सांख्य में योग के अष्टांग
अनेक विद्वानों में यह धारणा बनी हुई है कि सांख्यदर्शन और योगदर्शन कुछ भिन्न मत प्रस्तुत करते हैं, परन्तु यह धारणा सही नहीं है । जबकि अवश्य ही सांख्य का विषयक्षेत्र योग से कुछ भिन्न है, तथापि उनमें कहीं वैपरीत्य नहीं है; प्रत्युत मतसाम्य के कारण इन दोनों दर्शनशास्त्रों को ’योग-सांख्य’ जोड़े के रूप में भी कहा जाता है । कभी-कभी कुछ निरूपण में अन्तर होने के कारण, अथवा किसी तथ्य को जोड़ने या घटाने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि किन्हीं दो ग्रन्थों में भेद है, परन्तु यह केवल विवक्षा में भेद होता है, तथ्य में नहीं । जिस प्रकार दो वक्ता किसी एक विषय को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं, उसी प्रकार ग्रन्थों में भी समझना चाहिए । इस लेख में मैं कपिल मुनि के सांख्यदर्शन में किस प्रकार, भिन्न प्रतीत होते हुए भी, महर्षि पतञ्जलि प्रणीत योगदर्शन के अष्टांग प्रस्तुत किए गए है, यह दर्शा रही हूं ।
योगदर्शन के अष्टांग मुमुक्षु साधक को अपने लक्ष्य तक पहुंचने के सोपान देते हैं, और साधारण जन को धार्मिक जीवन जीने की कुछ कड़ियां देते हैं, चाहे वह उस उपदेश का पूर्णता से निर्वाह न भी कर पाए । पतञ्जलि ने इन्हें इस प्रकार सूत्रित किया है –
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥योगदर्शनम् २।२९॥
अर्थात् आत्मयोग व परमात्मयोग के क्रमशः आठ अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि । इनमें यम आत्मिक नियन्त्रण को कहते हैं, नियम दैनिक कर्तव्य बताते हैं, आसन ध्यान के लिए सरलता से बैठने को, प्राणायाम श्वास-प्रश्वास को सूक्ष्म व दीर्घ करने की प्रक्रिया को और प्रत्याहार इन्द्रियों को वश में रखने को कहते हैं, व धारणा/ध्यान/समाधि ध्यान के उत्तरोत्तर स्तर हैं । संक्षेप में, ये आत्मयोग के लिए – अपने स्वरूप को जानने के लिए – आत्मोन्नति के सोपान हैं । पतञ्जलि स्वयं कहते हैं –
योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः ॥योग० २।२८॥
अर्थात् योगांगों के अनुष्ठान से आत्मिक व शारीरिक अशुद्धियों का नाश होता है और विवेकख्याति (अविद्या के सम्पूर्ण नाश) पर्यन्त ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है । विवेकख्याति प्राप्त करने पर जीवात्मा मोक्ष का भागी हो जाता है, उसको उसका सर्वोत्तम लक्ष्य मिल जाता है ।
सांख्य भी मोक्ष-प्राप्ति के सोपानों का वर्णन करता है । वे इस प्रकार हैं –
रागोपहतिर्ध्यानम् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ३।३०॥
अर्थात् ध्यान द्वारा सब राग नष्ट हो जाते हैं । राग यहां सभी क्लेशों का उपलक्षण है (इन क्लेशों का विवरण मैंने आगे दिया है)।
वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धिः ॥साङ्ख्य० ३।३१॥
अर्थात् (चित्त की) वृत्तियों के निरोध से ध्यान की सिद्धि होती है । यहां शंका की जाती है कि महर्षि पतञ्जलि ने तो चित्तवृत्तियों के निरोध को ’योग’ कहा है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥योग० १।२॥, परन्तु महर्षि कपिल ने उसको ’ध्यान’ कहा है । दूसरी ओर पतञ्जलि ने ’ध्यान’ को समाधि प्राप्त करने की दूसरी अवस्था बताई है (धारणा उनमें पहली है और समाधि तीसरी) । ऊपर से कपिल ने इसे ’रागोपहति’ कहा है, न कि ’योग’ । तो भला ये दोनों एक बात कैसे कह रहे हो सकते हैं ? यदि हम सांख्य आगे पढ़ें, तो और भी संशय उत्पन्न होते हैं, जैसे कि –
धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः ॥ साङ्ख्य० ३।३२॥
अर्थात् वृत्तिनिरोध धारणा, आसन व स्वकर्म से सिद्ध होता है, जबकि पतञ्जलि ने उपर्युक्त अष्टांगों का निर्देश किया है । धारणा और आसन उन अंगों के भाग तो हैं, परन्तु स्वकर्म तो नहीं है ! कपिल का उपदेश समझने के लिए, आगे दिए गए इन तीन शब्दों के अर्थ पहले देखते हैं –
निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ॥ साङ्ख्य० ३।३३॥
स्थिरसुखमासनम् ॥ साङ्ख्य० ३।३४॥
स्वकर्म स्वाश्रमविहितकर्मानुष्ठानम् ॥साङ्ख्य० ३।३५॥
जबकि यहां पहला सूत्र कहता है कि प्राणों को बाहर फेंकने (रेचक) और रोकने (कुम्भक) से ’निरोध’ उत्पन्न होता है, बाकी दो सूत्र क्योंकि आसन और स्वकर्म निरूपित करते हैं, इसलिए यह मानना उपयुक्त है कि इस सूत्र में ’निरोध’ से ’धारणा’ का ग्रहण करना है । इस शब्दसंकर से यह ज्ञात होता है कि कपिल के लिए ये शब्द उस रूप में पारिभाषिक नहीं थे, जिस रूप में वे पतञ्जलि के लिए थे । यह स्वाभाविक भी है क्योंकि सांख्य में समाधि-विषय प्रधान नहीं है, अपितु सृष्टि में तीन तत्त्वों – परमात्मा, जीवात्मा व प्रकृति – की सिद्धि, प्रकृति से सृष्टि व शरीर संरचना, उस शरीर से जीवात्मा का मुक्त हो सकना, आदि विषय अधिक प्रधान हैं । इन अन्तिम विषयों का उल्लेख योगदर्शन में भी पाया जाता है, और वहां हम पाते हैं कि सांख्य के पारिभाषिक शब्द उधर अस्पष्ट हैं, यथा –
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥योग० २।१८॥
अर्थात् दृश्य (संसार) भोग और अपवर्ग के लिए है और भूतों और इन्द्रियों में बंटा है । यहां न तो भूतों की गणना की गई है, न इन्द्रियों की, न प्रकृति के सूक्ष्म विकार बुद्धि, मन, अहंकार, आदि का वर्णन है, जिस प्रकार सांख्य में विस्तार से और उत्पत्ति-सहित दिया गया है । यह भी इसीलिए है कि सृष्ट्युत्पत्ति योगदर्शन का मुख्य विषय नहीं है । तथापि सारे सूत्रों को जोड़ने के लिए उन सूत्रों का भी उल्लेख करना पड़ता है जो कि ग्रन्थ के मुख्य विषय नहीं है ।
जब हम ऐसा समझकर सांख्य के उपर्युक्त सूत्र पढ़ते हैं, तो अनायास हमें उनका योगदर्शन से साम्य दीखने लगता है । सो, कपिल ने ’ध्यान’ शब्द से योग के ’समाधि’ अर्थ का ग्रहण किया है, जिसे पतञ्जलि द्वारा ’योग’ भी कहा गया है (विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥योग० २।२६॥ प्रसङ्ख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः ॥ योग० ४।२९॥)। आगे, ’धारणा’ शब्द से उनका वही अर्थ है जो योगदर्शन में धारणा और ध्यान प्रक्रियाओं में निहित है । इस प्रकार कपिल ने भी धारणा और ध्यान समाधि के प्रारम्भिक स्तर माने हैं ।
