छान्दोग्योपनिषद् की इन्द्र-विरोचन कथा

छान्दोग्योपनिषद् के अन्त में उपनिषद् का सबसे गूढ़ विषय एक रोचक कथानक द्वारा बताया गया है । इसमें जीवात्मा की पहचान, या खोज, के विषय में बताया गया है । इसकी व्याख्या शब्दशः तो प्राप्त होती है, परन्तु तात्पर्य-सहित मैंने नहीं देखी । और जीवात्मा व परमात्मा के अर्थों में अदल-बदल भी पाई जाती है, जैसे मैंने छान्दोग्य के विषय पर अपने एक पूर्व लेख में भी दर्शाया था । इस लेख में यह कथानक, उसके वाक्यों का तात्पर्य और कथा के गूढ़ अर्थ दे रही हूं ।

यह आख्यायिका छान्दोग्य के अष्टम प्रपाठक के सातवें से पन्द्रहवें खण्ड में आती है । प्रथम, प्रजापति नामक कोई विख्यात ऋषि कहते हैं, “जो आत्मा पापों से, बुढ़ापे से, मृत्यु से, शोक से, भूख और प्यास से अछूता है, जिसकी कामनाएं सत्य होती हैं और संकल्प सत्य होते हैं, वह ढूढ़ने योग्य है । जो उसको प्राप्त करके जान लेता है, वह सब लोकों को और सारी इच्छाओं को प्राप्त कर लेता है ।”[1] क्योंकि यहां ’पापरहित, सत्यकाम और सत्यसंकल्प’ विशेषण प्रयोग किए गए हैं, यहां ’आत्मा’ का अर्थ परमात्मा किया जाता है । परन्तु, जैसा हम कथानक में आगे देखेंगे, यहां अर्थ जीवात्मा ही है, और प्रजापति उसी को ढूढ़ने का उपाय बताते हैं ।

यह बात देवों और असुरों के कानों तक पहुंची और उन दोनों में इस आत्मा को जानने की लालसा हुई । उन्होंने क्रमशः इन्द्र और विरोचन को अपना प्रतिनिधि बनाकर प्रजापति के पास भेजा । वे दोनों, बिना एक-दूसरे से बात करते हुए, अर्थात् एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हुए, प्रजापति के पास, हाथ में समिधा लेकर, उपस्थित हुए ।

जैसा कि उस समय प्रथा थी, वे दोनों प्रजापति के आश्रम में बत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए रहे । तब प्रजापति ने उनको बुलाया और पूछा, “किस इच्छा से आप यहां रह रहे हैं?” दोनों ने बताया कि जिस आत्मा की चर्चा आपने की थी, जिसको आपने अन्वेषण-योग्य बताया, उसके विषय में आपसे जानने आए हैं ।

प्रजापति ने उन दोनों से कहा, “जो यह पुरुष (=आत्मा) आंखों में दिखता है, वह आत्मा है । वह अमृत है, अभय है, ब्रह्म है ।” यहां भी ’आत्मा’ का अर्थ परमात्मा किया गया है, परन्तु स्पष्टतः यह जीवात्मा के बारे में ही कहा गया है, क्योंकि हम सभी जानते हैं के जीव की आंखों में उसकी आत्मा कि झलक पाई जाती है । मृत शरीर या कृत्रिम शरीर में हमें इसके दर्शन नहीं होते । यदि परमात्मा की बात हो रही होती, तो वे मृत शरीर और कृत्रिम शरीर में भी दिखते, क्योंकि वे तो सर्वविद्यमान् हैं ।

इन्द्र और विरोचन को सन्देह हुआ – “जो पुरुष जल, या फिर दर्पण की परछाई में दिखाई पड़ता है या जो आपने आंखों में बताया, इनमें से कौन-सा आत्मा है ?” प्रजापति बोले, “ये सभी वही हैं । तुम दोनों अपने को जल के पात्र में देखो । फिर यदि तुम्हें आत्मा न समझ में आए, तो मुझे बताओ ।” दोनों ने ऐसा ही किया, पर सन्देह बना रहा और वे कुछ न बोले । प्रजापति ने पूछा, “क्या देखते हो?” वे बोले, “हे भगवन्! हम रोम तक, नाखूनों तक अपने प्रतिरूप को देखते हैं ।”

