पातञ्जल योगदर्शन में काल का स्वरूप

पतञ्जलिमुनिकृत योगदर्शन में काल का एक स्वरूप बताया गया है । सम्भवतः, वह इतना विचित्र है कि प्रायः सभी भाष्यकारों ने उसको देखते हुए भी अनदेखा कर दिया । तथापि, इस तथ्य को योगदर्शन के उपलब्ध प्राचीनतम भाष्यकार, व्यास, ने सम्यक् समझा और उसपर और भी प्रकाश डाला । आश्चर्य की बात यह है कि वैज्ञानिकों का एक समुदाय अब इस अचिन्तनीय मान्यता की ओर झुक रहा है । आइए, इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं !

काल के स्वरूप का पहला संकेत पतञ्जलि तीसरे ‘विभूति’ नामक पाद के बीच में देते हैं –

शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी ॥ क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः ॥योगदर्शनम् ३।१४-१५॥

अर्थात् धर्मी के धर्म (गुण, विशेषताएं) शान्त (अतीत), उदित (वर्तमान) व अव्पदेश्य (भविष्य) धर्म वाले होते हैं । इन धर्मों का यदि यह क्रम बदल जाए, तो इन धर्मों का परिणाम (परिवर्तन) भी अलग हो जाता है । धर्मी घट में मिट्टी के मृदुता आदि धर्म शान्त हो जाते हैं, घट के कठोरता आदि धर्म वर्तमान होते हैं, फूट के टुकड़े हो जाना आदि धर्म भविष्य में होते हैं । यदि घट बनाने के क्रम में मिट्टी को घटाकार देने से पहले ही सेक दिया जाए, तो उसे घट में परिवर्तित नहीं किया जा सकता, अर्थात् मिट्टी का परिणाम बदल जाएगा । इससे क्या निष्कर्ष निकला? पतञ्जलि कहते हैं –

परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥योगदर्शनम् ३।१६॥

जब योगी तीनों परिणामों (३।१३ में निरूपित धर्म, लक्षण व अवस्था परिणाम) पर संयम करता है, तब उसे अतीत और भविष्य का ज्ञान हो जाता है । इससे वस्तुओं के परिणामों और काल के सम्बन्ध का बोध कराया गया है । आगे के सूत्रों में क्रमशः इस तथ्य को धीरे-धीरे और स्पष्ट किया गया है ।

जहां ऊपर पतञ्जलि ने परिणाम पर संयम करने का फलनिर्देश किया है, वहीं इसी पाद में आगे वे काल पर संयम करने को भी कहते हैं –

क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ॥योगदर्शनम् ३।५२॥

क्षण और उनके क्रम पर संयम करने से विवेक से उत्पन्न ज्ञान उभरता है । इसको और समझाते हुए पतञ्जलि कहते हैं –

जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात् तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः ॥योगदर्शनम् ३।५३॥

जब तुल्य वस्तुओं में जाति, लक्षण व देश का भेद नहीं होता है, तब उससे समय की सिद्धी होती है ।

यह बड़ा ही विचित्र कथन अपने अन्दर बहुत गम्भीरता संजोए हुए है ! यदि कोई वस्तु, जैसे एक पलंग, में जाति, लक्षण व देश का भेद नहीं आता – वह कुर्सी नहीं बन जाता, उसके आकार-प्रकार में कोई भेद नहीं आता व उसकी स्थिति एक स्थान पर ही रहती है – अर्थात् कोई भी बाहरी भेद प्रतीत नहीं होता, तब उसमें जिस भेद का हमें ज्ञान होता है, वह काल होता है । वस्तुतः, पलंग ही नहीं, हमारी बुद्धि में जो परमाणुओं का कम्पन है, वह हमें काल का अनुभव सर्वदा कराता रहता है ।

अगले सूत्र में पतञ्जलि विवेकज ज्ञान को परिभाषित करते हैं –

तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥योगदर्शनम् ३।५४॥

विवेक से उत्पन्न ज्ञान तारक होता है, सारे विषयों वाला होता है , सब प्रकार से विषय (को समझने) वाला होता है, बिना क्रम के होता है ।

यहां एक-एक विशेषण बहुत सारग्रभित है ! तारक को पतञ्जलि ने १।४९ में बताया था । यह वह ज्ञान है जो आत्मा अपने-आप ग्रहण करता है, जिसमें शरीर का सहाय नहीं होता । इसलिए वह सुने-पढ़े, चिन्तन करने वाली मेधा से नहीं प्राप्त होता, परन्तु उनसे परे विषयों का भी ग्रहण करने में समर्थ होता है । इसलिए वह सर्वविषय होता है, और सर्वथाविषय – प्रत्येक विषय को बाहर से अन्दर, अन्दर से बाहर, हर प्रकार से – ग्रहण कर लेता है । चौथा विशेषण सबसे महत्त्वपूर्ण व हमारी मान्यताओं को जड़ों तक हिला देने वाला है ! पतञ्जलि बताते हैं कि उस ज्ञान में कोई क्रम नहीं होता । जबकि इसको समझना हम साधारण मनुष्यों के लिए अवश्य ही कठिन है, तथापि हम इसे कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं कि परिणामों का क्रम योगी के सामने जैसे बिछ-सा जाता है । उसे एकसाथ सारे परिणाम दिखने लगते है, चाहे वे अतीत के हों, वर्तमान के हों, अथवा भविष्य के । आत्मा का जो काल के परे होना हम सुनते आए हैं, वह उसे प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है ।

अवश्य ही हमारे मन में भविष्य के ज्ञान होने से बहुत प्रश्न उठेंगे, जिस प्रकार परमात्मा के कालातीत होने पर हमें रहते हैं । यह विषय तर्क का नहीं है, इसे मान सकें तो मानें, नहीं तो छोड़ दें… यहां मुझे यह दिखाना है कि पतञ्जलि काल के क्रम का निराकरण कर रहे हैं । जहां ३।५३ में यह लगा कि उन्होंने काल को सिद्ध माना, वहां अगले ही सूत्र में उन्होंने फिर स्पष्ट कर दिया कि परिणामों का क्रम, जिसे हम काल के रूप में अनुभव करते हैं, वह योगी के लिए टूट जाता है । इसका अर्थ हुआ कि समय की भिन्न सत्ता नहीं है, वह अन्य प्राकृतिक विकारों व उनके परिणामों पर निर्भर है । यह समय का अनुभव हममें इतना गहरा बसा होता है कि पतञ्जलि ने इसको कैवल्य (सूत्र ३।५०) के अनन्तर बताया है, और यहीं नहीं, बल्कि ४।२९-३४ (इनमें से कुछ सूत्र हम आगे देखेंगे) पर भी इसको अविद्या का वह लेश दर्शाया है जो कि सबसे अन्त में जाता है । सो, जो हम इस तथ्य को ग्रहण न कर पाएं, तो उसमें क्या आश्चर्य है ?

योगदर्शन के अन्तिम पाद, कैवल्यपाद, में काल का स्वरूप स्पष्टतः दिया गया है –

अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद्धर्माणाम् ॥योगदर्शनम् ४।१२॥

अर्थात् धर्मों के भिन्न मार्गों = गतियों के कारण स्वरूप से अतीत और अनागत = भविष्य होते हैं । वस्तुतः, यह सूत्र ३।१४-१५ को ही भिन्न प्रकार से कह रहा है, अधिक स्पष्टता से बता रहा है ।

धर्म का अर्थ अगले सूत्र में स्पष्ट किया जाता है –

ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः ॥योगदर्शनम् ४।१३॥

अर्थात् वे धर्म व्यक्त अथवा सूक्ष्म होते हैं और गुणात्मक होते हैं ।

‘धर्म’ का अर्थ प्राचीन ग्रन्थों में पदार्थों के गुणों से होता था । सभी प्राकृतिक पदार्थों के अपने-अपने गुण होते हैं जो कि उनका अन्य पदार्थों से भेद स्थापित करते हैं । यही नहीं, ये गुण सर्वदा परिवर्तित होते रहते हैं । जो पदार्थ अभी है, वह अगले क्षण वैसा नहीं रहता । बच्चा बड़ा हो जाता है, उगता सूर्य अस्त हो जाता है, ऋतुएं परिवर्तित होती रहती हैं – इस प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु चलायमान है, परिवर्तनशील है । कुछ परिवर्तन इन्द्रियगोचर होते हैं, व्यक्त होते हैं; और कुछ अदृश्य या सूक्ष्म । सूत्रों द्वारा पतञ्जलि बता रहे हैं  कि इन धर्मों के चलन से ही अतीत और अनागत काल की अनुभूति होती है ।

इसको और स्पष्ट करते हुए, पतञ्जलि कहते हैं –

परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्त्वम् ॥ वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पन्थाः ॥योगदर्शनम् ४।१४-१५॥

