योगदर्शन में क्लेशों की दशाएं

पतञ्जलिमुनिकृत योगदर्शन में क्लेशों को जन्म-बन्धन का हेतु बताया गया है । इस लेख में मैं इन क्लेशों के एक और आयाम को प्रस्तुत कर रही हूं । इस विषय में भाष्यार्थ में थोड़ा सन्देह उत्पन्न होता है । उसका समाधान देने का भी मैंने प्रयत्न किया है । 

तद्विषयक सूत्र है – 

अविद्या  क्षेत्रमुत्तरेषां  प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ १।४ ॥

अर्थात् पाँच क्लेशों की चार अवस्थाएं होती हैं – प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार ।

व्यास मुनि ने इनको इस प्रकार समझाया है – 

  • प्रसुप्त – जब क्लेश कार्यान्वित नहीं होता और चित्त में शक्तिमात्र रूप में स्थित होता है, और विषय के (तीव्रतया) सम्मुख आने पर उजागर हो जाता है । यह स्थिति विवेकख्याति के उपरान्त होने वाली दशा से भिन्न है, क्योंकि विवेकख्याति में क्लेश दग्धबीज हो जाते हैं, और कितनी भी तीव्रता से विषय उपस्थित हो, वे क्लेश जागृत नहीं हो सकते । इस प्रकार व्यास प्रसुप्त क्लेश वाले और विवेकख्याति-प्राप्त पुरुष में भेद करते हैं ।
  • तनु – जो क्लेश अपने को बढ़ाने वाले विचारों से विपरीत विचारों से उपहत होकर क्षीण हो जाते हैं । अर्थात् ये प्रसुप्त की तरह सोए हुए तो नहीं होते, परन्तु इनके द्वारा पुरुष (=जीवात्मा) में बहुत कम राग-द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं ।
  • विच्छिन्न – जो क्लेश बीच-बीच में उठते हैं । यथा – राग के समय क्रोध नहीं होता । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि क्रोध छूट गया । या चैत्र जो एक स्त्री में रक्त हो, तो उस समय के लिए अन्य स्त्रियों में रक्त नहीं है, परन्तु अनन्तर हो सकता है (यह व्यास का ही उदाहरण है, मेरा नहीं !) । इस प्रकार दूसरी स्त्री के प्रति इस समय उसका राग विच्छिन्न है जबकि इस स्त्री के प्रति उसका राग ’लब्धवृत्ति’ अर्थात् ’उदार’, जैसा कि आगे व्यास बताते हैं ।
  • उदार – जो क्लेश विषय में लब्धवृत्ति हो, अर्थात् इस समय प्रवृत्त हो । इसके आगे वे और नहीं समझाते । 

इसका अर्थ हुआ कि प्रसुप्त और तनु दशाएं तो क्लेशों की स्थायी दशाएं हैं और विच्छिन्न व उदार क्षणिक दशाएं, क्योंकि विच्छिन्न क्लेश अभी दबा है, परन्तु अगले ही क्षण उदार हो सकता है, और उदार विच्छिन्न । यह अस्थायित्व तो सही प्रतीत नहीं होता ! और जो विच्छिन्न दशा में इस समय उदार नहीं है, तो वह किस दशा में है? – प्रसुप्त अथवा तनु? और यदि वह इनमें से एक दशा में है, तो ये दशाएं भी क्षणिक हो गईं । अर्थात् जो क्लेश अभी प्रवृत्त है, वह उदार है, और जो अभी पृष्ठभूमि में चला गया, वह तनु/प्रसुप्त होने से विच्छिन्न है । अब कोई भी क्लेश, वह हम पर कितना भी हावी क्यों न हो, हर समय तो प्रवृत्त होता नहीं । तो हर क्लेश विच्छिन्न ही हो गया । और फिर विच्छिन्न दशा गिनाने की आवश्यकता ही नहीं है – प्रसुप्त, तनु और उदार से ही काम चल जाएगा । इन सब विरोधाभासों से लगता है कि पतञ्जलि का सूत्र सम्भवतः कुछ और ही कह रहा है ।