तो प्रजापति ने उनको कहा, “नहा-धोकर, सुन्दर कपड़े पहनकर, अपने को अलंकृत कर अपने को इस जलपात्र में दोबारा देखो ।” उन दोनों ने वैसा ही किया । प्रजापति ने पुनः पूछा, “क्या देखते हो?” उन्होंने कहा, “हे भगवन्! जैसे हम साफ-सुथरे, सुन्दर वस्त्र व आभूषण पहने हैं, वैसी ही यह परछाई है ।” तो प्रजापति बोले, “यही वह अमृत, अभय, ब्रह्म आत्मा है ।” दोनों का सन्देह समाप्त हो गया और वे शान्तहृदय हो वापस निकल पड़े । यहां इन्द्र और विरोचन ने जो समझा वह इस प्रकार है । साधारण अवस्था में और शुद्ध अवस्था में अन्दर का शरीर एक ही रहा । यह देखकर दोनों समझ गए कि यह शरीर ही वह आत्मा है जिसके गुणगान प्रजापति ने किए थे । इसलिए प्रजापति अपने से बोले, “ये दोनों आत्मा (अपने) को प्राप्त किए बिना जा रहे हैं । देव या असुर, जो भी इनके वचन सुनेगा, वह परास्त होगा ।” प्रजापति ने पूर्व में तो आंखों में स्थित पुरुष को आत्मा कहा था, परन्तु इन्द्र और विरोचन के प्रश्न से उन्हें ज्ञात हुआ कि इन दोनों को तो आत्मा के विषय में क्या, शरीर के विषय में भी कुछ नहीं ज्ञात है ! वे जल और दर्पण में दिखती परछाई को अलग-अलग मानते हैं । इसलिए उन्होंने उनको इतना ही ज्ञान दिया कि जो शरीर तुम जल में देखते हो, या दर्पण में, वह तुम्हारा ही है । उसके बाह्य वस्त्रादि बदल सकते हैं, परन्तु जो अन्दर का शरीर है, वह समान रहता है ।

विरोचन, सन्देह-रहित होकर, असुरों के पास पहुंचा और उनसे बोला, “आत्मा (=शरीर) ही इस लोक में सबसे महान है । उसी को पूजकर, उसका सेवन करके दोनों लोकों – पृथिवी लोक और स्वर्ग लोक – को प्राप्त कर लोगे ।” इसीलिए आज भी असुर, इस संसार में, दान न देते हुए, परमात्मा में श्रद्धा न रखते हुए, यज्ञ न करते हुए, प्रेत के (अर्थात् एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले आत्मा के) शरीर को भोग्य पदार्थों से, सुन्दर परिधान से, आभूषणों से सुसंस्कृत करते हैं, और मानते हैं कि इससे हमें स्वर्ग प्राप्त हो जायेगा । वस्तुतः, दान और यज्ञ हमें तत्काल सुख नहीं पहुंचाते । हो सकता है कि उनका फल अगले जन्मों में ही मिले । सो, जिसे परमात्मा में विश्वास नहीं, उसकी व्यवस्था में विश्वास नहीं, उसे इन सब कर्मों से भी कोई सरोकार नहीं । वे जन, जैसे कि हम आज अधिकता से पाते हैं, वैदिक दृष्टिकोण में असुर ही हैं । यह मूढावस्था की प्रथम दशा है ।

अब इन्द्र वापस जाते-जाते सोचते हैं, “जो यह आत्मा (=शरीर) अच्छे अलंकार पहनने पर अलंकृत हो गया, जो अच्छे वस्त्र पहनने पर सुवसन हो गया, वही इसके अन्धा होने पर अन्धा हो जायेगा, काना होने पर काना, लंगड़ा-लूला होने पर वैसा ही हो जायेगा । इसी प्रकार इस शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट भी हो जायेगा । तो फिर, वह जो अजर, अमर, आदि, हमें आत्मा बताया गया था, वह यह तो नहीं हो सकता !” यह सोचकर वे सन्देह से पुनः ग्रस्त हो गए और वापस प्रजापति के पास पहुंच गए ।

