वैदिक मन्त्रों के अर्थीकरण में ऋषि आदि का महत्त्व – १

प्रत्येक वैदिक मन्त्र के चार अवयव होते हैं, जो उसके अर्थ-निर्धारण में महत्त्वपूर्ण होते हैं । ये हैं – ऋषि, देवता, छन्द व स्वर । वैदिक-छ्न्दो-मीमांसा में पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस विषय पर विस्तार से मन्थन किया है, और छन्द का कुछ महत्त्व दिखाया है । विशेषरूप से उन्होंने दिखाया है कि, जबकि वेदों के प्राचीन व्याख्याकारों ने छन्द की महत्ता को माना है, तथापि अर्थीकरण में उसका उपयोग नहीं दिखाया है । युधिष्ठिर जी ने छन्द और स्वर में एक सम्बन्ध भी बताया है, जिससे कि हर छन्द के साथ एक स्वर जुड़ा है । इसलिए छन्द और स्वर को अलग-अलग समझना उन्होंने लाभकर नहीं समझा । प्रमुखतया, भाष्यकार देवता का उपयोग विषय-निर्धारण में करते हैं, परन्तु वह भी उतना नहीं जितना अपेक्षित है । ऋषि के विषय में यह मान्यता बहुत काल से रही है कि वह मन्त्र का द्रष्टा, प्रत्यक्षकर्ता का नाम है । यास्क ने निरुक्त में इसको कहा, और स्वामी दयानन्द ने भी ऐसा ही लिखा । इसके आधार पर कुछ विद्वान् मानते हैं कि जो भी कोई ऋषि मन्त्र का विशेष उपयोग करे, अथवा विशेष प्रसार करे, उसका नाम भी मन्त्र से जोड़ा जा सकता है । उनके मतानुसार स्वामी दयानन्द का नाम भी कुछ मन्त्रों से जोड़ा जा सकता है, जैसे शूद्रों के लिए भी वेद का सुनना-सुनाना, पढ़ना-पढ़ाना वर्जित नहीं है, ऐसे उपदेश वाला यह मन्त्र – यथेमां वाचं कल्याणीं (यजु० २६।२) । यदि ऐसा सत्य हो, तो इस अंश की वेदार्थ में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए । परन्तु यह भूमिका होती है, ऐसा वेदभाष्यकार स्कन्दस्वामी के मत से प्रतीत होता है । परन्तु कैसे, यह स्पष्ट नहीं बताया गया है । युधिष्ठिर जी स्वयं लिखते हैं – “ऋषि मन्त्रार्थ में कैसे उपयोगी होते है, यह अभी हमारी समझ में पूरी तरह नहीं आया (वैदिक-छ्न्दो-मीमांसा, पञ्चम अध्याय, पृष्ठ ६९, टिप्पणी)” । स्पष्ट है कि इन अवयवों के अर्थीकरण में प्रयोग की विद्या बहुत काल से लुप्तप्राय है । तथापि मुझे इस विषय में कुछ समझ में आया । उसी को यहां लेखबद्ध कर रही हूं ।

छान्दोग्य के प्रथम प्रपाठक, तृतीय खण्ड में ध्यानोपासना की, या वेदों के अर्थ-प्रत्यक्ष करने की विधि दी गई है । ऋषि लिखते हैं –

अथ  खल्वाशीः  समृद्धिरुपसरणानीत्युपासीत  येन साम्ना  स्तोष्यन्  स्यात्  तत्  सामोपधावेत्  ॥  यस्यामृचि  तामृचं  यदार्षेयं  तमृषिं  यां देवतामभिष्टोष्यन्  स्यात्  तां  देवतामुपधावेत्  ॥ येनच्छन्दसा  स्तोष्यन्  तच्छन्द  उपधावेद्येन  स्तोमेन  स्तोष्यमाणः  स्यात् तं  स्तोममुपधावेत्  ॥ १।३।८-१०॥

