मनुस्मृति का परिचय

मनुस्मृति के अनेकों अंश स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने कालजयी ग्रन्थ ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में उद्धृत किए हैं । प्रो० सुरेन्द्र कुमार के साथ-साथ अन्य विशेषज्ञों ने भी इसके विषय में पर्याप्त लिखा है । इसलिए सम्भवतः अनेक जन इसके विषय में जानते हों । तथापि यह परिचयात्मक लेख मेरी दृष्टि से मनुस्मृति को प्रस्तुत करता है ।

इतिहास

जहां वेद संसार का सर्वप्रथम साहित्य माना जाता है, वहीं मनुस्मृति इस सर्ग का सर्वप्रथम धर्मशास्त्र कहा गया है । यह मानवीय धर्म को कहता है, अर्थात् मनुष्य के जीवन-निर्वाह की श्रेष्ठतम रीति क्या है, उसका निरूपण करता है । प्राचीन भारतीय साहित्य में सदा ही मानवीय धर्म को कहा गया है – हिन्दू या किसी सम्प्रदाय-विशेष के लिए धर्म नहीं बताया जाता था (हिन्दू शब्द तो फारसीयों/अफगानों  आदि ने इस देश के निवासियों को कालान्तर में दिया क्योंकि वे सिन्धु नदी के पार रहते थे, सो ’सिन्धु’ का अपभ्रंश करके ’हिन्दू’ कहने लगे) । यह धर्म सार्वभौम, सार्वकालिक और सार्वजनिक है – यह देश, काल या व्यक्ति-विशेष से बाधित नहीं है । यह धर्म वेद के आदेशानुसार है – मनु ने जैसे वेदों को निचोड़ कर, उनका सार प्रस्तुत किया है । साथ-ही-साथ उन्होंने उस ज्ञान को क्रियात्मक रूप से भी लिखा, जिससे कि सभी जन उसे पढ़ कर अपने जीवन को उसके अनुसार ढाल सकते हैं । इसलिए मनुस्मृति को संसार का प्रथम संविधान भी कहा जा सकता है ।

आज जिन्हें हम ’हिन्दू’ कहते हैं, उनका आचरण मनुस्मृति से इतना प्रभावित है कि, भारतीय संविधान ही नहीं, अपितु अनेक दक्षिण-पूर्वी देशों, जैसे फिलिपीन्स्, बालि, थाइलैण्ड, वियत्नाम आदि का संविधान भी इस पर बहुत अंश में आधारित है । यहां तक कि फिलिपीन्स् में मनु की प्रतिमा संसद के बाहर स्थापित है ! इस सब से ज्ञात होता है कि भारतीय और उससे सम्बद्ध सभी सभ्यताओं पर मनु का कितना प्रभाव रहा है ।

मनुस्मृति इतनी प्राचीन है कि उसका उल्लेख ब्राह्मणों, उपनिषदों और रामायण में भी पाया जाता है । महाभारत में उसको अनेक बार जीवन जीने के लिए विश्वसनीय मार्गदर्शक बताया गया है । मनु की प्रशंसा पुराण आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलती है । स्मृति-ग्रन्थों को वेदमार्गप्रदर्शक कहा गया है । उन स्मृतियों में मनुस्मृति पहली है । याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में मनुस्मृति के कुछ श्लोक जैसे-के-तैसे उद्धृत पाये जाते हैं । मध्यकालीन युग की चाणक्य-नीति भी इस पर आधारित है । इतनी प्राचीन होने के कारण, इसके काल को बताना आज सम्भव नहीं है ।

मनु मनुष्यों के प्रथम राजा थे और एक ऋषि भी, अर्थात् वे एक राजर्षि थे । मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि कुछ ऋषि मनु के पास आए और उनसे धर्म की व्याख्या करने को बोले । इससे स्पष्ट होता है कि मनु ऋषियों के भी ऋषि थे ! इस उल्लेख से, और अन्य श्लोकों से भी, प्रतीत होता है कि मनुस्मृति को उनके पुत्र और शिष्य भृगु ने लिखा है – जो उपदेश मनु ने उन ऋषियों को दिया, उसको भृगु ने ’रिकौर्ड’ कर लिया !

