धनुर्वेद में व्यूहों का महत्त्व

उपवेदों में से एक है धनुर्वेद । इसमें युद्ध-सम्बन्धी सभी जानकारी का समावेश है । जबकि आज इस विषय पर कोई सम्पूर्ण ग्रन्थ नहीं मिलता, तथापि अनेक ग्रन्थों में इसके कुछ-कुछ अंश पाए जाते हैं । इन ग्रन्थों का थोड़ा परस्पर विरोध भी पाया जाता है, परन्तु मुख्य रूप से सब एक ही बात कहते हैं । युद्ध-विद्या में व्यूह-रचना का विशेष महत्त्व है । आजकल की भाषा में इसे मोर्चाबन्दी कहा जाता है, जिसका अर्थ है युद्धक्षेत्र में सेना को एक विशिष्ट प्रकार से खड़ा करना । यह लेख व्यूहों से सम्बद्ध कुछ विषयों को बताकर, महाभारत में दिए गए चक्रव्यूह पर विशेष चर्चा करता है ।

सेना के अंग

व्यूहों को समझने से पहले, सेना के विभिन्न अंगों को जानना आवश्यक है । पुरातन काल में सेना के पाँच प्रधान अंग हुआ करते थे – तलवार और ढाल लिए हुए पत्ति या पदाति या पैदल, धनुष-बाण लिए हुए धनुर्धारी (अथवा बन्दूकधारी), अश्वारोही सैनिक, घोड़े वाले रथ और हाथी पर आरूढ़ सैनिक । पदातियों और धनुर्धारियों को एक मानकर सेना को प्रायः चतुरंगिणी कहा गया है । तोप आदि यन्त्रों को छठा अंग माना जा सकता है । सभी सेनाओं में ये सभी अंग होने आवश्यक नहीं थे । सामान्यतः, सेना में सबसे अधिक संख्या पदातियों की होती थी, फिर धनुर्धारियों कि, फिर घुड़सवारों की, फिर रथों की और सबसे कम संख्या हाथियों की । सो, अग्नि-पुराण में कहा गया है कि प्रत्येक अश्व की रक्षा के लिए तीन पदाति/धनुर्धारी होने चाहिए, प्रत्येक हाथी के लिए तीन अश्व और पन्द्रह पदाति/धनुर्धारी और इतने ही अश्व और पदाति रथ के सामने हों । फिर जिस सेना में नौ हाथी हों, वह ’अनीक’ कहलाती थी । महाभारत जैसे महायुद्ध में अक्षौहिणी नाम की महान सेना या सेना की टुकड़ी हुआ करती थी, जिसमें २१,८७० हाथी, उतने ही रथ, ६५,६१० अश्व और १,०९,३५० पदाति/धनुर्धारी होते थे । कौरवों के खेमे में ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं थीं – “अक्षौहिण्यो दशैका च तव पुत्रस्य भारत ! (महाभारत, भीष्मपर्व में श्रीमद्भगवद्गीतापर्व, १८।१८)” – संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि आपकी सेना में ग्यारह अक्षौहिणियां हैं । तथापि इन संख्याओं में समयानुसार फेर-बदल हो सकता था । व्यूह की रचना इस आयाम को ध्यान में रख कर भी की जाती थी । 

व्यूह का महत्त्व

महाभारत का जब युद्ध आरम्भ होने वाला था, तो युधिष्ठिर, कौरवों की विशाल सेना और अपनी छोटी सेना को देखकर, अजुर्न से कहते हैं –

महर्षेर्वचनात्  तात  वेदयन्ति  बृहस्पतेः ।

संहतान्  योध्येदल्पान्  कामं  विस्तारयेद्बहून्  ॥ महा०, भीष्मपर्व में श्रीमद्भगवद्गीतापर्व, १९।४ ॥

