योगदर्शन में कर्माशय और भोग

इस लेख में योगदर्शन-वर्णित कर्माशय और उनसे उत्पन्न फलों के विषय में चर्चा करेंगे । 

पतञ्जलि मुनि कर्माशयों के विषय में लिखते हैं – 

क्लेशमूलः  कर्माशयो  दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ २।१२ ॥

जिन कर्मों के मूल में क्लेश हैं, अर्थात् क्लेश से प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं, वे कर्माशय उत्पन्न करते हैं । ये कर्मों और फलों के बीच की स्थिति होती है, जिसे शास्त्रों में कभी-कभी ’अदृष्ट’ भी कहा गया है । उसको हम इस जन्म (दृष्ट) और अगले कितने ही जन्मों (अदृष्ट) में भोगते हैं । वास्तव में, ये कर्माशय ही पुण्य या अपुण्य/पाप रूपी होते हैं, जिसको हम लौकिक भाषा में कहते हैं – “उसने बहुत पुण्य कमाया” या “उसकी पाप की गठरी भर गई” ।

आगे के दो सूत्र भी इस विषय पर प्रकाश डालते हैं –

सति मूले  तद्विपाको  जात्यायुर्भोगाः ॥२।१३॥

अर्थात् मूल के रहते, कर्माशय के विपाक होते हैं – जाति (योनि जिसमें प्राणी उत्पन्न हो), आयु (जीवन की दीर्घता) और भोग । 

यहां अर्थापत्ति से यह भी समझना चाहिए कि जब क्लेश के कारण कर्म नहीं किया जाता, तो उसका फल नहीं होता ।

ते  ह्लादपरितापफलाः  पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥२।१४॥

वे विपाक फलरूप में आनन्दित करते हैं या दुःख देते हैं, पुण्य या अपुण्य के हेतु से । यदि हमारा कर्म धार्मिक था, तो हम सुख अनुभव करते हैं; और यदि पापयुक्त, तो दुःख ।

अर्थात् विपाक स्वयं फल नहीं होते, वे फल देने वाले होते हैं, और फल होते हैं सुख या दुःख । इसीलिए हम पाते हैं कि कई जन गरीब होते हुए भी प्रसन्नचित्त रहते हैं, और कई लोग धनाड्य होते हुए भी चिन्तित रहते हैं; कई लोग छोटी आयु में भी बड़े काम कर जाते हैं, और कई लोग लम्बी आयु प्राप्त करके उसे कोसते रहते हैं; कई लोग मनुष्य होते हुए देवता जैसा व्यवहार करते हैं, और कई जानवर से भी नीच होते हैं । सो, केवल मनुष्य योनि, लम्बी आयु और धन ही अच्छे नहीं होते, हम अपने जीवन को कहां से कहां ले जाते हैं, वही महत्त्वपूर्ण है ।

अब तीनों सूत्रों को एक-साथ देखते हैं । 

पहले तो यह समझ लेते हैं कि कर्मों के आशय तब ही बनते हैं जब वे क्लेशों से प्रेरित होकर किए जाते हैं । पिछले मासों के लेखों में हमने देखा कि क्लेशों में मुख्य क्लेश अस्मिता है जिसके कारण हम अपने शरीर को अपना स्वरूप समझने लगते हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि हम शरीर की इच्छा-अनिच्छा (= राग-द्वेष) को पूरा करने में जीवन व्यतीत करने लगते हैं । इससे हमारे सारे कर्म सकाम (= कामना सहित) हो जाते हैं । फिर कर्म द्वारा वह कामना पूर्ण होगी कि नहीं, यह परमेश्वर के हाथ में चला जाता है । वह कर्म करने में हमारी भावना, हमारे प्रयत्न, हमारे पूर्व के पाप और पुण्य – सब देखकर उन सबका एक मिला-जुला विपाक देता है – जाति, आयु या भोग के रूप में । जब तक फल नहीं मिलता, तब तक कर्म का अवशेष कर्माशय के रूप में ही स्थित रहेगा ।

यहां स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि जब कर्म क्लेश से प्रेरित नहीं होता, तब क्या होता है ? पिछले मास हमने देखा कि, योगी न होने पर भी, हमारे भी कुछ कर्म क्लेशमूल नहीं होते, जैसे प्रमाण । सो, जब हम किसी चिड़िया को देखते हैं, उसे पहचानते हैं कि यह गौरेया है, तब इस कर्म का कोई विपाक नहीं होता । यह निष्काम कर्म है । परन्तु जब पहचान के बाद हम गौरेया से राग के कारण उसे पकड़ने जाते हैं, या उससे द्वेष के कारण, उस भगाते हैं, तो इस कर्म का कर्माशय होता है । वस्तुतः, प्रमाण से ज्ञान उत्पन्न होता है । वह ज्ञान राग-द्वेष से मिश्रित नहीं होता । यह मिश्रण स्मृति के द्वारा होता है । इसलिए योगदर्शन कहता है – 