प्रजापति ने उनकी शंका को समझकर, उन्हें पुनः बत्तीस वर्ष ब्रह्मचारी होकर आश्रम में वास करने को कहा । उतने वर्ष बीत जाने पर, उन्होंने इन्द्र को कहा, “जो यह स्वप्न में महिमा को प्राप्त करता है, वही आत्मा है, वही अमृत, अभय और ब्रह्म है ।” क्योंकि यह आत्मा जल में नहीं दिखता, अन्धे होने पर भी अन्धा नहीं होता, आदि, इन्द्र इस ज्ञान से सन्तुष्ट हो गए और देवों की ओर लौट पड़े ।

मार्ग में ही, उन्हें फिर विचार आया कि जबकि स्वप्न की आत्मा शरीर के अन्धे होने पर अन्धा नहीं होता, न अन्य किसी विकलांगता को प्राप्त होता है, न शरीर के ताडन से यह ताडित होता है, तथापि, स्वप्न ही में, यह कभी जैसे मरने या ताडन के डर से भागता सा है, अप्रिय समाचार को जानता सा है, रोता सा है । तब यह अजर, अमर, अभय कैसे है? कभी-कभी हम यह मान कर सन्तुष्ट हो जाते हैं कि यह प्रत्यक्ष संसार तो दुःखों से भरा है, परन्तु स्वप्नावस्था में हमें सुख प्राप्त होता है; सो वही सत्य है, यह संसार मिथ्या है । कई आलसी लोग सो कर ही आधा जीवन व्यतीत कर देते हैं । फिर हमें इन्द्र जैसा सोचकर इस विचार में दोष देखना चाहिए ।

वे, समित्पाणि होकर, पुनः प्रजापति के पास पहुंच गए, और उन्हें अपने संशय से अवगत कराया । प्रजापति ने उनको बत्तीस वर्ष और रुकने को कहा । उसके अनन्तर, प्रजापति बोले, “जो सुषुप्ति की अवस्था में ’समस्त’ = अपने में अवस्थित हो जाता है – बाहरी जगत् से दूर जो जाता है, भली प्रकार से प्रसन्न रहता है, इस संसार का स्वप्न तक नहीं देखता, वही वह अमृत, अभय और ब्रह्म आत्मा है । इन्द्र पुनः एक बार प्रसन्न होकर वापस निकल पड़े । यहां हम देखते हैं कि प्रजापति आत्मा की विभिन्न दशाओं का परिचय दे रहे हैं – जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति । इनमें से किसी में भी आत्मा को अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान नहीं होता ।

मार्ग में ही, इन्द्र ने पुनः विचार किया, “यह सुषुप्त आत्मा उस अवस्था में अपने को ही नहीं जानता, न अन्य किसी वस्तु को जानता है । वस्तुतः उस अवस्था में उसका जैसे अस्तित्व ही नहीं रहता । तब उसको अजर, अमर, अभय, आदि विशेषण देने से क्या लाभ?” यह सोच वे पुनः प्रजापति के सामने उपस्थित हो गए । प्रजापति ने उनको पाँच वर्ष और ठहरने को बोला । इस प्रकार कहा गया है कि, निश्चय से, इन्द्र ने प्रजापति के पास १०१ वर्ष बिताए, तभी उनको पूर्ण विद्या प्राप्त हुई । इससे संकेत दिया गया है कि निज आत्मा का ज्ञान सहजता से प्राप्त नहीं होता, उसके लिए बहुत वर्षों तक प्रयास करना पड़ता है ।

अब प्रजापति इन्द्र को आत्मा का तुरीय अर्थात् वास्तविक रूप बताते हैं – “हे मघवन्! यह शरीर मर्त्य है, इसको मृत्यु निगल जाती है । परन्तु यह उस अमृत, अशरीरी आत्मा का अधिष्ठान है । जब तक वह आत्मा सशरीर रहता है, उसे प्रिय-अप्रिय अनुभव होते रहते हैं । जब वह शरीर-रहित होता है, तब उसको प्रिय-अप्रिय छू तक नहीं सकते । (स्पष्टतः, यह उपदेश परमात्मा-विषयक नहीं है!) जब वह आत्मा परम ज्योति को प्राप्त करके, अपने वास्तविक रूप में पहुंच जाता है, वही ’उत्तम पुरुष’ है । शरीर के बिना वह स्वछन्द रूप से सब प्रकार के आनन्द अनुभव करता है, परन्तु शरीर में वह प्राणों से इस प्रकार बद्ध है, जैसे कि अश्व रथ में जुते होते हैं । मुक्तावस्था में वह, अशरीरी होते हुए, जिस इन्द्रिय का, वाणी का, मन का प्रयोग करना चाहता है, वह अव्याहत रूप से कर लेता है । ब्रह्मलोक में ये देव, अर्थात् मुक्तात्माएं, इसी आत्मा (जीवात्मा ही, न कि परमात्मा) की उपासना करते हैं, अर्थात् उसको जानते हैं, अनुभव करते हैं । इस प्रकार जो इस आत्मा को जानते हैं, वे सारे लोक और सारी कामनाएं भोगते हैं ।” स्वामी दयानन्द ने इस अंश की व्याख्या में लिखा है – “वे मुक्त जीव स्थूलशरीर छोड़कर संकल्पमय शरीर से आकाश में, परमेश्वर में विचरते हैं, क्योंकि जो शरीरवाले होते हैं, वे सांसारिक दुःख से रहित नहीं हो सकते ॥ सत्यार्थ-प्रकाशः, नवम समुल्लासः ॥”