अर्थात् अब मोक्ष-कामना की समृद्धि (वृद्धि) को पाऊं (मोक्ष प्राप्त करूं), यह सोचकर उपासना करे । कैसे? सो कहते हैं – जिस साम (वेदमन्त्र) से स्तुति करनी है, उस साम का ध्यान करें । (वह) जो ऋचा (पुनः वेदमन्त्र ही) (चुनी) हो, उस ऋचा का, उसका जो ऋषि उसका और उसकी जिस देवता की स्तुति करनी है, उसका ध्यान करें । (उसके) जिस छन्द के द्वारा स्तुति करनी है, उसका ध्यान करें । जिस स्तोम के द्वारा स्तुति करनी है, उसका ध्यान करें ।

यहां स्तोम का अर्थ ’सामवेद के स्तुति-समूह’ किया गया है, जो कि रूढी अर्थ है । इन तीनों वाक्यों का अर्थ भी यज्ञपरक किया गया है । जैसा मैंने पिछले मास के लेख में दर्शाया था, यहां यज्ञ का प्रसङ्ग लेना असङ्गत है । यहां मोक्षार्थी की कामना, अर्थात् मोक्ष, का ही प्रसङ्ग चल रहा है । वेद-मन्त्रों का प्रत्यक्षीकरण उसके लिए अनिवार्य है । यह श्रवण-चतुष्टय का अन्तिम सोपान ’साक्षात्कार’ भी है । पुनः, ऋचा पर ध्यान करने के कारण, यहां स्तोम का अर्थ ’स्वर’ करना सङ्गत लगता है । ऐसा करने पर ज्ञात होता है कि उपनिषत्कार कह रहे हैं कि किसी वेद-मन्त्र को प्रत्यक्ष करने के लिए उस मन्त्र पर ध्यान लगाएं, उसके ऋषि, देवता, छन्द और स्वर अवयवों के साथ । अर्थात् ये अवयव पूर्णरूप से अर्थ करने के लिए अत्यधिक आवश्यक हैं ।

इस वचन से, और युधिष्ठिर जी द्वारा दिए अन्य वचनों से, हमें पहले तो इस भ्रान्ति को अपने मन से निकाल देना चाहिए कि मन्त्र का ऋषि उसके मन्त्रद्रष्टा का नाम होता है । सम्भव है कि मन्त्र को प्रत्यक्ष कर लेने पर, मुनि अपना नाम मन्त्र के ऋषि पर रख लेते हों, परन्तु इसका उल्टा समझने से इस अवयव का अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा । मन्त्रों का अध्ययन करने से यह भी अनेकों बार पाया जाता है कि ऋषि-वाची शब्द मन्त्र में स्थित है । यह भी सङ्केत देता है कि उस शब्द का मन्त्र के अर्थ से सम्बन्ध है । “ऋषी गतौ” से औणादिक इन् प्रत्यय लगकर ’ऋषि’ शब्द सिद्ध होता है । जहां इसका एक और अर्थ ’प्राप्त करने वाला’ होता है, वहीं दूसरी ओर ’प्राप्त कराने वाला’ भी होता है । सो, यहां इसी दूसरे अर्थ में इसका प्रयोग है – ऋषि मन्त्र के अर्थ को प्राप्त कराता है । यह भी विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार मन्त्रों के पदक्रम, छन्द, आदि, परम्परा से सुरक्षित रखे गए हैं, क्योंकि उन्हें ईश्वर-प्रदत्त माना गया, उसी प्रकार मन्त्र के ऋषियों को भी सुरक्षित रखा गया है । उन्हें मनमाने रूप से बदला नहीं जा सकता । और जो हम सोचें कि ये मन्त्रों के पहले मन्त्रद्रष्टाओं के नाम हैं, इसलिए इन्हें बदला नहीं जा सकता, तो फिर हमें ऋग्वेद के सभी मन्त्रों का ऋषि अग्नि मिलना चाहिए, यजुर्वेद का वायु, साम का आदित्य और अथर्व का अङ्गिरा, क्योंकि अनेकों प्रमाणों से ये ही इन विभागों के पहले मन्त्रद्रष्टा हैं । इसलिए मन्त्र के ऋषि को मन्त्रार्थ प्राप्त कराने वाला ही जानना चाहिए । जहां देवता मन्त्र का मुख्य विषय होती है, वहां ऋषि को मन्त्र का द्वितीय विषय समझना चाहिए, ऐसा मेरी मान्यता है ।