इस गुत्थी के लिए एक और भी संकेत है । तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि  क्रियायोगः ॥ समाधिभावनार्थः  क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥२।१-२॥ सूत्रों में पतञ्जलि ने कहा है कि तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग हैं, और इनके आचरण के द्वारा हम क्लेशों को तनु कर सकते हैं, जिससे कि हम समाधि सिद्ध कर सकते हैं । यहां तो ’तनूकरण’ क्लेशों की स्थायी अवस्था को ही कह सकता है, क्योंकि उपर्युक्तानुसार अस्थायी अवस्था तो हमें अभी से प्राप्त है । यहां ’तनूकरण’ का अर्थ ’सूक्ष्म करना’ लिया गया है, अर्थात् घटाना । यह सम्यक् भी लगता है, क्योंकि क्लेशों से मुक्ति क्षणभर में तो नहीं हो जायेगी, उन्हें धीरे-धीरे ही घटाना पड़ेगा । फिर शब्द-साम्य से और प्रसंग से भी, चौथे सूत्र में दी हुई अवस्थाएं स्थूल (उदार) से सूक्ष्म (प्रसुप्त) की ओर जाने वाली होंगी । अर्थात् चौथे सूत्र में भी क्लेशों की स्थायी अवस्थाएं हैं, जो कि तनूकरण से प्राप्त होती है ।

जब यह निष्कर्ष निकल आया, तो हमें इस प्रकाश में इन अवस्थाओं को समझना होगा । यदि स्थूलावस्था से प्रारम्भ करें, तो विश्लेषण कुछ इस प्रकार होगा – 

  • उदार – यह क्लेश की वह अवस्था है, जिसमें क्लेश हम पर हावी होता है, जिसे जुनून कहा जाता है । हमारा अधिकतर समय इस क्लेश के पोषण में निकल जाता है – चाहे विचार से, या वाणी से या शरीर से । पुनः, यहां यह समझना आवश्यक है कि जुनून कितना भी गहरा हो, वह चौबीसों घंटे हम पर सवार नहीं हो सकता । परन्तु इससे वह ’विच्छिन्न’ नहीं हो जाता, उसे उदार ही माना जायेगा ।
  • विच्छिन्न – इस अवस्था में क्लेश में थोड़ी दरारें आ जाती हैं । जैसे, यदि हम किसी खेल में रुचि रखते हैं, तो हम उसपर अधिक समय व्यय करते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अन्य कार्यों में रुचि रखते ही नहीं, जैसा कि जुनून में होता है । हमारी शक्ति अनेकों क्लेशों में बटी होती है, जिससे कि कोई भी क्लेश उदार दशा में नहीं होता । अधिकांश लोगों के क्लेश इसी अवस्था में होते हैं ।
  • तनु – अब क्रिया-योग के द्वारा हम क्लेशों को घटाना प्रारम्भ करते हैं । जिन वस्तुओं में हमारा राग-द्वेष है, उनके प्रति हम तप से राग-द्वेष को कम करके विरक्ति की भावना उत्पन्न करते हैं, स्वाध्याय के द्वारा अविद्या को कम करते हैं और मोक्ष में रुचि बढ़ाते हैं (यह रुचि राग के अन्तर्गत नहीं आती !), और ईश्वरप्रणिधान के द्वारा अस्मिता (अहंकार) को कम करके प्रभु के प्रति समर्पण-भाव बढ़ाते हैं । इन सभी से मिलकर, सत्य-ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है और अभिनिवेश क्लेश भी टलने लगता है ।
  • प्रसुप्त – तनु करते-करते, क्लेश इस अवस्था में पहुंच जाते हैं, जहां वे हमें समाधि में व्यथित करने में असमर्थ हो जाते हैं । जैसा व्यास ने कहा, वे दग्धबीज तो नहीं होते, क्योंकि वह अवस्था तो केवल विवेक-ख्याति के होने पर ही होती है, परन्तु वे इतने क्षीण हो जाते हैं कि विषय के उपस्थित होने पर जागृत नहीं होते । तथापि बहुत बड़े प्रलोभन में वे उजागर हो भी सकते हैं, जैसे कि हम विश्वामित्र और मेनका की कथा में सुनते आए हैं ।