वस्तुतः, जो समझते हैं कि हम परमात्मा को जान सकते हैं, वे भ्रमित हैं । हम अपने स्वरूप को ही, बिना प्रकृति से रंगा हुए, शुद्ध रूप में देख सकते हैं । परमात्मा, जो कि अनन्त है, उसकी हमें झलक-मात्र ही प्राप्त हो सकती है, उसका पूर्ण रूप हम कभी नहीं पा सकते –

         यस्यामतं  तस्य  मतं  मतं  यस्य  न  वेद  सः ।

         अविज्ञातं  विजानतां  विज्ञातमविजानताम् ॥ केनोपनिषद् २।३ ॥

अर्थात् जो मानता है कि वह ब्रह्म को नहीं जानता, वही उसको जानता है । जो मानता है कि वह जानता है, वह उसे नहीं जानता । जानने वाले उसे नहीं जानते, और न जानने वाले उसे जानते हैं । तात्पर्य है कि जो जानते हैं कि वह कभी भी नहीं जाना जा सकता, वस्तुतः वे ही उसको समझ पाए हैं । 

अपने स्वरूप को देख लेने पर ही, परमात्मा भी कुछ-कुछ दिखने लगता है, और तब हम मोक्ष के भागी हो जाते हैं । यही इस आख्यायिका का उपदेश है । यही अन्य उपदेशों का भी सार है । इसका यह अर्थ नहीं है कि हम परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करना बन्द कर दें । इन सभी से हम उसकी ओर आकृष्ट होते हैं, उसकी कृपा के भागी बनते हैं, और धीरे-धीरे यथार्थ का दर्शन कर पाते हैं । 

यहां जीवात्मा को जो ब्रह्म कहा गया है, उससे भी हमें भ्रमित नहीं होना चाहिए । यह विशेषण भी जीवात्मा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है । जीवात्मा भी महान है, विशेषकर प्रकृति की अपेक्षा । प्रथम वाक्य में जो आत्मा को ’अपहतपाप्मा, सत्यकाम और सत्यसंकल्प’ कहा गया है, वे भी जीवात्मा के लिए ही है । वह इस प्रकार – पाप-पुण्य शरीर तक सीमित होते हैं । हम तो पाप से अछूते हैं – 

असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥ न कर्मणान्यधर्मत्वादतिप्रसक्तेश्च ॥ न नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्य  तद्योगस्तद्योगादृते ॥ साङ्ख्यदर्शनम् १।१५, १६, १९ ॥

अर्थात् पुरुष (=जीवात्मा) प्रकृति से लिप्त नहीं होता । वह कर्म (पाप-पुण्य) से बद्ध नहीं होता, क्योंकि वे किसी और (=प्रकृति) के धर्म हैं । जीवात्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव वाला है ।

हमारी सारी कमियां शरीर से सम्बद्ध हैं, नहीं तो हम भी सत्यकाम और सत्यसंकल्प हैं, जैसे मुक्तावस्था में रहते हैं, और जिसका उपदेश ऊपर किया गया है । इस प्रकार, इस पूरी आख्यायिका में जो वर्णन है, वह हमारा ही है, परमात्मा का नहीं !


[1] य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोऽविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः स सर्वांश्च लोकानाप्नोति सर्वांश्च कामान् यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच ॥छा० ८।७।१॥