योगदर्शन में जन्म-मृत्यु का चक्र

योगदर्शन में जन्म-मृत्यु का चक्र

भारतीय षड् दर्शनों में से एक, योगदर्शन से आप सभी परिचित होंगे । और जन्म-मृत्यु के शाश्वत् चक्र से कौन भारतीय परिचित नहीं है, जो चक्र हमको बचपन में ही सिखा दिया जाता है ?! परन्तु सम्भव है कि आपने योगदर्शन में इस चक्र का स्वरूप दिया हुआ है, इस विषय में न सुना हो । सो, इस लेख में मैं उसी को दर्शाती हूं । 

पतञ्जलि मुनि ने अपने शास्त्र में जन्म को ’संयोग’ संज्ञा भी दी है, क्योंकि जन्म में जीवात्मा और प्रकृति का संयोग = मिलन होता है । पतञ्जलि ने जीवात्मा और प्रकृति को भी अपने गुणानुसार संज्ञाएं दी हैं – क्रमशः द्रष्टा और दृश्य । संयोग को वे इस प्रकार परिभाषित करते हैं –

हेयं  दुःखमनागतम् ॥२।१६॥  द्रष्टृदृश्ययोः  संयोगः  हेयहेतुः ॥२।१७॥

अर्थात् जो दुःख जीव को भविष्य में झेलना है, वह हेय है, अर्थात् दूर करने योग्य है । उस हेय का कारण द्रष्टा और दृश्य का संयोग है । अर्थात् जन्म लेना ही सब कष्टों की जड़ है; जिसका जन्म हुआ है, वह दुःखों से भी संयुक्त हो ही जाता है ।

किसी भी वस्तु का पार पाने के लिए – उसका निवारण अथवा उसकी प्राप्ति के लिए – उसका कारण जानना आवश्यक है । इसीलिए भारतीय दर्शनों में कार्य-कारण सम्बन्ध को इतना महत्त्व दिया जाता है । सो, पतञ्जलि संयोग का हेतु = कारण बताते हैं –

तस्य  हेतुरविद्या ॥२।२४॥

यहां ’संयोगः’ की अनुवृत्ति है । इसलिए अर्थ बना – संयोग का कारण अविद्या है । यहां ’अविद्या’ से “अनित्याशुचिदुःखानात्मसु  नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या (२।५)” अर्थात् अनित्य में नित्य, अशुचि में शुचि, दुःख में सुख, अनात्मा में आत्मा जानना, केवल यह लक्षित नहीं है, अपितु पांचों क्लेश – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश (२।३) – सभी उपलक्षित हैं, क्योंकि पतञ्जलि ने स्वयं कहा था, “अविद्या  क्षेत्रमुत्तरेषां … (२।४)” अर्थात् अविद्या शेष चार क्लेशों का उत्पत्तिस्थान है, अथवा उनके मूल में है । संस्कृत में इस प्रकार उपलक्षण लाघव के लिए करना सामान्य शैली है । इससे सूत्रार्थ बना – संयोग का कारण क्लेश हैं । 

अब संयोग होने पर, शरीर से आच्छादित होने पर, जीव कर्म करता है । और क्लेश उसमें उपस्थित होने के कारण, ये कर्म पुण्य- वा अपुण्य-आत्मक होते हैं । पतञ्जलि ने इसको ऐसे बताया है – 

क्लेशमूलः  कर्माशयो  दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ २।१२ ॥

जिन कर्मों के मूल में क्लेश हैं, अर्थात् क्लेश से प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं, वे (पुण्य अथवा अपुण्य रूपी) कर्माशय उत्पन्न करते हैं, जो कि इस जन्म में अथवा भावी जन्मों में सहने पड़ते हैं । 

सति मूले  तद्विपाको  जात्यायुर्भोगाः ॥२।१३॥

इस क्लेश-मूल के रहते, उन कर्माशयों के विपाक होते हैं – जाति (योनि जिसमें प्राणी उत्पन्न हो), आयु (जीवन की दीर्घता) और भोग । 

ते  ह्लादपरितापफलाः  पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥२।१४॥

