सूर्य पर मनुष्य
सत्यार्थ-प्रकाश के आंठवे समुल्लास में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने जो कहा है कि सूर्य पर भी मनुष्य आदि प्राणी पाए जाते हैं, और वहीं से पृथिवी पर उनका आगमन हुआ है, यह आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष में कैसे सम्भव हो सकता है, यह शंका हमारे मन में उठती है ।अपने अपूर्ण ज्ञान के आधार पर – जितना मैं अब तक समझ पाई हूं, उसके अनुसार – लिख रही हूं । आशा है उत्तरार्थियों को मेरे विश्लेषण से सन्तोष होगा !
यह विषय अवश्य ही जटिल है, और इसमें संशय होना स्वाभाविक है । सो, आरम्भ में, हम महर्षि के वचनों को देखते हैं । सत्यार्थ-प्रकाश के अष्टम समुल्लास में प्रश्न उठता है – सूर्य, चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं ? और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं ?
महर्षि उत्तर देते हैं, “ये सब भूगोल लोक (हैं), और इनमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती है । क्योंकि – ’एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते; तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद् वसव इति ॥ शतपथ कां० १४।६।९।४॥’ – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य – इनका ’वसु’ नाम इसलिए है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं, और ये ही सबको वसाते हैं । जिसलिए वास के = निवास करने के घर हैं, इसलिए इसका नाम ’वसु’ है ।
’जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं, पश्चात् उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह ? और जैसे परमात्मा का यह छोटा-सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है, तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे ? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता । तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो, तो सफल कभी हो सकता है ? इसलिए सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है ।”
यहां, और इसके आगे-पीछे , मुझे यह तो विवरण नहीं प्राप्त हुआ कि मनुष्यादि सृष्टि सूर्य से पृथ्वी आदि पर अवतरित होती है, परन्तु, हां, उपर्युक्त से यह तो स्पष्ट ही है कि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, आदि, पर महर्षि ने मनुष्यादि सृष्टि का होना बताया है ।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार सूर्य का तापमान और गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक है कि वहां शरीर तो क्या, परमाणु भी छिन्न-भिन्नावस्था (केवल nucleus रूप) में रहते हैं । ऐसे में, वहां मनुष्यादि सृष्टि का होना सम्भव नहीं प्रतीत होता । चन्द्र पर गए हुए मानव को अनेक वर्ष हो गए, और उसका पर्याप्त परीक्षण हो चुका है । वहां भी मनुष्यादि तो दूर, बैक्टीरिया और वाइरस् भी नहीं प्राप्त हुए; बल्कि जल – जो कि जीवन के लिए अनिवार्य माना जाता है – वह भी न के बराबर ही है, और जीवन के लिए अपर्याप्त है । इस विषय में, मंगल ग्रह से अभी भी हमें आशा है पर वह भी समय के साथ क्षीण होती जा रही है । सौर्यमण्डल में अन्य किसी ग्रह या उसके चन्द्र पर जीवन की कोई आशा की किरण नहीं जान पड़ती । परन्तु, दूसरी ओर, किसी धूमकेतु पर जीवन के प्रारम्भिक अणु (amino-acids) प्राप्त हुए हैं । मेरा प्रश्न है कि यदि धूमकेतु पर ये मिल सकते हैं, तो ग्रहों और उनके चन्द्रों पर क्यों नहीं ? क्योंकि धूमकेतु तो और अधिक ठण्डे और गर्म प्रदेश में जाते हैं । और यदि उनपर जल मिलता है, तो ग्रहों और उनके चन्द्रों पर क्यों सम्भव नहीं हो सकता ? सूर्य के इतना निकट जाने से, धूमकेतु पर पाया जाने वाला जल तो जल्दी ही सूख जाना चाहिए ! अब किसी वैज्ञानिक से तो मेरी इस विषय में चर्चा हुई नहीं, तो उनके ऐसा मानने के कारण मुझे ज्ञात नहीं, तथापि, आधुनिक वैज्ञानिक मत उपर्युक्त प्रकार ही है, और विभिन्न ग्रहों और चन्द्रों पर प्राणी उपलब्ध हों या न हों, सूर्य पर तो असम्भव ही हैं ।
