योगदर्शन में सृष्टि पर चिन्तन

वैसे तो प्रकृति की संरचना और तत्त्वों के गुण-कर्म आदि का विवेचन सांख्य और वैशेषिक की विषयवस्तु है, परन्तु योगदर्शन में पतञ्जलि ने जो इस विषय पर कहा है, जिस प्रकार से कहा है, वह इस विषय का एक और आयाम खोल देता है । इसपर व्यास का भाष्य भी अति ध्यान देने योग्य है । उसके एक अंश की हम इस लेख में चर्चा करेंगे और, सदा के समान, मेरा अपना कुछ चिन्तन इसमें जुड़ा है ।

द्रष्टा जीवात्मा और प्राकृतिक दृश्य के संयोग से जीवात्मा का बन्धन और उससे सम्बद्ध दुःख उत्पन्न होते हैं, यह बताने के उपरान्त, पतञ्जलि इन दोनों के स्वरूप का किञ्चित् विवरण देते हैं । प्रकृति के विषय में वे कहते हैं –

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥योगदर्शनम् २।१८॥

अर्थात् ब्रह्माण्डरूपी जो दृश्य है, वह जीवात्मा के भोग और अपवर्ग के प्रयोजन से है । यह दृश्य भूतों और इन्द्रियों का बना है, और ये स्वयं प्रकाशात्मक, क्रियात्मक व स्थित्यात्मक हैं ।

जैसा कि अनायास ही देखा जा सकता है, पतञ्जलि ने बहुत विषय इस छोटे से सूत्र में गूंथ दिए है । यह सरल प्रतीत होने वाला वाक्य अपने अन्दर बहुत गहनता लिए हुए है ! प्रथम बीच का पद देखें तो महर्षि ने प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि को दो तत्त्वों से बना हुआ बताया है: भूत और इन्द्रिय । यह बहुत विचित्र विभाजन है ! सांख्य में प्राकृतिक परिणामों का विवरण देते हुए महर्षि कपिल ने कहीं भी इस प्रकार से दो गणों में उनको नहीं डाला । यदि सांख्य के बताए परिणामों को देखें तो वे इस प्रकार हैं –

सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं, तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि, पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥१।२६॥

अध्याहारः – सृष्टः

अर्थात् प्रकृति/प्रधान/अलिङ्ग से महत्/बुद्धि/लिङ्गमात्र से अहङ्कार/अस्मितामात्र से पञ्च तन्मात्र/सूक्ष्मभूत, मन और दश इन्द्रियां (५ ज्ञानेन्द्रियां, ५ कर्मेन्द्रियां), फिर तन्मात्राओं से पञ्च स्थूलभूत उत्पन्न हुए । यह क्रम मैंने चित्र १ में चित्रित किया है । इस चित्र में यदि हम पतञ्जलि के सूत्र को बैठाएं, तो पाएंगे कि बाएं हाथ में जो ५ तन्मात्र व ५ महाभूत हैं, उनके लिए उन्होंने ‘भूत’ शब्द का प्रयोग किया है; शेष सभी को उन्होंने ‘इन्द्रिय’ में पढ़ा है । ये हैं – बुद्धि, अहंकार, मन, ५ ज्ञानेन्द्रियां व ५ कर्मेन्द्रियां । इनके लिए ‘इन्द्रिय’ शब्द के प्रयोग में कोई आपत्ति नहीं है । महर्षि कपिल की भी कुछ ऐसी मान्यता थी, यह अलग-अलग स्थानों पर पढ़े कुछ सूत्रों को एकसाथ पढ़ने से ज्ञात होता है । जैसे, मन को जहां उन्होंने उभयात्मक इन्द्रिय बतलाया है, वहीं ज्ञानेन्द्रियों को ‘बुद्धीन्द्रिय’ संज्ञा दी है[1], आदि । चित्र द्वारा हम पतञ्जलि के इस सरल विभाजन को सम्यक् समझ सकते हैं और उसकी सुन्दरता पहचान सकते हैं ।

अब देखते हैं पद ‘भोगापवर्गार्थम्’ । इसके द्वारा पतञ्जलि स्थापित करते हैं कि यह ‘दृश्य’ जीवात्मा के भोग के लिए तो है ही, परन्तु अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के लिए भी है । यह सिद्धान्त प्रायः सभी दर्शनों में पाया जाता है, कि यदि जीवात्मा जन्म न ले, तो उसको मोक्ष-प्राप्ति भी न हो सके । शरीर की व्यावस्थानुसार यह सही भी जान पड़ता है क्योंकि शरीर द्वारा ही हम मोक्ष के लिए भी प्रयत्न करते हैं ।

