छान्दोग्योपनिषद् में श्वेतकेतु की कथा
छान्दोग्योपनिषद् अपने बृहद् आकार में अनेकों कथाओं को समेटे हुए है । लम्बी, छोटी – प्रत्येक प्रकार की कथा यहां प्राप्त होती है । अनेकों कथाएं बहुत प्रसिद्ध हैं, जैसे – जाबाल सत्यकाम को विद्या-प्राप्ति, उसका उपकोसल को उपदेश, प्राण और इन्द्रियों का विवाद, नारद को सनत्कुमार का उपदेश, आदि । इन्द्र और विरोचन की कथा जिसपर मैंने अन्य एक लेख में प्रकाश डाला है । अबकी बार हम एक ऐसी कथा देखते हैं जिसके लिए यह उपनिषद् प्रसिद्ध है और जिसके अर्थ कुछ विवादास्पद हैं । मैं भी जो व्याख्या लिखने वाली हूं, उसका कुछ अंश मेरी स्वयं की समझ से है, और अन्य व्याख्याकारों से थोड़ा भेद रखती है । इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस कथा के अर्थ कितने गूढ़ हैं ।
छान्दोग्योपनिषद् सामवेद के अन्तर्गत है । सामों (= सामवेद के मन्त्रों) को गाने वालों का नाम ‘छन्दोग’ होता है । उनके द्वारा रचित अथवा मान्य ग्रन्थ का नाम हुआ ‘छान्दोग्य’ । यह उपनिषद् छान्दोग्य ब्राह्मण का भाग है, जिसके दश अध्यायों में से अन्तिम आठ अध्याय उपनिषद् रूप में प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार उपनिषद् में प्रपाठक नामक अष्ट अध्याय हैं । प्रत्येक प्रपाठक खण्डों में बटा है, जिसमें कि गद्यात्मक वाक्य-विभाग हैं जिनका नाम प्रवाक है ।
जिस कथा पर आज हम दृष्टिपात कर रहे हैं, वह है श्वेतकेतु को उसके पिता उद्दालक द्वारा ‘तत्त्वमसि’ का उपदेश । वैसे तो पूरा षष्ठ प्रपाठक ही उद्दालक के उपदेश-विषयक है, तथापि यहां हम केवल उसके तत्त्वमसि-विषयक भाग (६।७-१६) को ही देखेंगे । यह भाग पूर्व के भागों से सम्बद्ध तो है ही, परन्तु विस्तर-भय से मैं केवल इतना ही अंश ले रही हूं । पूरा प्रकरण समझने के लिए उपनिषद् अवश्य पढ़ें ।
उद्दालक अपने पुत्र को जीवात्मा का रहस्य बताते हुए कहते हैं, “हे श्वेतकेतु ! यह जो (पूर्व-वर्णित) सूक्ष्म प्रकृति से यह सब दृष्ट जगत् बना हुआ है, वह सत्य है (सत्तावान् और सत्तावान् को धारण करने वाला है), वह ‘ऐतदात्म्य’ है, इस आत्मवान् है, जो वह आत्मा तुम हो (स आत्मा तत् त्वम् असि) ।” श्वेतकेतु को इससे पूर्णतया समझ में नहीं आया, जैसे हमको भी इस वाक्य से सम्भवतः न आया हो ! इसलिए उद्दालक और समझाते हैं, “बेटे ! जिस प्रकार मधुमक्खी मधु बनाती है, तो विभिन्न वृक्षों के रस लाकर एक रस बन जाता है । तब किसी रस को यह विवेक नहीं रहता कि मैं किस वृक्ष का रस हूं । इसी प्रकार ये सारी प्रजाएं (जीव-जन्तु) सत् (प्रकृति) को प्राप्त होकर, यह नहीं जानते कि हम सत् को प्राप्त हो गए हैं ।” यहां अर्थ थोड़ा स्पष्ट होता है । महर्षि उद्दालक कह रहे हैं कि प्रकृति सत्-रूपा है – असत् हो, ऐसा नहीं है; और जीवात्मा भी सत् है – वह प्राणियों की आत्मा है । परन्तु शरीर प्राप्त करके अपनी सत्ता को भूल-सा जाता है, जिस प्रकार रस भूल जाते हैं कि वे कहां से आए ।