इस प्रकार क्लेशों की ये दशाएं क्षण-क्षण में एक-दूसरे में बदलती नहीं है, अपितु स्थिर रहती हैं, चाहे कोई क्लेश-विशेष इस समय लब्धवृत्ति हो या नहीं ।

इस विषय में आगे के दो सूत्र भी प्रासंगिक हैं ।

ते  प्रतिप्रसवहेयाः  सूक्ष्माः ॥२।१०॥

अर्थात् क्लेशों का हर उभरना दबाने योग्य है और (इससे) वे सूक्ष्म हो जाते हैं । इससे भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि क्लेशों को पूर्व-कथित क्रियायोग द्वारा दबाना चाहिए जिससे कि वे सूक्ष्म हो जाएं । यह सूक्ष्मावस्था ही ’तनु’ और ’प्रसुप्त’ के द्वारा कही गई है । सो, ’विच्छिन्न’ और ’उदार’ स्थूलावस्थाएं हुईं । इसका यह अर्थ भी हुआ कि विच्छिन्न दशा में क्लेश कभी उदार और कभी तनु नहीं हुआ करते – वे विच्छिन्न ही रहते हैं ।

ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥२।११॥

अर्थात् उन वृत्तियों को ध्यान से समाप्त करना योग्य है । पतञ्जलि ने यह क्लेशों को दबाने का दूसरा उपाय दिया है – ध्यान अर्थात् समाधि के पूर्व की स्थितियां । यह ध्यान वही है जो पहले पाद में पतञ्जलि ने इस प्रकार बताया था – तत्र  स्थितौ  यत्नोऽभ्यासः ॥१।१३॥ यह चित्त की वृत्तियों को रोकने के एक उपाय के रूप में बताया गया था – अभ्यासवैराग्याभ्यां  तन्निरोधः ॥१।१२॥ (आश्चर्य की बात है कि २।११ में पतञ्जलि ने क्लेशों को वृत्तियां ही कहा है ! यह एक संकेत है कि वस्तुतः क्लेश और वृत्ति में नाममात्र का अन्तर है । इस विषय में नीचे और लिखेंगे ।) इसी प्रकार, प्रथम पाद में कहा गया – दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य  वशीकारसञ्ज्ञा  वैराग्यम् ॥१।१५॥ अर्थात् देखे हुए और सुने हुए विषयों में भोग-प्रवृत्ति न होने से चित्त का वश में आ जाना वैराग्य है । यहां पर भोग-प्रवृत्ति कैसे कम या नष्ट करनी है ? “ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः” से – उनके हर उभरने को दबाने से ।

वस्तुतः, २।१० और २।११ वही बात कह रहे हैं, जो कि १।१२, १।१३ व १।१५ में कही गई थी । जहां २।११ स्पष्टतः चित्त की एकाग्रता के अभ्यास को कह रहा है, वहां २।१० भी वैराग्य को ही कह रहा है । इसके आगे हमको पहले पाद से प्रक्रिया का ग्रहण करना है, जबकि इस पाद में आगे पतञ्जलि अन्य सिद्धान्तों को समझाने में लग जाते हैं । यही इन दो पादों का जोड़ है !

