वाणी का प्रयोग

    हमारी वाणी मधुर और विनय-युक्त होनी चाहिए – यह हमें हमारे माता-पिता, आचार्य, आदि, बचपन से बताते आ रहे हैं । परन्तु वाणी के और क्या-क्या गुण होने चाहिए और, उससे भी महत्त्वपूर्ण, क्यों होने चाहिए – यह लेख इन विषयों की चर्चा करता है । 

    वाणी के गुणों के ऊपर हमें क्यों विशेष ध्यान देना चाहिए, पहले इसी की चर्चा करते हैं । मनुष्य और पृथ्वी पर बसने वाले अन्य प्राणियों में एक स्पष्ट भेद है – मनुष्य बहुत प्रकार के स्वर मुख से निकालने में सक्षम है, और इस क्षमता के आधार पर वह बहुत क्लिष्ट भाषा बोलता है । इस भाषा से जो उसने देखा या अनुभव किया है, वही नहीं, अपितु जो अनदेखा और अनछुआ है, उसका भी चित्र खींच देता है । बोलता ही नहीं, अपितु उसका चिन्तन ही भाषा पर आधारित है । यदि आपकी भाषा विकसित न हो, तो आपकी सोच भी सीमित रहेगी । इसका सबसे अच्छा उदाहरण अफ्रीका की एक जनजाति में मिला । इस जनजाति का नाम था ’हौटैन्टौट’, और इनका सम्पर्क युरोप-निवासियों से सत्रहवीं सदी में हुआ, जब इनकी सभ्यता के विषय में विश्व को भी कुछ ज्ञात हुआ । अभी तो यह लुप्तप्राय ही हो गई है । इनकी भाषा में संख्या के लिए शब्द थे – एक, दो, फिर अनेक, अर्थात् दो के बाद इनकी भाषा में गिनती के लिए कोई शब्द नहीं था । इस कारण से इस जाति में गणित कभी विकसित ही नहीं हो पाई ! हां, अवश्य ही भाषा और ज्ञान, दोनों साथ-साथ चलते हैं – भाषा के आधार पर हम नई चीज़ें सोचते हैं, फिर उन नई चीज़ों के लिए नए शब्द बनाते हैं, जैसे ’रेल’ या ’मोटर’ । परन्तु, पहली आवश्यकता सक्षम भाषा की है । यदि भाषा हमारी पंगु होगी, तो हमारी सोच भी उड़ान नहीं भर सकती ! 

    यहीं पर वेदों का भारतीयों पर महान उपकार है । संस्कृत जैसी प्रबल भाषा के कारण ही भारतीयों का ज्ञान एक समय में विश्व-प्रसिद्ध था । जब सारा विश्व गुफा से बाहर ही निकल पाया था, भारतीय चांद-तारों के मार्ग नाप रहे थे ! इसीलिए वेदों ने भाषा, या वाणी, की महानता पर बहुत बल दिया है । वेद कहता है कि ’वाणी को दोहिये’ – 

    यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा ।

    चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्वस्विदस्याः परमं जगाम ॥ ऋक्० ८।१००।१० ॥

अर्थात् जो वाणी अज्ञात पदार्थों को बतलाने वाली, विद्वान् लोगों की स्वामिनी और प्रसन्नता को देनी वाली होती है, वह अपने प्रभाव से चारों ओर ऊर्जा, अन्न और रस को दुहती है । वाणी ज्ञान और मधुरता फैलाकर मनुष्यों को समृद्ध और प्रफुल्लित कर देती है – वह इतनी शक्तिशाली है !

    देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।

    सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ॥ ऋक्० ८।१००।११ ।

अर्थात् वाणी तो अनेक प्रकार की होती है, और उसके कुछ रूप पशु भी बोलते हैं । परन्तु विद्वान लोग तो ’देवीं वाचं’ = उत्कृष्ट भाषा ही बोलते हैं, जो कि बोलने वाले को और सुनने वाले को – दोनों को ही प्रसन्न कर देती है, और उनके लिए अन्न, रस व ऊर्जा दुहती है । ऐसी ही वाणी हमें भी बोलनी उपयुक्त है । 

    जब वाणी मनुष्य-जीवन को इतना प्रभावित करती है, तो स्पष्ट ही है कि हमें हर शब्द अत्यन्त ध्यान से बोलना चाहिए, अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर बोलना चाहिए – 

    सक्तुमिव तित-उना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।

    अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि ॥ ऋक्० १०।७१।२ ।

अर्थात् धीर = मनस्वी ऋषि लोग मन से विचारों को, छन्नी से साफ करते हुए के समान, वाणी में बदलते हैं । उनके द्वारा शब्द और अर्थ प्रत्यक्ष होता है । इसलिए उनकी वाणी में हितकारी ज्ञान निहित होता है ।