दूसरे, युधिष्ठिर जी ने जो हर छन्द का सात स्वरों में से एक से नित्य सम्बन्ध बताया है, वह सम्बन्ध होते हुए भी, छन्द और स्वर के भिन्न अर्थ सम्भव हैं । सो उनको अपने स्वरूप से भी समझना चाहिए । प्रमुख सात छन्द और उनसे सम्बद्ध स्वर इस प्रकार हैं –

छन्दोनाम        अक्षरसङ्ख्या    स्वर

गायत्री              २४                   षड्ज

उष्णिक्              २८                   ऋषभ

अनुष्टुप्              ३२                   गान्धार

बृहती                ३६                   मध्यम

पङ्क्ति               ४०                   पञ्चम

त्रिष्टुप्                ४४                   धैवत

जगती               ४८                   निषाद

जबकि भेद-प्रभेदों से वैदिक छन्द अनेक हैं, ये सात ही प्रमुखता से पाए जाते हैं । 

अब हम इन अवयवों से अर्थीकरण में सहायता दर्शाने के लिए, यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय, जो कि ईशावास्योपनिषद् के नाम से भी अति प्रसिद्ध है, के कुछ मन्त्रों को देखते हैं । पहले दो मन्त्र हैं –

ईशा  वास्यमिदं  सर्वं  यत्किञ्च  जगत्यां  जगत्  ।

तेन  त्यक्तेन  भुञ्जीथा  मा  गृधः  कस्य  स्विद्धनम् ॥ यजु० ४०।१॥

कुर्वन्नेवेह  कर्माणि  जिजीविषेच्छतं  समाः  ।

एवं  त्वयि  नान्यथेतोऽस्ति  न  कर्म  लिप्यते  नरे  ॥ यजु० ४०।२॥

ऋषिः – दीर्घतमा,  देवता – आत्मा,  छन्दः – अनुष्टुप्,  स्वरः – गान्धारः ॥

पदानुसार  मन्त्रार्थ – जो कुछ भी इस ब्रह्माण्ड में गम्यमान होता है (बदलता है, अर्थात् सभी विद्यमान् पदार्थ), वे सब ईश से व्याप्त हैं (ईश्वर उनमें रहता है) । इस कारण से, (हे जीवात्मा!) तू इस संसार को त्याग से भोग, लालच से नहीं, क्योंकि वास्तव में यह धन किसका है, अर्थात् तुम्हारा तो कुछ भी नहीं है, सब परमात्मा का ही है ॥१॥ यहां (इस संसार में) कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना कर । केवल इस प्रकार (बिना फल की अत्यधिक कामना करते हुए, सर्वदा कर्म करते हुए और दीर्घायु की कामना करते हुए), और अन्य किसी भी प्रकार से नहीं, किया हुआ कर्म लिप्त नहीं होता (उसका फल हमको नहीं भोगना पड़ता, अर्थात् यहां निष्काम कर्म की परिभाषा है) ॥२॥

अब हम मन्त्रों के अन्य अवयवों को देखते हैं । पहला, देवता आत्मा । प्राचीन शास्त्रों में ’आत्मा’ का अर्थ परमात्मा या जीवात्मा, अथवा दोनों होता है । इस मन्त्र में दोनों का ही विषय है – जहां एक ओर प्रभु के सब वस्तुओं का ईश्वर होना और सर्वव्यापक होने का अर्थ है, वहीं जीव को कैसे जीना चाहिए, यह भी बताया गया है । इसलिए ये दोनों ही अर्थ यहां सङ्गत हैं ।

दूसरा, दीर्घतमा ऋषि । दीर्घतमा का अर्थ है ’सबसे लम्बा’ । सो, इन मन्त्रों में जीवन को लम्बा करने का विषय स्पष्टरूप से उपलब्ध है । उसकी दूसरी महत्ता है – किस प्रकार जीवन जिया जाए जो वह लम्बा और स्वस्थ हो । इस प्रकार ऋषि शब्द यहां विशेष बोध कराता है – जो हम कर्मठ, त्यागपूर्ण जीवन जीयेगें, और लम्बे जीवन की कामना करते हुए किसी भी दुष्प्रवृत्ति में नहीं पड़ेंगे, तो जीवन लम्बा होना स्वाभाविक है ।

तीसरा, अनुष्टुप् छन्द । यह थोड़ा कठिन है क्योंकि शास्त्रों में हमें इसकी व्याख्या नहीं मिलती । तथापि महर्षि दयानन्द के वचन हमें अन्य रूप से प्राप्त होते हैं । वे ही हमारे मार्गदर्शक बन जाते हैं । यजुर्वेद के चौदहवें अध्याय में देवताओं और छन्दों का वर्णन है । वहां दसवें मन्त्र में, महर्षि अर्थ करते हैं – अनुस्तौति यया सा अनुष्टुप् – अर्थात् पश्चात् या अनुकूलता से स्तुति जिससे की जाए । अठारहवें मन्त्र पर वे कहते हैं – सुखानामनुष्टम्भनम् अनुष्टुप् – अर्थात् सुखों का जो आलम्बन हो । यहां ’ष्टभु स्तम्भने’ भ्वादिगणीय धातु से ’अनुष्टुप्’ की निष्पत्ति की गई है, जबकि पूर्व अर्थ में ’ष्टुञ् स्तुतौ (भ्वादि)’ को लिया गया है । एक और धातु भी यहां सम्भव है – ’ष्टुप समुच्छ्राये’, अर्थात् उद्धार करने वाला । अब यदि हम यहां देखें, तो पहले मन्त्र में कहा गया है कि यदि ईश्वर को ही संसार की प्रत्येक वस्तु का स्वामी मानकर इस जीवन को जीओगे, तो वह जीवन सुखों की खान हो जायेगा और तुम्हारा उद्धार हो जायेगा । इस प्रकार यहां पश्चाद्-भाव, सुखालम्बन-भाव और उद्धार-भाव, तीनों ही उपलब्ध हो जाते हैं । इस पश्चाद्-भाव से बोध होता है कि पहले परमात्मा की सत्ता, फिर उसके ऐश्वर्य को जानना आवश्यक है । तदनन्तर, हम में धार्मिक प्रवृत्ति की वृद्धि होगी, और धार्मिक जीवन से सुखों की प्राप्त होगी ।

चतुर्थ, गान्धार स्वर । जबकि यहां हमें प्रमाण नहीं उपलब्ध होता, तथापि महर्षि के अन्य वचनों से हम अर्थ कर सकते हैं कि इसका अर्थ है – ’यः गां धारयति’ – जो पृथिवी को धारण करवाए, अर्थात् पृथिवी पर इस जीवन या शरीर को देने वाला भी वह परम पिता परमेश्वर ही है । यदि हम ऐसा जानकर जीयेगें, तो और भी सुख पावेंगे । सो, यहां ’बदलने वाली वस्तुओं’ से निर्जीव वस्तुओं का ही ग्रहण न किया जाय, अपितु जीवित शरीर को भी उसी की सम्पत्ति माना जाय, यह अर्थ स्वर प्रदर्शित करता है । है न अति सुन्दर अर्थ ?!

अवश्य ही सर्वत्र अनुष्टुप् छन्द और गान्धार स्वर के यही अर्थ नहीं होंगे, प्रसङ्गानुसार हमें इनका अर्थ समझना पड़ेगा । पाठक स्वयं अनुसन्धान करें ।

अधिक स्पष्टीकरण के लिए मैं एक और उदाहरण लेती हूं –

अग्ने  नय  सुपथा  राये  अस्मान् 

         विश्वानि  देव  वयुनानि  विद्वान्  ।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो  

भूयिष्ठां  ते  नमउक्तिं  विधेम ॥ यजु० ४०।१६ ॥

ऋषिः – दीर्घतमा,  देवता – आत्मा,  छन्दः – त्रिष्टुप्,  स्वरः –धैवतः ॥

पदानुसार  मन्त्रार्थ – हे कर्मों का बोध कराने वाले परमेश्वर अग्ने ! आप हमें विभिन्न धनों को प्राप्त कराने के लिए सुमार्ग से ले जाएं । हे दिव्य गुणों वाले देव! आप हमारे बारे में सब जानते हैं । (इसलिए) कृपया हमसे हमारा कुटिलता और पापयुक्त व्यवहार दूर कर दीजिए । इसके लिए हम आपकी बारम्बार सत्कारपूर्वक स्तुति करते हैं । 

देवता आत्मा यहां भी जीवात्मा और परमात्मा के अर्थ में है । जीवात्मा को सुमार्ग का उपदेश है, और उस पर चल सकने का निमित्त-कारण परमात्मा है ।

