वेदों में रामायण के नामपद

पूर्व लेखों में मैं प्रदर्शित कर चुकी हूं कि कैसे शिव आदि कुछ पौराणिक देवी-देवियों की कल्पना वेदों के कुछ मन्त्रों के भ्रान्तिपूर्ण अर्थों द्वारा की गई है । नदियों, पुरियों, आदि, के नाम भी वेदों से लिए गए हैं, यह सर्वविदित है । अपने अध्ययन के अन्तर्गत मैंने रामायण व महाभारत के भी कुछ पात्रों के नाम वेदों में पाए । उनके यौगिक अर्थ जानकर, पात्रों के विषय में भी कौतुहल हो जाता है, वे अधिक रोचक बन जाते हैं ! इस लेख में मैं रामायण में आए कुछ नामों का विवरण दे रही हूं ।

भारतवर्ष में ही क्या, विश्व के ज्ञानभण्डार में वेदों का ऐसा वर्चस्व रहा है कि मनु ने घोषणा की थी –

            सर्वेषां  तु  स  नामानि  कर्माणि  च  पृथक्  पृथक् ।

         वेदशब्देभ्य  एवादौ  पृथक्  संस्थाश्च  निर्ममे ॥ मनुस्मृतिः १।२१॥

अर्थात् वेदों और वेद के शब्दों से ही, मनुष्य-सृष्टि के प्रारम्भ से, सारे नाम, क्रियाएं और व्यवस्थाएं सम्यक्तया अलग-अलग जानी गईं । इससे हमें ज्ञात होता है कि वेद और संस्कृत से प्रभावित सभी संस्कृतियों में वेद के शब्दों के आधार पर ही वस्तुओं और प्राणियों के नाम रखे गए । फिर मनुष्यों के नाम भी वेद पर आधारित हों, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है ।

तो अब रामायण में आए कुछ अभिधान वेदों में ढूढ़ते हैं और उनके यौगिक अर्थ देखते हैं –

  • रामः – यहां ऋग्वेद में एक उल्लेख इस प्रकार मिलता है – … सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निवितिष्ठन्  रुषद्भिर्वर्णैरभि  राममस्थात् ॥ऋक्० १०।३।३॥ – यहां पर सायण ने ’राम’ के अर्थ ’कृष्णवर्ण वाला अन्धकार’ किया है । वैसे ’राम’ शब्द की निष्पत्ति ‘रमु क्रीडायाम्’ धातु से कर्ता में घञ् प्रत्यय लगा कर की गई है । इसलिए इसका अर्थ ’तम’ प्रकरणानुसार ही मानना पड़ेगा क्योंकि मन्त्र में अर्थ हैं – उगता हुआ सूर्य (रात्रि के) तम (=राम) को दबा देता है । सम्भव है कि रात्रि में अन्य प्रकार की क्रीडाएं की जाती हों (रमतेऽस्मिन्निति रामः [देखें उणादिकोष में ’रामठम्’(१।१०१) पर महर्षि की व्याख्या]), इसलिए यहां राम का अर्थ यहां इस प्रकार लिया गया हो ! उपर्युक्त धातु से ही “ज्वलितिकसन्तेभ्यो णः ॥३।१।१४०॥” अष्टाध्यायी के इस सूत्र से ण प्रत्यय कर्म में भी कहा गया है । घञ् और ण – इन दोनों से ’राम’ के अर्थ बने – जो क्रीडा करे, प्रसन्न हो, अथवा जिससे क्रीडा की जाए, आनन्द मिले (सायण के भाष्य से सम्भवतः तीसरा अर्थ है – जिस [काल/अवस्था] में क्रीडा की जाए) । ’जिससे आनन्द मिले’ – इस अर्थ से ’राम’ का ’सुन्दर’ अर्थ भी बनता है । इस प्रकार रामचन्द्र जी स्वयं प्रसन्न रहने से, अतीव नयनाभि’राम’ होने से और अपने माता-पिता, प्रजा, आदि को सन्तोष देने वाले होने से ’राम’ कहलाए गए ।
  • सीता – इस पद का उल्लेख वेदों में ’राम’ से कुछ अधिक प्राप्त होता है । यथा – अर्वाची   सुभगे  भव  सीते … ॥ ऋक्०४।५७। ६॥ – जिसके भाष्य में महर्षि दयानन्द लिखते हैं – “हलादिकर्षणावयवायोर्निर्मिता – हल आदि के खींचने वाले, लोहे के अवयव से बनाई गई सीता” अर्थात् हल से कुरेदी गई लकीर । इसी अर्थ से हम सब परिचित हैं, और सीता के नामकरण में भी यह किंवदन्ति है कि राजा जनक पुत्रेष्टि की तैयारी के लिए यज्ञक्षेत्र को स्वच्छ करने के लिए जब हल चला रहे थे, तब अकस्मात् हल से बने गड्ढे में सीता जी के दर्शन हुए । इसी अर्थ का पोषक है शतपथ ब्राह्मण का यह वचन – “बीजाय  वा  एषा  योनिष्क्रियते  यत्  सीता॥शतपथ० ७।२।२।५॥” अर्थात् बीज के लिए किया गया गड्ढा सीता कहलाता है । अन्य कुछ उल्लेख और उनपर स्वामी जी का भाष्य इस प्रकार हैं –
    • इन्द्रः  सीतां  नि  गृह्णातु  …॥ऋक्०४।५७।७॥ – “भूमिकर्षिकां – भूमि जुताने वाली वस्तु” अर्थात् फाल ।
    • घृतेन  सीता  मधुना  समज्यताम्… ॥यजु०१२।७०॥ – “सायन्ति क्षेत्रस्थलोष्ठान् क्षयन्ति यया सा काष्ठपट्टिका” अर्थात् जिस लकड़ी की पट्टी या फाल से खेत में स्थित ढेलों को तोड़ा जाता है, वह ।  