स्मृतिपरिशुद्धौ  स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा  निर्वितर्का ॥१।४३॥ अनुवृत्तिः – समापत्तिः ॥

अर्थात् स्मृति के परिशुद्ध होने पर, जैसे अर्थ के ग्रहण में चित्त का स्वरूप शून्य सा हो जाता है, और अर्थमात्र ग्रहण होता है । वह चित्त की दशा निर्वितर्का समापत्ति कहलाती है ।

यहां स्मृति के परिशुद्ध होने के यही अर्थ हैं कि हम अर्थ के ज्ञान में अपने अनुभव न जोड़ें, केवल अर्थ को अर्थ रूप में देखें ।

सो, यथार्थ का ज्ञान अपने में अक्लिष्ट है और वह फल नहीं देता । जब हम वेद को पढ़ने का कर्म करते हैं, तो वह कर्म होते हुए भी, विपाक से रहित है । यहां हम यह कह सकते हैं कि हम वेद को जानने की इच्छा से, उसमें निहित ज्ञान को जानने की इच्छा से, उसे पढ़ते हैं । तो यह भी सकाम कर्म हुआ । सो, इसका भी फल अवश्य होना चाहिए । इसका उत्तर यह है कि परमात्मा की कामना और ज्ञान की कामना फल देने वाली कामना नहीं होती । अन्य सभी कामनाएं सांसारिक होती है, और उनका फल अवश्यम्भावी है । 

कभी-कभी यह माना जाता है कि परोपकार निष्काम कर्म है । लेकिन इस कर्म में पुण्य कमाने की, अथवा किसी अन्य के शरीर की तृप्ति की कामना निहित होती है । यह फल देती है । परन्तु, जो गुरु शिष्य को विद्या देने की इच्छा से उसको पढ़ाता है, उसका फल नहीं होता । इसलिए सन्यासियों का भी कर्तव्य बताया गया है कि वे ज्ञान-वितरण करते रहे ।

संक्षेप में कहें, तो जो कुछ भी यथार्थ-ज्ञान से सम्बद्ध हो, या फिर परमात्मा से सम्बद्ध हो, वह विपाकशून्य होता है । अन्य सभी कर्म कर्माशय उत्पन्न करते हैं ।

अब जाति, आयु और भोग पर दृष्टि डालते हैं । यहां यह समझना आवश्यक है कि जाति और आयु अपने में सुख वा दुःख नहीं देते । वे तो केवल भोगों का निर्धारण करते हैं । जैसे – केचुएं के जीवन में केवल मिट्टी खाना लिखा है । सो, इस योनि में उत्पन्न होने पर, आत्मा केवल इतना ही भोग प्राप्त कर सकता है । इसीलिए मनुष्य-योनि इतनी विशिष्ट है – उसमें जैसे भोगों की कोई सीमा ही नहीं है !

आयु भी भोगों को निर्धारित करती है । हम कितने दिनों तक भोगों को भोगेंगे, यह हमारी आयु पर निर्भर है । पतंगे, जो दो दिन में मर जाते हैं, वे अपने ह्रस्व जीवनकाल में उतना ही भोग सकते हैं । कछुए, जो दो सौ वर्ष जीते हैं, वे बहुत दिनों तक अपने भोग भोगते हैं । अपने जीवन में तो हम आयु का प्रभाव समझते ही हैं – प्रायः कोई भी युवावस्था में क्या, कभी भी मरना नहीं चाहता !

भोग सुखदायक होंगे कि दुःखदायक, यह कर्म के पुण्याशय अथवा पापाशय से निर्धारित होता है । अन्ततः, सुख भी राग उत्पन्न करता है, जिससे हममें सांसारिक भोगों की प्रवृत्ति बनी रहती है । इसलिए विद्वान् मनुष्य इन सुखों को भी दुःख ही मानता है – … दुःखमेव  सर्वं  विवेकिनः ॥योग० २।१५॥  इसलिए, क्लेशों से मुक्त होने के लिए, हर प्रकार के सुख और दुःख को त्याग कर संन्यास लेना पड़ता है । जैसा, कठोपनिषद् कहता है – परमात्मा को जाने वाला मार्ग, संसार को जाने वाले मार्ग से उल्टी दिशा में जाता है – 

दूरमेते  विपरीते  विषूची

         अविद्या  या  च  विद्येति  ज्ञाता ।

विद्याभीप्सिनं  नचिकेतसं  मन्ये

         न  त्वा  कामा  बहवोऽलोलुपन्त ॥कठ० १।२।४॥

यहां यम नचिकेता के सब प्रलोभनों के ठुकराने पर प्रसन्न होते हुए कहते हैं – अविद्या और विद्या जिन्हें जाना गया है, वे एक-दूसरे से बहुत दूर और विपरीत हैं, व भिन्न-भिन्न गतियां देती हैं । हे नचिकेता ! मैं तुझे विद्या का चाहने वाला मानता हूं क्योंकि अनेकों काम जो मैंने तुझको दिखाए, वे तेरे को प्रलोभित नहीं कर पाए ।

यहां वर्णित विद्या और विद्या बिल्कुल वही हैं, जो योगदर्शन में (देखिए दयानन्द सन्देश, सितम्बर, २०१६) और यजुर्वेद के प्रसिद्ध मन्त्र में भी (अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥यजु० ४०।१४॥) लक्षित हैं । और यमराज वही मार्ग बता रहे हैं कि जब तक सांसारिक सुखों की कामना करते रहोगे, तब तक शरीर में बन्धे रहोगे । इस बन्धन से छूटने का तो एक ही मार्ग है – परमात्मा की शरणागति !

इन अर्थों को सम्यक् समझने के लिए एक और सूत्र देखिए – 

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः  पुरुषविशेष  ईश्वरः ॥१।२४॥

अर्थात् क्लेशों से प्रेरित कर्मों के विपाक के आशयों से अछूता, पुरुषों (= आत्माओं) में विशेष ईश्वर होता है । यहां पतञ्जलि हमें बताते हैं कि परमात्मा कर्म तो करते हैं, परन्तु क्लेशों से रहित होकर । परमात्मा क्लेशों से मुक्त हैं, वह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि वे किसी वस्तु को अपना शरीर नहीं मानते, केवल सत्य जानते हैं । परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि, परमात्मा के समान, मनुष्य भी क्लेशों से मुक्त होकर कर्म तो करता रहेगा, परन्तु तब उसके फल उसको नहीं सताएंगे ।  यह ऐसे समझना चाहिए कि जब हम अपने सूक्ष्म यथार्थ स्वरूप को जान जायेंगे, तब हम जान पायेंगे कि ज्ञान ही हमारा गुण है, कर्म तो शरीर का गुण है । और जो हम ख्याति, सत्ता, आदि के लिए अविरत कार्यों में लगे रहते हैं, वास्तव में, वे हमारी आत्मा के लिए निरर्थक हैं । हां, जब तक हम सांसारिक हैं, तब तक इन सब बातों का विशेष महत्त्व है, और धर्म से हमें पुण्य कमाना और अधर्म से बचना ही है । परन्तु, हमारी शुद्ध आत्मा तो प्रभु के दर्शन से ही तृप्त होती है !

इस वर्णन से, हम अक्लिष्ट वृत्तियों वाले योगी की वृत्तियों की थोड़ी कल्पना-मात्र कर सकते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष तो हमने ऐसा कोई व्यक्ति जाना नहीं ! जिस योगी को अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो गया होगा, वह अपने शरीर को कैसे देखता होगा ? मुझे लगता है जैसे हम एक यान को देखते हैं, वैसे । जब हम कार में बैठते हैं, तब हम यह भली प्रकार जानते हैं कि यह एक निर्जीव वस्तु है, परन्तु यह भी जानते हैं कि इसमें मोटर, पैट्रोल, आदि, सभी वो सुविधाएं उपलब्ध हैं जिससे यह हमारे गन्तव्य तक ले जा सकती है । वैसे, तो प्रबुद्ध योगी अपने गन्तव्य पर पहुंच ही गया होता है, तथापि उसे अपना ज्ञान बांटना शेष होता है । उसके लिए उसे प्रवचन देने वाले मुख की, ग्रन्थ लिखने वाले हाथ की, अपने अनुयायियों की दुविधा देखने वाली आंखों की निस्सन्देह ही आवश्यकता होती है । उसकी विपर्यय और विकल्प वृत्तियां तो समाप्त हो गई होती हैं, परन्तु निद्रा शेष रहती है, जिस प्रकार भूख-प्यास भी – कम मात्रा में ही सही – उसके साथ जीवनपर्यन्त बनी रहती हैं । स्मृति में राग-द्वेष के संस्कार निवृत्त हो गए हैं । अब वह केवल उसको पहचान कराती है – यह तुम्हारा आसन है, यह तुम्हारी कौपीन है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाण उसको संसार से जोड़े रखते हैं । परन्तु सर्वदा सर्वत्र उसको परमात्मा का आभास होता है, और अपनी सत्ता का अनुभव होता है । कैसा विलक्षण जीवन होगा वह ! कैसी विलक्षण आत्माएं होंगी वे !

इस चर्चा से हम समझ सकते हैं कि आत्मा के दो कर्मक्षेत्र होते हैं – एक अभ्युदय अर्थात् सांसारिक उन्नति (या अवनति!) का मार्ग, और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग । एक अविद्या पर आश्रित है, दूसरा विद्या पर । यह अविद्या इतनी जोर से हमसे लिपटी है कि, जब इसके चंगुल से छुड़ाने में हम सफल हो जाते हैं, तब परमात्मा इतने लम्बे समय तक हमें दुःखों से मुक्त कर देता है कि इस अवधि को अधिकतर शास्त्र अनन्त ही कह देते हैं ! इसलिए इस शरीर के बन्धन से मुक्ति के लिए आज से ही हमें प्रयासरत हो जाना चाहिए ।