिन्नदृष्टेऽपि कृतबुद्धिरुपजायते तत् पौरुषेयम् ॥५।५०॥
अनुवृत्तिः – तत्कर्तुः
अर्थात् जिस वस्तु के बनते हुए को न देखने पर भी यह स्पष्ट ज्ञान होता है कि यह वस्तु बनाई गई है, वह पौरुषेय कहाती है । अब यह तो सर्वविदित है कि प्रकृति की सारी रचना को हम नैसर्गिक मानते हैं, जिसमें किसी कर्ता का हाथ स्पष्ट नहीं दीखता । इसलिए यहां उन नैसर्गिक वस्तुओं की बात नहीं हो रही है, अपितु मानव-निर्मित वस्तुओं का प्रसंग है । यदि परमात्मा-निर्मित वस्तुओं का सम्बन्ध भी यहां होता, तब तो कुछ शेष ही न रहता – सभी पौरुषेय हो जाता ! अन्य ग्रन्थों में भी, जहां कहीं भी वेदों के पौरुषेयत्व की चर्चा हुई हैं, वहां उसके ‘जीवात्मा (यहां विशेष रूप से ‘मानव’ के अर्थ में प्रयुक्त) द्वारा रचित’ अर्थ ही होते हैं, परमात्मा नहीं ।
अगला सूत्र कुछ विचित्र है –
प्रकृतिपुरुषयोरन्यत् सर्वमनित्यम् ॥५।६८॥
प्रकृति और पुरुष को छोड़कर सब अनित्य है । वास्तव में, यहां १।२६ सूत्र से ‘अन्यत्’ पद समझना है । १।२६ सूत्र में जो २५ तत्त्व गिनाए गए थे, उनमें केवल प्रकृति और पुरुष नित्य हैं, अन्य सभी अनित्य हैं । अब यदि हमने १।२६ में ‘पुरुष’ से जीवात्मा और परमात्मा दोनों समझे थे, तो यहां भी दोनों घट जाते हैं, परन्तु पुनः सन्दर्भ को देखना आवश्यक है । सो, अगला सूत्र कहता है –
न भागलाभो भोगिनो निर्भागत्वश्रुतेः ॥५।६९॥
अनुवृत्तिः – पुरुषस्य
अर्थात् पुरुष भोगी को भोग का लाभ (वास्तव में) नहीं होता, वेदों में उसके भाग न ग्रहण कहे जाने से । भोगी की चर्चा होने के कारण, स्पष्टतः यहां पुनः परमात्मा का अर्थ त्यागना पड़ेगा । इसीलिए किसी भी भाष्यकार ने ५।६८ सूत्र में भी पुरुष पद से परमात्मा अर्थ का ग्रहण नहीं किया है । जबकि वे सब ‘अन्यत्’ पद से १।२६ के विकारों का ही ग्रहण करते हैं, तथापि वे १।२६ में अपनी व्याख्या का पुनरवलोकन नहीं करते ! हमने तो दिखाया था कि १।२६ का व्याख्या सूत्र १।३१ भी इसी तथ्य को स्थापित करता है कि पुरुष से १।२६ में केवल जीवात्मा अभिप्रेत है ।
(५।६९ सूत्र में एक और बहुत बड़ा तथ्य कहा गया है, जो बहुत कम विद्वानों के पल्ले पड़ता है क्योंकि वे ‘भोगी ही भोग करता है’ के आगे नहीं बढ़ पाते । वह विषय कभी और…)
अगला सूत्र मोक्षविषयक है –
न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वादिदोषात् ॥५।७४॥
अनुवृत्तिः – पुरुषस्य, मुक्तिः
अर्थात् पुरुष की मुक्ति होने में सब का उच्छेद नहीं होता, क्योंकि उसमें पुरुष का कोई भी लाभ न होने आदि दोषों की प्रसक्ति हो जाती है । ‘सब’ से यहां शरीर व जीवात्मा के नाश को कहा गया है; परमात्मा का तो यहां किसी भी प्रकार से अर्थ लिया ही नहीं जा सकता !
इसी प्रकार यदि अध्येता छठे अध्याय के उपर्युक्त सूत्रों का भी अध्ययन करेगा, तो वहां पुरुष के स्पष्ट रूप से ‘जीवात्मा’ अर्थ दृष्टिगोचर होंगे, परमात्मा नहीं । ऊपर दिए सूत्रपाठ से ही सरलता से दीखता है कि वहां पुरुष पद से केवल जीवात्मा का ही ग्रहण सम्भव है । अब पुनः ३ सन्दिग्ध सूत्रों को देखते हैं –
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१।१॥
प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टनात् पुरुषार्थत्वम् ॥१।३॥
असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥१।१५॥
पहले तो, १।९८-९९ में स्पष्ट रूप से ईश्वर को प्रकृति और पुरुष से अन्यत् गिना गया है । ‘पुरुषार्थ’ पद के कारण १।१ व १।३ में होने वाले सन्देह में हमने अन्य अनेक सूत्र देखे जहां इस पद का अर्थ केवल ‘जीवात्मा के लिए’ ही हो सकता है, इसलिए इन दो सूत्रों में भी यही अर्थ मान्य होना चाहिए । १।२६ में यदि ‘पुरुष’ को केवल जीवात्मा ही मानना है, जैसा कि हमने ५।६८-६९ सूत्रों की व्याख्या से जाना, तो उपर्युक्त १।१५ में भी उसी अर्थ का ग्रहण करना युक्तियुक्त है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रारम्भिक तीन सूत्रों में प्रथमतः ‘पुरुष’ शब्द के अर्थ के विषय में कुछ संशय हो सकता है, परन्तु आगे आने वाले सूत्रों से वह जाता रहता है, क्योंकि उनमें तो जीवात्मा का अर्थ छोड़कर दूसरा अर्थ लेना दोषपूर्ण ही है; प्रत्युत एक सूत्र में तो विशेष रूप से पुरुष से ईश्वर को भिन्न ग्रहण किया गया है । सो, निष्कर्ष यह निकला कि यह कथन सर्वथा भ्रान्तिजनक है कि सांख्य में पुरुष पद के दो अर्थ हैं – जीवात्मा और परमात्मा; नहीं, सांख्य में ‘पुरुष’ का केवल एक अर्थ है – जीवात्मा, और परमात्मा के लिए ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग किया गया है । सदैव सन्दर्भ को यदि हम मन में रखेंगे, तो दर्शनकार के तात्पर्य को समझने में ऐसे सन्देह नहीं उत्पन्न होंगे…