और जो कपिल ने प्राणों की क्रिया का उल्लेख किया है, वह भी योगदर्शन में प्राप्त होती है –
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥योग० १।३४॥ अनुवृत्तिः – चित्तप्रसादनम् ॥
जबकि योग के ’प्रच्छर्दन’ और सांख्य के ’छर्दि’ पदों के अर्थों में कुछ भी भेद नहीं है, तथापि, पतञ्जलि ने यह प्रक्रिया केवल चित्त को शान्त करने के प्रकरण में लिखी है, परन्तु वस्तुतः वहां भी सन्दर्भ धारणा व ध्यान का ही है, जिसको वे आगे समाधि के वर्णन की ओर ले जाते हैं । फिर भी, आगे अष्टांगों के वर्णन में पतञ्जलि प्राणायाम का और विस्तार से वर्णन करते हैं । इससे यह समझना चाहिए कि सांख्य के सूत्र में भी छर्दि व विधारणा से अष्टांगों के प्राणायाम का ग्रहण ही है ।
सांख्य का अगला, आसन-विषयक सूत्र तो योग० २।४६ की प्रतिकृति ही है ।
अब आता है ’स्वकर्म’ । कपिल कहते हैं कि यह अपने आश्रम के लिए विहित कर्म का करना है । इसे तो पतञ्जलि ने कहीं कहा ही नहीं ! पतञ्जलि ने तो यम और नियम की बात की है, जहां यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) इन्द्रियों की वशीकरण से सम्बद्ध हैं, और नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान) दैनिक कर्तव्यों का निर्धारण करते हैं । परन्तु आश्रमविशिष्ट कर्मों के विषय में तो पतञ्जलि ने कुछ कहा ही नहीं है ! वस्तुतः, पतञ्जलि ने इनको गौण मानके, उनका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि पतञ्जलि के मत में आश्रमविशिष्ट कर्मों का करना निरर्थक है, बस अपने ग्रन्थ में उन्होंने उन कर्तव्यों को प्रसिद्ध मानकर उनको नहीं गिनाया । यही पद्धति आज भी ग्रन्थों में पाई जाती है – जीव विज्ञान में भौतिक और रासायनिक विज्ञान की जितनी आवश्यकता पड़ती है, उतनी ही संक्षेप में दे दी जाती है, उसका विस्तार से कथन नहीं होता ।
इसी प्रकार यह भी जानना चाहिए कि स्वकर्म कहते समय, कपिल ने यम-नियम-रूपी महाव्रतों की अवहेलना नहीं की है – वे तो सब आश्रमों में समान कर्तव्य हैं । पतञ्जलि ने स्पष्ट किया है –
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥योग० २।३१॥
अर्थात् यम जाति, देश, काल और समय में अटूट, सम्पूर्ण भूमि पर एक-समान लागू होने वाले महाव्रत हैं । ये सार्वजनिक, सार्वकालिक और सार्वभौम कर्तव्य हैं । जबकि नियम इस श्रेणी के महाव्रत नहीं हैं, तथापि उनका भी सभी मनुष्यों के द्वारा सर्वत्र पालन योग्य है ।
अष्टांगों में अब बचता है केवल ’प्रत्याहार’ अर्थात् इन्द्रियों को उनके विषय से दूर करना, अर्थात् इन्द्रियों को वश में करना । जबकि यह स्वतन्त्र-रूप से कपिल ने नहीं लिखा है, तथापि प्राणायाम के द्वारा उन्होंने निरोध का जो उल्लेख किया है, वह चित्तवृत्तिनिरोध से पूर्व की दशा – इन्द्रियवशीकरण – को भी समेटे हुए है ।
इस प्रकार योग के सभी अंग कपिल ने भी कह दिए । यही नहीं, आगे देखें तो कभी-कभी संशय हो जाता है कि हम कहीं योगदर्शन ही तो नहीं पढ़ रहे, जैसे –
