अष्टाध्यायी में संज्ञाओं का रहस्य
पाणिनि मुनि की कृति अष्टाध्यायी सूक्ष्म सोच का अप्रतिम उदाहरण है । सूत्रों, अनुवृत्तियों, अनुबन्धों, आदि के क्रम को देख कर अचम्भा होता है कि उनके मस्तिष्क में इतनी सारी व्यवस्थाएं एकसाथ कैसे समाई हुईं थीं । इस व्यवस्था की क्लिष्टता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जिस ग्रन्थ को पढ़ना इतना कठिन है, उसको रचना कितना कठिन होगा ! ऐसी कृति में प्रयुक्त संज्ञाएं भी सारगर्भित ही हो सकती हैं । परन्तु इस विषय पर कोई चर्चा मेरे अध्ययन के मध्य मेरी दृष्टि में नहीं आई । व्याकरण और संस्कृत की पाठ्य-पुस्तकें कहीं थोड़ा उल्लेख कर देती हैं, बाकी तो यह विषय अछूता ही पड़ा लगता है । इस लेख में मैंने कुछ संज्ञाओं के चयन का रहस्य उद्घाटित करने का प्रयत्ना किया है । विद्वद् जन अवश्य मेरे प्रयास पर टिप्पणी करें ।
वृद्धिः (१।१।१) – अष्टाध्यायी की यह पहली संज्ञा आशीर्वचन भी है कि इस ग्रन्थ के पढ़ने वाले वृद्धि प्राप्त करें, ऐसा पतञ्जलि मुनि महाभाष्य में बताते हैं । सो, हम भी इसी से प्रारम्भ करते हैं (अन्य संज्ञाएं मैंने विषयवस्तु के अनुसार क्रमान्वित की हैं) । किसी वस्तु को बड़ा करने/होने को वृद्धि कहते हैं । सो, ‘इ’ कहते हुए मुंह बड़ा कर दिया जाए, तो ‘ऐ’ की ध्वनि निकलती है । इसी प्रकार ‘अ’ और ‘आ’ व ‘उ’ और ‘औ’ का सम्बन्ध समझना चाहिए । इसलिए ‘आ, ऐ, औ’ की वृद्धि संज्ञा हुई ।
गुणः (१।१।२) – वृद्धि के जितना मुंह न खोलकर, एक बार ही ‘गुणा’ करने पर, ‘इ’ और ‘उ’ बढ़कर क्रमशः ‘ए’ और ‘ओ’ के स्वर बनते हैं । इस प्रकार ‘गुण’ में मुख दुगुना और ‘वृद्धि’ में तिगुना खोलना होता है । यहां ‘अ’ को भी गुण कहा गया है, सम्भवतः वृद्धि के ‘आ’ के समानान्तर रखने के लिए ।
अनुनासिकः (१।१।८) – स्पष्टतः, मुख के अनन्तर नासिका से बोले जाने वाले वर्ण ।
सवर्णम् (१।१।९-१०) – स्पष्टतः, एक वर्ण के समान अन्य वर्ण ।
संयोगः (१।१।७) – जुड़े हुए व्यञ्जन, जिनके बीच में स्वर न हों, को ‘संयोग’ कहते हैं । जिस प्रकार स्वर के बिना व्यञ्जन नहीं उच्चारित किए जा सकते और वे उच्चारण की एक इकाई बनाते हैं, उसी प्रकार ये जुड़े व्यञ्जन अलग-अलग नहीं उच्चारित किए जा सकते । वे जैसे मिश्रित व्यञ्जन रूपी एक इकाई बन जाते हैं । इस घनिष्ठ सम्बन्ध को यह संज्ञा दर्शाती है ।
लघुः (१।४।१०) – यहां पाणिनि ह्रस्व अक्षरों की संज्ञा ‘ह्रस्व’ ही छोड़ सकते थे, ‘लघु’ करने की आवश्यकता नहीं थी, और ‘गुरु’ संज्ञा नई बनाकर उसमें दीर्घ व संयुक्त वर्णों को गिन सकते थे, परन्तु यहां इन संज्ञाओं का दार्शनिक महत्त्व लगता है (कई सूत्रों में ऐसा रहस्य है, ऐसा पतञ्जलि मुनि ने महाभाष्य में बताया है, जैसे “वृद्धिरादैच् (१।१।१)” और “स्वतन्त्रः कर्ता (१।४।५४)”) । जिसका ज्ञान छोटा हो, ह्रस्व हो, वह बालक के समान लघु होता है, परन्तु (गुरु के) संयोग से वह ‘लघु’ ‘गुरु’ हो जाता है – “संयोगे गुरु (१।४।११)” ।
गुरुः (१।४।११-१२) – द्रष्टव्य ‘लघु’।
सम्प्रसारणम् (१।१।४४) – फैलाने को ‘सम्प्रसारण’ कहते हैं । ‘य्, व्, र्, ल्’ से ‘इ, उ, ऋ, लृ’ में परिवर्तित होने पर, स्वतन्त्र रूप से न बोले जाने वाले वर्ण एक-मात्रिक स्वर में बदल जाते हैं । इस उच्चारण-काल के विस्तार को पाणिनि मुनि ने ‘सम्प्रसारण’ संज्ञा दी है ।
प्रगृह्यम् (१।१।११-१८) – विशेष प्रकार से ग्रहण होने वाले शब्द, अर्थात् जिनकी संहिता नहीं होती, की ‘प्रगृह्य’ संज्ञा इस लक्षण के कारण हो जाती है ।
विसर्गः/ विसर्जनीयम् – जिसका ‘विसर्जन’ अर्थात् छोड़ना इष्ट हो । सम्भवतः, विसर्ग का बोलना कठिन होने के कारण, वह सन्धि में सबसे अधिक परिवर्तित होकर अन्य वर्ण बन जाता है, जैसे स्, श्, इत्यादि । यहां तक कि, पूर्ण सन्धि होने पर, वह केवल ‘क्, ख्, प्, फ्’ के पूर्व, कुछ खर् के पूर्व और वाक्यान्त में ही शेष रहता है । इनमें से ‘क्, ख्, प्, फ्’ के पूर्व विसर्ग जिह्वामूलीय/उपध्मानीय में परिवर्तित किया जा सकता है (८।३।३७) । वैसे, यह संज्ञा पाणिनि ने नहीं दी है, परन्तु पूर्व से विद्यमान प्रतीत होती है ।
संहिता (१।४।१०८) – इसको लौकिक व्यवहार में ‘सन्धि’ कहा जाता है, परन्तु पाणिनि ने अपने ग्रन्थ में कहीं भी ‘सन्धि’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है । इसमें एक रहस्य निहित है – ‘संहिता’ शब्द में ‘जोड़ने’ के साथ-साथ ‘परस्पर हितकारिता’ का भाव भी विद्यमान है । संहिता का मुख्य उद्देश्य है – उच्चारण को सुगम बनाने के लिए वर्णों में परिवर्तन । ‘सन्धि’ शब्द का अर्थ है केवल ‘जोड़ना’, उसमें यह ‘हितकारिता’ – उच्चारण के लिए – का अर्थ निहित नहीं है । ‘सन्धि’ शब्द का प्रयोग कब और कैसे प्रारम्भ हुआ, यह अन्वेषणीय है ।
अवसानम् (१।४।१०९) – वर्णोच्चारण में विराम को पाणिनि ने ‘अवसान’ कहा । अब ‘विराम’ और ‘अवसान’ के लगभग एक ही अर्थ होते हैं । तो पाणिनि ने यहां विशेष संज्ञा देकर शास्त्र में गौरव क्यों उत्पन्न किया ? अवसान का एक अर्थ मैंने ‘सीमा’ भी पाया । यह अर्थ ‘विराम’ में नहीं । सम्भवतः, पाणिनि इस पर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं कि यह अवसान केवल वक्तव्य या वाक्य की समाप्ति का निर्देश नहीं है, अपितु पूर्ण शब्दों के उच्चारण के बीच में एक बहुत छोटा अन्तराल, जो एक शब्द की समाप्ति और दूसरे का प्रारम्भ इंगित करता है, वह भी है । इस अन्तराल की चर्चा महर्षि दयानन्द ने स्पष्टतः अपने व्याकरण के ग्रन्थ में की है ।
प्रातिपदिकम् (१।२।४५-४६) – प्रति पद में पाया जाने वाला – संज्ञाओं और सर्वनामों का मूल-रूप होने से यह संज्ञा है । इन शब्दों के आदि में होने से भी । ‘पद’ से यहां पाणिनि के द्वारा परिभाषित ‘पद’ संज्ञा से अभिलक्षित शब्दों को मानना भी सही है (देखें ‘पदम्’) ।
सर्वनाम (१।१।२६-३५) – जो शब्द सब संज्ञाओं के लिए प्रयोग हो सकें, वे सर्वनाम हुए । अर्थात् ‘रमेशः’ और ‘सुरेशः’ – दोनों को ‘सः’, ‘एषः’ वा ‘अयम्’ कह सकते हैं ।
निपातः (१।१।१४-१५, १।४।५६-९७) – ‘निपात’ का अर्थ है ‘नीचे को गिरा हुआ’ । निरुक्त १।४ में निपात का लक्षण कहा गया है – “उच्चावचेष्वर्थेषु निपतन्ति” अर्थात् अनेक प्रकार के अर्थों में ये शब्द ‘गिरते’ हैं, उनका बोध कराते हैं, इसलिए इनकी यह संज्ञा हुई । पाणिनि मुनि ने अष्टाध्यायी में यह संज्ञा निरुक्त के पुरातन अर्थ में ही ग्रहण की है ।
अव्ययम् (१।१।३६-४०) – जिसके रूप का व्यय अर्थात् परिवर्तन न हो, वह अव्यय कहा गया है । इस विभाग में, निपातों के साथ-साथ, अन्य प्रकार के शब्द सम्मिलित हैं जिनकी विभक्तियां या तो लुक् हो गईं, या होती ही नहीं हैं ।
उपसर्गः (१।४।५८) – उपसर्ग का मुख्य अर्थ तो ‘व्याधि’ प्रतीत होता है, परन्तु यौगिक अर्थ है ‘पास आना, जुड़ना’, जैसा कि प्रकृत सूत्र से स्पष्ट है – “प्रादयः उपसर्गाः क्रियायोगे” = “क्रिया से जुड़ने पर प्रादि निपातों की उपसर्ग संज्ञा होती है” । यहां पाणिनि ने ‘जुड़ना’ अर्थ ही ग्रहण किया है । निरुक्त १।३ में भी शाकटायन मुनि के मत में उपसर्ग नाम (संज्ञापद) या आख्यात (क्रियापद) से जुड़कर ही अर्थवान् होते हैं ।
गतिः (१।४।५९-७८) – इसके अन्तर्गत पाणिनि मुनि ने कुछ उपसर्गों, संज्ञाओं और अव्ययों को गिना है । ये शब्द अन्य क्रियावाची शब्दों से युक्त किए जा सकते हैं । यथा – अलम् से अलङ्करोति, अन्तर् से अन्तर्हृत्य । क्रिया से युक्त होने से, अक्रियावाची शब्द में जैसे ‘गति’ उत्पन्न हो जाती है, वह भी क्रिया का अंश हो जाता है, इसलिए यह संज्ञा ।
धातुः (१।३।१) – मौलिक अंश या आधार को ‘धातु’ कहते हैं । सभी क्रियावाची शब्दों का मूल या आधार होने से क्रियापदमूलों की यह संज्ञा है । यहां तक कि संज्ञाओं की भी धातुएं ही मूल हैं, ऐसा नैरुक्तों का सिद्धान्त है (निरुक्त १।११) । पाणिनि भी सम्भवतः इसी मत के अनुयायी थे, इसीलिए उन्होंने ‘धातु’ – ऐसी गम्भीर संज्ञा दी ।
प्रत्ययः – शब्द के अर्थ की प्रतीति उत्पन्न करने वाला, अर्थात् अर्थ की ओर ले जाने वाला । प्रत्यय के जुड़ने पर ही प्रातिपदिक और धातु के अर्थ स्पष्ट होते हैं, अपितु बिना प्रत्ययों के वैयाकरण इन दोनों को अर्थहीन मानते हैं ।
सार्वधातुकम् (३।४।११३) – वे प्रत्यय जो प्रायः सभी धातुओं से जुड़ते हैं, जैसे – तिङ् और शित् । तिङ् तो सभी धातुओं से जुड़ते ही हैं, परन्तु शित् – शप्, शतृ, शानच् इत्यादि – भी प्रायः सभी धातुओं से मेल रखते हैं ।
आर्धधातुकम् (३।४।११४) – सार्वधातुक के विपरीत, ये प्रत्यय कम धातुओं से जोड़े जा सकते हैं ।
परस्मैपदम् (१।४।९८), आत्मनेपदम् (१।४।९९) – ‘परस्मै’ = औरों के लिए । सो, जो प्रत्यय क्रिया में अपने से अन्य को महत्त्व देने का अर्थ दिलाए, उसे परस्मैपदी कहते हैं । इसके विपरीत ‘आत्मने’ = अपने लिए । सो, जो प्रत्यय क्रिया में अपने को महत्त्व देने का अर्थ दिलाए, उसे आत्मनेपदी कहते हैं । ये संज्ञाएं पाणिनि ने नहीं बनाई हैं, अपितु उनसे पूर्ववर्ती हैं । इन संज्ञाओं के अर्थ यथार्थ से पूरी तरह मेल नहीं खाते, परन्तु उनके अर्थ के रहस्य का बहुत बड़ा संकेत इससे मिलता है कि कर्मणि प्रयोग आत्मनेपद में ही होता है । इससे प्रतीत होता है कि कर्म को कहने वाली क्रिया, कर्ता से सम्बद्ध न होकर, अपने में पूर्ण होती है । यह उन आत्मनेपदी क्रियाओं में विशेषकर प्रतीत होता है, जो अकर्मक भी होती हैं, जैसे ‘लज्जते, वर्धते’ इत्यादि । तथापि यहां और शोध की आवश्यकता है ।
अङ्गम् (१।४।१३) – धातु या प्रातिपदिक से प्रत्यय जुड़ने पर पूर्व की अङ्ग संज्ञा इसलिए है कि शब्द इस ‘धातु/प्रातिपदिक + प्रत्यय’ के समूह का धातु/प्रातिपदिक अब अङ्ग = अवयव बन गया । इस ‘अङ्ग’ को ‘पद’ संज्ञा आगे प्राप्त हो न हो, यह ‘अङ्ग’ संज्ञा बनी रहती है ।
पदम् (१।४।१४-१७) – यह सबसे कठिन संज्ञाओं में से एक है, जबकि इसको विद्यार्थी सबसे पहले सीखता है ! इसके दो भाग हैं – १) सुप् और तिङ् को जोड़कर बने समूह का नाम ‘पद’ है । २) सर्वनाम-स्थान को छोड़कर, किसी भी शब्द से प्रायः सभी प्रत्ययों के जुड़ने पर उस शब्द की संज्ञा ‘पद’ हो जाती है । इस संज्ञा का अपवाद है – ‘भ’ संज्ञा (देखें ‘भम्’) । (यहां विचित्र बात यह है कि प्रातिपदिक ‘पद’ के स्वयं पहले पांच रूप (सर्वनाम-स्थान) नहीं पाए जाते !) इस ‘पद’ शब्द के अनेकों अर्थ हैं । उनमें से एक अर्थ है – वह जिसको कहा जा सके । यह अर्थ पहले भाग के पदों पर लगता है । एक और अर्थ है ‘कदम’ । दूसरे भाग के पदों के लिए इससे अर्थ हुआ ‘गन्तव्य शब्द की ओर एक कदम’। यह कदम इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इन पदों की संहिता पहले प्रकार के पदों के समान होती है ।
भम् (१।४।१८-१९) – उपर्युक्त दूसरे प्रकार के पद-संज्ञकों में, जहां प्रत्यय ‘य्’ अथवा अच् से प्रारम्भ होता है, वह ‘पद’ न कहलाकर, ‘भ’ कहे जाते हैं । क्यों ? मुझे यहां पाणिनि का व्यंग्य प्रतीत होता है । सुपों में भ्याम्, भिस्, भ्यस् और सुप् ही इस परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आते हैं । अर्थात् भ-आदि प्रत्यय का पूर्व भाग ‘भ’ नहीं कहलाता, ‘पद’ कहलाता है; अन्य शब्द ‘भ’ कहाते हैं !
आगमः – स्पष्टतः, जो आ जाए, वह आगम है । आगम किसी और के स्थान में नहीं आता, अपितु अपना स्थान स्वयं बनाता है । यह संज्ञा पाणिनि मुनि की नहीं, अपितु उनसे उत्तरकालीन वैयाकरणों ने बनाई है । पाणिनि ने इन्हें टित्, कित् व मित् ही कहा है (१।१।४५-४६) ।
आदेशः – व्याकरणाचार्य इसका अर्थ ‘किसी और के स्थान में आने वाला’ करते हैं, परन्तु पाणिनि ने स्वयं इस प्रकार आदेश शब्द का प्रयोग नहीं किया है । उन्होंने कहा है कि “स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ (१।१।५५)” अर्थात् अनल्विधि में षष्ठी के द्वारा लाए गए वर्ण को स्थानी के समान आदेश हों, अर्थात जो आदेश = निर्दिष्ट प्रक्रिया स्थानी पर आगे लगतीं, वे ही इस नए वर्ण पर लगें, जैसे ‘पद’ बनने पर सन्धि-प्रक्रिया में भेद । आदेश का यह अर्थ इस सूत्र से भी प्रमाणित होता है – “एच इग्घ्रस्वादेशे (१।१।४७)” अर्थात् ‘ह्रस्व हो जाए’ जब ऐसा आदेश दिया जाए, तो एच् को इक् हो जाए । यदि पाणिनि को ‘आदेश’ से ‘स्थान में आने वाला’ अर्थ इष्ट होता तो यह सूत्र होता – “एच इगादेशः ह्रस्वे” अर्थात् ह्रस्व निर्देश पर, एच् को इक् ‘आदेश’ हो । आदेश = निर्दिष्ट प्रक्रिया अर्थ करने पर ‘आदेश’ संज्ञा पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है ।
लोपः (१।१।६०) – नाश । “अदर्शनं लोपे (१।१६०)” सूत्र में पाणिनि कहते हैं कि अदर्शन का नाम ‘लोप’ है । सांख्यदर्शन कहता है – “नाशः कारणलयः (१।८६)” अर्थात् नाश का अर्थ सत्ताविहीन हो जाना नहीं है, अपितु अपने कारण में लय हो जाना है । पाणिनि ने यही दार्शनिक दृष्टिकोण यहां व्यक्त किया है ।
लुक्, श्लु, लुप् (१।१।६१) – ‘लुप विमोहने’ धातु के ‘लु’ को लेकर, उससे प्रत्यय-लोप के कित्, शित् और पित् रूप पाणिनि ने यहां बनाए हैं । इनसे आगे की प्रक्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है । इस अर्थ का पोषण ‘न लुमताङ्गस्य (१।१।६२)” सूत्र भी करता है, जहां पाणिनि ने प्रत्यय के लोप और उसके लुक्/श्लु/लुप् में भेद बताया है ।
उपधा (१।१।६४) – निकट में स्थित, जो अन्त्य न हो, परन्तु अन्त्य वर्ण के निकट हो, उसे ‘उपधा’ की संज्ञा दी गई ।
अपृक्तः (१।२।४१) – जो किसी से जुड़ा न हो, अकेला हो, उसे ‘अपृक्त’ कहते हैं । इसलिए जिस प्रत्यय में केवल एक अल् हो, उसे यह संज्ञा दी गई ।
वृद्धम् (१।१।७२-७४) – यह संज्ञा तो परिभाषा से ही स्पष्ट है – “वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद्वृद्धम् (१।१।७२)” – जिस शब्द के अचों में आदि अच् वृद्धि- संज्ञक हो, उस शब्द का नाम ‘वृद्ध’ है ।
नदी (१।४।३-६) – किसी समूह के एक उपयुक्त प्रतिनिधि के नाम से समूह को उपलक्षित करना तो पाणिनि से भी पुरातन पद्धति है । पाणिनि ने उसी पद्धति के अनुसार, ‘नदी’ जैसे ईकारान्त शब्द से, सारे ईकारान्त व ऊकारान्त शब्दों का ग्रहण कराया । यह लाघव के लिए तो है ही, परन्तु सुरुचिपूर्ण होने से, स्मरण रखने में भी सरल है ।
सङ्ख्या (१।१।२२) – ‘नदी’ के समान, संख्याएं इस समूह का मुख्य अवयव हैं । सो, लघुत्व के लिए – संज्ञाओं की संख्या को न बढ़ाने के लिए – पाणिनि ने ‘सङ्ख्या’ के अन्तर्गत कुछ अन्यों को भी गिन लिया ।
षट् (१।१।२३-२४) – यहां भी, ‘सङ्ख्या’ के समान, लघुत्व के लिए, ‘षट्’ के अन्तर्गत, षट् के साथ-साथ, कुछ अन्यों को सम्मिलित कर लिया गया है ।
कर्मप्रवचनीयः (१।४।८२-९७) – कर्मप्रवचनीय शब्द स्वयं तो निपात होते हैं, परन्तु उनसे सम्बद्ध शब्द प्रायः द्वितीया विभक्ति = कर्म कारक में होते हैं (२।३।८), यथा – “उप हरिं सुराः” । इस प्रकार कर्मप्रवचनीय शब्द, जो शब्द “कर्तुरीप्सितमं कर्म (१।४।४१)” आदि से ‘कर्म’ संज्ञा वाले नहीं होते, उन्हें भी कर्म को कहने वाला बना देते हैं ।
विभक्तिः (१।४।१०३) – कारक के अनुसार सुपों के विशेष रूप से भाजन को ‘विभक्ति’ संज्ञा मिली ।
समासः (२।१।३) – संक्षेपीकरण को समास कहते हैं । सो, स्पष्ट ही है ।
बहुव्रीहिः (२।२।२३) – यह एक अत्यन्त रोचक संज्ञा है, जो कि वास्तव में अपना ही उदाहरण है ! “बहु व्रीहिः यस्य अस्ति, सः बहुव्रीहिः” – यह इस समास का विग्रह-वाक्य है । ‘नदी’ के समान, इस प्रकार से संज्ञा में रोचकता उत्पन्न हो जाती है ।
तत्पुरुषः (२।१।२१) – बहुव्रीहि के समान, यह संज्ञा भी है व अपना उदाहरण भी – “सः पुरुषः = तत्पुरुषः” ।
कर्मधारयः (१।२।४२) – ‘कर्म’ का अर्थ ‘स्वाभाविक गुण’ भी होता है, जो कि प्रायः विशेषण से व्यक्त किया जाता है । ‘कर्मधारय समास’ = “कर्म को धारण करने वाले समास’ में इन्हीं विशेषणों को जोड़ा जाता है । इसलिए यह संज्ञा ।
द्विगुः (२।१।५१) – यह भी अपना ही उदाहरण है – “द्वाभ्यां गोभ्यां यः क्रीतः, सः द्विगुः” । एक और बात यहां ध्यान देने योग्य है कि द्विगु कर्मधारय समास के अन्तर्गत है, परन्तु यह उदाहरण, व कुछ अन्य शब्द भी – जैसे षण्णमातुरः, वास्तव में बहुव्रीहि समास हैं, कर्मधारय नहीं ! परन्तु सभी शब्द बहुव्रीहि नहीं हैं, जैसे – चतुर्युगं, त्रिलोकी – ये तो कर्मधारय ही हैं । संख्या शब्द को अधिक महत्त्व देते हुए सम्भवतः पाणिनि मुनि ने ऐसी अलग संज्ञा दी है ।
द्वन्द्वः (२।२।२९) – जबकि द्वन्द्व समास एक से अधिक शब्दों के मेल से बनता है, परन्तु प्रायः इसमें दो ही शब्दों का योग होता है । द्वन्द्व = जोड़ा इसीलिए इस समास की संज्ञा है ।
अव्ययीभावः (२।१।५) – अव्यय के योग से, और प्रायः समासित शब्द के अव्यय होने से, यह संज्ञा है ।
उपसर्जनम् (१।२।४३-४४) – उपसर्जन का अर्थ ‘जोड़ना’ भी होता है और ‘अप्रधान होना’ भी । क्योंकि पहले शब्द से दूसरा शब्द जुड़ता है, और क्योंकि इस संयोग से पहले शब्द की प्रधानता कम हो जाती है, इसलिए यह शब्द बड़ी योग्यता से समास के पहले शब्द को वर्णित करता है ।
कृत् (३।१।९३) – जो क्रिया का करने वाला है, उसे ‘कृत्’ कहते हैं । जबकि इन अर्थों से अन्य अर्थ भी सम्पादित होते हैं, जैसे क्रिया का भाव, तथापि मुख्य अर्थ कर्ता का ही बनता है । इसलिए यह संज्ञा । कृत् पद स्वयं अपना उदाहरण भी है ।
निष्ठा (१।१।२५) – निष्ठा का अर्थ है ‘समाप्ति’ । इसके अन्तर्गत ‘क्त’ और ‘क्तवतु’ प्रत्यय क्रिया के पूर्णतया समाप्त होने, अर्थात् भूतकाल में होने, को कहते हैं ।
सत् (३।२।१२७) – शतृ और शानच् प्रत्ययों का यह नाम ‘निष्ठा’ जैसा सुस्पष्ट है – जो ‘विद्यमान’ है, अर्थात् क्रिया वर्तमान में चालू है, वह सत् है । यह पद भी अपना ही उदाहरण भी है ।
विभाषा (१।१।४३) – यह एक और रोचक संज्ञा है । परिभाषा “न वेति विभाषा (१।१।४३)” में निषेध और विकल्प को ‘विभाषा’ कहा गया है । महाभाष्य में भी इसकी बहुत चर्चा है, क्योंकि यह ‘न’ और ‘वा’ से लघु नहीं है और ‘विभाषा’ का स्वयं अर्थ विकल्प ही है । महाभाष्य की चर्चा से ज्ञात होता है कि ‘न’ कहने से ऋषि यह स्पष्ट करना चाहते थे कि प्राप्त में अप्राप्त तो हो ही, परन्तु अप्राप्त में प्राप्त भी हो । सो ‘वा’ का अर्थ ‘हो जाए’ है । यह बात हम न भूलें, इसलिए उन्होंने गुरुतर संज्ञा को यहां रखा ।
कारकों, प्रथमादि पुरुषों, एकादि वचनों की संज्ञाएं तो सुस्पष्ट हैं, इसलिए मैंने उनकी यहां व्याख्या नहीं की है । कुछ अन्य संज्ञाएं शेष हैं, जैसे ‘तद्धितः, उपपदम्’ आदि, जिनको मैंने विस्तरभय से यहां नहीं दिया है । कुछ अन्य हैं, जैसे ‘सर्वनामस्थानम्’, जो मुझे स्पष्ट नहीं हैं ।
कुछ संज्ञाएं तो बिल्कुल ही अर्थहीन लगती हैं, जैसे – घ, घि, घु, टि, इत् इत्यादि । ये स्पष्टतः लाघव के लिए हैं, परन्तु वर्णों के चयन से लगता है कि जो वर्ण कम प्रयोग होते हैं, अथवा लक्षित शब्दों में द्विविधा उत्पन्न न करते हों, ऐसे वर्णों को ऋषि ने चुना है । तथापि, जैसा कि मैंने ‘भम्’ में दर्शाया है, यहां वर्ण के चुनाव में और भी गहनता निहित हो सकती है । यह विषय विचारणीय है और शोध की अपेक्षा रखता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अष्टाध्यायी में कोई भी प्रयोग अर्थहीन नही है, अपितु अति गम्भीर है ।