वेङ्कटमाधवीया ऋग्वेदानुक्रमणी का स्वाध्याय
१३-१४वीं शताब्दी में दक्षिण के चोल देश के निवासी वेङ्कटमाधव ने ऋग्वेदानुक्रमणी नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें वेदमन्त्रों के अर्थ करने के विषय में कुछ विशेष उपाय पाए जाते हैं । सम्प्रति मैं विजयपाल विद्यावारिधि जी के द्वारा लिखी हिन्दी व्याख्या की सहायता से इस अमूल्य ग्रन्थ का स्वाध्याय कर रही हूं । प्रकाशकीय में पं० युधिष्ठिर मीमांसक ग्रन्थ के विषय में कहते हैं, “इस ग्रन्थ के अवलोकन से वेदार्थ-जिज्ञासुओं को ऐसे अनेक विषयों में महत्त्वपूर्ण निर्देश प्राप्त होते हैं, जिन पर ध्यान देने से वेदार्थ में सूक्ष्मता का बोध होता है । विशेषकर ‘स्वरानुक्रमणी’ वेदार्थ की सूक्ष्मता तक पहुंचाने में अत्यन्त उपयोगी है । मेरे परिचित जिन दो-चार विद्वानों का उदात्तादि स्वरों के अर्थगत वैशिष्ट्य का ज्ञान है, उन्हें यह सूक्ष्म ज्ञान इसी ग्रन्थ से हुआ है । अन्यथा हम लोगों को स्वरविषयक इतना सूक्ष्मज्ञान होना असम्भव था, यह कहना सर्वथा सत्य है ।” इस वचन से ही ग्रन्थ की उपादेयता स्पष्ट हो जाती है ! क्योंकि यह ग्रन्थ कम ही जनों के हस्तगत हुआ होगा, इसलिए मैंने सोचा कि यहां उपलब्ध कुछ अतीव रुचिकर व महत्त्वपूर्ण सामग्री को मैं आपके साथ सांझा करूं । तथापि मेरे समझने में यदि कहीं कोई त्रुटि हो, तो ज्ञानीजन अवश्य मेरा मार्गदर्शन करें, यह प्रार्थना है ।
ऋग्वेदानुक्रमणी वैसे तो प्रधानतः ऋग्वेद के मन्त्रों के अर्थीकरण विषयक है, तथापि उसके निर्देश निश्चयेन अन्य वेदों से भी सम्बद्ध हैं । ग्रन्थ ८ अष्टकों में विभाजित हैं, जो कि क्रमशः इस प्रकार हैं – स्वरानुक्रमणी, आख्यतानुक्रमणी, निपातानुक्रमणी, शब्दावृत्त्यानुक्रमणी, आर्षानुक्रमणी, छन्दोनुक्रमणी, देवतानुक्रमणी व मन्त्रार्थानुक्रमणी । ये नाम अध्यायों के विषयों को स्पष्ट रूप से कहते हैं । प्रत्येक अष्टक में ८-८ अध्याय हैं । आज हम ‘स्वरानुक्रमणी’ में कहे कुछ तथ्यों को देखते हैं ।
प्रथमतः, यह स्पष्ट हो जाता है कि वेङ्कटमाधव स्वरों को केवल पाणिनीय व्याकरण के निर्दिष्ट विधि-कथन से नियोजित नहीं मानते हैं, परन्तु अर्थ के आग्रह से उन विधियों को मानते हैं । जिस प्रकार वे आगे इस कथन को प्रमाणित करते हैं, उससे इस विषय में सन्देह जाता रहता है ! पाणिनि के निर्देशों के पीछे क्या कारण हैं, उनका वे खुलासा करते हैं । अवश्य ही पाणिनि भी उन कारणों को जानते होंगे (जैसा स्वयं माधव मानते हैं), परन्तु उनका ग्रन्थ उस विषय से सम्बद्ध नहीं था, इसलिए सम्भवतः उन्होंने उन कारणों को नहीं लिखा ।
माधव वेदभाष्यकार को निर्देश देते हैं कि वेदमन्त्र के प्रत्येक पद की विभक्ति का कारण अवश्य बताए । पदों का निर्वचन करके, वह स्वर का कारण भी, जहां तक हो सके, स्पष्ट करे । फिर, उपसर्गों को क्रियापदों से संयुक्त करके समझे/समझाए ।
क्रियापदों में उदात्तत्व
