हृदय शब्द बुद्धि के अर्थ में

आज एक बहुत सामान्य शब्द के अति विचित्र अर्थ को देखते हैं । यह शब्द है ’हृदय’ । प्रायः सभी जानते हैं कि हृदय का अर्थ वक्षस्थल में स्थित रक्त को पूरे शरीर में संचालित करने वाला अवयव है । परन्तु प्राचीन भाषा में इसके क्या अर्थ थे, यह अत्यन्त रोचक विषय है ।

पहले हम हृदय शब्द के निर्वचन को देखते हैं । उणादिसूत्रों के अनुसार हृदय = हृञ् हरणे + दुक् + कयन् प्रत्यय (उणादि० ४।१००), जिसके भाष्य में महर्षि दयानन्द ने लिखा है – हरति विषयानिति हृदयं मनो वा, अर्थात् जो विषयों को ग्रहण करता है, वह हृदय अर्थात् मन कहलाता है । महर्षि ने तो रक्तसंचार-यन्त्र की बात ही नहीं की और हृदय को सीधा मन बता दिया !

अच्छा तो एक दूसरा निर्वचन देखते हैं । बृहदारण्यकोपनिषद् के एक प्रकरण में कहा गया है –

एष  प्रजापतिर्यद्धृदयमेतद्ब्रह्मैतत्  सर्वं  तदेतत्  त्र्यक्षरँ  हृदयमिति । हृ  इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै  स्वाश्चान्ये  च  य  एवं  वेद । द  इत्येकमक्षरं  ददत्यस्मै  स्वाश्चान्ये  च  य  एवं  वेद । यमित्येकमक्षरमेति  स्वर्गं  लोकं  य  एवं  वेद ॥ बृहदा० ५।३।१॥

अर्थात् यह जो हृदय है, यह प्रजापति है, यह ब्रह्म है, यह सब कुछ है । वह तीन अक्षरों वाला है । पहला अक्षर ’हृ’ है क्योंकि यह अभिहरण (हृञ् हरणे से) = लाता है । जो ऐसा जानता है उसको उसके अपने और अन्य भी (धन-धान्य) लाते हैं । ’द’ अक्षर से देने (डुदाञ् दाने से) का ग्रहण है । जो ऐसा जानता है उसको उसके अपने और अन्य भी (धन-धान्य) देते हैं । तीसरा अक्षर ’यम्’ है जो कि गत्यार्थक (इण् गतौ से) है । जो ऐसा जानता है, वह स्वर्ग लोक प्राप्त करता है ।

इस प्रकार उपनिषद् प्रत्येक अक्षर के अलग-अलग अर्थ करता है । प्रथम इन अर्थों को रक्तयन्त्र में घटाते हैं । उरस्थ हृदय शरीर से गन्दे रक्त का ग्रहण करता है; वह साफ रक्त को अवयवों में देता है; वह रक्त को सब प्रकार से गति प्रदान करता है । यह हृदय की कितनी सुन्दर व्याख्या है !

परन्तु स्वामी जी ने तो हृदय की व्याख्या मन की थी । तो मन के अर्थ में यह कैसे घटता है ? सो, मन बाह्य विषयों का ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करता है, हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियों को कर्म करने का निर्देश देता है, और संकल्प-विकल्प द्वारा गति करता है । इस प्रकार बृहदारण्यक का निर्वचन मन पर भी लागू होता है ।

परन्तु उसने हृदय को ब्रह्म कहा है । इसका अर्थ क्या है – यह हम अन्त में देखेंगे ।

इस प्रकार हमने ऊपर पाया कि हृदय के दो अर्थ सम्भव हैं – उरस्थ हृदय और शिरस्थ हृदय । इस दूसरे पक्ष में एक और प्रमाण देते हैं –

मनोमयोऽयं  पुरुषो  भाः  सत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदये  यथा  व्रीहिर्वा  यवो  वा  । स  एष  सर्वस्येशानः  सर्वस्याधिपतिः  सर्वमिदं  प्रशास्ति  यदिदं  किञ्च ॥ बृहदा० ५।६।१॥

अर्थात् यह मनोमय पुरुष (जीवात्मा) प्रकाशस्वरूप है, वह सत्य (सत्तावान्) है । वह अन्तर्हृदय में उस प्रकार निवास करता है, जैसे कि कोई चावल अथवा जौ का दाना हो (अर्थात् वह अत्यन्त सूक्ष्म है) । वह यह सब (शरीर) का ईश्वर है, सबका अधिपति है, इन सब पर शासन करता है जो कुछ भी है (उसके शरीर में) ।

अब यह तो स्पष्ट ही है कि जीवात्मा मस्तिष्क में निवास करता है, उरस्थ हृदय में नहीं । याज्ञवल्क्य ने भी मनोमय के साथ उसका ग्रहण करके यह संकेत दिया है कि इस सूक्ष्म पुरुष का निवास अन्तःकरण में है, जिसका अपरनाम हृदय है । यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ’मन’ से यदा-कदा संकल्प-विकल्पात्मक मन ही नहीं, अपितु अन्तःकरण के चारों भाग – मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार – ग्रहण होते हैं । यहां पर प्रतीत होता है कि ’बुद्धि’ अर्थ अभिप्रेत है क्योंकि बुद्धि मन पर भी राज करता है । इस बुद्धिपरक प्रयोग के अन्य उदाहरण इस उपनिषद् में प्राप्त होते हैं । वे इस प्रकार हैं –

स  यथा  सर्वासामपाँ  समुद्र  एकायतनमेवँ  … सर्वेषाँ  संकल्पानां  मन  एकायतनमेवँ  सर्वासां  विद्यानाँ  हृदयमेकायतनम् … ॥बृहदा० २।४।११॥

अर्थात् जिस प्रकार समुद्र सब जलों का अकेला आश्रय है, उसी प्रकार सारे संकल्पों का मन अकेला आयतन है और विद्याओं का हृदय । यहां क्योंकि याज्ञवल्क्य मन को पृथक् पढ़ते हैं, इसलिए और क्योंकि बुद्धि में ही सारी विद्याएं समाविष्ट हैं, इसलिए भी स्पष्टतः यहां ’हृदय’ से ’बुद्धि’ ही अभिप्रेत है । अन्यत्र वे कहते हैं –

तम  एव  यस्यायतनँ  हृदयं  लोको  मनोज्योतिर्यो  वै  तं  पुरुषं  विद्यात्  सर्वस्यात्मनः  परायणँ  स  वै  वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषँ  सर्वस्यात्मनः  परायणं  यमात्थ  य  एवायं  छायामयः  पुरुषः … ॥बृहदा० ३।९।१४॥

विदग्ध शाकल्य शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य को चुनौती देते हुए कहते हैं, “हे याज्ञवल्क्य ! जो उस पुरुष (=जीवात्मा) को जानता है जिसका अन्धकार (शरीर के रूप में) ही आधार है, जिसका हृदय (=बुद्धि) लोक (=ज्ञान-साधन) है, मन ज्योति है (सारी इन्द्रियों को प्रकाशित करने के कारण), जो कि सब अपनत्व (=अहंकार) का आश्रय है, वही सच्चा ज्ञानी होगा (अर्थात् तुम यदि उसे जानते हो, तभी तुम्हें हम परम ज्ञानी समझें ।” याज्ञवल्क्य कहते हैं, “जिसको तुमने सब अपनत्व का आश्रय कहा है, उस पुरुष को मैं जानता हूं । वही यह छायामय पुरुष है (जिसकी झलक शरीर में दिखती है) ।” यहां पुनः मन का पाठ अलग हुआ है । इसलिए लोक = ज्ञान-साधन बुद्धि ही हो सकती है । यहां याज्ञवल्क्य यह भी संकेत दे रहे हैं कि बुद्धि से ही आत्मा जुड़ी होती है और मन आदि बुद्धि से नियन्त्रित हैं । उस बुद्धि में अहंकार भी निकटता से वास करता है, जिससे कि जीवात्मा शरीर से अपनत्व अनुभव करते हैं । इस अर्थ को पोषित करने वाली एक अन्य कण्डिका भी है –

… हृदयं  वै  ब्रह्मेति … हृदयमेवायतनमाकाशः  प्रतिष्ठा  स्थितिरित्येनदुपासीत । का स्थितता याज्ञवल्क्य ? हृदयमेव  सम्राडिति  होवाच । हृदयं  वै  सम्राट्  सर्वेषां भूतानामायतनँ । हृदयं  वै  सम्राट्  सर्वेषां भूतानां  प्रतिष्ठा । हृदये  ह्येव  सम्राट्  सर्वाणि  भूतानि  प्रतिष्ठितानि  भवन्ति । हृदयं  वै  सम्राट्   परमं  ब्रह्म । … ॥बृहदा० ४।१।७॥

महर्षि याज्ञवल्क्य और जनक के संवाद में, याज्ञवल्क्य जनक को बताते हैं, “निश्चय ही हृदय ब्रह्म (महत्त्वपूर्ण) है । हृदय अपना ही आश्रय है । वह आकाश में प्रतिष्ठित है । उसकी स्थिति रूप में उपासना करनी चाहिए ।” जनक ने पूछा, “हे याज्ञवल्क्य! उसकी स्थितता क्या है ?” याज्ञवल्क्य बोले, “हे सम्राट् ! हृदय की स्थितता हृदय ही है । निश्चय ही वह सारे प्राणियों का आश्रय और प्रतिष्ठा है क्योंकि हृदय में ही सब प्राणी प्रतिष्ठित हैं। हे सम्राट् ! वस्तुतः हृदय परम ब्रह्म है ।” जबकि यह वर्णन परमात्मा पर भी घटता है, तथापि वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र व मन – अर्थात् शरीर के अन्य प्रधान अवयवों – के समान वर्णनों के बाद पढ़े जाने से, यहां इसका अर्थ बुद्धि ही समीचीन है । तब याज्ञवल्क्य के कथन का अर्थ हुआ – बुद्धि अपना कार्य करने के लिए किसी अन्य अवयव पर आश्रित नहीं है (रक्त आदि के लिए तो आश्रित है, परन्तु यहां उनका सन्दर्भ नहीं है) । वह सूक्ष्म आकाश में स्थित है । जीवात्मा उस के अन्दर स्थित है । बुद्धि सब जीवात्माओं की प्रतिष्ठा है । इसीलिए उसका स्थिति रूप में चिन्तन करना चाहिए ।

हृदय के इस नए अर्थ को हम वेदों में भी पाते हैं । नीचे मैं तीन उदाहरण प्रस्तुत कर रही हूं । पहला उद्धरण अथर्ववेद का यह प्रसिद्ध मन्त्र है –

इमानि  यानि  पञ्चेन्द्रियाणि  मनःषष्ठानि  मे  हृदि  ब्रह्मणा  संशितानि ।

यैरेव  ससृजे  घोरं  तैरेव  शान्तिरस्तु  नः ॥अथर्व० १९।९।५॥

अर्थात् ब्रह्म ने जो ये पाँच इन्द्रियां और छठा मन मेरे हृदय में तीक्ष्ण करके रखे हैं, जिनसे जहां घोर पाप किए जा सकते हैं, वहीं उनसे केवल हमारे लिए शान्ति का सृजन हो । यहां पुनः मन के अलग पढ़े जाने से, स्पष्टतया ’हृदय’ से बुद्धि निर्दिष्ट है, जिसमें कि अन्तःकरण के अन्य अवयव भी संयुक्त हैं । 

दूसरा उद्धरण यजुर्वेद से है, वो भी एक प्रसिद्ध मन्त्र से –

सुषारथिरश्वानिव  यन्मनुष्यान्नेनीयते  भीशुभिर्वाजिन  इव ।

हृत्प्रतिष्ठं  यदजिरं  जविष्ठं  तन्मे  मनः  शिवसङ्कल्पमस्तु ॥यजु० ३६।६॥

अर्थात् जो मन मनुष्यों को विषयों में बार-बार उसी प्रकार ले जाता है, जैसे कि एक अच्छा सारथि लगाम द्वारा रथ के घोड़ों को अपने नियन्त्रण में ले जाता है, जो मन हृत् (=हृदय) में स्थित है, जो कभी वृद्ध नहीं होता, जो कि सबसे अधिक तीव्र है, वह मेरा मन सदा कल्याणकारी संकल्प करे । यहां भी मन को हृदय, अर्थात् बुद्धि में स्थित बताया गया है ।

ऋग्वेद से भी एक उदाहरण देखते हैं –

हृदा  तष्टेषु  मनसो  जवेषु  यद्ब्राह्मणाः  संयजन्ते  सखायः ।

अत्राह  त्वं  वि  जहुर्वेद्याभिरोहब्रह्माणो  विचरन्त्यु  त्वे ॥ऋग्० १०।७१।८॥

अर्थात् बुद्धि की तीक्ष्णताओं में (=के द्वारा) और मन के वेगों में (=के द्वारा) जो वेदज्ञानी समान ज्ञान को प्राप्त करते हैं, वे उस (मूर्ख) को त्याग देते हैं जिसका ज्ञान जानने योग्य (=उनके जैसा) नहीं होता, क्योंकि ऊहा = तर्क द्वारा ही उस ज्ञान में प्रवेश पाया जाता है । इस प्रकार यहां पुनः ’हृत्’ (=हृदय) से बुद्धि अभिप्रेत है ।

यदि उपनिषद् में हृदय का अर्थ बुद्धि लिया गया है, तो फिर उपर्युक्त निर्वचन के क्या अर्थ हुए ? सो, बुद्धि भी (हृ) मन के इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान का ग्रहण करती है, (द) मन को कर्मेन्द्रियों के लिए आदेश देती है व उपलब्ध ज्ञान जीवात्मा को देती है, और (यम्) अपनी निश्चयात्मक वृत्ति से चलायमान होती है । इस प्रकार ’हृदयम्’ पद के हमने तीन अर्थ अभी तक देखे – रक्तयन्त्र, मन व बुद्धि । अब ऊपर दी हुई बृहदा० ५।३।१ कण्डिका में किस अर्थ का ग्रहण हुआ है, जो उसको प्रजापति कहा गया है ? इसके उत्तर के लिए हमें उससे अगली कण्डिका देखनी पड़ेगी –

तद्वै  तदेव  तदास  सत्यमेव  । स यो  हैतं  महद्यक्षं  प्रथमजं  वेद  सत्यं  ब्रह्मेति  जयतीमांल्लोकान्  जित इन्न्वसावसद्य  एवमेतं  महद्यक्षं  प्रथमजं  वेद  सत्यं  ब्रह्मेति  सत्यँ  ह्येव  ब्रह्म ॥बृहदा० ५।४।१॥

वह (प्रजापति) निश्चय से (हृदय) ही है और सत्य रूप है । वह जो इस महान् यक्ष को, प्रथम उत्पन्न होने वाले को, सत्य-रूपी ब्रह्म को जानता है, वह संसार के सभी लोकों को जीत लेता है; और जो इस महान् यक्ष को, प्रथम उत्पन्न होने वाले को, सत्य ब्रह्म को असत् रूप में जानता है, वह पराजित हो जाता है । वस्तुतः सत्य ही ब्रह्म है ।

इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि उपर्युक्त तीनों ही अर्थ यहां निष्फल हैं, और प्रजापति परमात्मा को छोड़ और कुछ नहीं हो सकता । और क्योंकि प्रजापति को हृदय कहा गया है, सो हृदय का अर्थ परमात्मा निश्चित हुआ । तब फिर ५।३।१ कण्डिका में हृदय शब्द का पुनः अवलोकन करना पड़ेगा । वहां जो ’हृदयम्’ का निर्वचन दिया गया है, क्या वह परमात्मा पर भी लागू होता है ? हां, इस प्रकार – परमात्मा (हृ) प्रलयकाल में प्रकृति के सभी कार्यों और जीवात्माओं की चेतनता का हरण कर लेता है, (द) सृष्टिकाल में वह सब कार्यों को बनाकर जीवात्माओं को देता है, और (यम्) सर्वदा ब्रह्माण्ड को गतिशील रखता है । कितनी सुन्दरता से एक ही विस्तृत वर्णन चार अर्थों में घट गया !

जब हम किसी भी शब्द के मौलिक अर्थ, उसके यौगिक अर्थ को देखते हैं, तो पाते हैं कि वह अभिप्रेत पदार्थ के गुण, कर्म या स्वभाव का वर्णन करता है । क्योंकि अनेकों वस्तुओं के समान गुण, कर्म, स्वभाव होते हैं, इसलिए एक शब्द अनेकों पदार्थों का नाम हो सकता है । प्राचीन ग्रन्थों में इस समानता का लाभ उठाकर, अनेक बार श्लेषालंकार भी प्रस्तुत किया जाता था । जो हमने ऊपर दो या तीन अर्थ एक ही स्थान पर सम्भव देखे, वे इसी कारण से हैं । एक वस्तु का सन्दर्भ होते हुए भी, ये ग्रन्थ उसके समान वस्तुओं पर भी ध्यान आकर्षित करना चाहते थे । उस समय के ऋषियों को इतने अर्थों को अपने मस्तिष्क में रखने में कोई कठिनाई नहीं होती थी । कालान्तर में, हमारी धारणा व चिन्तन शक्ति कम हो गई । उसके साथ-साथ इन ग्रन्थों के अर्थ भी हमारे लिए संकीर्ण हो गए …