    अब वाणी के गुण देखते हैं । मनु ने इनको स्पष्टतम बताया है – 

    सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।

    प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥ मनुस्मृतिः ४।१३८ ॥ 

अर्थात् सत्य बोलें और प्रिय बोलें; अप्रिय सत्य न बोलें, और न ही प्रिय झूठ । यही सनातन धर्म है । आजकल हम ये प्रायः भूल ही गये हैं कि सत्य बोलना धर्म है, और झूठ बोलना पाप । जहां भी मैं सत्य बोलने के ऊपर प्रवचन देती हूं, वहां सभी श्रोता मेरी बात को नकार करके कहते हैं कि प्रिय झूठ बोलने में, या किसी अच्छे जन को बचाने आदि की स्थिति में झूठ बोलने में कोई बुराई नहीं है । कुछ दिन पहले, एक पण्डितजी ने इस प्रकार भी खण्डन किया कि गुप्तचर के लिए तो झूठ बोलना आवश्यक ही है, वह उसका धर्म ही है; सो, आपका कथन सही नहीं कि किसी भी दशा में झूठ सही नहीं । मैं कहते-कहते थक जाती हूं कि पहला सुविधा के अन्तर्गत आता है, और दूसरा आपत्धर्म के अन्तर्गत आता है । सुविधा इस लिए कि जब हम किसी का हृदय नहीं तोड़ना चाहते तो अप्रिय सत्य बोल देते हैं – “बहनजी, खाना बहुत अच्छा बना है”; और जब हम सत्य से जीत नहीं सकते तो झूठ का सहारा लेते हैं – “अश्वत्थामा (हाथी) मारा गया” । ये हमारी कमज़ोरियां हैं, धर्म नहीं है । धर्म तो एक ही है और रहेगा – जो जैसा है उसका वैसा ही जानना, मानना व कहना । परन्तु आजकल हम झूठ बोलने के इतने आदि हैं कि इसको गलत मानना ही हमारे लिए कठिन होता जा रहा है ! हमें अपने को अधिक बलवान बनाना है कि हमें झूठ का सहारा न लेना पड़े, और जब तक हम इतने बलवान् नहीं हो जाते, तब तक हमारे ’सफेद झूठ’ से कुछ पाप तो लगेगा ही !

    भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद्भद्रमित्येव वा वदेत् ।

    शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात् केनचित् सह ॥ मनुस्मृतिः ४।१३९ ॥ 

इस अगले श्लोक में मनु कहते हैं कि या तो भद्र (हितकारी) और भद्र (प्रिय) सत्य बोलो, परन्तु ये न हो सके तो केवल भद्र (हितकारी) ही बोलो । अर्थात् कभी-कभी हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अप्रिय सत्य भी बोलें, यदि वह सुननेवाले के लिए हितकारी हो । विदुर जब धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध से विमुख करने का परामर्श देना चाहते थे, तो उन्होंने कहा – 

    पुरुषा बहवो राजन् सततं प्रियवादिनः ।

    अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥ महभारत उद्योगपर्वः ॥ 

अर्थात् हे राजन् ! सर्वदा प्रिय बोलने वाले (चापलूसी करने वाले) तो बहुत लोग होते हैं, परन्तु अप्रिय सत्य को बोलने वाले और उसको सुनने वाले दुर्लभ होते हैं । राजा के परिपेक्ष में तो चापलूसों की संख्या अधिक होती है, परन्तु हमारे छोटे संसार में भी ऐसे कई व्यक्ति हमें सब ओर मिल जाते हैं । दूसरी ओर, जो विदुर ने अप्रिय सुनने वाले श्रोता की बात कही, वह भी कितनी सत्य है ! इसी कारण से तो हम सबसे ’सफेद झूठ’ बोलते रहते हैं ! 

    सो, हितकारी होना वाणी के लिए अधिक आवश्यक है, चाहे वह अप्रिय सत्य क्यों न हो । मनु और भी शिक्षा देते हैं –

    नारुंतुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोहकर्मधीः ।

    ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् ॥ मनुस्मृतिः २।१६१ ॥

अर्थात् चाहे स्वयं कितने भी कष्ट में हो, उस वाणी का प्रयोग मत करो जिससे कोई उद्विग्न या दु:खित हो । पहली पंक्ति को भी वाणी में घटाएं तो यह भी अर्थ बनता है – किसी की दुखती रग पर (शब्दों से) हाथ मत रखो, और भड़काने वाली भाषा मत बोलो । मनु के अनुसार वाणी का बाण सोच-समझ कर कमान में से निकालना चाहिए –

    यस्य वाङ्-मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा ।

    स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ॥ मनुस्मृतिः २।१६० ॥

अर्थात् जो अपनी वाणी और मन को सर्वदा कपट, असत्य, द्वेष, क्रोध, आदि, से रहित रखता है, और अपने वशमें रखता है – निरर्थक और अधिक नहीं बोलता है – वह निश्चय से वेदों में बताये सुखद फल को पूर्णतया प्राप्त करता है । वस्तुतः, वाणी का जन्म-स्थान मन ही है । सो, जो अशुद्ध बात मन में आ गई, वह कभी मुख तक आ सकती है । और जो आवेश में, हम कुछ अनाप-शनाप बोल गये, तो मन के रास्ते से, वह कार्यान्वित भी हो सकती है । इस प्रकार सम्बद्ध होने से, मन और वाणी को अनेक बार एक-साथ रखा जाता है । दूसरे, वाणी का कम प्रयोग तभी सम्भव है, जब हम बकवास न करे, अर्थात् प्रासंगिक बोले – जहां जितना आवश्यक है, उतना ही बोलें ।

    इस प्रकार वाणी के मुख्य गुण हैं –

१) हितकारी

२) सत्य

३) प्रिय / मधुर

४) प्रासंगिक

    वस्तुतः, वाक्शक्ति मनुष्यों को परमात्मा की एक महान देन है । उसका गलत या मनमाना प्रयोग करके, हम उस देन का अनादर करते हैं, और दुःख के भागी बनते हैं । जहां संसार का अधिकतर व्यवहार वाणी से चलता है, वहां इसी साधन से ज्ञानार्जन किया जाता है । ये दो तभी हो सकते हैं जब वाणी हितकारी और सत्य हो । असत्य पाप ही नहीं होता, अपितु हमारे मन में भी विकार उत्पन्न करके हमें रोगों की ओर धकेलता है । इसलिए सदा सोच-समझकर वाणी का प्रयोग कीजिए ।