क्रियापदों के स्वर के विषय में वे बताते हैं कि प्रायः इन पदों का निघात = सर्वानुदात्त होता है, जैसा कि पाणिनि ने कहा है – तिङ्ङतिङः (अष्टाध्यायी ८।१।२८), अर्थात् पाद के आदि में न होने पर, और अतिङ् पद के परे होने पर, तिङन्त पद को निघात हो जाता है । माधवाचार्य वेदभाष्यकार को पुनः निर्देश देते हैं कि जिन तिङन्त पदों का निघात हो गया है, उनको भाष्य में वाक्य के अन्त में रखकर सर्वानुदात्त ही दिखाएं; और जिनका निघात मन्त्र में न हुआ हो, उनको वाक्य के आदि में रखकर, उदात्तत्व दर्शाए (यहां सर्वत्र ‘उदात्तत्व’ से पद में किसी एक या उससे अधिक स्वरों के उदात्त होने का ग्रहण है, आद्युदात्त अथवा सर्वोदात्त होना आवश्यक नहीं) ।
माधव इसमें कारण बताते हैं – वाक्य/पाद के आदि में तिङन्त पद श्रोता को चिताता है जिससे कि वह विशेष रूप से उस पद को सुने; जबकि यदि उससे पूर्व कोई उदात्त सुबन्त, अव्यय, आदि, आ जाता है, तो वह ही श्रोता का ध्यान आकर्षित कर लेता है, इसलिए वहां तिङन्त पद सर्वानुदात्त हो जाता है । और प्रत्येक पाद के आरम्भ में भी तिङन्त पुनः उदात्त हो जाता है, श्रोता का पुनः उद्बोधन करने के लिए, क्योंकि ऋषियों ने ऋचाओं में प्रत्येक पाद में अर्थसमाप्ति मानी है ।
‘यत्, यदि’ आदि निपातों के सन्दर्भ में भी तिङन्त उदात्त हो जाता है । ये पाणिनि के नियमों के अनुसार है (अष्टाध्यायी ८।१।३०), परन्तु माधव इस नियम को भी अर्थानुसारी दर्शाते हैं । जो कारण वे देते हैं, वह जैसे बन्द चक्षुओं को खोल देता है ! वे कहते हैं कि जिस तिङन्त पद पर वाक्यार्थ का पर्यावसान होता है, वह तो सर्वानुदात्त होता है, परन्तु जहां वाक्यार्थ समाप्त नहीं होता, वहां तिङन्त उदात्त हो जाता है । वास्तव में, इन नियमों का प्रयोग हम दैनिक जीवन में भी करते हैं, जिनके मैं कुछ उदाहारण नीचे दे रही हूं ।
- ‘राम वन गए’ – यहां ‘गए’ पर अर्थ समाप्त हो रहा है, और दैनिक जीवन में भी हम उस पद को धीमा बोलते हैं, ‘राम’ को ही कुछ ऊंचे स्वर में बोलते हैं, क्योंकि वाक्य का केन्द्रबिन्दु ‘राम’ है ।
- ‘आओ, गाना गाते हैं’ – यहां हम ‘आओ’ को कुछ जोर से बोलेंगे, क्योंकि वहां वाक्यार्थ समाप्त नहीं हो रहा, और उस पद से हम श्रोता का ध्यानाकर्षण करना चाहते हैं । फिर अगले वाक्य ‘गाना गाते हैं’ में पुनः साधारण नियम से तिङन्त सर्वानुदात्त हो जाएगा ।
- ‘यदि तुम आईं, तो हम एकसाथ पढ़ेंगे’ – यहां भी हम ‘आईं’ को जोर से बोलेंगे, क्योंकि आगे उससे सम्बद्ध कुछ कहना शेष है । परन्तु ‘पढ़ेंगे’ मन्द ही बोलेंगे । सो, यत्, यदि, आदि, में पहले वाक्य में अर्थ की परिसमाप्ति न होने के कारण वहां तिङन्त उदात्त होगा, परन्तु तत्, तर्हि, आदि, वाले दूसरे वाक्य में अर्थ की समाप्ति तिङन्त पर होने से, वहां वह सर्वानुदात्त हो जाएगा । कितना युक्तियुक्त कारण माधव ने बताया है ! और हम भी प्रयोग में ऐसे ही इसको समझते हैं !
अर्थसमाप्ति के लिए माधव दो मन्त्रों के उदाहरण देते हैं, जो कि उनके आशय को और स्पष्ट करते हैं –
- मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ् मर्त्यस्य ।
रक्षा नो ब्रह्मणस्पते ॥ऋग्वेदः १।१८।३॥
अर्थात् हे ब्रह्मणस्पते ! अदानी मनुष्यों के कटु वचनों को हम न प्राप्त हों और उनकी धूर्तता का आप नाश करें । इस प्रकार आप हमारी रक्षा कीजिए । मन्त्र में ‘इस प्रकार’ कहा नहीं गया है, उसका ‘प्रणक्’ के उदात्त स्वर से अध्याहार होता है, क्योंकि वह उदात्त स्वर हमें बताता है कि वाक्य अभी अपूर्ण है, अगले वाक्य से उसे मिलाओ !
- इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः ।
मत्सरासस्तदोकसः ॥ऋग्वेदः १।१५।१॥
अर्थात् हे सूर्य ! तू ओषधि रसों को (पेड़-पौधों आदि से) पी ले । वे रस ऋतु के अनुसार जलों को प्राप्त हों (वर्षा उत्पन्न हो), जिससे कि उन जलों के वायु, नदी, आदि, निवास-स्थान प्राणियों को सुख देने के हेतु बनें । यहां वर्षा सूर्य द्वारा जल ‘पीने’ के कारण होती है । वह फलोत्पत्ति ‘पिब’ के उदात्तत्व से इंगित है, अर्थात् ‘पिब’ पर अर्थसमाप्ति नहीं हो रही है, क्रिया का फल आगे कहा गया है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मन्त्रों में कुछ अनकही बातें स्वरों में छिपी हैं !
“तिङ्ङतिङः” से अगले ही सूत्र में पाणिनि लुट् के विषय में निघात का निषेध करते हैं । इसलिए शंका उठती है कि मन्त्रों में कई बार देखा गया है कि लुट् (अनद्यतन भविष्य) का प्रयोग हुआ है और वहां अर्थ की परिसमाप्ति भी हो जाती है, तथापि वहां तिङन्त में सर्वानुदात्त नहीं प्राप्त होता । यह क्यों ? आचार्य बताते हैं कि वहां काकुवृत्ति होती है (अर्थापत्ति से यह जानना चाहिए कि जहां लुट् पर सम्पूर्णतया अर्थ की समाप्ति होगी, वहां लुट् में भी सर्वानुदात्त ही होगा) । काकु उसे कहते हैं जहां आश्चर्य, भय, आदि, संवेदनाएं स्वर से प्रकट की जाती हैं । उस संवेदना को प्रकट करने के लिए शब्द को उदात्त उच्चारित किया जाता है । पाणिनि ने ८।१।२९-६६ तक के सूत्रों में तिङ् के उदात्तत्व का प्रतिषेध बताया है । माधव बता रहे हैं कि सर्वत्र काकु आदि वृत्तियां अथवा अर्थ की परिसमाप्ति न होना उस निषेध का कारण हैं, अर्थात् अर्थ के अनुरोध से ही वे निषेध होते हैं ।
इसका एक और उदाहरण है निपातों के प्रयोग में काकुवृत्ति । संस्कृत में हि, ननु, खलु, आदि, पद इस प्रकार के होते हैं (अष्टाध्यायी ८।१।३०, ३४), जिनके हिन्दी में भी उदाहरण उपलब्ध हैं –
- हमें दान तो देना ही है – यहां ‘देना’ को जोर से बोला जाता है, क्योंकि अर्थ का पर्यवसान ‘ही’ में हो रहा है, ‘देना’ में नहीं ।
- तुम आ रही हो न? – यहां ‘आ’ जोर से बोला जाएगा क्योंकि अर्थ ‘न’ पर समाप्त हो रहा है ।
आचार्य जी ने इस विषय पर जो वेदमन्त्र दिए हैं, उनमें से एक मैं नीचे उद्धृत कर रही हूं –
आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये ।
सखा सख्ये वरेण्यः ॥ऋग्वेदः १।२६।३॥
अर्थात् जैसे पिता अपने पुत्र के लिए, या मित्र अपने मित्र के लिए यत्न करता है, वैसे ही (आश्चर्यरूप से) एक उत्कृष्ट विद्वान् विद्यार्थी के लिए यत्न करता है । यहां ‘यजति’ में उदात्त आश्चर्य का बोध कराता है कि पिता पुत्र के सुख के लिए परिश्रम करे, या सखा अपने मित्र को सुख दे, इसमें क्या आश्चर्य है? परन्तु गुरु शिष्य को विद्या देने के लिए क्यों यत्न करता है, यह बहुत आश्चर्यजनक है !