सम्भवतः, चाणक्य के बाद से इस ग्रन्थ का भारत में प्रचलन कम हो गया । बौद्ध और जैन धर्मों के उत्थान-काल में, हिन्दू-धर्म में अनेक कुरीतियां व्याप्त हो गईं थीं । इनका अंश मनुस्मृति में भी आज पाया जाता है – वर्णों का जन्म-सिद्ध जातियों में रूपान्तर, शूद्रों और स्त्रियों के लिए वेद का पढ़ना-पढ़ाना वर्जित, यज्ञों में मांस का उपयोग, आदि, आदि । क्योंकि इन्हीं परम्पराओं के विरुद्ध श्लोक भी मनुस्मृति में ही पाए जाते हैं, इससे प्रतीत होता है कि, कालान्तर में, कुछ ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति में ये प्रक्षेप किए । कब ये प्रक्षेप हुए, यह कहना भी कठिन है, परन्तु बौद्ध और जैन धर्म जैसे इन्हीं सब परम्पराओं के विरोध में खड़े हुए, इसलिए अवश्य ही उस काल तक इन कुरीतियों ने समाज पर पकड़ बना ली थी । सम्भवतः बौद्धों और जैनों के इस विरोध के कारण मनुस्मृति का प्रभाव इस काल से क्षीण होने लगा । 

अंग्रेजों के विलियम जोन्स ने, हिन्दू परम्पराओं को समझने के लिए, १७९४ में अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया और इसके अनुसार हिन्दूओं के लिए कानून रचा । सम्भवतः, यह मनुस्मृति के पुनरुद्धार का प्रथम सोपान था । स्वामी दयानन्द ने जब ’वेद की ओर लौटो’ का नारा लगाया, तब प्रधानतया मनुस्मृति से ही वैदिक धर्म का निर्धारण किया । तथापि उन्होंने स्पष्ट दिखाया के मनुस्मृति के उपर्युक्त अंश प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि वे उसी ग्रन्थ के अन्य कथनों के विरुद्ध हैं और वेद के भी विरुद्ध हैं । उन्होंने ऐसे अंशों का त्यागने का आदेश दिया । तथापि आज भारत में कुछ राजनीतिक दलों ने उन्हीं अंशों का ढिंढोरा पीट कर मनुस्मृति को पुनः हेयग्रन्थों में स्थापित कर दिया है । यहां डा० सुरेन्द्र कुमार का उल्लेख तो करना ही पड़ेगा जिन्होंने ग्रन्थ को परिष्कृत करके, उसमें से प्रक्षिप्त श्लोकों को निकाल कर, ’विशुद्ध मनुस्मृति’ नामक ग्रन्थ का सृजन किया है ।

उपदेश

मनु ने जीवन के प्रत्येक भाग के लिए धर्म का सुन्दरता से निर्धारण किया है । जहां एक ओर यह धर्म समाज के स्तर पर है, वहीं दूसरी ओर यह व्यक्ति के स्तर पर है । इससे हम यह पहला निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मनु ने गांव के अव्यवस्थित शासन से एक राष्ट्र के व्यवस्थित शासन की नींव डाली । इतिहास में राष्ट्रीय व्यवस्था की इतनी विकसित परिकल्पना होना, जैसे प्रजा के द्वारा राजा का चयन गुणों के अनुसार करना – यह इतनी बड़ी बात है कि इसको समझने के लिए हमें संसार के अन्य भागों की ओर देखना पड़ेगा, जो कि पिछले कुछ ३००० वर्षों से ही कुछ-कुछ भागों में, राष्ट्र की परिकल्पना कर सके थे । इस परिपेक्ष में, मिस्र की सभ्यता में राष्ट्र के संचालन की सोच कम ही थी । राजा एक ही परिवार से होते थे और प्रजा से अपनी मनमानी करते थे । वहां बने बड़े-बड़े पिरमिड आदि राजा के मक़बरे थे, जिनको बनवाने में वह अपने कार्यकाल के पहले दिन से लग जाता था ! यूनान में सबसे पहले राज्य-व्यवस्था का कुछ रूप निखरता दिखाई पड़ता है । फिर रोमन् सभ्यता ने इसको कुछ और आगे बढ़ाया । चीन में भी इसी काल में इस प्रकार की समझ उभरती दिखाई पड़ती है । भारत में तो राम के काल से ही नहीं, अपितु मनु के काल से ही, राष्ट्र के विभिन्न अंग, उनका आपस में सामञ्जस्य, कर-व्यवस्था, आदि, आदि – इन सब की सुव्यवस्था अक्षुण्ण चली आ रही थी !

मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं, जिसमें २६३५ श्लोक हैं । इनमें दिए विषयों में से मुख्य इस प्रकार हैं –

  • सृष्टि की उत्पत्ति
  • वर्ण-व्यवस्था
  • धर्म का स्वरूप
  • षोडश संस्कार
  • चतुराश्रम
  • विवाहों के प्रकार
  • पञ्च महायज्ञ
  • भक्ष्याभक्ष्य और देह व पात्र, वस्त्र आदियों की शुद्धि
  • राजा के आवश्यक गुण और कर्तव्य – अत्यधिक विस्तार से क्योंकि राजा ही राष्ट्र की नींव होता है
  • शासन के लिए राजा द्वारा विभिन्न सभाओं का गठन
  • धरोहर, आयकर, आदि अनेक व्यवस्थाओं का वर्णन (जिनको चाणक्य ने भी प्रायः वैसे ही बताया)
  • विभिन्न प्रकार के विवाद, उनका निर्णय और दण्ड-व्यवस्था
  • प्रायश्चित्त
  • कर्म के अनुसार फल-व्यवस्था
  • मोक्ष-प्राप्ति

इतने विवरण से ही हम देख सकते हैं कि मनु ने राज-व्यवस्था पर कितना बल दिया है और उसको कितने विस्तार से बताया है । इसकी तुलना आज के संविधानों से भली प्रकार की जा सकती है ।

अब हम कुछ विषयों को थोड़ा विस्तार से जानते हैं । पहले हम वैयक्तिक धर्म को देखते हैं ।

आश्रम-व्यवस्था

वेदों ने मनुष्य की औसतन आयु १०० वर्ष बताई है । इसको चार समतुल्य भागों में बाटा गया है, जिनको ’आश्रम’ कहा गया है, क्योंकि प्रत्येक में ही मनुष्य कोई न कोई परिश्रम करता है । ये आश्रम इस प्रकार हैं –

  • ब्रह्मचर्याश्रम – जीवन के प्रथम २५ वर्ष लड़के और लड़की को ज्ञानार्जन में लगाने चाहिए । ८ वर्ष की आयु में उन्हें गुरुकुल भेजने की आज्ञा दी गई है । जो किसी कारण न जा पाएं, वे कुछ कालान्तर में भी जा सकते हैं । और जो पढ़ाई करने में असमर्थ हों, वे शूद्र माने जायेंगे (इस विषय पर आगे भी) ।
  • गृहस्थाश्रम – जितना सम्भव हो विद्या प्राप्त करके (प्रायः २५वें वर्ष में), स्नातक होकर, विवाह संस्कार द्वारा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए । यह आश्रम सारे समाज की नींव है क्योंकि इसी में धनोत्पत्ति होती है । धन-धान्य, वस्त्र, आदि, के लिए शेष तीन आश्रम गृहस्थी पर पूर्णतया निर्भर होते हैं । इसी आश्रम में प्रजातन्तु का भी विस्तार होता है । जहां गृहस्थी के सबसे अधिक दायित्व होते हैं, वही सारे भौतिक सुखों का भोग विशेष रूप से इसी आश्रम में करता है । इसीलिए प्रायः सभी जन इस आश्रम को मरण-पर्यन्त पार नहीं कर पाते !
  • वानप्रस्थाश्रम – इसमें पापों से बचकर, पुण्य कमाने की चेष्टा की जाती है । प्रायः ५० वर्ष की आयु में गृहस्थी को अकेले, या धर्मसंगी के साथ, एकान्त की ओर प्रस्थान करना चाहिए, जैसे वन में बने आश्रमों को । ग्राम से कम-से-कम भोजन, वस्त्र, आदि, ग्रहण करते हुए, अपने पात्र आदि न्यूनातिन्यून रखते हुए, प्रकृति के आश्रय में रहते हुए, विधि के अनुसार सारे यज्ञों को सम्पन्न करना चाहिए । यही पुण्य कमाने का मुख्य साधन है । साथ-ही-साथ, मोक्षपरक स्वाध्याय और चिन्तन-मनन करना चाहिए । यह सब अगली व्यवस्था के लिए आत्मा को सिद्ध करता है ।
  • संन्यासाश्रम – परमात्मा का चिन्तन करते-२, जब आत्मा शुद्ध और पूर्णतया विरक्त हो जाए, तो प्रायः २५ वर्षोपरान्त, मानव को संन्यास लेकर सब भौतिक संगों और कर्तव्यों को त्याग देना चाहिए । उसको किसी एक स्थान पर न रहते हुए (जिससे स्थान से भी संग न रहे), ग्राम-ग्राम विचर कर, उपदेश देते हुए, भोजन-वस्त्र, आदि, ग्रहण करते हुए, ग्रामों के बाहर निवास करते हुए, दिन का मुख्य भाग परमात्मा के ध्यान-समाधि में निकालना चाहिए । ऐसा करते-करते वह मोक्ष का भागी बन जाता है, और जीवन्मुक्त होकर विचरने लगता है ।