अब हम सबसे रोचक अंश को देखते हैं – ‘प्रकाशक्रियास्थितिशीलम्’ । व्यास अपने भाष्य में बताते हैं कि ये तीन गुण क्रमशः सत्, रज व तम के हैं, अर्थात् सत् प्रकाशात्मक है, रज क्रियात्मक है व तम स्थित्यात्मक है । जीव के सन्दर्भ में हम इसको मनुस्मृति, भगवद्गीता, आदि, ग्रन्थों से भली प्रकार समझते हैं : जिन जीवों में सत् की मात्रा अधिक होती है, उनको ज्ञान का प्रकाश प्रिय होता है; जो रजोगुण-धनी होते हैं, उन्हें सांसारिक क्रियाएं रास आती हैं; जो तमोगुण से ग्रस्त होते हैं, वे आलस्य, प्रमाद, कामवासना व क्रूरता में रमते हैं । यहां ये गुण जीव की बुद्धि व मन से सम्बन्धित होते हैं, क्योंकि प्रकृति के ये ही अंश जीव की प्रवृत्ति को निर्धारित करते हैं; शेष इन्द्रियां व अहंकार तो एक ही प्रकार से अपना कार्य कर सकते हैं ।

तब प्रश्न उठता है कि अन्य भूतों में इन गुणों को कैसे समझें । सांख्यदर्शन ने बताया था कि भूतों के गुण इस प्रकार हैं –

प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम् ॥सांख्यदर्शनम् १।९२॥

अर्थात् सद्गुणबाहुल्य भूतों में प्रीति, रजोगुणियों में अप्रीति व तमोगुण वालों में विषाद प्राप्त होता है । इसका हमने अर्थ समझा : परमाणुओं व पदार्थों में जो आकर्षणशक्ति होती है, वह सद्गुण से होती है; जो उनमें अपकर्षणशक्ति होती है, वह रजोगुण से; और जो स्थिति में बने रहने की चेष्टा होती है (inertia), वह तमोगुण से प्रभावित होती है । तुरन्त ही हम अन्तिम वाक्य में ‘स्थिति’ पद की योगदर्शन के वाक्य से समता देखते हैं ! अब योगदर्शन के वचन को इसी प्रकार कैसे समझा जाए? सांख्य वचन के अनुसार तमोगुण का सम्बन्ध तो कुछ बनता लग रहा है, परन्तु प्रकाश व आकर्षण और क्रिया व अपकर्षण में तो कोई सम्बन्ध उभरता नहीं दीखता !

तो इसको अब हमें नए सिरे से सोचना पड़ेगा । सो, सरलतम तामसिक गुण को ही पहले लें और उसे आधुनिक विज्ञान से मिलाएं तो, एक प्रकार की ऊर्जा (energy) होती है, जो कि स्थिति के अनुसार होती है । जैसे – पानी को यदि हम पम्प करके ऊपर के स्तर पर ले जाएं, तो उसकी उस उच्च स्थिति में एक ऊर्जा होती है जिसको पोटैन्शियल ऐनर्जी (potential energy) कहा जाता है । इसके कारण वह जल अब नीचे अपने आप गिर सकता है, जो कि वह पहले नहीं कर सकता था । प्रत्युत, गिरते हुए वह बिजली का भी उत्पादन कर सकता है । यह पम्प के द्वारा दी गई ऊर्जा के कारण है, जो कि स्थिर जल में बस जाती है । इस प्रकार की ऊर्जा के अनेक उदाहरण हैं, जैसे कि लिपटी/दबी हुई स्प्रिंग, खींचा हुआ रब्बरबैंड, खींच के पकड़ी हुई पेड़ की टहनी, आदि, आदि । इन सब में ही जब वस्तु को छोड़ा जाता है, तब वह अपने अन्दर समाई हुई ऊर्जा को किसी प्रकार से छोड़ता है – पानी नीचे गिरता है, स्प्रिंग खुलती है, रब्बरबैंड उछल कर वापस अपने आकार में आता है, टहनी भी इसी प्रकार । प्रत्युत, ऐटम बौम्ब से निकली ऊर्जा, और अन्य प्रकार की परमाणु ऊर्जा इस ‘तामसिक’ छिपी ऊर्जा से ही उत्पन्न होती है ।

यदि हमारा उपरोक्त विचार सही है, तो अन्य दो प्रकार में भी हमें ऊर्जा के प्रकार मिलने चाहिए । यदि राजसिक ‘क्रिया’ को देखें, तो यह भी बहुत ही सरल है । गति के कारण उत्पन्न ऊर्जा को सभी जानते हैं । गति देने में जो ऊर्जा वस्तु को दी जाती है, उसका वस्तु प्रयोग करने में सक्षम हो जाती है । यथा – दौड़ती हुई रेलगाड़ी के सामने कोई ट्रक आ जाए तो वह ट्रक को भी दूर तक घसीट कर ले जाएगी । इसी प्रकार – हथौड़े से कील को मारना, कुल्हाड़ी से लकड़ी काटना, आदि, को जानें । यदि इन रेल, हथौड़े या कुल्हाड़ी में गति नहीं होगी, तो वे धक्का मारने, काटने, आदि, का काम नहीं कर सकते । इस ऊर्जा को काइनैटिक ऐनर्जी (kinetic energy) कहा जाता है ।

अब देखते हैं सात्त्विक प्रकाश को । सो, प्रकाश भी एक प्रकार की ऊर्जा है, यह अब विज्ञान ने स्पष्ट कर दिया है । प्रकाश इलैक्ट्रोमैग्नैटिक रेडियेशन (electromagnetic radiation) होता है, जो कि अपनी ऊर्जा से अनेक कार्य कर सकता है, जैसे – धूप में रखी वस्तु गर्म हो जाती है, सोलर पावर से तो आज कौन नहीं परिचित है, आदि, आदि । परन्तु यहां केवल आंखों से दिखने वाले प्रकाश का ग्रहण नहीं करना चाहिए, अपितु सब प्रकार के रेडियेशन – माइक्रोवेव, अल्ट्रावाइलैट, आदि – में यह ऊर्जा पाई जाती है । यही नहीं, इस विभाग में हमें अन्य सभी प्रकार की ऊर्जाओं का ग्रहण करना चाहिए – कैमिकल (chemical) जिससे अग्नि उत्पन्न होकर परमाणुओं का हेर-फेर करती है, आदि; विद्युत् जिससे अनेक प्रकार के कार्य करवाए जा सकते हैं; ऊष्मा जिससे विद्युत् आदि उत्पन्न की जा सकती हैं, मशीनें चलाईं जा सकती हैं, आदि । हम पाते हैं कि इन सबको बिना कारण ही इस विभाग में नहीं डाला जा रहा है । पहले तो ये सभी विभाग एक दूसरे में अदलते-बदलते हैं – प्रकाश से विद्युत्, विद्युत् से प्रकाश, ऊष्मा से विद्युत्, विद्युत् से ऊष्मा, आदि । तथापि यह भी मानना पड़ेगा कि इस प्रकार की ऊर्जा से अन्य दो प्रकार की भी ऊर्जा से यह सम्बन्ध है – गिरते जल से विद्युत् उत्पादन आदि, तथापि यहां विशेष यह है कि यह ऊर्जा कहीं न कहीं प्रकाश से सम्बद्ध होती है – प्रकाश में तो प्रकाश है ही, परन्तु अग्नि भी प्रकाश दे सकती है, विद्युत् भी प्रकाश दे सकती है, गर्मी भी प्रकाश दे सकती है । यह सम्बन्ध अन्य दो ऊर्जाओं में नहीं है ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि यदि हम सत्, रज, तम के योगदर्शन-प्रोक्त गुणों को ऊर्जा के प्रकारों के रूप में समझें, तो वह पूरी तरह सही बैठ जाता है । तथापि यदि हमारे मन में पुनः यह प्रश्न उठे कि सत्, रज और तम तो तत्त्व हैं, ऊर्जा तो उस प्रकार का ठोस तत्त्व है नहीं, तो हमें आइन्स्टाइन के समीकरण e=mc2 को याद कर लेना चाहिए, जो बताता है कि ऊर्जा और ठोस तत्त्व एक-दूसरे के रूपान्तर हैं । वस्तुतः, आइन्स्टाइन की यह खोज विज्ञान को हिला देने वाली इसीलिए साबित हुई क्योंकि उसने दो दिखने में भिन्न पदार्थों, जिनके गुण व कर्म भी एक-दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं, को एक ही तत्त्व के दो रूप सिद्ध किया । भारत के पतञ्जलि आदि मुनियों को तो यह तथ्य प्राचीन काल से ज्ञात था, बस हम ही सदियों की मार में कहीं इसको भूल गए !

पतञ्जलि और कपिल ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थों, योगदर्शन व सांख्यदर्शन, में सृष्टि की रचना का वर्णन किया है । जहां इस वर्णन में एक ओर साम्य है, वहीं दूसरी ओर दोनों ने कुछ अंशों में पृथक् रूप से इनको दर्शाया है । दोनों वर्णनों में वैज्ञानिक रहस्य छिपे हुए हैं, जिनको समझना बहुत आवश्यक है । ऊपर हमने ऐसे ही एक भेद का विषदीकरण किया है ।


[1] कर्मेन्द्रियबुद्धीन्द्रियैरान्तरमेकादशकम् ॥सांख्यदर्शनम् २।१९॥