माधव कहते हैं कि पद और समास में स्थित उदात्त के भी इसी प्रकार काकु के अर्थ होते हैं, परन्तु उनको बहुत विद्वान् (देवसंज्ञक) जन ही समझ पाते हैं; तथापि तिङन्त पद के काकु को तो साधारण जन भी समझ लेते हैं, जैसा कि हमने भी ऊपर दर्शाया है ।
आमन्त्रित पदों में उदात्तत्व
सम्बोधन में प्रयुक्त शब्द को आमन्त्रित कहते हैं । व्यक्ति को सम्बोधित करने के स्वभाव से यह सुबन्त आद्युदात्त होता है (अष्टाध्यायी ६।१।१९२), परन्तु वाक्य के मध्य या अन्त में उसका निघात हो जाता है (अष्टाध्यायी ८।१।१९) । सो, जहां हम वाक्य के मध्य में सर्वानुदात्त पाएं, जैसे – ऋतेन मित्रावरुणौ (ऋग्वेदः १।२।८), तो वहां हमें ‘मित्रावरुणौ’ जैसे पद को सम्बोधन के रूप में जानना चाहिए; और जो उसमें साधारण स्वर प्राप्त हो, जैसे – कवी नो मित्रावरुणा (ऋग्वेदः १।२।९), तो वहां हमें अन्य विभक्तियां समझनी चाहिए । इसका हम साधारणतया भी प्रयोग करते हैं, जैसे –
- मित्रों, चलो चलते हैं – यहां ‘मित्रों’ ऊंचा उच्चरित होगा, और
- चलो चलते हैं, मित्रों – में वही आमन्त्रित पद ‘मित्रों’ धीमे से उच्चरित होगा ।
मध्य में निघात होने के नियम का किन्हीं मन्त्रों में उल्लंघन भी होता है, परन्तु वह भी किसी कारणवश होता है, जैसे कष्ट को सूचित करने के लिए – शुनमन्धाय भरमह्वयत् सा वृकीरश्विना वृषणा नरेति (ऋग्वेदः १।११७।१८) – यहां राजा और अन्य सभाधीशों को ‘नरा’ से सम्बोधित करके, उनको विद्या से अन्धे दुःखी जनों और बलात्कारियों से पीड़ित स्त्रियों के कष्टों को दूर करने को कहा जा रहा है । सो, ‘नरा’ आमन्त्रित पद मन्त्र के अन्त में होते हुए भी उदात्त है, परिदेवना सूचित करने के लिए । माधव कहते हैं कि विद्वानों को इस प्रकार सर्वत्र स्वर से अर्थ की ऊहा कर लेनी चाहिए ।
तीसरा नियम है कि यदि आमन्त्रित पद शेष वाक्यार्थ से सम्बद्ध न हो, मुख्यतः क्रियापद से, तब भी उसको निघात हो जाता है, चाहे वह पादारम्भ में ही क्यों न हो, जैसे –
युवं वरो सुषाम्णे महे तने नासत्या ।
अवोभिर्याथो वृष्णा वृषणवसू ॥ऋग्वेदः ८।२६।२॥
हे वरणीय, असत्य से सर्वथा रहित, धनवर्षा करने वाले, धनों के कोष अश्वियों ! तुम दोनों सुन्दर सामरूपी वेदविद्या के ज्ञाता और महान् विस्तारक की रक्षा करते जाते हो । जबकि यहां क्रियापद ‘याथ: = जाते हो’ का अश्वियों से सीधा सम्बन्ध तो है, परन्तु इस क्रिया का मन्त्र में मुख्य अर्थ नहीं है; प्रधान अर्थ तो वेदविद्या के विस्तारक की रक्षा करना है, जो कि ‘अवोभिः’ अर्थात् कारक द्वारा कहा गया है । इसलिए आमन्त्रित पदों – वरः, नासत्यौ, वृष्णौ, वृषणवसू – को निघात हुआ है ।