अर्थात् महर्षि बृहस्पति के वचन से ज्ञात होता है कि यदि शत्रु की सेना कम हो तो अपनी सेना को कम आकार वाला करके संगठन करना चाहिए, और यदि शत्रु-सेना अधिक हो तो अपनी सेना को फैला के लड़ना चाहिए । अर्जुन ने, सेना की अल्पसंख्यता को देखते हुए, उनको वज्र-व्यूह बनाकर दिया जिसमें भीम अग्रणी सैनिक थे । इस प्रकार, बहुत पहले ही यह जान लिया गया था कि व्यूह बनाने से छोटी सेना भी अपने से कहीं अधिक शक्तिशाली सेना को व्यूह द्वारा पराजित कर सकती है । इसी बात को वीरमित्रोदय के अन्तर्गत प्राप्त राजविजय नामक इस विषय पर सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ में इस प्रकार कहा गया है –

         बलं  व्यूहप्रौढं  परबलविभेदेऽल्पमपि  यद्भवेदूनं  व्यूहैर्महदपि  जये  न  क्षमबलम् ॥  वीरमित्रोदय,  राजविजय में  राजचक्रलक्षण ॥

अर्थात् जो सेना अल्प भी है परन्तु व्यूह में सज्जित हो वह बड़ी सेना का भी भेदन कर सकती है; परन्तु यदि महान् सेना भी व्यूह में संगठित न हो, तो वह जीत नहीं सकती ।

भारत से इतर प्राचीन सभ्यताओं को यदि हम देखें, तो व्यूह-रचना की कला पर विशेष ध्यान देने वाली रोमन् सभ्यता को पाते हैं । छोटी सेना होते हुए भी उन्होंने प्रायः सम्पूर्ण युरोप पर अपनी विजय-पताका फहराई । तथापि भारतीय व्यूह-रचनाओं के सामने, वे व्यूह बड़े निम्न कोटि के प्रतीत होते हैं ! यवनी अलक्षेन्द्र ने भी बड़े भूभाग पर अपना झण्डा फहराया, परन्तु मैंने उनकी सेना के आयोजन के विषय में कहीं नहीं पढ़ा है । तथापि पोरस जैसे भारतीय राजाओं की महान् सेनाओं से भिड़ने के लिए अवश्य ही उसने भी व्यूह का प्रयोग किया होगा । दूसरी ओर, प्राचीन युरोप में असभ्य (बार्बैरियन्) देश एक-दूसरे पर बिना किसी संगठन के ही टूट पड़ते थे ! ऐसे युद्ध में बहुत अधिक मारकाट होती थी ।

सम्भवतः यह विद्या भारत से ही युरोप आदि देशों में गई हो, क्योंकि यहां तो अथर्ववेद में भी व्यूह द्वारा सेना को निबद्ध करने का उल्लेख प्राप्त होता है –

उत्तिष्ठ  त्वं  देवजनार्बुदे  सेनया  सह ।

भञ्जन्नमित्राणां  सेनां  भोगेभिः  परिवारय ॥ अथर्व० ११।९।५ ॥

अर्थात् हे अर्बुदि नामक देवरूपी सेनापति ! तू सेना के साथ खड़ा हो जा और अमित्रों की सेना को भोग नामक सांप की कुण्डली जैसे व्यूह से घेर कर मार दे । वेद की जैसी पद्धति है, उसके अनुसार एक व्यूह को बता देने से अन्य व्यूहों की परिकल्पना मनुष्यों को स्वयं करनी चाहिए ।[1]

व्यूह संरचना

विष्णुधर्मोत्तर ग्रन्थ से हमें ज्ञात होता है कि व्यूह को मुख्य रूप से पाँच भागों में संगठित करना चाहिए – १) उरस्य – सेना का मध्य भाग, २-३) पक्ष – उरस्य के दाएं और बाएं भाग में स्थित, ४-५) कक्ष (अथवा बन्धपक्ष) – पक्ष के पीछे दाएं और बाएं भाग में ।

उरस्य प्रधानतया आक्रमण करने वाला विभाग होता है, और अन्य उसकी रक्षा के लिए । उरस्य में सामने शूरवीरों को रखना चाहिए, जो आक्रमण करने/झेलने में घबराएं नहीं, नहीं तो सेना पहले ही तितर-बितर हो जाएगी । इसीलिए, जैसे हमने ऊपर देखा, अर्जुन ने भीम को सेना के अग्रभाग में नियुक्त किया था ।