इसी बात को विस्पष्ट करते हुए, आचार्य कहते हैं, “वे (आत्माएं) इस संसार में व्याघ्र वा सिंह वा भेड़िया वा सूअर वा कीड़ा वा पतङ्गा वा मच्छर वा मक्खी – जो कुछ भी बनते हैं, वे वह ही हो जाते हैं (अर्थात् अपनी स्वतन्त्र सत्ता भूल जाते हैं) ।” फिर वे पुनः उपरि-निर्दिष्ट तत्त्वमसि-उपदेश दोहराते हैं । तथापि श्वेतकेतु की जिज्ञासा शेष रहती है, सो वह कहता है, “भगवन् ! आप इस विषय में मुझे और बताएं ।”
उद्दालक आगे कहते हैं, “हे सोम्य ! ये नदियां कुछ पूर्व को बहती हैं और कुछ पश्चिम को । वे समुद्र से निकलकर (वाष्प, मेघ और वर्षा होती हुई), समुद्र में ही विलीन हो जाती हैं । वहां जैसे उनको ज्ञात नहीं रहता कि में अमुक नदी थी, मैं अमुक नदी थी, उसी प्रकार, सोम्य ! ये सारी प्रजाएं सत् से आकर (पूर्व जन्म के शरीर से निकलकर), यह नहीं जान पातीं कि हम सत् से आएं हैं । वे इस संसार में व्याघ्र वा सिंह वा भेड़िया वा सूअर वा कीड़ा वा पतङ्गा वा मच्छर वा मक्खी – जो कुछ भी बनते हैं, वे वह ही हो जाते हैं । उस सूक्ष्म प्रकृति में जो आत्मा है, वही तू है, श्वेतकेतु !” जिस प्रकार नदियों के प्रवाह का समुद्र के जल से उद्भव होकर, उसी समुद्र में विलीन होना एक अनादि चक्ररूप है, वैसे ही जीवों का एक शरीर में जाना, मरना, शरीर का शेष प्रकृति में मिल जाना और पुनः नए शरीर के रूप में उद्भव होना एक अनादिकालीन चक्र है । जिस प्रकार नदी के प्रवाह में प्रत्येक अणु की सत्ता तो बनी रहती है, चाहे वह क्यों न भूल जाए कि वह कहां से आया है और कहां जा रहा है, उसी प्रकार आत्माएं भी एक शरीर से दूसरे शरीर में आती-जाती रहती हैं, परन्तु अपनी सत्ता भूल जाती हैं – वे जिस ‘नदी’ में मिलती हैं, उसी की हो जाती हैं !
जब पुनः श्वेतकेतु और समझाने के लिए आग्रह करता है, तो उद्दालक कहते हैं, “हे सोम्य ! इस बड़े वृक्ष की जड़ में जो प्रहार किया जाए, तो वह जीता हुआ ही रस चुआ देगा । इसी प्रकार ऊपर या बीच में प्रहार करने पर । क्योंकि वह जीते हुए आत्मा से भरा होता हुआ, (भूमि से जल को) पीता हुआ, प्रसन्न होता हुआ खड़ा रहता है । जब जीव (=आत्मा) उसकी एक शाखा को छोड़ देता है, तो वह सूख जाती है; जब वह दूसरी शाखा को छोड़ देता है, तब वह दूसरी शाखा सूख जाती है; तीसरी को छोड़ता है, तब वह तीसरी शाखा सूख जाती है; जब सब छोड़ देता है, तो पूरा पेड़ सूख जाता है । तू इसी प्रकार इसे समझ, सोम्य !” यहां उद्दालक अति-स्पष्ट कर देते हैं कि वे किस प्रकार प्राकृतिक शरीर और उसके जीवात्मा की बात कर रहे हैं । वे बताते हैं कि इस शरीर में जीवन तब तक है, जब तक उसमें आत्मा है । जब तक वह आत्मा शरीर को भरे है, तब शरीर को चोट लगने पर भी वह निर्जीव नहीं होता; परन्तु जहां एक अंश में भी आत्मा नहीं रहता, तो वह अंश मर जाता है । इससे स्पष्ट होता है कि प्राकृतिक शरीर से अन्य कोई तत्त्व है जो कि उसको जीवित कर रहा है । वही आत्मा है (ब्रह्म नहीं क्योंकि ब्रह्म तो सर्वत्र है – निर्जीव शाखा में भी और सजीव शाखा में भी; और न ही अद्वैत ब्रह्म जो एक-साथ निर्जीव और सजीव – दोनों ही शाखा बना हुआ है । यह इस प्रकरण-विषयक दो अन्य मतों का खण्डन हो गया) । आगे वे पुनः कहते हैं, “जीव (=आत्मा) के छोड़ जाने पर, निश्चय ही वह वृक्ष (=शरीर) मर जाता है, परन्तु जीव नहीं मरता । क्योंकि यह शरीर ऐतदात्म्य है और वह सत् आत्मा ही तू है, श्वेतकेतो !”