महर्षि के शब्दों को हम यदि ध्यान से पढ़ें, तो उन्होंने लिखा है – “ये सब (सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र) भूगोल लोक हैं ।” ’भूगोल’ से हम पृथिवी लोक ही समझते हैं । परन्तु महर्षि का तात्पर्य है – ये सभी गोलाकार हैं, जो कि शत-प्रतिशत सही है ही – ऐसा हम आज प्रामाणिक रूप से जानते हैं । इसी प्रकार ’मनुष्यादि प्रजा’ को समझने में भी हमें थोड़ी ढील बरतनी होगी ।
अब हम देखते हैं कि भारतीय परम्परा के अनुसार सूर्य में किसी का वास कहा गया है या नहीं । ऋग्वेद का एक मन्त्र है –
सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा ।
अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः ॥ ऋक्० १०।१६।३ ॥
अर्थात् मरण समय पर, चक्षु सूर्य को जाए, अर्थात् शरीर के विभिन्न भाग अपने-अपने मूल-तत्त्व में विलीन हो जाते हैं । हे आत्मा! तू अपने धर्म (=कर्म) के अनुसार, वात (=वायुमय अन्तरिक्ष) को, द्युलोक (=सूर्य) को, पृथिवी वा जल को जाए (=जाती है); और यदि तेरा हित (= कर्मफल) उस प्रकार का हो, तो तू ओषधियों (=पेड़-पौधों) के स्थावर शरीरों में रह । इस प्रकार परमात्मा ने, कर्मानुसार, जीवात्मा की चार गतियां दिखाई हैं – द्युलोक, पृथिवी लोक, अन्तरिक्ष लोक और जल-लोक । पृथिवी, अन्तरिक्ष/वायु और जल तो हम सरलता से समझते हैं – पृथिवी पर मनुष्य सहित अनेक जीव-जन्तु, वायु में पक्षी आदि और जल में मत्स्य आदि । परन्तु पुनः यहां द्युलोक आ गया, जिसकी प्रजा के बारे में हम कुछ नहीं जानते !
यहां प्रसंगानुसार यह भी बताना अनुकूल है कि ऐतरेयोपनिषद् में भी यही चार लोक बताए गए हैं –
स इमाँल्लोकानसृजत । अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः । पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः ॥ ऐतरेय० १।२ ॥
उस (परमात्मा) ने इन लोकों को सृजा – अम्भ, मरीचि, मर और अप् । यह ’अम्भ’ लोक द्यौ के आगे भी है और द्यौ (= आदित्य, तारागण) इसकी प्रतिष्ठा हैं (द्यौ और उसके आसपास का क्षेत्र ’अम्भ’ = द्युलोक है) । अन्तरिक्ष ’मरीचियां’ (=किरणें) है (मरीचि अन्तरिक्ष लोक है) । पृथिवी ’मर’ है, और उससे नीचे ’अप्’ है । पृथिवी को ’मर’ इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें मनुष्य आदि प्रजा मरण-धर्मा हैं ।
अब, मुण्डकोपनिषद् में सौरी प्रजा के विषय में एक उल्लेख मिलता है –
तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये
शान्ता विद्वांसो भैक्षचर्यां चरन्तः ।
सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति
यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा ॥ मुण्डक० १।११ ॥
निश्चय से, जो शान्त (=जिनकी सब इच्छाएं शान्त हो गई हों), ज्ञानी जन वन में रहते हुए, भिक्षा से पेट-पालन करते हुए, संयम-रूपी तप और श्रद्धा से परिपूर्ण हो, (समाधि द्वारा परमात्मा के) पास वास करते हैं, वे विरक्त जन सूर्य के द्वार से वहां पहुंच जाते हैं जहां वह अमृत पुरुष, अव्यय आत्मा (ब्रह्म रहता) है । अर्थात् मुक्तात्मा का परमात्मा से मिलन सूर्य में होता है ।
वस्तुतः, मुक्तात्माओं और उनके सूर्य के वास के बारे में अन्य भी संकेत मिलते हैं । जिस दिव्य लोक का वर्णन आपने अन्य स्थानों पर पढ़ा होगा, वह सूर्य और उसके जैसे अन्य तारों का ही वर्णन है । वैसे तो वे मुक्तात्माएं ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विचरने में स्वतन्त्र होती हैं, परन्तु सम्भवतः वे निवास आदित्यों पर करती हैं । ये दिव्य आत्माएं ’देव’ या ’देवता’ भी कहाती हैं । वेद कहता है –
उद्वयन्तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥ ऋ० १।५०।१०, यजु० २०।२१, २७।१०, ३५।१४, ३८।२४, अथर्व० ७।५३।७, छान्दोग्य० ३।१७।८, अनेक ब्राह्मण, आरण्यक ॥
अर्थात् ज्ञान की उत्तम ज्योति को चारों ओर से देखते हुए, अज्ञान के तम से हम ऊपर उठ जाएं । उत्तम ज्योति वाला सूर्य, जो कि दिव्य है और देवों की रक्षा करने वाला है, वहां हम मुमुक्षु पहुंचें । यह अत्यन्त स्पष्ट संकेत है कि मोक्षप्राप्त करने वाले सूर्य पर वास करते हैं । इसीलिए सम्भवतः, यह मन्त्र इतनी बार और इतने ग्रन्थों में प्राप्त होता है ।
आगे देखिए –
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वविदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ ऋक्० १।१६४।१०, अथर्व० ९।९।१० ॥
इस मन्त्र की दूसरी पंक्ति का अर्थ है कि विद्वान जन सूर्य के ऊपर विराजमान होकर उस सर्वज्ञ (परमेश्वर) की वाणी – जो सबको नहीं प्राप्त है – उस के विषय में गोपनीय वार्तालाप करते हैं । ये विद्वान मुक्तात्माएं ही हैं । प्रो० विश्वनाथ विद्यालङ्कार अथर्ववेद के इस मन्त्र के अपने भाष्य में लिखते हैं, “सूर्य की पीठ पर मुक्तात्मा रहते हैं, और वहां रह कर वेदवाणी के सम्बन्ध में मन्त्रणा करते हैं – यह वर्णन वेदानुमोदित होने से प्रामाणिक है । सूर्य यद्यपि अत्युष्ण है, परन्तु मुक्तात्मा तो, सूक्ष्म शरीर की अपेक्षा भी, अतिसूक्ष्म कारण शरीर में वास करते हैं । अतः, उनके शरीरों के भस्मीभूत होने की सम्भावना नहीं होती । परमेश्वर की सत्ता भी आदित्य में कही है (यजु० ४०।१७) । वहां मुक्तात्माओं का परमेश्वर का संग भी मिलता है ।” यजु० ४०।१७ कहता है – “योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् । ओ३म् खं ब्रह्म ।”– अर्थात् जो पुरुष आदित्य में प्राप्त होता है, वह मैं (परमात्मा) हूं, जिसके नाम हैं – ओ३म्, खम् व ब्रह्म । अवश्य ही परमात्मा सर्वत्र विद्यमान् हैं, परन्तु मुक्तात्मा को प्रमुखता से आदित्य पर प्राप्त होते हैं ।
पुनः छान्दोग्योपनिषद् में स्पष्टतः लिखा है –
अथ यत्रैतदस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैतैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते । स ओमिति वा होद्वा मीयते । स यावत् क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छत्येतद् वै खलु लोकद्वारं विदुषां प्रपदनं निरोधोऽविदुषाम् ॥ ८।६।५ ॥
अर्थात् जब यह आत्मा इस शरीर से निकलता है, तो (साधारण जीवों की आत्मा तो) अन्य रश्मियों (=नाड़ियों) से ऊपर को निकल जाता है । (परन्तु जो जीवन्मुक्त होता है,) वह ओम् का उच्चारण करता है और, निश्चय से, (सीधा सुषुम्णा नाड़ी से) ऊपर को निकलता है । जितने समय में मन पहुंचता है, उतने समय में वह आदित्य पहुंच जाता है । अवश्य ही, यह (ब्रह्म-)लोक का द्वार है, विद्वानों का मार्ग है, और अविद्वानों का इस मार्ग पर निरोध है । यहां पर अब कोई भी संशय नहीं रह जाता कि आदित्य ही मोक्षप्राप्तों का गन्तव्य है ।
कुछ और भी बिन्दु यहां विचारणीय हैं । ज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता । जो जन कहते हैं कि केवल अनन्य भक्ति से ही हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं, वे भोले हैं ! ज्ञान की पराकाष्ठा है समाधि में आत्मसाक्षात्कार । इसी के अनन्तर जीवात्मा मोक्ष के लिए तैयार हो जाता है, जिसे जीवन्मुक्त दशा कहा जाता है । जिन्हें वे दुर्लभ दर्शन प्राप्त नहीं होते, वे ब्रह्मलोक के द्वार की झलक भी नहीं पाते । उस निरोध का मुख्य कारण है, आदित्य पर शरीर का सम्भव न होना, और उन अज्ञ आत्माओं का शरीर में बन्धे रहना । दूसरे, यहीं से ज्ञान और प्रकाश का भी सम्बन्ध समझ में आता है । जहां निम्न योनियों में पूर्ण अन्धकार होता है (उनकी आंखें ही नहीं होतीं), बीच की योनियों को दिन में प्रकाश और रात्रि में अन्धकार मिलता है, वहां मुक्तात्माओं को सर्वदा प्रकाश मिलता है !
इस प्रकार हम देखते हैं कि आदित्य लोक पर अवश्य ही प्रजा है, परन्तु वह प्रजा मनुष्यादि प्राणियों की नहीं है, अपितु मुक्तात्माओं की है । ब्रह्माण्ड के सारे तारे, हमारे सूर्य के समान, ब्रह्मलोक के द्वार हैं – वहां पर ब्रह्म का नित्य, साक्षात् और निकट संग होता है । ये सब आत्माएं आपस में भी मन्त्रणा करती हैं, और परमानन्द में रहती हैं । यही है सूर्य के ’वसु’ होने का रहस्य !