’षो अन्तकर्मणि’ धातु से औणादिक क्त प्रत्यय (उणा० २।९०) और टाप् लगकर ’सीता’ की निष्पत्ति हुई है । सम्भवतः, यह भूमि को बीजारोपण के लिए तैयार करने में अन्तिम सोपान होता है, इसलिए जोतने अथवा फाल अथवा जुती हुई लकीर के अर्थ में इसका प्रयोग होता है, जिस प्रकार उपर्युक्त मन्त्रों में दिया गया है । उणादिकोषः में महर्षि की व्याख्या – “स्यति कर्मसमाप्तिं करोतीति सीता क्षेत्रे हलेन कृता रेखा स्त्रीविशेषो वा (२।९०)” (अर्थात् कर्म की समाप्ति करता है, इस कारण ’सीता’ से अभिलक्षित, अथवा खेत में हल से की गई रेखा अथवा स्त्रीविशेष का नाम) से भी यही अर्थ ध्वनित होता है । 

उपर्युक्त मन्त्रों में कृषि में भूमि को जोतने से अच्छी फसल प्राप्त करने के साथ-साथ, स्त्रियों को विद्यादि से भूषित करने पर समाज की उन्नति में सहभागी बताया गया है । इस प्रकार ’सीता’ खेती और स्त्रियों के लिए विद्यादि, दोनों प्रकार से मनुष्योन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक है । 

शतपथ ब्राह्मण तो यहां तक कहता है – प्राणा  वै  सीताः ॥शतपथ० ७।२।३।३॥ – प्राणों का ही अपर नाम सीता है । अवश्य ही रामचन्द्र जी इस अर्थ से सहमत होते ! क्योंकि सीता अन्न उगाने में महत्त्वपूर्ण है, और अन्न से प्राणरक्षा होती है, इसलिए यहां ब्राह्मण ने, अपनी विशिष्ट विवक्षा-पद्धति के अनुसार, सीता को ही प्राण कह दिया ।

  • भरतः – यह शब्द तो स्पष्टतः ’डुभृञ् धारणपोषणयोः’ से निष्पन्न हुआ है, औणादिक अतच् (उ० ३।११०) प्रत्यय लगाकर । और इसी के अनुसार महर्षि ने वेदमन्त्रों में अर्थ भी किए हैं –
    • त्वामीळे  अध  द्विता  भरतो  वाजिभिः  शुनम्… ॥ऋक्० ६।१६।४॥ – “धर्ता पोषकः (सज्जनः)” ।
    • तमीळत  प्रथमं … ऊर्जः  पुत्रं  भरतं …॥ऋक्०१।९६।३॥ – “धारकम् – धारण व पुष्टि करने वाला (परमात्मा)” ।
    • प्रप्रायमग्निर्भरतस्य  शृण्वे … ॥यजु० १२।३४॥ – “पालितव्यस्य राज्यस्य – सेवने योग्य राज्य” – यहां महर्षि ने ’भरत’ को णिजन्त लेकर उसे राज्य बताया है ।
    • और अन्य भी अनेक उल्लेख वेदों में प्राप्त होते हैं । ब्राह्मणादि ग्रन्थों में भी इस शब्द के कुछ रोचक उल्लेख मिलते हैं, यथा – 
    • भरताः  ऋत्विङ्नाम ॥निघण्टुः ३।१८॥ – ऋत्विजों के अर्थ में । 
    • प्रजापतिर्वै  भरतः  स  हीदं  सर्वं  बिभर्ति ॥शतपथ०  ६।८।१।१४॥ – प्रजापति (परमात्मा) ही भरत है क्योंकि वह इन सब (ब्रह्माण्ड में सब भूत व जन्तुओं) का भरण-पोषण करता है ।
    • अग्निर्वै  भरतः  स  वै  देवेभ्यो  हव्यं  भरति ॥कौषीतकी० ३।२॥ – अग्नि ही भरत है क्योंकि वह देवों (वायु आदि भूतों) के लिए हवि धारण करती है ।
    • प्राणो  भरतः ॥ऐतरेयब्राह्मणम् २।२४॥ – प्राण भरत हैं (क्योंकि वे जीव को शरीर में धारण करते हैं) ।
    • भरत  आदित्यः ॥निरुक्तम् ८।१४॥ – भरत आदित्य (सूर्य) है (क्योंकि वह जीवों को धारण व पोषित करता है) ।
    • एष  वो  भरतो  राजा ॥तैत्तिरीयसंहिता १।८।१०।२॥ – निश्चय से भरत राजा है (पुनः क्योंकि वह प्रजा का धारण-पोषण करता है) ।
    • “भृमृदृशि० (१।११०)” – उणादिकोष में महर्षि ने व्याख्या की है – “भरति पुष्णातीति भरतः राजभेदो नटो रामानुजो वा” अर्थात् पोषण करने वाले को ’भरत’ कहा जाता है; राजविशेष, नट और राम के अनुज के लिए भी यह प्रयुक्त होता है ।

संक्षेप में, यह शब्द परमात्मा, राजा, प्रजा, राज्य, सेनापति, सज्जन, विद्वान्, अग्नि, आदित्य, आदि, किसी भी धारक या पोषक या धारणीय/पोषणीय वस्तु के अर्थ में लिया गया है । राजा के लिए यह अत्यन्त सरल, सुन्दर व अर्थपूर्ण नाम है । 

(आजकल कुछ लोगों ने हमारे राष्ट्र का नाम ’भारत’ के अर्थ ’भायां रतः’ अर्थात् ’ज्ञानादि आभा में रत’, इस प्रकार किए हैं । वेदों में ’भारत’ शब्द धर्ता अथवा ’भारती = वाणी’ का वेत्ता/धर्ता अर्थ में आया है । महाभारत ग्रन्थ, जिससे इस राष्ट्र को यह नाम दिया गया, उसमें चक्रवर्ती राजा भरत की सन्तति होने के कारण कौरवों, पाण्डवों, आदि, के लिए और उनके राष्ट्र के लिए इस पद का प्रयोग किया गया है । सो, ’भायां रतः’ उन लोगों की ही कल्पनामात्र है जिन्होंने ये अर्थ किए हैं ! इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता ।)

  • दशरथः – आश्चर्यजनक है कि यह शब्द भी ऋग्वेद में प्राप्त हो जाता है – चत्वारिंशद्दशरथस्य शोणाः … ॥ऋक्० १।१२६।४॥ – “दश रथाः यस्य सेनेशस्य – दश रथों से युक्त सेनापति – दशों दिशाओं मे रथवाला (चक्रवर्ती राजा वा सेनापति)” । इस प्रकार ’दशरथ’ भी राजा के लिए बहुत ही उपयुक्त अभिधान है ।
  • लक्ष्मणः – यह पद मुझे वेदों में प्राप्त नहीं हुआ । सम्भव है मेरी खोज पूर्ण न हो । तथापि उणादिकोष में पाणिनि ने इसकी निष्पत्ति दी है – “लक्षेरट्  मुट्  च ॥३।७॥”, जिसकी व्याख्या में महर्षि लिखते हैं – “लक्ष्मणं चिह्नं नाम वा रामभ्राता लक्ष्मणो वा” अर्थात् ’लक्ष्मण’ चिह्न अथवा नाम के अर्थ में है; राम के भाई का नाम भी । क्या सम्भव है कि लक्ष्मण जी के कोई तिल अथवा कोई अन्य जन्मचिह्न हो जिसके कारण इन्हें यह नाम दिया गया ?!
  • कौशल्या – यह शब्द भी मुझे वेदों में प्राप्त नहीं हुआ । कोशल राज्य से होने के कारण (कोशलदेशे भवा छ्य), दशरथ की बड़ी रानी का यह अपर नाम था । ’कोशल’ राज्य के अर्थ में ’कुशल’ शब्द से निष्पन्न हुआ है । “वृषादिभ्यश्चित् (१।१०६) – उणादिकोष में महर्षि की व्याख्या इस प्रकार है – “कोशति श्लिष्यति कोशति व्यवहर्तुं जानातीति वा कुशलः निपुणः कुशलं क्षेममिति वा । बाहुलकाद्गुणे कोशलः इति देशभेदो वा” अर्थात् (धनादि से) जुड़ने अथवा सम्यक् व्यवहार जानने वाले निपुण व्यक्ति को, कुशलता को अथवा रक्षा को ’कुशल’ कहा जाता है; और ’कोशल’ देशविशेष का नाम है । सम्भवतः, कुशल व्यक्तियों अथवा धन-धान्य से सम्पन्न सुरक्षित राष्ट्र को इंगित करने के लिए इस नाम का प्रयोग हुआ है । 

इन संकेतों से हमें ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वज नाम रखने के लिए वेदों की संहिताओं को ही हाथ में उठाया करते थे । उस समय वेदों का पठन-पाठन भी अवश्य ही अधिक होता होगा, इसलिए सभी उनमें आए विभिन्न पदों और उनके अर्थों से भली प्रकार परिचित होंगे । तब फिर जब वे कोई अभिधान रखते थे, तो वह बहुत ही अर्थपूर्ण और उपयुक्त होता था । आज हम केवल उनका अनुकरण करके वे नाम रख लेते हैं, उन नामों का व्यक्तियों से सम्बन्ध आवश्यक नहीं होता । ऐसा प्राचीन आर्यावर्त में नहीं हुआ करता था, और शब्दों के अर्थ समझकर ही व्यक्ति के लिए उपयुक्त नाम रखा जाता था । जैसे वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद मुनि के नाम का अर्थ ’कणों=धान के दानों को खाने वाला है । ऐसा प्रसिद्ध है कि खेतों में दाने बीनकर खाने के कारण उनका यह नाम पड़ गया । इस प्रकार प्राचीन नामों में अनेक रोचक रहस्य छिपे होते हैं !