श्वेतकेतु के और समझाने के आग्रह पर, वे उसको वट वृक्ष के फल को लाने को कहते हैं और उसको काटकर अन्दर देखने को कहते हैं । जो बीज दिखता है, उसे पुनः काटने को कहते हैं, तो श्वेतकेतु कहता है कि उस छोटे से बीज के अन्दर तो कुछ भी नहीं है । तब वे कहते हैं, “सोम्य ! जो तुम्हें बीज का सूक्ष्मतम अंश नहीं दिख रहा है, उसी से यह महान् वटवृक्ष उत्पन्न हुआ है, यह विश्वास रखो । इसी प्रकार यह तुम्हारा आत्मा है ।” भाव यह है कि कई वस्तुएं हमारी इन्द्रियों के परे होती हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं होता कि इस कारण से वे हैं ही नहीं । उन अप्रत्यक्ष वस्तुओं का भी हम पता लगा सकते हैं, और उसमें प्रमाण हैं – अनुमान और उपमान । वस्तुतः, पेड़ को काटने का उदाहरण अनुमान प्रमाण है, जबकि वटवृक्ष के बीज का उदाहरण उपमान प्रमाण है ।
और व्यावहारिक दृष्टान्त देते हुए, वे श्वेतकेतु को नमक के ढेले को पानी के पात्र में डालने को कहते हैं, और फिर प्रातः उनके पास आने को कहते हैं । प्रातः, वह उसे उस पानी में रखे नमक को लाने को कहते हैं । वह जब पानी को देखता है, तो उसको लवण नहीं मिलता । पिता कहते हैं, “इस जल को उपर से चखो । कैसा है ?” श्वेतकेतु कहता है, “नमकीन है ।” इसी प्रकार वह पात्र के बीच और अन्त में से, और अन्ततः सारे पानी को पी जाता है । उस सारे पानी में नमक का स्वाद पाता है । तो उद्दालक कहते हैं, “बेटा ! जो तुझे नमक नहीं दिख रहा है, वह था तो पानी में ही ! इसी प्रकार यह तेरा अणुतर आत्मा अणु प्रकृति में स्थित है ।” उद्दालक इस प्रकार दर्शाते हैं कि, एक तो, जो सत् है वह अदृष्टिगोचर हो सकता है । दूसरे, तथापि वह दूसरी इन्द्रिय से प्राप्त भी हो सकता है । तीसरे, अणुतर वस्तु अणु वस्तु में व्याप्त हो सकती है । इसी प्रकार जीवात्मा है तो अदृष्टिगोचर, तथापि प्राण आदि लिङ्गों से हम उसको देख भी सकते हैं और वह, सूक्ष्म होता हुआ भी, सम्पूर्ण निर्जीव शरीर में अपनी चेतनता फैला देता है । इस प्रकार लवण और उदक का यह बहुत ही उपयुक्त उदाहरण है ।
आगे भी वे उपमा देते हैं, “प्रिय ! मानो कि किसी को गन्धार देश से आंखों पर पट्टी चढ़ाकर लाया गया और किसी निर्जन स्थान में छोड़ दिया जाता है । तो वह दिग्भ्रान्त हो जाता है – उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम – उसे कुछ नहीं सूझता है । फिर वह जोर से चिल्ला पड़ेगा कि मुझे बन्द आंखों से लाया गया और बन्धी आंख छोड़ दिया गया है (मुझे घर जाने का मार्ग नहीं सूझता है) । तब कोई दूसरा आकर उसकी आंख की पट्टी खोल देता है और उसको गन्धार देश की दिशा बता देता है । फिर वह यदि बुद्धिमान् होगा, तो एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक पूछते-पूछते गन्धार देश पहुंच ही जाएगा । इसी प्रकार आचार्यवान् (= जिसका गुरु से सान्निध्य हो) पुरुष (=आत्मा) को जान जाता है । उसको तब तक की देर है, जब तक वह (आंखों पर बन्धी पट्टी से) छूट न जाए । इसलिए (आचार्य को) प्राप्त कर ।” यहां एक बड़ी हृदयग्राही उपमा द्वारा उद्दालक गुरु की महिमा को बताते हैं । जो हम अपने को देख नहीं पा रहे हैं, अपने शरीर को ही स्वयं मान रहे हैं, तो उस अज्ञान को गुरु ही नष्ट कर सकता है । जबकि हमको ‘अपने घर’ तो स्वयं ही पहुंचना है, स्वयं ही यत्न करना है, तथापि एक नहीं, अपितु अनेक गुरुओं की सहायता लेकर हम अपना मार्ग ढूढ़ सकते हैं ।
फिर भी श्वेतकेतु सन्तुष्ट नहीं होता है, तो उद्दालक कहते हैं, “सोचो कोई मरणासन्न व्यक्ति है । उसके चारों ओर उसके बन्धु-जन बैठे हैं । वे एक-एक कर उससे पूछते हैं, ‘मुझे जानते हो ? मुझे जानते हो ?’ जब तक उसकी वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज पर-देवता (=प्रकृति) में नहीं लीन होते, तब तक तो वह उन सबको पहचानता है; जब वे इस क्रम से लीन हो जाते हैं, तब वह उनको नहीं जानता । जो वह अणिमा, आत्मवान् प्रकृति है, जिससे यह सम्पू्र्ण संसार उत्पन्न हुआ है, उसका आत्मा तू ही है ।” यह वाक्य पिछले प्रकरण से जुड़ता है, इसलिए अधिक व्याख्या नहीं दे रही हूं । वस्तुतः, यहां मरण-प्रक्रिया निरूपित की गई है । पुरुष इन सब प्राकृतिक देवताओं से भिन्न है, यही बताना आचार्य को अभीष्ट है ।
अन्त में उद्दालक एक और विचित्र दृष्टान्त देते हैं, “किसी व्यक्ति पर चोरी का दोषारोपण करके, पुलिस उसको न्यायाधीश के सामने हाथ बान्धकर लाती है, तो न्यायाधीश उसकी परीक्षा के लिए कहता है कि एक फरसे को तपाया जाए । वह तपा हुआ फरसा दोषी को पकड़ना होता है । यदि वह दुष्कर्म का कर्ता होता है, तो वह अपने को अनृत कर देता है, झुठला रहा होता है । उस अनृत से अपनी आत्मा को ढांपकर, वह फरसा जब पकड़ता है, तो जल जाता है, और उसे सैनिक मार देते हैं । लेकिन यदि वह उस कृत्य का कर्ता नहीं होता, तो वह अपने को सत्य करता है । उस सत्य से अपने को ढांपकर वह फरसे को पकड़ने पर नहीं जलता और मुक्त हो जाता है (सैनिक उसे छोड़ देते हैं) । जैसे वह पुरुष वहां नहीं जला, वैसी ही आत्मा तुम हो, श्वेतकेतो ! उसको जानो ! उसको जानो !”
बड़े ही विचित्र शब्दों में उपनिषत्कार ने अपनी बात रखी है । इस अलंकार का सत्य मुझे इस प्रकार प्रतीत होता है – वास्तविक जीवन में, जलते तो दोनों ही व्यक्तियों के शरीर हैं । ऐसा नहीं है कि अग्नि-परीक्षा से सत्यासत्य का दूसरे को भान कराया जा सकता है । परन्तु, जो आत्मा इस शरीर के कृत्यों को अपने कृत्य मानती है, वह उन कृत्यों के सुख-दुःखों से दग्ध होती है । दूसरी ओर, जो आत्मा अपने सत्य को जान जाती है, वह जानती है कि ये सांसारिक कृत्य मैं नहीं, मेरा शरीर कर रहा है । तब वह उन कर्मों के फलों से दग्ध नहीं होती, क्योंकि वह निष्काम कर्म करने लगती है । इस ज्ञान के फलस्वरूप वह जीवन-मरण के बन्धन से उसी समय मुक्त हो जाती है । जब तक उसे यह ज्ञान नहीं होता, तब तक उसके ‘हाथ बन्धे’ रहते हैं !
हम देख सकते हैं कि इस प्रकार अर्थ करने से सभी दृष्टान्त अत्यन्त स्पष्ट हो जाते हैं, जबकि अद्वैतवाद या ब्रह्मवाद मानकर चलने से अर्थ विकृत हो जाते हैं, सभी प्रवाकों में पूर्णतया नहीं लगते । प्रधानतया, इस प्रपाठक में आत्मा की सत्ता को सिद्ध करना अभीष्ट है, उसको प्रकृति से आवृत्त और उसमें व्याप्त दिखाना लक्ष्य है । इसलिए, प्रत्येक खण्ड का अपना एक महत्त्व है – वह आत्मा की सत्ता को अलग-अलग प्रकार से प्रस्तुत करता है ।
प्रकरण को न देखते हुए, ‘तत्त्वमसि’ वाक्य को जो अद्वैतवादी ब्रह्म का ही प्रकृति-रूप और ब्रह्म का ही जीवात्मा-रूप होना कहते हैं, वह निराधार है । इसी प्रकार, ब्रह्म ही सर्वत्र विद्यमान है और उसी को प्राप्त करना जीवन का उद्देश्य है, यह भी उपदेश यहां ग्रहण नहीं होता । वस्तुतः, जैसा कि स्वामी दयानन्द कह गए हैं, जीव ब्रह्म को आंशिक रूप से ही जान सकता है, क्योंकि पूर्णतया उसको जानने का जीव का सामर्थ्य ही नहीं है । परन्तु अपने को हम पूर्णतया अवश्य जान सकते हैं । वह स्वरूप प्रकृति के आवरण में छिपा है । जिस दिन हम उसे प्राप्त कर लेंगे, इस आवरण को उतार फेंकेंगे, उसी दिन हम मोक्ष के भागी हो जाएंगे । यही उपदेश इस कथा में ओत-प्रोत है ।