सांख्यदर्शन में हेत्वाभास
सांख्यदर्शन वैसे तो प्रकृति, पुरुष व ईश्वर की सिद्धि करने वाला ग्रन्थ है, परन्तु सिद्धियां देने के कारण, उसमें न्यायदर्शन के कई अंश कार्यान्वित होते हैं । पूर्व में मैंने सांख्यदर्शन में प्राप्त होने वाले सामान्यतोदृष्ट अनुमान व उपमान प्रमाण के कुछ उदाहरण दिए थे । अबकी बार हम पंचम अध्याय में दिए कुछ हेत्वाभासों पर दृष्टि दौड़ाते हैं । इस अध्याय में अनेकों पूर्वपक्षी तर्क दर्शाए गए हैं, जो कि प्रायः हेत्वाभास हैं । न्यायदर्शन में परिभाषित हेत्वाभास सम्यक्तया समझा नहीं जाता है । आशा है इन उदाहरणों से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ेगा ।
हेत्वाभास किसी तथ्य को स्थापित करने के लिए वह हेतु होता है जो दिखता तो हेतु जैसा है, परन्तु उसमें कुछ दोष होता है, जिसके कारण वह तथ्य को स्थापित करने में अक्षम हो जाता है । उसको पहचानने और उसका निराकरण करने के लिए हेत्वाभासों के विभिन्न प्रकारों को समझना आवश्यक है । इसलिए सर्वप्रथम हम हेत्वाभासों की परिभाषाएं देखते हैं । न्यायदर्शन के प्रवर्तक गौतम ने पहले हेत्वाभासों की सूची दी –
सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीता हेत्वाभासाः ॥न्यायदर्शनम् १।२।४॥
अर्थात् हेत्वाभास के प्रकार हैं – सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम व कालातीत । आगे गौतम इन हेत्वाभासों को परिभाषित करते हैं ।
अनैकान्तिकः सव्यभिचारः ॥न्यायदर्शनम् १।२।५॥
अर्थात् जिस हेतु से केवल एक निष्कर्ष नहीं निकलता, अर्थात् जो तथ्य को स्थापित स्वयं नहीं कर सकता क्योंकि वह किसी और तथ्य का भी कारण हो सकता है, ऐसे तर्क को सव्यभिचार हेत्वाभास कहते हैं ।
सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः ॥न्यायदर्शनम् १।२।६॥
अर्थात् जब वादी किसी सिद्धान्त को स्वीकारने के पश्चात्, उस सिद्धान्त के विपरीत हेतु देता है, तब वह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास कहलाता है । किसी भी चर्चा में दोनों वादी कुछ सिद्धान्तों को पूर्व-सिद्ध जानकर चर्चा में प्रवृत्त होते हैं । कभी-कभी केवल एक ही वादी किसी तथ्य को सिद्ध मानता है, परन्तु प्रायः दोनों ही वादी कुछ तथ्यों पर सहमति जताते हैं ।
यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः ॥न्यायदर्शनम् १।२।७॥
चर्चा के बीच में किसी अन्य तथ्य को स्थापित करते समय, जब उसको स्थापित के रूप में हेतु दिया जाए, तो उसे प्रकरणसम हेत्वाभास कहते हैं । इसे ऐसे समझा जा सकता है कि चर्चा में किसी भी वादी ने एक तथ्य को सिद्धान्त नहीं माना है । फिर कोई एक वादी उस तथ्य को सिद्ध रूप में प्रस्तुत करता है, चाहे उस तथ्य को मनवाने की दृष्टि से, अथवा अपने हेतु को बल देने की दृष्टि से, तो वह हेतु मान्य नहीं होता ।
साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः ॥न्यायदर्शनम् १।२।८॥
जो चर्चा का प्रमुख विषय होता है, उसे साध्य कहते हैं, क्योंकि उसके स्थापन की आवश्यकता है । यदि उसी तथ्य को, भिन्न शब्दों में या भिन्न प्रकार से, हेतु के रूप में प्रस्तुत किया जाए, तो उस हेतु को साध्यसम हेतु कहता हैं ।
कालात्ययापदिष्टः कालातीतः ॥न्यायदर्शनम् १।२।९॥
जिस हेतु में काल का अतिक्रमण हो रहा हो, उसे कालातीत हेत्वाभास कहते हैं । थोड़ा कठिन विचार होने के कारण, इसका यहां एक उदाहरण देख लेते हैं । न्यायदर्शन के प्राचीनतम उपलब्ध वात्स्यायन के भाष्य में इसके लिए यह उदाहरण दिया गया है – “शब्द नित्य है, संयोग से व्यक्त होने के कारण, रूप के समान ।” यहां साध्य शब्द की नित्यता है, हेतु संयोग से व्यक्त होना है, दृष्टान्त रूप है । अब, किसी वस्तु का रूप तब ही व्यक्त होता है, जब उस वस्तु का प्रकाश से संयोग होता है । वस्तु तो अंधेरे में भी थी, उसका आकार भी था, परन्तु वह प्रकट संयोग से हुआ । इस प्रकार वस्तु का रूप एक प्रकार से ‘नित्य’ था, परन्तु ऐसा प्रकट नहीं हो रहा था । वादी शब्द की नित्यता को भी इसी प्रकार का बताता है । तब इसका निराकरण यह है कि रूप तब तक प्रकट होता है, जब तक प्रकाश होता है, परन्तु शब्द तो, जैसे घण्टे व बजाने वाली लकड़ी के समान, संयोग के बाद भी उपलब्ध होता है । इस प्रकार दृष्टान्त व हेतु में काल का साम्य नहीं है, काल का अतिक्रमण हो गया है; इसलिए वह हेतु हेतु न होकर, कालातीत हेत्वाभास है ।
हेत्वाभासों के इस ज्ञान से समृद्ध होकर, अब हम सांख्यदर्शन के पांचवे अध्याय की ओर कूच करते हैं । संसार में ईश्वर की भूमिका के विषय में प्रतिवादी चर्चा छेड़ता है –
नेश्वराधिष्ठिते फलनिष्पत्तिः कर्मणा तत्सिद्धेः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।२॥
अर्थात् जीवों के फल की निष्पत्ति तो कर्म से ही सिद्ध हो जाती है, उसमें ईश्वर के स्वामित्व की आवश्यकता नहीं है । अर्थात् वादी इंगित कर रहा है कि ईश्वर की फल प्रदान में कोई भूमिका नहीं है ।
स्वोपकारादधिष्ठानं लोकवत् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।३॥
(अथवा) अपने उपकार के लिए ही उसका स्वामित्व हो, जिस प्रकार लोक में होता है । लोक में प्रायः सम्पत्ति के स्वामी केवल अपने उपकार का ध्यान रखते हैं, अपने कर्मियों का नहीं । सो, अच्छे कर्म सम्भवतः इसलिए विहित हैं कि उनसे परमात्मा का भी कुछ भला हो रहा हो । (यह भावना अनेक प्राचीन सभ्यताओं में पाई जाती है, जहां जीवों को ईश्वर का दास माना जाता है ।)
लौकिकेश्वरवदितरथा ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।४॥
अन्यथा परमात्मा लौकिक ईश्वर (राजा) के समान हो – जो कर (सत्कर्म) संचित करके, उससे प्रजा (जीव) का ही भला करता हो ।
पारिभाषिको वा ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।५॥
या वह कुछ भी न करता हो, केवल पारिभाषिक हो, बिना कुछ हस्तक्षेप किए संसार में विद्यमान हो ।
इस प्रकार ईश्वर के विषय में विभिन्न मत प्रस्तुत किए गए हैं । ये किस प्रकार से हेत्वाभास हैं, यह कपिल के प्रत्याख्यानों से स्पष्ट हो जाएगा । सूत्र ५।२ के उत्तर में वे कहते हैं –
न रागादृते तत्सिद्धिः प्रतिनियतकारणात् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।६॥
राग(-द्वेष) के बिना कर्मफल सिद्ध नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक (अन्य क्रिया का) नियत कारण होता है । पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है, परन्तु इस क्रिया का कोई फल नहीं होता । उनके कारण इतने नियत होते हैं कि हम मंगल को भी यान भेज सकते हैं ! इसी प्रकार, विवेकख्याति प्राप्त योगी के कर्मों का भी कोई फल नहीं होता । परन्तु किसी भौतिक इच्छा से किए गए कर्म, जो इच्छा राग अथवा द्वेष के कारण होती है, का सदैव फल होता है । तात्पर्य यह है कि क्रियाओं के इस भेद को जानने के लिए किसी चेतन सत्ता की आवश्यकता है जो भेदानुसार बुद्धिपूर्वक फल निर्धारित करे । वह सत्ता ही परमेश्वर है ।
इस प्रत्युत्तर से हम जान पाते हैं कि ५।२ में कहे कर्म के दो प्रकार सम्भव हैं, परन्तु उनमें से केवल एक प्रकार फल को निष्पन्न करता है । इसलिए अनैकान्तिक होने से ५।२ सव्यभिचार हेत्वाभास है ।
५।३ का उत्तर है –
तद्योगेऽपि न नित्यमुक्तः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।७॥
अर्थात् यदि परमात्मा जीव के कर्म से किसी लाभ से युक्त हो रहा होता, तो वह नित्यमुक्त नहीं हो सकता है । यह एक सर्वतन्त्र सिद्धान्त माना गया है कि परमात्मा नित्यमुक्त है । अब यदि वह जीव के कर्म से लाभ प्राप्त करेगा, तो वह जीव पर आश्रित हो जाएगा, उससे बन्ध जाएगा, उसके कर्म के फल से भी बन्ध जाएगा । तब वह सब से स्वतन्त्र कैसे हो सकता है? नित्यमुक्त कैसे हो सकता है ?
क्योंकि यहां माने हुए सिद्धान्त का विरोध हो रहा है, इसलिए ५।३ विरुद्ध हेत्वाभास है ।
फिर कपिल ५।४ का प्रत्युत्तर देते हैं –
प्रधानशक्तियोगाच्चेत् संगापत्तिः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।७॥
यदि परमात्मा का किसी प्रकार से प्रधान (प्रकृति) की शक्ति से योग माना जाए, तो उसमें प्रकृति से संग होने का दोष आ जाएगा । अर्थात् आपने राजा के समान कर इकट्ठा करके कर्मानुसार बांटने वाला जो ईश्वर को बताया, उसमें कर्म इकट्ठा होकर परमात्मा में अर्पित हो जाएगा, प्रधान की शक्ति के ऊपर परमात्मा के विशेष नियन्त्रण के द्वारा । फिर वह प्रकृति की उसी शक्ति से कर्मफल सबमें बांट देगा । परन्तु जो कर्म उसके ‘बैंक अकाउण्ट’ में इकट्ठा होगा, वह वस्तुतः उसी में इकट्ठा होगा, अर्थात् उसका कर्मों से, और इसलिए प्रकृति से, सम्बन्ध हो जाएगा । यह संग सभी वादियों को अमाननीय है, इसलिए, हेतु न होकर, ५।४ विरुद्ध हेत्वाभास ही है ।
५।५ का प्रत्युत्तर इस प्रकार है –
सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।९॥
‘पारिभाषिक’ कहने से आपका अर्थ था कि ईश्वर की केवल सत्ता होती है, वस्तुतः वह कुछ करता नहीं है । यदि सत्ता होने से ही ईश्वरता हो जाए, तो सभी वस्तुओं में हम ऐश्वर्य मान लें । क्योंकि यह किसी को भी मान्य नहीं है, इसलिए दिया ‘हेतु’ हेत्वाभास है । कौन सा हेत्वाभास? सो, देखिए हम निकले थे जानने के लिए कि ईश्वर का ईश्वरत्व क्या है? वह क्या कारण है जिससे हम ईश्वर को ईश्वर मानते हैं? तो, जब उस कारण को त्याग कर, उसे परिभाषा से ही ईश्वर कह दिया, तो वह प्रकरण में जिसकी चिन्ता की जा रही है, उसी को निर्णय बनाने के तुल्य है । इसलिए ५।५ प्रकरणसम हेत्वाभास है ।
अब पूर्वपक्षी ईश्वर को ही त्यागना चाहता है –
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।१०॥
वह कहता है कि ईश्वर प्रत्यक्ष प्रमाण से उपलब्ध न होने के कारण, वह सिद्ध नहीं है ।
सम्बन्धाभावान्नानुमानम् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।११॥
सर्वतन्त्र सिद्धान्त कि ईश्वर का प्रकृति से सम्बन्ध नहीं होता से ईश्वर को अनुमान से भी सिद्ध नहीं किया जा सकता ।
श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।१२॥
शब्द प्रमाण वेद भी प्रधान से कार्यों के उत्पन्न होने को कहते हैं । फिर वहां भी परमात्मा नहीं है । तो फिर उसकी आवश्यकता भी नहीं है ।
इस प्रकार, तीनों प्रमाणों से सिद्ध न होने के कारण हम उसकी सत्ता को ही क्यों मानें?
सिद्धहस्त कपिल इन कठिन तर्कों का भी दक्षता से उत्तर देते हैं ! ५।१० का –
नाविद्याशक्तियोगो निःसङ्गस्य ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।१३॥
जो निःसंग है (जो तथ्य आपको भी मान्य है), उसका अविद्या की शक्ति (प्रकृति) से योग नहीं हो सकता । इसलिए हां, परमात्मा का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, क्योंकि इन्द्रियां केवल प्रकृति के कार्यों को ही देख सकती हैं । इस उत्तर से, और सीधे भी, हम ऊहा कर पाते हैं कि ५।१० में जो कहा गया, वह तो ज्ञात ही था – ईश्वर आंखों से नहीं दीख रहा था, तभी तो उसकी सत्ता पर चर्चा हो रही है । इसलिए ५।१० का यह तर्क साध्यसम हेत्वाभास है ।
५।११ के लिए कपिल कहते हैं –
तद्योगे तत्सिद्धावन्योऽन्याश्रयत्वम् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।१४॥
यदि प्रकृति के सम्बन्ध से, अनुमान प्रमाण द्वारा, परमात्मा की सिद्धि, उसकी सत्ता मानी जाए, तो वह अपनी सिद्धि के लिए प्रकृति पर आश्रित हो जाएगा । परन्तु प्रकृति तो अपनी सिद्धि, अपने कार्यों की उत्पत्ति के लिए परमात्मा की अपेक्षा रखती है । यह अन्योऽन्याश्रय दोष होने से हेत्वाभास है । कौन-सा हेत्वाभास ? इसके लिए देखिए, दिया हुआ तर्क दूसरी ओर से देखे जाने पर सही नहीं बैठता, उससे उत्पन्न निष्कर्ष पूर्ण नहीं है । इसलिए ५।११ अनैकान्तिक है, और सव्यभिचार हेत्वाभास है ।
५।१२ का प्रत्युत्तर तो बहुत ही विद्वत्तापूर्ण है –
न बीजाङ्कुरवत् सादिसंसारश्रुतेः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।१५॥
अर्थात् प्रकृति का कार्यत्व बीज और अंकुर के समान नहीं है, क्योंकि श्रुति हमें संसार का आदि होना बताती है । यहां तात्पर्य इस प्रकार है – बीज से अंकुर और अंकुर से उत्पन्न पेड़ से बीज – यह चक्र बिना आदि-अन्त के है (जबकि यहां भी एक आदि होता है, परन्तु उपमा में उसका ग्रहण नहीं किया गया है) । दूसरी ओर संसार के प्रारम्भ से पूर्व प्रकृति साम्यावस्था में थी, उसको कार्यों में परिवर्तित होने का कोई कारण नहीं था । फिर, सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर के रूप में वह निमित्त कारण प्रस्तुत हुआ और उसने कार्यों की श्रृंखला प्रारम्भ की । इसलिए ईश्वर-रूप निमित्त कारण का भी वर्णन वेदों से प्राप्त होता है । ५।१२ में संसार के प्रारम्भिक काल की चर्चा न करने से, उसमें काल का अतिक्रमण हुआ है । इसलिए ५।१२ कालातीत हेत्वाभास है ।
उपर्युक्त प्रकार से हम पाते हैं कि सांख्य के छोटे-से भाग में ही पांचों प्रकार के हेत्वाभास हमें प्राप्त हो गए । प्राप्त ही नहीं हुए, उनके अर्थ भी स्पष्ट हो गए । इसी प्रकार न्यायदर्शन के अन्य अंशों को समझने के लिए भी सांख्यदर्शन का अध्ययन बहुत लाभकर है । यही नहीं, कपिल के द्वारा प्रस्तुत हेतु भी बहुत ही अद्भुत हैं ! कठिन विषय के लिए अवश्य ही कठिन हेतु अपेक्षित हैं । ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति के स्वरूप व सम्बन्ध की चिन्ता निश्चित रूप से अत्यधिक गहन है । इसीलिए ये विषय आज भी तर्क की परिधि से बाहर माने जाते हैं । यह इसलिए भी कि सांख्यदर्शन को बहुत कम जानते हैं !