यहां दीर्घतमा ऋषि का भी वही अर्थ है – जो हम पापयुक्त और कुटिलता को दूर करेंगे और परमात्मा की उपासना करेंगे, तो हमारी आयु दीर्घ होगी । यह अर्थ इस मन्त्र में सीधे नहीं उपलब्ध है, केवल ऋषि प्राप्त कराता है ।

छन्द यहां त्रिष्टुप् है । पुनः यजु० १४।१० पर महर्षि कहते हैं, “त्रयः कर्मोपासनाज्ञानानि स्तुवन्ति यया सा त्रिष्टुप्” अर्थात् जिससे तीन की स्तुति की जावे । यहां इन तीन को उन्होंने कर्म, उपासना और ज्ञान कहा है । यजु० १४।१८ के भाष्य में महर्षि कहते हैं, “यया त्रीणि सुखानि स्तोभते सा त्रिष्टुप्” अर्थात् जिससे तीन सुखों का आश्रयण हो । पूर्ववत्, यहां ’ष्टभु स्तम्भने’ और ’ष्टुञ् स्तुतौ (भ्वादि)’ का प्रयोग किया गया है । पुनः, ’ष्टुप समुच्छ्राये’ धातु यहां भी सम्भव है । पहला अर्थ यहां बिल्कुल ठीक बैठ जाता है – कर्म कुटिलता और पाप से पृथक् हों, स्तुतियों से हम प्रभु की उपासना करें और परमात्मा हमारी बुद्धि को शुद्ध करे जिससे हम सन्मार्ग पर चले । इनको तीन प्रकार से उद्धार भी माना जा सकता है । स्तुत्यर्थ में विचित्र बात सामने आती है – इस मन्त्र में तीन ही स्तुतियां हैं – अग्नि, देव और विद्वान् ! यह देखकर मुझे बहुत ही अचम्भा हुआ । तथापि सर्वत्र ऐसा ही हो, यह आवश्यक नहीं है । आवश्यक है तो यह कि त्रिष्टुप् मन्त्र में हमें तीन प्रकार का कोई उपदेश या स्तुति मिलेगी ।

धैवत स्वर का शास्त्र में मुझे कोई अर्थ नहीं मिला । मेरे अनुसार यह धीवत् से तद्धित अण् प्रत्यय लगकर बना है । धीवत् का अर्थ है – बुद्धिमान्, प्रज्ञावान् । तो, धैवत का अर्थ हुआ – बुद्धिमान् होने या ज्ञान, धारणा-शक्ति विषयक । मन्त्र में एक ओर परमात्मा के ज्ञान का वर्णन है, जहां उन्हें हमारे बारे में सब ज्ञान रखने वाला बताया गया है । वहीं दूसरी ओर, जो व्यवहार से कुटिलता और पापाचरण को दूर करने का उपदेश है, वह वस्तुतः प्रधानतया बुद्धिविषयक है, यह निर्देश हम स्वर से समझ सकते हैं । परमात्मा हमारी वाणी और क्रियाओं को ही केवल शुद्ध करेंगे, तो वह शुद्धि अपूर्ण होगी । परन्तु, जो वे बुद्धि से इन अधर्मों को निकाल देंगे, तो वाणी और क्रिया तो स्वयं शुद्ध हो ही जायेंगी ! सुपथ के विषय में भी ऐसा ही है । इसीलिए महर्षि दयानन्द ने अपने भाष्य में लिखा है – “जो सत्यभाव से परमेश्वर की उपासना करते, यथाशक्ति उसकी आज्ञा का पालन करते, और सर्वोपरि सत्कार के योग्य परमात्मा को मानते हैं, उनको दयालु परमेश्वर पापाचरण-मार्ग से पृथक् कर, धर्मयुक्त मार्ग में चला के, विज्ञान देकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करने के लिए समर्थ करता है ।” इस प्रकार इस मन्त्र में हमें बुद्धिमान् बनाने की प्रार्थना है । यही है धैवत स्वर का रहस्य ! उपर्युक्त महर्षि के वचन में आप तीन प्रकार के कितने उपदेश हैं, यह भी देखें ।

विस्तरभय से मैं अन्य उदाहरण नहीं दे रही हूं ।