उभयपदी धातुओं की विशिष्टता
इस लेख में मैंने उभयपदी धातुओं के परस्मैपद और आत्मनेपद प्रयोगों की विशिष्टता पर ध्यान आकृष्ट किया है । आज हम इन दोनों प्रयोगों में भेद नहीं करते हैं, और कहीं भी किसी का भी प्रयोग कर लेते हैं । परन्तु प्राचीन भारत में, जब मानव-बुद्धि की धारणा-शक्ति हमसे कहीं अधिक थी, तब संस्कृत व्याकरण के प्रत्येक रूप का बड़ी सावधानी से प्रयोग होता था । इस लेख में इनसे जनित अर्थ-भेदों को उजागर कर रही हूं ।
उभयपद प्रयोग के विषय में अष्टाध्यायी का सूत्र है –
स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले ॥ अ० १।३।७२ ॥ अनुवृत्तिः – आत्मनेपदम् ॥
अर्थात् जिन धातुओं को पाणिनि ऋषि ने स्वरित-स्वर-युक्त या ञित् बनाया है, वे क्रिया के फल के विषय में, कर्ता के अभिप्राय वाली होने पर, आत्मनेपदी होती हैं । जब क्रियाफल किसी और के लिए अपेक्षित होता है, तो “शेषात् कर्तरि परस्मैपदम् ॥ १।३।७८ ॥” से परस्मैपद ही हो जाता है । सो, कोई यज्ञ अपने लिए करता है तो कहा जायेगा, “सः यजते ।” परन्तु जब किसी अन्य यजमान के लिए यज्ञ करेगा, तो कहेंगे, “सः यजति ।” इस प्रकार इस प्रकरण में आने वाली धातुएं उभयपद होती हैं ।
आजकल की संस्कृत में यह अर्थ-भेद नहीं पाया जाता और अधिकतर छन्द के अनुसार एक या दूसरे शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है । परन्तु पुराने ग्रन्थों में इस प्रकार का प्रयोग स्पष्टतः देखने में आता है, और वह अर्थ में चार चाँद लगा देता है । इसके कुछ सुन्दर दृष्टान्त मैंने केनोपनिषद् में पाए । केन के अन्तिम दो खण्डों में एक आख्यायिका वर्णित है, जिसमें ब्रह्म अपने को देवों से अधिक शक्तिशाली स्थापित करते हैं । वहां एक वाक्य आता है –
तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव । तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति ॥ केन० ३।२ ॥
इसकी पृष्ठभूमि में, ब्रह्म ने जब देवताओं के लिए विजय प्राप्त की, परन्तु जब देवता उसको अपनी जीत मानकर गर्वान्वित होने लगे, तदनन्तर यह वाक्य आता है जिसका तात्पर्य है कि वह ब्रह्म देवों के इस गर्व को जान गए और उनके सामने यक्ष-रूप में प्रकट हुए । वे देवता नहीं समझ सके कि यह यक्ष कौन है ।
इस वाक्य में विज्ञा धातु के दो रूप आते हैं – विजज्ञौ और व्यजानत । पहला परस्मैपद लिट् १।१ है, दूसरा आत्मनेपद लङ् १।३ है । पहला प्रयोग है – उस ब्रह्म ने उन देवों का विचार जान लिया । सो, परस्मैपद के कारण अर्थ बना – ब्रह्म ने देवों के लिए उनका विचार जान लिया । यह तो बड़ा ही अटपटा है ! भला, कोई भी किसी और के लिए क्योंकर कुछ भी जानेगा ?! यह परस्मैपद का प्रयोग हमें विचार करने के लिए बाध्य करता है । तब समझ में आता है कि ब्रह्म अपने लिए तो कुछ करता ही नहीं है ! जो उसने देवों के गर्व को समझा तो उनको ही समझाने के लिए समझा, जिससे वे अपने से बड़ी उस शक्ति को जान पाएं, समझ पाएं । ब्रह्म को तो किसी की प्रशंसा की अपेक्षा है ही नहीं । इस प्रकार हमें अर्थ की गहनता ज्ञात हुई ।
दूसरा प्रयोग है ’व्यजानत’ – वे देव नहीं जान पाए कि यह यक्ष कौन है । यहां देवों ने अपने लिए समझा कि हम इस यक्ष को नहीं पहचान पा रहे हैं । इस ज्ञान से ब्रह्म को कोई अपेक्षा नहीं थी ।
अगले वाक्य में इसी धातु का पुनः प्रयोग होता है –
तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥ केन० ३।३ ॥
उन देवों ने अग्नि को अपने बीच चुना और उससे कहा, “हे जातवेद! तुम पता करो कि यह यक्ष कौन है ।”
यहां ’विजानीहि’ परस्मैपद लोट् २।१ में है । इससे ज्ञात होता है कि देवों ने अग्नि-देव से स्वयं के लिए पता लगाने के लिए नहीं, अपितु उन सबके लिए पता लगाने के लिए कहा । उभयपदों की इस प्रयोग-विशेषता को जाने बिना यह बात नहीं जानी जा सकती ।
आगे हमें कुछ और रोचक उदाहरण मिलते हैं –
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति … ॥ केन० ३।६ ॥
यक्ष-रूपी ब्रह्म ने अग्नि के लिए एक तृण रख दिया और कहा कि इसको जला ।
यहां ’निधा’ धातु उभयपदी है । उसका ’निदधौ’ रूप परस्मैपद लिट् १।१ है । इससे ज्ञात होता है कि ब्रह्म ने तृण अग्नि के लिए रखा, अपने लिए नहीं । वैसे यह तो यहां स्पष्ट ही है, तथापि इसके महत्त्व को समझने के लिए हम एक दूसरा प्रकरण सोच सकते हैं जहां वह प्रकरण देवों के बीच होता और अग्नि देव वायु देव के लिए तृण रखते, तो वह अपनी अधिक शक्ति को प्रमाणित करने के लिए ऐसा करते, न कि वायु को कुछ देने के लिए । तब वहां हमें ’निदधे’ रूप का प्रयोग करना उचित होता । इस प्रकार यहां भी हम समझ सकते हैं कि अपनी शक्ति की उत्तमता बताने में ब्रह्म का प्रयोजन अन्यों के लिए ही है, अपने लिए नहीं ।
आगे भी –
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति … ॥ केन० ३।१० ॥
जब वायु यक्ष के पास पहुंचता है, तो यक्ष उसके लिए भी एक तृण रखता है और कहता है, “इसको उठा ले ।”
यहां आने वाली ’आदा’ धातु उभयपदी है । उसके लोट् २।१ का परस्मैपदी रूप ’आदत्स्व’ से ज्ञात होता है कि वास्तव में यक्ष कह रहा है, “इस तिनके को अपने लिए उठा – अपनी शक्ति को आजमाने के लिए उठा । मैं तो पहले से ही सब जाने बैठा हुआ हूं ।”
आगे एक विस्मयात्मक प्रयोग आता है –
… तस्मात् तिरोदधे ॥ केन० ३।११ ॥
सब देवों के अन्त में इन्द्र जब यक्ष के निकट पहुंचे, तो यक्ष उनसे छिप गया ।
यहां आने वाली ’तिरोधा’ धातु उभयपदी है । उसके आत्मनेपद लिट् १।१ का प्रयोग किया गया है, जिससे अर्थ बना – यक्ष अपने लिए छिप गया । भला ब्रह्म जीवात्मा से अपने लिए क्यों छिपेगा ? छिपेगा तो जीवात्मा के लिए छिपेगा, अपने लिए क्यों ? जिस ब्रह्म को किसी से कुछ अपेक्षा नहीं है, वह अपने लिए क्यों छिप गया ? इसपर विचार करने से उपनिषत्कार एक बहुत ही गूढ़ सन्देश दे रहे हैं, ऐसा ज्ञात होता है । वे कह रहे हैं कि परमात्मा चाहता है कि जीवात्मा बहुत तप करके उनको पाए । जबकि अन्त में यह योग जीवात्मा के लिए ही कल्याणकारी सिद्ध होता है, परन्तु परमात्मा अपने लिए अपने भक्त की परीक्षा लेते हैं कि मेरे लिए इसका प्रेम कितना गहरा है । इसे उपनिषत्कार की कल्पना भी माना जा सकता है क्योंकि वैसे तो परमात्मा से भक्त की भक्ति छुपी नहीं है, तथापि इससे सम्भवतः वे इस बात पर ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं कि, प्रकट संसार के समान, परमात्मा अपने को भी प्रकट कर सकते थे । परन्तु उनको यह करना इष्ट नहीं था, उन्हें अपने भक्त का उन्हें ढूढ़ना इष्ट था ।
उपरोक्त से अनायास ही प्रश्न उठता है कि क्या फिर परस्मैपदी धातुएं सर्वदा औरों के लिए होने वाली क्रियाओं के लिए होती हैं और आत्मनेपदी धातुएं सर्वदा अपने लिए होने वाली क्रियाओं के लिए ? सो, ऐसा सम्बन्ध मैंने तो नहीं पाया, जैसे ’भवति’ और ’वर्तते’ पर्यायवाची हैं, परन्तु एक परस्मैपदी और दूसरी आत्मनेपदी है । तथापि यदि विद्वानों का इस विषय में कोई भिन्न मत है, तो अवश्य अवगत कराएं ।
संस्कृत की प्रत्येक विशेषता के समान, उभयपदी पदों का प्रयोग अपने अन्दर बहुत अर्थ संजोए होता है । उस विशेष अर्थ को समझने से हमें प्राचीन वक्ताओं के निहित अर्थ ज्ञात होते हैं । इससे हमारे ज्ञान में संवर्धन होता है । इसलिए इन पदों के परस्मैपदी और आत्मनेपदी प्रयोगों के ऊपर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए, इनके ऊपरी अर्थ को ही समझकर सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए ।