केनोपनिषद् का सन्देश
दश प्रधान उपनिषदों में से केनोपनिषद् एक है । सामवेद का यह उपनिषद्, चार खण्डों में बंटा और ३४ श्लोकों वाला एक अत्यन्त छोटा सुन्दर उपनिषद् है । इसके कई वचन अनेकों सन्दर्भों में दौहराए जाते हैं । इसमें एक आलंकारिक कथा आती है, जिसका अर्थ आज पूर्णतया नहीं समझा जाता । तथापि जो भाग समझ में आता है, वह अत्यन्त सुन्दर है । इस अनमोल सन्देश को मैं यहां वर्णित कर रही हूं ।
कथा का सारांश इस प्रकार है –
ब्रह्म ने देवों के लिए विजय प्राप्त की । किसपर की यह नहीं कहा गया है । इसलिए पौराणिक लोग असुरों पर विजय मान लेते हैं । परन्तु उपनिषद् में कहीं भी असुरों का कोई संकेत नहीं है । आगे हम जानेंगे कि किसपर विजय प्राप्त की । ब्रह्म की इस विजय के कारण सारे देव महान् हो गए । तब वे आपस में सोचने लगे कि यह विजय हमारी ही थी, जैसे ये महानता हमारी ही है । अब ब्रह्म क्यों न उनके मन की बात जान जाए ?! तो उसने देवों को सबक सिखाने की सोची । वह उनके सामने यक्षरूप में प्रकट हुआ । देवों में खलबली मच गई कि आखिर यह यक्ष है कौन । उन्होंने अग्नि से कहा कि तुम जाकर पता करो कि यह कौन है । अग्नि ने स्वीकार लिया और यक्ष के पास पहुंचा । यक्ष ने पूछा, “तुम कौन हो?” अपने को इतना प्रसिद्ध मान रहे अग्नि को इस से ठेस पहुंची । उसने तमक कर कहा, “मैं अग्नि हूं । मैं ही जातवेदा हूं – सभी उत्पन्न पदार्थों में स्थित हूं ।” यक्ष ने पूछा, “तुममें क्या विशेष शक्ति है?” तो अग्नि बोला, “मैं पृथिवी पर सब कुछ जला सकता हूं ।” यह सुन, यक्ष ने एक तिनका उसके सामने रख दिया और कहा, “इसे जला ।” अग्नि ने पूरा बल लगाया परन्तु जला न सका । वह लज्जित होकर देवों के पास वापस पहुंचा और बोला कि मैं पता नहीं कर पाया कि वह यक्ष कौन है ।
अन्य देव फिर वायु को भेजते हैं । कहानी दोहराती है । वायु यक्ष को बताता है कि वह पृथिवी पर स्थित किसी भी वस्तु को उड़ा सकता है, परन्तु यक्ष के तृण को नहीं उड़ा पाता । फिर इन्द्र को भेजा जाता है । आश्चर्य ! यक्ष उसके आते ही गायब हो जाता है, और उसके स्थान में एक अतीव सुन्दर, सुनहरी-सी स्त्री प्रकट होती है, जो कि उमा थी । इन्द्र उत्सुकता से पूछता है, “क्या तुम जानती हो वह यक्ष कौन था ?” और इसी के साथ यह तृतीय खण्ड समाप्त हो जाता है ।
चौथे खण्ड में, उमा कहती है, “वह ब्रह्म था । वास्तव में ब्रह्म की विजय के कारण ही तुम सब महान् हुए हो ।” तब जाकर इन्द्र को समझ में आया कि वह यक्ष ब्रह्म था ।
इस कथा में कई रहस्य छिपे हैं । पौराणिक जन तो अग्नि, वायु, आदि को इन्द्रलोक में रहने वाले देवता मानते हैं, इन्द्र को उनका राजा और उमा को शिव की पत्नी पार्वती । ऐसा मानने से पुराणों जैसी ही एक कथा सामने आती है, जिसका कोई विशेष सिर-पैर नहीं होता । वास्तव में कथा के गम्भीर अर्थ है, जैसा कि एक उपनिषद् में पाए जाने की अपेक्षा होती है । ये तथ्य क्रमवार नीचे दिए हैं ।
प्रथम, ब्रह्म की विजय । सृष्टि के आरम्भ में प्रकृति निश्चल पड़ी हुई थी । ब्रह्म ने उसको उठाया और कई शक्तिशाली रूपों में परिवर्तित कर दिया । इनमें से मुख्य थे पञ्च महाभूत – आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी । इन एक-एक महाभूत में अद्भुत शक्तियां निहित हैं । दिव्य शक्तियों के कारण, इन भूतों को देव कहा जाता है । इस नाम के कारण वे जीवन्त नहीं हो जाते, वे तो जड़ ही रहते हैं ! इन शक्तियों का और इस ब्रह्माण्ड का उद्भुव ही ब्रह्म की विजय है । इसमें वह किसी से झगड़ा नहीं करता, अपितु जड़ प्रकृति की निष्क्रियता पर ही उसने विजय पाई । अब, अपनी शक्तियों को अनुभव कर, देवों में अहंकार आ गया । उन्हें लगा कि ब्रह्म क्या चीज है ? हम ही तो इस ब्रहाण्ड को चला रहे हैं ! इन देवों में सबसे महान् था इन्द्र । वस्तुतः यह देवों का राजा नहीं था, अपितु जीवात्मा को ही इस नाम से इस कथा में पुकारा गया है, जैसा कि वेदों में अन्यत्र भी हम पाते हैं, जैसे –
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे ।
इन्द्रस्य युज्य सखा ॥ऋक्० १।२२।१९॥
अर्थात् हे जीवात्मन् ! तू उस विष्णु का योग्य सखा है । सभी देवों में केवल वही एक चेतन है, सोच-विचार कर सकता है । इसीलिए वह अन्य देवताओं में सबसे विलक्षण है । और अन्य देवों में जो चेतनता घटाई गई है, वह वस्तुतः इन्द्र की ही है । इन्द्र ही सोचने लगता है कि इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि और इसकी वृद्धि में प्राकृतिक शक्तियां का ही खेल है, परमात्मा जैसी शक्ति की कहां कोई आवश्यकता है ?! आज भी हम प्रायः अनेकों वैज्ञानिकों में यह प्रवृत्ति पाते हैं जिसके कारण वे परमात्मा की सत्ता को नकारते हैं ।
द्वितीय, कथा में यक्ष का स्वरूप । यक्ष अर्थात् ब्रह्म सर्वशक्तिमान् है । इसका यह अर्थ है कि वह प्राकृतिक देवों को निस्तेज भी कर सकता है । जहां उसने उनको उनकी शक्तियां प्रदान की हैं, वहीं वह उनको किसी भी क्षण वापस भी ले सकता है । वह प्रकृति में ऐसा उत्पात उत्पन्न कर सकता है कि जिनका किसी के पास कोई उपाय नहीं होता । जैसे, सूनामी की भयंकर लहर के सामने क्या पृथिवी, क्या पेड़-पौधे, क्या मनुष्य और क्या उसकी भवन आदि छोटी-मोटी सृष्टियां – सभी को एक विशालकाय शक्ति बहा ले जाती है । यह शक्ति परमात्मा की है, जिसके कहने पर प्रकृति नाचती है ।
पुनः, प्राकृतिक देव ब्रह्म को नहीं जान सकते । यह कथा इन्द्र के बारे में इन्द्र को ही कही जा रही है ! वास्तव में, ब्रह्म इन्द्र को अपनी सत्ता, अपनी शक्तियों से अवगत कराना चाहते है । जिस प्रकार जीवात्मा प्रकृति से घनिष्ठ रूप से संयुक्त होकर उसका भोग करता है, उससे भी घनिष्ठ सम्बन्ध उसका और ब्रह्म का है । प्रकृति के संयोग से वह इस सम्बन्ध को भूल-सा जाता है । यक्ष के समान, परमात्मा उसके सामने छुप सा जाता है । जबकि प्रकृति के सामने ब्रह्म को छुपने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रकृति उसको जानने में असमर्थ है, परन्तु जीव, जो उसको जान सकता है, उससे वे प्रकृति के चोगे में छिप जाता है !
तृतीय, उमा । यह सुन्दर, विभिन्न आभूषणों से अलंकृत स्त्री वस्तुतः वेदवाणी है । ’उमा’ की व्युत्पत्ति है – “उमिति परमात्मानं माति प्रापयतीति उमा” अर्थात् उ परमात्मा के नामों में एक है, और उसको मापने वाली, प्राप्त कराने वाली विद्या उमा है । उसके जो अलंकार आदि हैं, वे वेद के छन्द आदि अलंकार है । वेद से अधिक सुभूषित कोई मानव ग्रन्थ नहीं है ! यद्यपि ब्रह्म तो छुप गया, परन्तु उसने अपने को प्राप्त कराने के लिए एक सहायिका को छोड़ दिया । उस वेदवाणी से ही हमें उसकी सत्ता का ज्ञान होता है । और वही हमें उस तक पहुंचाती है । वही बताती है कि इस सब ब्रह्माण्ड को ब्रह्म ने ही रचा है और वही इसका संचालन कर रहा है । प्राकृतिक शक्तियों को ही इनका सूत्रधार और कर्ता-धर्ता मानना मूर्खता है, और वेदवाणी के बिना हम यह मूर्खता करेंगे ही, क्योंकि ब्रह्म तो छिपा हुआ है ! वेदों का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग भी जान लेता है ।
चतुर्थ, उपनिष्त्कार आगे स्वयं कहते हैं कि, क्योंकि अग्नि, वायु और इन्द्र ने ब्रह्म को निकट से स्पर्श किया और उसको सबसे पहले जाना, इसलिए अन्य देवों की अपेक्षा वे ही अधिक महान् हैं । इन्द्र किस प्रकार अधिक महान् है, वह तो हमने ऊपर देखा । पुनः, इससे भी अगला श्लोक कहता है कि, वस्तुतः, इन्द्र अग्नि और वायु से भी महान् है क्यों उसी ने सबसे पहले ब्रह्म को निकट से छुआ और उसी ने उसको सबसे पहले पहचाना कि यह ब्रह्म है । यह तो स्पष्ट ही है, परन्तु आकाश, जल और पृथिवी की तुलना में अग्नि और वायु क्यों अधिक उत्कृष्ट हैं, यह अन्वेषणीय है । सम्भव है, अग्नि प्रकाश, ऊर्जा और ज्ञान का प्रतीक होने से, और वायु प्राण और बल का प्रतीक होने से इन्हें ही मुख्य माना गया हो । कथा का सन्देश पढ़ें तो वहां बताया गया कि अग्नि उत्पन्न-मात्र पदार्थों में स्थित है और वह पृथिवी पर सब कुछ जला सकती है । वायु इतनी बलवान् है कि पृथिवी पर सब कुछ उड़ा सकती है । तथापि आकाश, जल और पृथिवी भी अपने दिव्य गुणों के कारण जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं । इसलिए इस कथन का तात्पर्य स्पष्ट नहीं है ।
उपनिषदों में प्रायः आलंकारिक कथाएं पायी जाती है । अनेकत्र इनके अर्थ लुप्त भी हो गए हैं । परन्तु उससे अधिक विनाशकारक है गलत अर्थ । इस कथा के भी पौराणिकों ने अपने अर्थों से दूषित करने का प्रयास किया है, परन्तु आचार्य राजवीर शास्त्री प्रभृति आर्यसमाजी विद्वानों ने वैदिक अर्थों को पुनः स्थापित किया है । इन अर्थों का प्रचार सर्वत्र करना अब प्रत्येक आर्यसमाजी कार्यकर्ता का कर्तव्य है । नहीं तो, दूषित अर्थ जड़ पकड़ लेंगे और लोगों के मन में घर कर लेंगे । इस अनर्थ को रोकना चाहिए ।