सृष्टि में नाम और रूप का महत्त्व

    वेदों और उपनिषदों में ’नाम’ और ’रूप’ की उत्पत्ति के बारे में पुन: पुन: कहा गया है । इन्हें सृष्टि का एक मुख्य अवयव माना गया है । नाम का अर्थ है सञ्ज्ञा – वस्तुओं और प्राणियों के नाम । रूप का अर्थ है चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य आकार – अर्थात् वस्तुओं और प्राणियों के आकार । इन दोनों का विशेष महत्त्व क्या है, जो ये बार-बार दोहराए जाते हैं? सृष्टि के तो अनेक ऐसे अंश हैं जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक हैं, जैसे सन्तति में गुणों का प्रसार (genes द्वारा), या मस्तिष्क की संरचना जिससे स्मृतियां बनती और बिगड़ती हैं और ज्ञान अर्जित होता है । इनका तो कहीं विवरण नहीं मिलता ! नाम और रूप तो इनके सामने बड़े तुच्छ लगते हैं ! इस विषय पर, इस लेख में, मैं अपने कुछ विचार प्रस्तुत कर रही हूं ।

पहले, नाम-रूप के हम कुछ उल्लेख देखते हैं –

१) अथर्ववेद में मनुष्य के शरीर की रचना विषयक सूक्त में कहा गया है – 

        को अस्मिन् रूपमदधात् को मह्मानं च नाम च ।

        गातुं को अस्मिन् क: केतुं कश्चरित्राणि पूरुषे ॥ अथर्ववेद १०।२।१२ ॥

सम्बद्ध व्याख्या – किसने, अर्थात् सुखस्वरूप परमात्मा ही ने, इस पुरुष के शरीर में नाम और रूप को स्थापित किया । 

२) छान्दोग्य में तो अनेकों स्थलों पर नाम-रूप का महत्त्व बताया गया है । प्राणियों के शरीरों की सृष्टि के विषय में कहा गया है –

        सेयं देवतैक्षत हन्ताहमिमांस्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति ॥ छान्दोग्योपनिषत् ६।३।२ ॥

अर्थात् उस परमात्मा ने सोचा कि इन तीन देवताओं (पिछले सूत्र से अण्डज, जीवज और उद्भिज्ज प्रकार के तीन शरीरों) को जीवात्मा से प्रविष्ट कराके, उन्हें नाम और रूप के द्वारा अनेक प्रकारों में बांट दूं ।

    पुन:, जब नारद मुनि ऋषि सनत्कुमार से आत्मज्ञान का उपदेश करने को कहते हैं, तो सनत्कुमार वेदों, इतिहास, पुराण, वेदों के अंगोपांगों, आदि को “नाम” के अन्तर्गत बतलाते हैं –

        नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहास पुराण: पञ्चमो वेदानां वेद: पित्र्यो राशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ छान्दोग्योपनिषत् ७।१।४ ॥

अर्थात् ऋग्वेद से लेकर संगीत आदि ललित कलाओं तक सब “नाम” हैं, और आत्म ज्ञान का पहला सोपान हैं ।

    मोक्षार्थियों के द्वारा करने योग्य प्रार्थना का वर्णन करते हुए कहा गया है –

        आकाशो वै नाम नामरूपयोर्निर्वहिता ते यदन्तरा तद् ब्रह्म तदमृतं स आत्मा प्रजापते: सभां वेश्म प्रपद्ये … ॥ छान्दोग्योपनिषत् ८।१४।१ ॥

अर्थात् आकाश ही नाम है । नाम और रूप को ढोने वाले (जीवात्माएं), उनसे जो भिन्न वह ब्रह्म, वह अमृत वह (परम)आत्मा, उस प्रजापति की सभा और घर को मैं प्राप्त करूं । अर्थात् नाम और रूप से छुटकारा पाकर, मोक्ष को प्राप्त करूं । यहां तो नाम को इतना महत्त्व दिया गया है कि सृष्टि के प्रथम स्थूलभूत विकार को ही “नाम” कह दिया गया है !

३) उत्तरमीमांसा (वेदान्त) दर्शनशास्त्र के द्वितीय पाद के अन्तिम सूत्र में, प्राणों की उत्पत्ति की चर्चा करते हुए, शरीर की रचना के विषय में कहा गया है –

        सञ्ज्ञामूर्तिक्लृप्तिस्तु त्रिवृत्कुर्वत् उपदेशात् ॥ उत्तरमीमांसा २।४।२० ॥

अर्थात् वेदों के उपदेश से ज्ञात होता है कि परमात्मा ने इस ’त्रिवृत्’ (तीन परतों वाले – कारण, सूक्ष्म और स्थूल) शरीर की रचना करते हुए, संज्ञा और मूर्ति की रचना की । यहां ’संज्ञा’-शब्द नाम के लिए प्रयुक्त हुआ है, और ’मूर्ति’-शब्द रूप के लिए । 

    अगले पाद में, महर्षि व्यास इसी विषय पर चर्चा करते हुए कहते हैं –

        तदन्तरप्रतिपत्तौ रंहति सम्परिष्वक्त: प्रश्ननिरूपणाभ्याम् ॥ उत्तरमीमांसा ३।१।१ ॥

अर्थात् उस शरीर की उत्पत्ति/रचना के बाद, वह शरीर से लिपटा हुआ जीवात्मा प्रश्न और निरूपण के साथ गति करता है । यहां ’गति’ का अर्थ ’विचरना’ तो है ही, परन्तु’ज्ञान प्राप्त करता है’ – यह भी उपयुक्त है । यहां बड़े संक्षेप में व्यास बहुत कुछ कह गए ! ’प्रश्न’ से उसी ’संज्ञा’ की बात हो रही है । “कौन है? क्या है? कहां है? कब है?” इत्यादि जब प्रश्न पूछे जाते हैं, तो संज्ञा से ही उत्तर दिया जाता है – “सीता है । पुस्तक है । कमरे में है । कल है ।” और दूसरा आयाम है – निरूपण – रूप पर आधारित व्यवहार – शब्दों से (“पतला है” आदि कहकर), या चित्र आदि से, या प्रत्यक्ष देखकर । तो व्यास यहां संकेत दे रहे हैं कि शरीर का एक महत्त्व यह है कि उससे इन्द्रियों से परे जो जीवात्मा है, वह इन्द्रिय-ग्राह्य हो जाती है – क्योंकि उसके नाम और रूप हो जाते हैं । इन्द्रिय-ग्राह्य होने पर उसका प्रत्यक्ष सम्भव हो जाता है । (सम्भवत: शांकरभाष्य से प्रभावित होकर, अधिकतर व्याख्याकार यहां पुनर्जन्म का विषय स्वीकार करते हैं, जो कि यहां किसी पद से इंगित नहीं है । फिर इस सूत्र और अगले अन्य सूत्रों में भी उनको सूत्रकार के मुंह में अनेकों शब्द बलात् डालने पड़ते हैं । दूसरी ओर, पिछले सूत्र के विषय को ही अनुवृत्त मानने पर सूत्रों के अर्थ सीधे-सीधे निकलते जाते हैं !)

४) प्रश्नोपनिषद् में नाम को सृष्टि की सोलह कलाओं (मुख्य अवयवों) में गिना गया है –

        स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्र्द्धां खं वायुर्ज्योतिराप: पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्रा: कर्म लोका लोकेषु च नाम च ॥ प्रश्नोपनिषत् ६।४ ॥

अर्थात् उस परमात्मा ने प्राण की रचना की । प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, और अन्न की रचना की; अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक और उन लोकों में नाम को रचा । यहां, रूप अग्नि के अन्तर्गत आ जाता है, क्योंकि स्थूलभूत “अग्नि” रूप के सूक्ष्मभूत से बनता है । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजु० ३२।५ में परमात्मा के “षोडशी” विशेषण पर व्याख्या करते हुए लिखा है कि परमात्मा ने प्राणादि उपर्युक्त सोलह कलाओं को बनाया है, इसलिए वह षोडशी कहाता है । इससे हम समझ सकते हैं कि ये नाम और रूप सृष्टि के कितने महत्त्वपूर्ण अंश हैं । 

५) मनुस्मृति में सृष्टि के क्रम के विषय में कहा गया है –

        तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम् ।

        सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्य: सम्भवत्यव्ययाद् व्ययम् ॥ मनुस्मृति १।१९ ॥

अर्थात् महाशक्तिवाले सात पुरुष (= प्रकृति के प्रथम विकार – महत्, अहंकार और ५ सूक्ष्मभूत) हैं, जो कि सूक्ष्म हैं और मूर्ति का सृजन करने वाले अवयव हैं । उन अवयवों से ’अव्यय’= मूल प्रकृति ’व्यय’= विकार-रूपी जगत् बन जाती है । यहां ’मूर्तिमात्रा’ का अर्थ रूप से तो है ही, परन्तु रूप से उपलक्षित अन्य सभी इन्द्रियों से भी है । सो सरल अर्थ हुआ – मूल प्रकृति के सात मुख्य विकार उत्पन्न होते हैं, जिनसे इस सम्पूर्ण मूर्त या दृष्ट जगत् की रचना होती है । 

    आगे कहते हैं –

        सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।

        वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे ॥ मनुस्मृति १।२१ ॥

अर्थात् उस परमात्मा ने सब पदार्थों के अलग-अलग नाम व कर्म और उनकी अलग-अलग व्यवस्थाएं वेद-शब्दों के द्वारा ही पूर्व में निर्मित कीं, अर्थात् वेदों से ज्ञात कराईं ।

    इन सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि नाम और रूप को सृष्टि के क्रम में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सोपान माना गया है । लेकिन इन दोनों का इतना महत्त्व क्या है, इसका संकेत-मात्र मिलता है । आइये इनको विस्तार से समझते हैं ।

    पहले रूप । मनुस्मृति के उल्लेख से इंगित है कि रूप चक्षु-इन्द्रिय से, और अन्य इन्द्रियों से भी, उपलब्ध विषय है । पञ्चेन्द्रियों के विषयों में रूप मुख्य है । ध्यान लगाते समय जो आंखें बन्द कर ली जाएं, तो बाकी इन्द्रियों को केन्द्रित करने के लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । इसीलिए चक्षु-इन्द्रिय से अन्य पांचों इन्द्रियां उपलक्षित की जाती हैं । 

    मूल प्रकृति इन्द्रियों से सूक्ष्मतर है, और एकरस है । उसमें कोई विविधता नहीं है । इसलिए उसमें भोग सम्भव नहीं है, और न ही कर्म सम्भव है । ये दो – भोग और कर्म – संसार के कारण हैं । भोग और कामना-युक्त कर्म से निवृत्त होते ही, योगी के लिए संसार का नृत्य थम-सा जाता है । दूसरी ओर, जैसे ही बहुत सारे रूप हो जाते हैं, कई प्रकार के कर्म होने लगते हैं – पेड़ों पर फल बनते हैं, हम हाथ से तोड़कर उसे खाते हैं, तोड़ते समय हमारे हाथ में कांटा चुभ जाता है । फल का रस चखना और कांटे का कष्ट सहना भोग हैं, फल को तोड़ना कर्म है ।

    इसी प्रकार, अपने मूल-स्वरूप से जीवात्मा इन्द्रियों के परे है, क्योंकि वह प्रकृति से भी अधिक सूक्ष्म है । यदि हमें इस जगत् में कर्म और भोग करने हैं, तो हमें भी उसके स्तर पर पहुंचना है । जीवात्मा को तो न भूख है, न प्यास है – वह फल क्यों तोड़ेगा? और यदि वह फल तोड़ने की चेष्टा ही नहीं करेगा, तो न तो कर्म सम्भव होगा, न भोग । इन व्यवहारों के लिए उसे प्रकृति का चोगा – उत्तरमीमांसा में कहा गया तीन परतों वाला शरीर – पहनाया जाता है । इससे वह जगत् के समकक्ष हो जाता है । उसमें भूख-प्यास और अन्य कितनी ही लालसाएं उत्पन्न हो जाती हैं, जिनसे यह जीवन-चक्र घूमने लगता है । 

    इसके अलावा, शरीर का एक और प्रयोजन भी है । जीव का अस्तित्व शरीर के द्वारा इन्द्रियग्राह्य हो जाता है और चक्षु, त्वक् आदि इन्द्रियों से हम एक-दूसरे को “देखने” लगते हैं । इससे भी महत्त्वपूर्ण – पहचानने लगते हैं – “ये मेरी माता हैं, ये मेरे गुरु हैं” । अर्थात् एक ओर प्रकृति से व्यवहार के लिए, और दूसरी ओर अन्य जीवात्माओं से व्यवहार के लिए यह रूप अत्यावश्यक है । शरीर और नाम-रूप के इस सम्बन्ध को दर्शाने के लिए ही शरीर की रचना के प्रकरण में नाम और रूप का भी उल्लेख बहुत बार मिलता है ।

    दूसरे, नाम । नाम का अर्थ है संज्ञा । संज्ञा भी पहचान कराती है, यह तो स्पष्ट ही है, जैसे – “भारत” एक भूखण्ड की पहचान कराता है । लेकिन संज्ञा में विशेषता यह है कि यह तब भी पहचान कराती है जब वस्तु या व्यक्ति सामने न हो – “अरे, मनोहर आज नहीं आया !” या “जा, गाय ले आ ।” यहां ’मनोहर’ और ’गाय’ संज्ञाएं हैं । मनोहर सामने नहीं है, परन्तु हमें उसके बारे में कुछ कहना है । यह संज्ञा के द्वारा ही सम्भव है । इस प्रकार, यह संज्ञा तो और भी चमत्कारी है ! वास्तव में, यह भाषा का उपलक्षण है । इसीलिए छान्दोग्य में सारी विद्याओं को बस ’नाम’ कह दिया गया है । यदि आप विद्यार्जन-प्रक्रिया के बारे में सोचें, तो प्रथम बच्चे को वस्तु या प्राणी दिखाकर उसका नाम सिखाया जाता है – माता, पिता, पुस्तक, इत्यादि । फिर क्रियाएं समझाई जाती हैं – जाता है, खाती है । क्रिया भी कर्म का ’नाम’ ही होती है ! फिर हम वाक्य बना-बना कर जीवन के सारे व्यवहार कर लेते हैं, ज्ञान उपलब्ध कर लेते हैं । जो अन्य जन्तुओं में भाषा का विकास नहीं होता है, सो उनका व्यवहार और ज्ञान भी उतना सीमित होता है । वे केवल रूप पर निर्भर होते हैं ! 

    इस प्रकार, यदि नाम और रूप न हों, तो मनुष्य क्या, प्राणिमात्र का कुछ भी व्यवहार न हो सके । जो जीवात्मा के उद्धार के लिए कर्म पर आधारित व्यवस्था है, वह इन दोनों स्तम्भों पर खड़ी है । संसार का चक्र इस धुरी पर घूम रहा है । सृष्टि में यही नाम और रूप का महत्त्व है ।