अर्थात् किसी पदार्थ का एकत्व तब जाना जाता है, जब उस सम्पूर्ण में परिणाम एकसाथ होता है (जैसे एक आम एक इकाई के रूप में पकता है, भिन्न-भिन्न पदार्थों के समान नहीं, जैसे उसी पेड़ पर अन्य एक आम) । जब दो वस्तुओं में जाति, लक्षण व देश (३।५३ से) का साम्य हो, तो चित्त में भेद होने से, अतीत और अनागत रूपी मार्ग विभक्त हुए जान पड़ते हैं – वस्तु तो वही रहती है, वहीं रहती है, तथापि उसमें भेद का ज्ञान होता है । यह कथन ३।५३ सूत्र का ही पर्याय है ।

उपर्युक्त सूत्रों के कथन की सूक्ष्मताएं को देखते हैं –

  • काल का अपना कोई अस्तित्व नहीं है – उसका स्वरूप प्राकृतिक पदार्थों के धर्मों के भेद से निर्धारित होता है ।
  • अर्थापत्ति से हम समझ सकते हैं कि यदि धर्मों में भेद होना रुक जाए, तो हम काल का निर्धारण ही नहीं कर सकते ।

यह कितनी विचित्र बात है ! हम तो सुनते आए हैं कि काल आकाश से उत्पन्न हुआ है, उसकी अपनी सत्ता है, जिस प्रकार पृथिवी और आकाश की है । यहां पतञ्जलि क्या कह गए ? इस को समझने के लिए एक मानसिक व्यायाम करते हैं, एक विपरीत स्थिति का चिन्तन करते हैं ! यदि संसार के सभी परिणाम रुक जाएं तो क्या हम काल का निर्धारण न कर पाएंगे ? यदि सूर्य अपने स्थान पर ठहर गया, तो दिन-रात का क्रम समाप्त हो जाएगा और हम दिन का ग्रहण न कर पाएंगे । यदि तारों का आकाशमण्डल में विचरण बन्द पड़ जाएगा, तो रात्रि में काल हम कैसे ग्रहण करेंगे? यदि पृथिवी का सूर्य के चारों ओर भ्रमण रुक जाएगा, तो ऋतुओं का परिवर्तन भी बन्द हो जाएगा । फिर काल को हम कैसे मापेंगे ? तो आजकल तो परमाणु के कम्पन पर आधारित अति श्रेष्ठ घड़ियां होती हैं जिनमें बहुत वर्षों में एक सैकण्ड इधर-उधर होता है, हम उनसे समय को माप लेंगे । ओह, परन्तु परमाणु का कम्पन भी तो रोक दिया गया है ! और तो और, हमारे शरीर के सारे परिणाम रुक गए हैं, हमारी आंख जहां पर थी, वहीं स्थिर हो गई है, हमारी बुद्धि में कोई चेष्टा नहीं हो रही है । यदि हमारे काल्पनिक संसार में किसी प्रकार से इन्द्रियों और बुद्धि से ग्रहण कर भी पाएं, तब भी क्या अन्यत्र सब चेष्टा रूक जाने पर काल का कोई अभिप्राय है ? चिन्तन करने पर ज्ञात होगा कि ऐसे में काल भी ‘रुक’ जाएगा । इस मानसिक प्रयोग से जान पड़ता है कि पतञ्जलि का वाक्य कितना सारग्रभित है ! वास्तव में, बिना वस्तुओं में परिवर्तन के हम काल का ग्रहण ही नहीं कर सकते, क्योंकि काल उन परिवर्तनों का ही माप है, उन परिवर्तनों के क्रम से जो हमें प्रतीति होती है, उसे ही हम काल कहते हैं । फिर विभिन्न वस्तुओं के पुनरावर्तित परिवर्तनों से हम काल के विभिन्न खण्डों को विभाजित करते हैं, जैसे – दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष, क्षण, मुहूर्त, आदि, आदि ।

वेद में भी काल के इस स्वरूप का संकेत पाया जाता है –

येनेदं  भूतं  भुवनं  भविष्यत्  परिगृहीतममृतेन  सर्वम् ।

येन  यज्ञस्तायते  सप्तहोता  तन्मे  मनः  शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ यजुर्वेदः ३४।४ ॥

अर्थात् अमृत मन (चित्त) से भूत, वर्तमान व भविष्य को सब ओर से ग्रहण किया जाता है । यहां वेद कह रहा है कि भूत, वर्तमान व भविष्य में एकता नहीं है, परन्तु चित्त इनको जैसे एकसाथ सीकर समय के आकार में ग्रहण करवाता है ।