चार पुरुषार्थ

प्रत्येक मनुष्य के जीवन के चार लक्ष्य बताए गए हैं – 

  • धर्म – वेद की आज्ञानुसार अपने कर्तव्यों को समझना और करना व न्यायपूर्वक सभी से वर्तना
  • अर्थ – सब प्रकार के धन को धर्मपूर्वक कमाना
  • काम – अपनी सारी इच्छाओं को, अर्जित अर्थ से, धार्मिक प्रकार से पूर्ण करना
  • मोक्ष – प्रपञ्च के बन्धन से छूटकर, अपने स्वरूप को पाना और परमात्मा में विचरण करना

यहां हम देख सकते हैं कि धर्म, अर्थ और काम तो संसार से सम्बद्ध हैं और मोक्ष परलोक से सम्बन्ध रखता है ।

अब यदि हम आश्रमों और पुरुषार्थों को मिलाएं, तो एक और रोचक तथ्य सामने आता है – ब्रह्मचर्य में आत्मा धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है । गृहस्थाश्रम में वह धर्म से अर्थ कमा कर अपनी कामनाएं पूर्ण करता है । वानप्रस्थाश्रम में वह अर्थ और काम को पुनः तिलाञ्जलि देते हुए, धर्म की ओर लौटता है और पापों को नष्ट करते हुए मोक्ष की तैयारी करता है । संन्यासाश्रम में धर्म भी छूट जाता है और आत्मा अपने स्वरूप को पाने में लग जाता है ।

पञ्च महायज्ञ

गृहस्थियों के लिए प्रतिदिन करने योग्य, मनु ने पाँच महाव्रत बताए हैं । ’व्रत’ इसलिए कि इनको करने में हमें सीधे-सीधे कोई विशेष सुख नहीं मिलता, परन्तु दूसरों का उपकार करने से, अपने ऋण उतारने से, ये हमारे कर्तव्य होते हैं । ये इस प्रकार हैं –

  • ब्रह्मयज्ञ – अध्ययन व अध्यापन । गृहस्थी को, और कुछ नहीं तो, मोक्षपरक ग्रन्थों का स्वाध्याय और परमात्मा का चिन्तन प्रतिदिन कुछ समय के लिए अवश्य करना चाहिए । यथासम्भव, पढ़े हुए को पढ़ाना भी चाहिए ।
  • देवयज्ञ – नियत रूप से प्रातः-सायं अग्निहोत्र करके वायु आदि का प्रदूषण नष्ट करना चाहिए ।
  • पितृयज्ञ – अपने जीवित वृद्धों की सेवा-शुश्रूषा द्वारा उनको प्रसन्न करना चाहिए ।
  • बलि वैश्वदेव यज्ञ – घर में बने भोजन में से कुछ भाग हमसे तुच्छ प्राणियों को देना चाहिए । रोगी, दीन मनुष्यों को भी भोजन-छादन यथासम्भव देना चाहिए ।
  • अतिथियज्ञ – घर में आए अतिथि, विशेष रूप से संन्यासी को भोजन-छादन आदि देकर तृप्त करना ।