वे जाति, आयु और भोग, कर्माशय के पुण्यात्मक होने पर आनन्द प्रदान करते हैं, और अपुण्यात्मक होने पर दुःख देते हैं । यहां अर्थापत्ति से हम जान सकते हैं कि क्लेशरहित कर्मों का कोई कर्माशय नहीं बनता । ऐसा होने से, उनके पुण्यात्मक या अपुण्यात्मक होने का प्रश्न ही नहीं उठता । तब वे कोई फल भी नहीं देते – न तो सुख, न ही दुःख । इन्हीं कर्मों को अन्य रूप से ’निष्काम कर्म’ कहते हैं, जिनको क्लेशों पर विजय पाने वाले योगी ही करते हैं; साधारण मनुष्यों के सभी कर्म क्लेशयुक्त और फल देने वाले होते हैं । (कभी-कभी यह समझा जाता है कि परोपकार आदि कुछ कर्म निष्काम अथवा निःस्वार्थ कर्म हैं, परन्तु वे पुण्यात्मक इसीलिए होते हैं क्योंकि वे क्लेश से युक्त होते हैं ।)

अब यहां एक अनकही बात है, जिसको कि मननशील व्यक्ति विचार करके पता कर सकता है । २।१४ में जो ह्लाद और परिताप कहे गए हैं, वे सुख और दुःख के पर्यायवाची ही हैं, उनसे कुछ भिन्न वस्तु नहीं हैं । ये भौतिक सुख-दुःख हैं, जो कि अवश्य ही मोक्ष-सुख से भिन्न हैं । अर्थात् इस सूत्र में भौतिक सुख-दुःख की ही चर्चा हो रही है । इन सुख-दुःख के विषय में पतञ्जलि कहते हैं –

सुखानुशयी  रागः ॥२।७॥  दुःखानुशयी  द्वेषः ॥२।८॥

अर्थात् सुख से राग-क्लेश उत्पन्न होता है, और दुःख से द्वेष-क्लेश उत्पन्न होता है । ऐसा नहीं है कि इसमें कुछ भी आश्चर्य है, क्योंकि सुखात्मक अनुभव हम पुनः-पुनः दोहराना चाहते हैं, और दुःखात्मक अनुभवों से कतराते हैं । यह ’चाह’ ही क्लेश है जो कि हमें उनको पूर्ण करने के लिए कर्मों में प्रेरित करती है । इस प्रकार कर्मों के फल हमारे पुराने क्लेशों को और सुदृढ़ करते हैं और नए क्लेशों को उत्पन्न करते हैं । पुरुषार्थ करने पर, कुछ क्लेश नष्ट भी होते होंगे, परन्तु उनके लिए पुरुषार्थ आवश्यक है ।

ये ही क्लेश हमें पुनः जीवन में बाँध देते है, और पुण्यापुण्य कर्माशयों को भोगने के लिए संयोग में डाल देते हैं (२।२४), जहां हम नए क्लेश इकट्ठा करने लगते हैं । इस प्रकार यह पूरा जन्म-चक्र बन जाता है । 

प्रायः यह माना जाता है कि कर्मों के कारण हम जन्म लेते हैं । परन्तु उपर्युक्त से ज्ञात होता है कि यह पूर्णतया सही नहीं है । पुण्यापुण्यात्मक कर्मों के कारण हमारा सुख-दुःख तो निर्धारित होता है, यहां तक कि हमारी योनि और हमारी आयु भी निर्धारित होती है, परन्तु जन्म और मोक्ष का निर्धारण नहीं होता । वह तो हमारे निहित अविद्या पर निर्भर है, जो कि हमें अपने शरीर से आत्मीयता प्रदान करती है । वस्तुतः तो इस अविद्या क्लेश को परमात्मा ही उत्पन्न करते हैं जब हमें शरीर से संयुक्त करते हैं, परन्तु इस विषय को पतञ्जलि ने नहीं छेड़ा है, और न ही किसी अन्य दर्शन-शास्त्र ने, इसलिए हम भी इसे यहीं छोड़ देते हैं …

अब जब हमें जीवन-चक्र का कारण मिल गया, तो उससे छूटने का उपाय भी स्वयमेव उपस्थित हो जाता है – क्लेशों का, और मुख्य रूप से अविद्या का, नाश ! योगदर्शन पूर्णतया इसी विषय को समर्पित है, और सामान्य जन से लेकर योगी तक के लिए उसमें जीवन-परिवर्तन के लिए उपदेश है । मुख्य रूप से, पतञ्जलि ने मोक्ष को ’हान’ या ’छुटकारा’ संज्ञा देते हुए कहा है –

स्वस्वामिशक्त्योः  स्वरूपोपलब्धिहेतुः  संयोगः ॥२।२३॥

संयोग के द्वारा स्व = प्रकृति और उसके (शरीर आदि कुछ अंश में) स्वामी जीवात्मा की शक्तियों के स्वरूप की उपलब्धि = ज्ञान होता है । यह संयोग का मुख्य प्रयोजन है । पुनः – 

तस्य  हेतुरविद्या ॥२।२४॥

उस संयोग का हेतु अविद्या आदि क्लेश हैं ।

तदभावात्  संयोगाभावो  हानं  तद्दृशेः  कैवल्यम् ॥२।२५॥

अविद्या के अभाव से संयोग का अभाव होना हान है, जो कि द्रष्टा जीवात्मा की कैवल्य प्राप्ति है । कैवल्य अर्थात् ’केवलता’ इसलिए कि उस अवस्था में जीव, प्रकृति से पूर्णतया मुक्त होकर, अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है – तदा  द्रष्टु:  स्वरूपेऽवस्थानम् ॥१।३॥

विवेकख्यातिरविप्लवा  हानोपायः ॥२।२६॥

हान का उपाय है अडिग, दृढ़ विवेकख्याति की प्राप्ति । विवेकख्याति का अर्थ है आत्मा और प्रकृति में विवेक करना – शरीर कहां अन्त होता है, आत्मा कहां प्रारम्भ होती है, उसे जानना; मैं क्या हूं – उसे जानना । इसे प्राप्त करने के लिए पतञ्जलि मुनि ने आठ अंग बताए हैं, जिनसे अधिकतर सभी परिचित हैं । आरम्भ में यह विवेक समाधिस्थ अवस्था में ही प्राप्त होता है, परन्तु अभ्यास के साथ, वह विवेक प्रत्येक क्षण बना रहने लगता है, चाहे आत्मा समाधि में हो या उसके बाहर । तब उसकी विवेकख्याति अविप्लवा हो जाती है ।

क्लेश ही जन्म का कारण है, इसे सभी दर्शन-शास्त्र प्रमाणित करते हैं । सांख्य कहता है –

विविक्तबोधात्  सृष्टिनिवृत्तिः  प्रधानस्य  सूदवत्  पाके ॥३।६३॥

अर्थात् शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध होने पर, प्रधान (मूल प्रकृति) उस आत्मा के लिए सृजन करने से निवृत्त हो जाता है, जिस प्रकार पाचक खाना बना लेने पर पाकशाला से निवृत्त हो जाता है । प्रकृति का अन्तिम प्रयोजन – आत्मा को अपवर्ग (मोक्ष) तक पहुंचाना – सिद्ध हो जाने पर, उसको जीव के लिए भोगों का सृजन करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

न्याय कहता है –

न  प्रवृत्तिः  प्रतिसन्धानाय  हीनक्लेशस्य ॥४।१।६४॥

जिस आत्मा के क्लेश नष्ट हो जाते हैं वह पुनः प्रकृति से संयुक्त होने (जन्म लेने) के लिए प्रवृत्त नहीं होता ।

ऊपर के विवेचन से हमें ज्ञात होता है कि किस प्रकार जन्म-चक्र प्रवर्तित होता है, और किस प्रकार उससे मुक्ति पानी होती है । जहां एक ओर ये तथ्य ऋषियों के अन्तःप्रत्यक्ष से सिद्ध होते हैं, वहां दूसरी ओर इनका कुछ अंश कार्य-कारण सम्बन्ध जानने से भी ज्ञात होता है । जब हम जीवन का कारण समझ लेते हैं, तब ही मोक्ष का मार्ग स्पष्ट होता है । प्रकृति पर इतना गहन विचार भी इसीलिए पाया जाता है कि हम अपने गुण-कर्म-स्वभावों को प्रकृति से भिन्न जान सकें । तभी तो हम अपने को खोज सकते हैं ! मात्र भक्ति से यह कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता । और इस प्रकार के विवेचन से ही इस विषय पर पुराणों आदि मिथ्या ग्रन्थों का मिथ्यात्व स्पष्ट जाना जा सकता है । इसलिए प्रायः सभी दर्शन-ग्रन्थ कार्य-कारण सम्बन्ध विषय पर जोर देते हैं, और इसी के अनुसार अपने सिद्धान्तों को सिद्ध करते हैं । हमें भी अपने अन्दर यह क्षमता उत्पन्न करनी होगी, क्योंकि आजकल कई ’महात्मा’ परस्पर विरोधी बातें करते पाए जाते हैं, और सच व झूठ का निर्णय करना प्रायः कठिन हो जाता है ।