अब जब बात छिड़ ही गई है, तो यह भी देखना आवश्यक हो जाता है कि क्लेश और वृत्ति क्या एक ही हैं या नहीं ? “वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥१।५॥” में तो क्लिष्टता को वृत्ति का विशेषण घोषित किया गया था । अब २।११ में क्लेश को ही वृत्ति कह रहे हैं ! इस बात को एक क्लेश लेकर समझने का प्रयत्न करते हैं – सुखानुशायी  रागः ॥२।७॥ – अर्थात् सुख कारण है राग का । संसार में जो सुख अनुभव होता है, उससे उसके प्रति इच्छा उत्पन्न होती है । उस इच्छा का नाम राग है । सूत्र के भाष्य में महर्षि दयानन्द ने कहा है, “तीसरा राग, अर्थात् जो-जो सुख संसार में साक्षात् भोगने में आते हैं, उनके संस्कार की स्मृति से जो तृष्णा के लोभ-सागर में बहना है, इसका नाम राग है ।” इसका अर्थ यह हुआ कि राग में स्मृति का समावेश है, जो कि चित्त-वृत्तियों के अन्तर्गत गिनी ही गई है । मेरे अनुसार तो इच्छा करना भी चित्त की ही वृत्ति है, जो कि “विपर्ययो  मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥१।८॥” से विपर्यय-वृत्ति है, जैसा कि मैंने अपने पूर्व लिखे एक लेख में दर्शाया था । तथापि विद्वान् इच्छा-वृत्ति और द्वेष-वृत्ति को अपने मतानुसार जिधर डालना चाहें, डाल सकते हैं । मूल बात यह है कि ये इच्छा-युक्त अथवा द्वेष-युक्त वृत्तियां हैं । व्यास स्वयं कहते हैं, “क्लेशा  इति  पञ्च  विपर्ययाः ॥ व्यासभाष्य २।३॥” तथापि जैसा मैंने पिछले माह के लेख में दर्शाया था, क्लिष्ट वृत्तियां विपर्यय को छोड़कर अन्य भी होती हैं । 

वस्तुतः, जिस भी चित्तवृत्ति में अज्ञान/अविद्या का समावेश होगा, वह क्लिष्ट = दुःखदायी हो जायेगी । इसका एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही हूं, जिससे कि यह थोड़ा और स्पष्ट हो जाए । हमारे मन में यदि सत्ता की इच्छा जागृत होती है, तो उसका अर्थ है कि हम मन में सत्ता पाने के उपाय सोचते हैं । यह ’सोचना’ चित्तवृत्ति है । इसमें जो सत्ता के प्रति राग है, वह क्लेश है । लेकिन क्या राग की सोच से भिन्न कोई सत्ता है ? इसको हम ज्ञान और विचार के समान समझ सकते हैं । जबकि कोई भी ज्ञान हमारे मस्तिष्क में बैठे हुए भी, हर पल हमारे विचार में नहीं होता, परन्तु उससे सम्बद्ध विचार के उठते ही, स्मृति से उस विषय का ज्ञान भी उपस्थित हो जाता है । जैसे, जब हम बस को देखते हैं, तो अगले किस अड्डे पर रुकेगी, इसका विचार अनायास ही हमारे मन में आ जाता है । इसी प्रकार क्लेश हमारे अज्ञान हैं, जो कि प्रतिक्षण उपस्थित नहीं होते, परन्तु जब उनसे सम्बद्ध विचार मन में आता है, तब वे उस विचार को अपने रंग से रंग देते हैं । जैसे, जब हम अपनी पुत्री को देखते हैं, तो अनायास ही हमारे मन में उसके प्रति मोह उमड़ पड़ता है । 

जिसके क्लेश नष्ट हो गए हों, वह यदि राजा बनने की इच्छा भी करेगा, तो प्रजा के हित के लिए करेगा, अपने लिए नहीं, जिस प्रकार स्वामी दयानन्द राज-दरबारों में राजाओं को प्रवचन देते थे – अपने मान के लिए नहीं, अपितु प्रजा के हित के लिए ।

ऊपर मैंने पतञ्जलि के सूत्रों का बुद्धिपरक विश्लेषण दे दिया है, परन्तु जिसने भी इनको थोड़ा-सा भी अपने जीवन में उतारा है, वह तुरन्त ही अपने विचारों में क्लेशों का सूक्ष्म होने का अनुभव स्वयं कर सकती है । 

इस प्रकार हम पाते हैं कि क्लेशों की दशाओं के व्यास-भाष्य में किञ्चित् परिवर्तन की आवश्यकता है । और क्लेशों का विश्लेषण करते-करते, हमें ज्ञात होता है कि क्लेशों और वृत्तियों में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि कभी-कभी वे एक-सी ही लगने लगती हैं । तथापि इन दोनों में वही सम्बन्ध है जो कि ज्ञान और विचार में होता है ।