कुछ आधुनिक वैज्ञानिक भी कुछ इसी प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि काल जैसा कोई भिन्न तथ्य नहीं है और हमारे चित्त में ही यह प्रतीति बसती है ।

आगे, योगी के कृतार्थ होने की अवस्था वर्णित करते हुए, पतञ्जलि कहते हैं –

क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः ॥योगदर्शनम् ४।३३॥

अर्थात् (घटना-)क्रम उसको कहते हैं, जो क्षण पर आधारित होता है और परिणाम के दूसरे छोर से ग्रहण किया जाता है ।

इसका तात्पर्य यह है कि काल में जो हम क्रम देखते हैं, प्रत्युत जिसे हम काल के रूप में जानते हैं, वह परिणामों का तारतम्य होता है । जिस किसी बदलाव को हम परिणाम मानें, उस के अन्त होने पर, दूसरा परिणाम प्रारम्भ हो जाएगा, और यह क्रम काल का द्योतक होगा । इसी सूत्र के तथ्य को व्यास ने ३।५२ की व्याख्या में अत्यन्त सूक्ष्मता से समझाया है । वे कहते हैं कि जैसे काल को काटते जाने पर, परमाणु प्राप्त होता है, जिसको आगे नहीं काटा जा सकता, उसी प्रकार काल को काटते जाने पर क्षण प्राप्त होता है, जो कि वह ‘काल’ होता है जिसमें कि एक परमाणु एक स्थान को छोड़, बगल वाले स्थान में पहुंचता है, अर्थात् परमाणु की एक कम्पन का आधा भाग । अन्तरिक्ष में परमाणु के स्थान का यह परिणाम काल को निर्धारित करता है । वस्तुतः, व्यास यह भी कह रहे हैं कि काल का भी परमाणु होता है और वह परमाणु है ‘क्षण’ । इससे छोटे कालखण्ड को नहीं मापा जा सकता । सो, नक्षत्रों के चलन से वर्ष को, सूर्य के चलन से दिन-रात को, घड़ी के विभिन्न प्रकारों से घण्टे, आदि, को मापते-मापते, हम प्रकृति के सबसे छोटे परिणाम पर पहुंच गए – परमाणु का कम्पन ! आज इसी कम्पन से मानक घड़ी बनाई गई है, जिससे संसार-भर की घड़ियां मिलाई जाती हैं ! क्या ही अच्छा हो कि कोई भारतीय वैज्ञानिक व्यास-वर्णित काल की इस अणुता (quantum-ness) को सिद्ध कर दिखाए !

अन्त में हम योगी की परम स्थिति को भी कुछ-कुछ समझने का प्रयास कर सकते हैं –

ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम् ॥योगदर्शनम् ४।३२॥

जब आत्मा के ज्ञान को आवृत्त करने वाला मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, तब आत्मा कृतार्थ हो जाता है – जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त कर लेता है । फिर, उसके शरीर, और विशेषकर बुद्धि आदि सूक्ष्म शरीर, के प्राकृतिक गुणों में परिवर्तन का क्रम समाप्त हो जाता है ।

सांख्ययदर्शन में भी इस स्थिति का वर्णन प्राप्त होता है –

नर्तकीवत् प्रवृत्तस्यापि निवृत्तिश्चारितार्थ्यात् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ३।६९॥

अर्थात् अन्य भोगरत आत्माओं के लिए प्रवृत्त रहते हुए भी, प्रकृति कृतार्थ आत्मा के लिए अपना प्रयोजन पूर्ण कर लेने के कारण, परिणामों से निवृत्त हो जाती है ।

क्या स्थिति होगी वह जहां जीवात्मा के शरीर में परिवर्तन ही बन्द हो जाते हों !

वेद, योगदर्शन, आदि, में प्रतिपादित काल का स्वरूप बहुत ही विस्मित करने वाला है । इसीलिए अधिकतर भाष्यकार इस तथ्य को पूर्णतया समझ नहीं पाए हैं । पुनः, हम पाते हैं कि यौगिक शक्तियों से जो ज्ञान होता है, वह मनुष्य के सीमित चित्त से सरलता से ग्रहण नहीं होता । तथापि, योग की पराकाष्ठा तक न पहुंच पाने पर भी, हमें इन तथ्यों को समझने का प्रयास करते रहना चाहिए !