वैराग्यादभ्यासाच्च ॥साङ्ख्य० ३।३६॥ अर्थात् वैराग्य और अभ्यास से भी चित्तवृत्तियों का निरोध होता है । यही बात योगदर्शन इस प्रकार कहता है – अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥योग० १।१२॥
कपिल ने कहा – विपर्ययभेदाः पञ्च ॥साङ्ख्य० ३।३७॥ – अज्ञान के पाँच भेद हैं । इन भेदों को प्रसिद्ध मानकर, उन्होंने इनका अलग पाठ नहीं किया । परन्तु पतञ्जलि ने विस्तार से कहा – अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ॥योग० २।३॥ – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश नामक जीव को दुःख पहुंचाने वाले पाँच क्लेश हैं । यहां भी संशय का एक कारण है । कपिल ने जिसे ’विपर्यय’ कहा है, उसे पतञ्जलि ने ’क्लेश’ अथवा ’अविद्या’ कहा है, जबकि पतञ्जलि ने ’विपर्यय’ को प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति नामक चित्तवृत्तियों के अन्तर्गत गिना है । इससे पुनः सन्देह होता है कि कपिल और पतञ्जलि में मतैक्य नहीं है । सो, इसका समाधान यह है कि कपिल ने कुछ सूत्र पहले ’विपर्यय’ से अज्ञान, अर्थात् अविद्या, का निर्देश किया है – ज्ञानान्मुक्तिः ॥ बन्धो विपर्ययात् ॥ साङ्ख्य० ३।२३, २४॥ – ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है; उसके उल्टे, अज्ञान, से जन्म-मृत्यु-रूपी बन्ध होता है । यहां ’विपर्यय’ पद के प्रयोग में इस भेद का कारण यह है कि पतञ्जलि ने इस को पारिभाषिक बनाया है, जबकि कपिल इसको सामान्य शब्द के रूप में ही ले रहे हैं । संस्कृत में ’विपर्यय’ के ’उल्टा’ अथवा ’अज्ञान’, दोनों ही अर्थ मान्य हैं । पतञ्जलि ने स्वयं कहा है – विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् … ॥योग० १।८॥ – विपर्यय मिथ्याज्ञान है । इसलिए पतञ्जलि का पारिभाषिक मिथ्याज्ञान-रूपी चित्तवृत्ति के लिए भी इस पद का चुनाव अर्थ की दृष्टि से सही है । इस प्रकार दोनों ही कपिल और पतञ्जलि अपने-अपने स्थान पर सही हैं, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे दोनों एक ही बात कह रहे हैं ! इस प्रकार, सरसरी दृष्टि से पृथक्-पृथक् दिखने वाले सूत्र, सूक्ष्मता से तुलना करने पर, समान ही हैं – यह सम्यक् ज्ञान होता है ।
प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने में हम कभी-कभी इतना तालमेल की अपेक्षा करने लगते हैं कि हम ग्रन्थ-रचना व संस्कृत के साधारण पर्याय अर्थों को विस्मृत कर देते हैं । इसी कारण से भिन्न शब्दों के प्रयोग से, अथवा भिन्न अभिव्यक्ति से, हमें यह संशय हो जाता है कि दो लेखक भिन्न-भिन्न आशय प्रस्तुत कर रहे हैं । इन विपरीत जैसे प्रतीत होने वाले वचनों से हम दोनों ही वचनों, अथवा एक वचन को सन्दिग्ध मानकर, पूरे ही ग्रन्थ में सन्देह करने लगते हैं । वास्तव में, प्रयत्न द्वारा आगे-पीछे के सूत्रों से सन्दर्भ को अच्छी प्रकार स्थापित करके, हमें अर्थ-निर्धारण करना चाहिए । संस्कृत भाषा में अब हमारी इतनी गति नहीं है, जितनी प्राचीन समय में थी, इसका भी ध्यान रखते हुए, हमें पर्यायवाची शब्दों, अथवा सम्प्रति अप्रचलित अर्थों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । तभी हम सभी ग्रन्थों के उपदेश का लाभ उठा सकेंगे ।