वर्ण-व्यवस्था

सामाजिक स्तर पर, मनु ने वेदानुसार मनुष्यों के चार विभाजन वर्णित किए हैं । ये वर्ण कहलाते हैं क्योंकि इन्हें वरा जाता है, चुना जाता है – अपनी शिक्षा या स्वभाव के अनुसार । वर्ण का ग्रहण कर्म के अनुसार होता है, और प्रत्येक वर्ण के अपने-२ कर्तव्य होते हैं । आज इन्हें जाति कहा जाता है, परन्तु जाति जन्म से होती है, जैसे गौ जाति । मनु ने जन्म से सबको शूद्र बताकर, गृहस्थाश्रम में ही, जीविकानुसार वर्ण का ग्रहण बताया है । ये वर्ण किसी भी सभ्य समाज में पाए जाते हैं । समाजशास्त्रियों का तो यहां तक मानना है कि भारतीय समाज जो सहस्रों वर्षों तक इस व्यवस्था में बिना विद्रोह के बन्धा रहा, इसका कारण है कि समाज में जो अनपढ़ और मूर्ख व्यक्ति हैं, उनके लिए भी जीविका कमाने और सम्मान से रहने का एक मार्ग उपलब्ध था – शूद्र के रूप में । जब कपटी ब्राह्मणों ने, अपने वर्चस्व को किसी भी अवस्था में बनाए रखने के लिए, वर्णव्यवस्था को जन्म के आधार पर बना दिया, और शूद्रों व स्त्रियों का शोषण करने लगे, तब ही समाज में विद्रोह हुआ और बौद्ध व जैन धर्म का आविर्भाव हुआ । यहां तक कि आज भी अनेक हिन्दूओं का ईसाई और ईस्लाम मत को धर्मपरिवर्तन जातिप्रथा के दुष्प्रभाव से छूटने के लिए होते हैं ।

मनु के द्वारा बताए गए वर्ण संक्षेप से इस प्रकार हैं –

  • ब्राह्मण – विद्या के संरक्षण में किसी भी प्रकार से रत – विद्यालयों में पढ़ा के, शोधकार्य करके, राजा के मन्त्री बनकर (जैसे – आज भी हम देखते हैं कि अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री के आर्थिक व्यवस्था के सलाहकार होते हैं) आदि ।
  • क्षत्रिय – राज्य के संचालन और सुरक्षा में रत – राजनेता, सरकारी पदाधिकारी, पुलिस, सेना के सभी अंग, आदि ।
  • वैश्य – किसी भी आर्थिक कारोबार में रत – किसान, शिल्पी, दुकानदार, व्यवसायी, आदि ।
  • शूद्र – सेवा-कार्य, अर्थात् आजकल की भाषा में – सर्विस इण्डस्ट्री – में कार्यरत । जैसे – धोबी, यानचालक, सफाई-कर्मचारी, पाचक, आदि ।

अब यदि शूद्र अछूत होकर, ब्राह्मण ही पाचन-कार्य करने लगे, तो हो गया न मनु की व्यवस्था का अनर्थ ?! यही स्थिति इस समय देश की है, जिसे कि मेरे जैसे बुद्धिजीवियों अर्थात् ब्राह्मणियों को प्रचार-प्रसार या विरोध द्वारा ठीक करनी है… 

स्त्रियों की समाज व गृह में भूमिका

मनु ने स्त्रियों के भी सुशिक्षित होने पर बल दिया है, जिससे कि आपत्काल में, या नित्य ही, वे भी जीविका में कार्यरत हों । उन्होंने स्त्रियों का सदा आदर करने को कहा है । गृह-वधू के रूप में वही घर की रानी होती है और घर के अभी सदस्यों को उसके कहे अनुसार वर्तना चाहिए । मनु ने घर बनाने से लेकर उसे साफ रखने तक, हर प्रकार से सुचारु रूप से चलाने का भार स्त्री पर डाला है । विशेष रूप से परिवार के धार्मिक आयोजनों का दायित्व स्त्री पर है । अब जब स्त्रियां वेद, गणित, शिल्प, आदि, नहीं पढ़ेंगी, तो वे ये सब कार्य कैसे करेंगी ?!

ऊपर मैंने केवल मनुस्मृति के कुछ मुख्य अंश ही दिए हैं । इतने विस्तृत ग्रन्थ का एक छोटा-सा लेख क्या परिचय दे सकता है ! तथापि मेरी आशा है कि पाठकों को इसके द्वारा मनुस्मृति के आकार-प्रकार और कुछ उपदेशों का परिचय मिल गया होगा, और इस ग्रन्थ के प्रति उनकी कुछ शंकाएं दूर हुई होंगी । मुझे यह भी आशा है कि इस लेख को पढ़ने के बाद, वे सम्पूर्ण ग्रन्थ को पढ़ने के लिए उत्साहित होंगे !