माधव ने इसी अप्रधानता को आमन्त्रित को किन्हीं दशाओं में अविद्यमानवत् मानने का कारण बताया है । इस विषय पर पाणिनि के नियम इस प्रकार हैं – पूर्व पढ़ा आमन्त्रित पद पश्चात् पढ़े हुए पद के लिए अविद्यमानवत् माना जाता है – आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् (अष्टाध्यायी ८।१।७२) । परन्तु यदि वाक्य का पहला पद आमन्त्रित हो और दूसरे आमन्त्रित पद की वस्तु को ही कह रहा हो, तो पूर्व आमन्त्रित अविद्यमानवत् नहीं होगा और दूसरे पद को निघात हो जाएगा; परन्तु यदि दूसरा आमन्त्रित पद पहले का विशेषण हो, तो निघात का विकल्प होगा – नामन्त्रिते समानाधिकरणे । सामान्यवचनं विभाषितं विशेषवचने (अष्टाध्यायी ८।१।७३-७४) । इनमें कुछ लौकिक उदाहरण हैं –
- महर्षि, दें उपदेश – यहां ‘महर्षि’ और ‘दें’, दोनों को जोर से कहा जाएगा । क्रियापद ‘दें’ का वाक्यारम्भ में न होने से निघात प्राप्त था, पर ‘महर्षि’ पद के अविद्यमानवत् होने से वह वाक्यारम्भ में ही माना गया ।
- महर्षि, शिष्यों, इधर आसन ग्रहण करें – यहां ‘महर्षि’ और ‘शिष्यों’, दोनों को जोर से कहा जाएगा । इस प्रकार ‘महर्षि’ पद जैसे विद्यमान ही न हो, ऐसी स्थिति होने से ‘शिष्यों’ को उदात्त हो गया ।
- गृहिणी, सुघड़ तुम हो – यहां ‘सुघड़’, विशेषण होने से, विकल्प से उदात्त या अनुदात्त होगा (‘गृहिणी’ तो उदात्त ही होगा) ।
वेङ्कटमाधव द्वितीय अध्याय के उपसंहार में लिखते हैं – वाक्यवृत्तिप्रकारोऽयं सदृशो लौकिकेष्वपि – वाक्य में स्वरों की यह वृत्ति लौकिक व्यवहार में भी वैसी ही देखी जाती है । और आगे – मन्यन्ते पण्डितास्त्वन्ये यथाव्याकरणं स्वरम् । व्यवस्थितो व्यवस्थायां हेतुः कश्चिन्न विद्यते ॥ माधवस्य त्वयं पक्षः स्वरेणैव व्यवस्थितिः । अर्थमभीप्सत् …॥ – अर्थात् कई विद्वान् मानते हैं कि स्वर बस व्याकरण के नियमों के अनुसार होता है, उसकी व्यवस्था में कोई विशेष कारण नहीं होता; परन्तु माधव का पक्ष है कि अर्थ के अनुसार ही स्वर की व्यवस्था होती है ।
लेख में हमने माधवीया ऋग्वेदानुक्रमणी के प्रथम अष्टक ‘स्वरानुक्रमणी’ के प्रथम दो अध्याय की विषयवस्तु को देखा । इन पहले दो अध्यायों के वर्णन से ही ज्ञात हो जाता है कि स्वरविषय कितना महत्त्वपूर्ण है और उसको न जानने से वेदभाष्य में कितनी गल्तियां हो सकती हैं अथवा सूक्ष्मताओं की उपेक्षा हो सकती है । ऊपर मैंने यह भी दर्शाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार, जैसा माधवाचार्य ने कहा है, बोलचाल की भाषा में भी हम इन स्वर-सम्बन्धी नियमों का अधिकतर पालन करते हैं, तभी दूसरे व्यक्ति को अपना तात्पर्य सही प्रकार से व्यक्त कर पाते हैं । वस्तुतः, स्वर भाषा की अभिव्यञ्जक शक्ति का अभिन्न अंग है, उसके नियमों को समझना वेद पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वानों के लिए आवश्यक है ।
पतञ्जलि मुनि द्वारा निर्दिष्ट सिद्धियों के प्रमाण मैं वेदों में ढूढ़ती रहती हूं । ऋषि दयानन्द द्वारा की गई एक मन्त्र-व्याख्या में मुझे एक चमत्कारी सिद्धि का प्रमाण मिला । उसी को इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं ।