श्वेताश्वतरोपनिषद् में त्रैतवाद
सौ से अधिक उपनिषदों में से दस मुख्य माने गए हैं, इसलिए कि शंकराचार्य ने उनके भाष्य लिखे हैं । अवश्य ही वे उस समय प्रसिद्धतम होंगे, इसीलिए उन्होंने उनपर भाष्य भी लिखे । फिर उनके मतानुयायियों ने उन दस की और भी प्रसिद्धि कर दी । एक उपनिषद् और भी है जिसपर शंकर ने भाष्य लिखा । वह है श्वेताश्वतर । इसमें त्रैतवाद इतनी स्पष्टतया दिया गया है कि सम्भवतः शंकर भी उसको अद्वैतवाद का चोगा ठीक से नहीं पहना सके । इसलिए इस उपनिषद् को सम्भवतः वेदान्ती इतनी प्राथमिकता नहीं देते हैं । इस लेख में मैं श्वेताश्वतर के इस अंश पर प्रकाश डाल रही हूं ।
श्वेताश्वतर उपनिषद् में, अन्य उपनिषदों के समान, जीवात्मा और परमात्मा के सम्बन्ध पर विषद विचार किया है, परन्तु उसका मुख्य विचारणीय विषय, जिसको कि ऋषि ने प्रथम श्लोक में ही कह दिया है, है – इस ब्रह्माण्ड के कारण, जीवों की उत्पत्ति और उनके सुख-दुःख की व्यवस्था के हेतु । मानव का पुरातन प्रश्न – हम कहां से आए हैं और कहां जा रहे हैं – को इसमें उठाया गया है, और उसका उत्तर सुष्ठुतया दिया गया है । वास्तव में, यह उपनिषद् सम्भवतः सब उपनिषदों में से सबसे स्पष्ट रूप से परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का व्याख्यान करता है । ध्यान की प्रक्रिया भी यहां स्पष्ट शब्दों में दी गई है । काव्यात्मक दृष्टि से भी यह अति सुन्दर है । इसके श्लोक अनेकों प्रकरणों में दौहराए जाते हैं । अनन्य भक्ति से ये सभी ओत-प्रोत हैं । इस उपनिषद् में अधिकतम वेद-मन्त्र भी उल्लिखित हैं । चुने हुए सबसे बढ़िया वेद-मन्त्र यहां होने के कारण, जो भी वेदों से परिचित होना चाहता है, उसे इस उपनिषद् को अवश्य पढ़ना चाहिए ।
त्रैतवाद का प्रधान उपमात्मक वेदमन्त्र यहां जैसा का तैसा दिया गया है –
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्ववत्त्य-
नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ ४।६ ॥
अर्थात् (इस संसार में,) दो सुन्दर गुण-रूपी पंखों वाले पक्षी हैं (परमात्मा और जीवात्मा), जो कि साथ-साथ रहते हैं और एक-दूसरे के सखा हैं, एक ही वृक्ष (संसार) से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । उनमें से एक (जीव) तो पेड़ के फलों (सांसारिक भोगों) को स्वाद ले-लेकर खाता है, जबकि दूसरा, बिना कुछ भी खाए हुए, उसको देखता रहता है । बड़े संक्षेप में और बहुत ही सुन्दरता से इस मन्त्र में तीन अस्तित्वों और उनके सम्बन्ध का वर्णन हो जाता है !
श्वेताश्वतर ऋषि ने इसको और भी आगे बढ़ाया, और कहा –
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नो-
ऽनीशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीश-
मस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥ ४।७ ॥
उसी वृक्ष पर पुरुष, अर्थात् जीवात्मा, तो भोगों में निमग्न रहता है । इस कारण वह प्रकृति के वशीभूत होकर, सांसारिक वस्तुओं से मोह करता हुआ, दुःखों को प्राप्त होता रहता है । परन्तु जब वह, अपने द्वारा ध्यान से सेवित किए जाने पर, अपने से अन्य ईश को देखता है, और उसकी महिमा का उसको बोध होता है, तब वह सब शोकों से दूर हो जाता है । कितनी सुन्दरता से ऋषि ने, वेद-मन्त्र की शैली में ही, परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग बता दिया ! साथ-साथ उन्होंने परमात्मा और जीवात्मा की भिन्नता को विस्पष्ट कर दिया । इनको अब एक बताना मूर्ख ही करेगा !
इससे पूर्व ऋषि ने एक और श्लोक रचा है –
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां
बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते
जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ ४।५ ॥
(इस ब्रह्माण्ड में) एक अजन्मी, या उपमा से, एक अजा = बकरी (प्रकृति) है जो कि लाल, सफेद और काले रंग (रज, सत्त्व और तम) वाली है । वह अपने जैसे रूप में बहुत प्रजाओं (वस्तुओं) को सृजती है, जन्म देती है । एक अजन्मा, या अज = बकरा (जीवात्मा), उसका भोग करता हुआ लेटता है, जबकि दूसरे एक अजन्मे, या बकरे (जीवात्मा), ने पहले ही उस बकरी का भोग करके उसको त्याग दिया है । जहां यह उपमा जीव और प्रकृति के सम्बन्ध में विस्पष्ट है ही, वहां यह देखने योग्य है कि विरक्त आत्मा का ब्रह्म से एकत्व नहीं कहा गया है – उसे अलग ही माना गया है । ’अजन्मा’ होने का भी अर्थ है कि आत्मा किन्हीं वस्तुओं के संयोग या परिणाम से नहीं उत्पन्न नहीं हुआ है, परन्तु उसकी सत्ता भी अनादि है । यदि जीवात्मा परमात्मा का विकार होता तो उसे जन्म-वाला ही मानना पड़ता, जिस प्रकार प्रकृति के सभी विकारों का ’जन्म’ बताया गया है । इसी प्रकार प्रकृति को भी ’अजा’ कहा गया है । उसको परमात्मा मानना तो घोर मूर्खता है !
अन्य एक श्लोक तीनों सत्ताओं में भेद बताता है –
ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशा –
वजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता ।
अनन्तश्वात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता
त्रयं यदा विन्दते ब्रह्मेतत् ॥ १।९ ॥
अर्थात् दो अज हैं, एक तो ज्ञ है – जानने वाला है, सर्वज्ञ है; दूसरा अज्ञ है – कम जानता है ; एक सब पदार्थों का प्रभु है, दूसरा उसके वश में रहता है ; और तीसरी एक अजा भोक्ता के भोग के लिए युक्त होती है । जब यह जीव, जो कि अनन्त आत्मा है, अनेक शरीर धारण करने से ’विश्वरूप’ है और अकर्ता है (क्योंकि शरीर ही कर्ता है), इन तीनों सत्ताओं को जान लेता है, तब वह ब्रह्म को पा लेता है । इससे स्पष्ट रूप से और क्या कहा जा सकता है ?!
अन्य एक सुप्रसिद्ध श्लोक परमात्मा का स्वरूप बताता है –
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते
न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ ६।८ ॥
अर्थात् उस परमात्मा का न कार्य, न करण है । उसके बराबर ही कोई नहीं दिखता, तो उससे अधिक का तो कहना ही क्या ! उसकी शक्ति सबसे अधिक है और विविध प्रकार की है, ऐसा वेदादि शब्द प्रमाण हैं । उसमें ज्ञान, बल और क्रिया स्वाभाविक रूप से वर्तमान है । जैसे जीव में प्रकृति के सहारे से ज्ञान, बल और क्रिया होती है, ऐसा परमात्मा के विषय में सत्य नहीं है । इस पूरे ही वर्णन से स्पष्ट है कि जीवात्मा कभी भी परमात्मा का विकार नहीं हो सकता । जिसका कार्य ही नहीं है, तो विकार कैसे मानें ?! जिसका कोई सहाय के लिए उपकरण नहीं है, जिसके कोई बराबर नहीं है, जिसकी शक्ति अपार है, जिसका ज्ञान, बल और क्रिया अपने स्वरूप से ही है, वह एक क्षुद्र प्राणी में कैसे संकुचित हो जायेगा ?
तथापि एक श्लोक है जिसमें यह सन्देह होता है कि सम्भवतः अद्वैतवाद का ऋषि समर्थन कर रहे है –
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं
नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित् ।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा
सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ १।१२ ॥
जिसका अर्थ है – यह देव (पिछले श्लोक से), जो सदा ही हमारी आत्मा के अन्दर बैठा होता है, जानने योग्य है । इससे बढ़कर कुछ भी जानने योग्य नहीं है । भोक्ता (जीवात्मा), भोग्य (प्रकृति) और प्रेरिता (परमात्मा) को जानकर, सब (जान लिया जाता है) । (इस प्रकार) यह तीन प्रकार का ब्रह्म कहा गया है । सो, यहां यह समझा जा सकता है कि ये तीनों ब्रह्म के ही रूप हैं । यहां ’ब्रह्म’ से ’परमात्मा’ समझना इसलिए गलत है क्योंकि, इससे पहले, श्लोक के बाद श्लोक में भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता के भेद को पुनः पुनः कहा गया है । १।६ में भी स्पष्टतः कहा गया है –
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते
अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥१।६॥ –
अर्थात् ब्रह्माण्ड के प्रेरक को अपने से अलग जानकर, और फिर उसका ध्यान आदि से सेवन करके, जीव अमृत्व प्राप्त कर लेता है । इस श्लोक में ब्रह्माण्ड को ’ब्रह्मचक्र’ कहा गया है, जिसको कि परमात्मा घुमाता है । इससे भी हमें संकेत मिलता है कि प्रकृत् श्लोक में ’ब्रह्म’ का अर्थ ’परमात्मा’ न होकर, ’ब्रह्माण्ड’ ही है ।
नीचे दिए वैदिक मन्त्र, जिनका उल्लेख उपनिषद् में हुआ है, को भी अद्वैतवाद में घटाया जा सकता है –
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदापस्तत् प्रजापतिः ॥ ४।२॥
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥ ४।३ ॥
परन्तु इन सभी स्थलों पर परमात्मा को ही प्रकृति के विकार या जीवात्मा मानना ऋषि के अन्य सभी वचनों को नकारने और दुराग्रह से अपने मत को स्थापित करने के तुल्य होगा ।
उपरोक्त से अन्यत्र, वस्तुतः सर्वत्र, श्वेताश्वतर ऋषि ने परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति की भिन्न सत्ता, उनके भिन्न गुण-कर्म-स्वभाव को दर्शाया है । उन्होंने यह भी कहा है कि परमात्मा अपने ही गुणों से छुपा हुआ है – देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् (१।३), और यह कि उसे समाधि में ही पाया जा सकता है । इस पर भी विशेष ध्यान देना आवश्यक है – यदि इस संसार में परमात्मा को बुद्धि से, या मन से, ढूढ़ेंगे, तो हमें कभी भी कुछ भी हाथ नहीं लगेगा ! इसलिए उपनिषद् में ध्यान लगाने की प्रक्रिया का भी विषद वर्णन है ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जिस सुन्दरता और स्पष्टता से यह उपनिषद् ब्रह्माण्ड के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर देता है, और मोक्ष का मार्ग बताता है, उतना सम्भवतः किसी भी उपनिषद् में नहीं दिया गया है । उपनिषदों में श्वेताश्वतरोपनिषद् एक अन्परखा रत्न है !