राजा को युद्ध में भाग नहीं लेना चाहिए, अपितु ऊपर कही टुकड़ियों के पीछे एक अन्य टुकड़ी – प्रतिग्रह – में अस्त्र-शस्त्रों से सन्नद्ध होकर युद्ध का संचालन करना चाहिए (स्वयं  राज्ञा  न  योद्धव्यमपि  सर्वाशस्त्रशालिना (विष्णुधर्मोत्तर)), क्योंकि उसके हार जाने पर युद्ध समाप्त ही हो जाता है (युद्धं  हि  नायकप्राणं  हन्यते  तदनायकम् (अग्निपुराण, अध्याय २४२)) । तथापि यदि उसे युद्ध में भाग लेना पड़े, जैसा महाभारत में भी युधिष्ठिर और दुर्योधन को लेना पड़ा, तब उसके चारों ओर शूरवीरों को घेरा बनाकर उसकी रक्षा करनी चाहिए ।

मध्य, पृष्ठ और कोटी (किनारों) नाम की टुकड़ियां भी बनाई जा सकती हैं । इन्हें मिलाकर सप्ताङ्ग व्यूह बन जाता है –

उरस्यकक्षपक्षांस्तु  कल्प्यानेतान्  प्रचक्षते । उरः  कक्षौ  पक्षौ  च  मध्यं  पृष्ठं  प्रतिग्रहः ।

कोटी  च  व्यूहशास्त्रज्ञैः  सप्ताहङ्गो  व्यूह  उच्यते ।  उरस्यकक्षपक्षास्तु  व्यूहोऽयं  सप्रतिग्रहः ॥ अग्निपुराण, अध्याय २४२ ॥

व्यूहों के मुख्य भेद चार माने गए हैं – १) मण्डल – जिसमें सेना गोलाकार स्थिति में चारों ओर मुंह किए होती है । २) असंहत – जिसमें विभिन्न टुकड़ियां अलग-अलग खड़ी होती हैं, जैसा चित्र १ में दर्शाया गया है । अन्यों में ये भाग जुड़ कर खड़े होंगे । ३) भोग – सर्प की कुण्डली के समान खड़ा होना । चक्रव्यूह इसी के अन्तर्गत आता है (देखें चित्र २) । ४) दण्ड – डण्डे के समान बाएं से दाएं तिरछा खड़ा होना –

मण्डलासंहतो  भोगो  दण्डस्ते बहुधा  शृणु ।  तिर्यग्वृत्तिस्तु  दण्डः स्याद्भोगोऽन्यावृत्तिरेव  च ।

मण्डलः  सर्वतो  वृत्तिः पृथग्वृत्तिरसंहतः ॥ अग्निपुराण, अध्याय २४२ ॥

चित्र १ : चक्रव्यूह में सेना की स्थिति – काली रेखा के अनुसार

इन्हीं के अन्तर्गत आने वाले कुछ प्रसिद्ध व्यूह हैं – वज्र, श्येन, शकट, अग्नि, सर्प, सिंह, पद्म ।

जबकि व्यूह का चयन युद्धक्षेत्र, शत्रु और अपनी सेना का बल, शत्रु का व्यूह, आदि, देखकर किया जाता है, जिन अवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए कोई भी व्यूह अभेद हो सकता है, परन्तु चक्रव्यूह सब से उत्तम व्यूहों में से एक है – सार्पाग्निचक्रसञ्ज्ञाश्च  व्यूहेषु  बलवत्ततराः (वीरमित्रोदय) । उसमें अधिक सेना की भी आवश्यकता होती है जो कि कुण्डलाकार में खड़ी हो और अधिक भूमि की भी । इसमें केवल एक घुसने का मार्ग होता है, जिसको भी शत्रु के घुसने के बाद बन्द किया जा सकता है । इस विषय में आगे और बताया जायेगा ।

सेनाङ्गों के संयोजन का मूलभूत तरीका इस प्रकार था – सबसे आगे पदाति, उनके पीछे धनुर्धर, फिर अश्वारोही, फिर रथारोही और अन्त में हस्त्यारोही –

पुरस्ताच्चर्मिणो देया  देयास्तदनु  धन्विनः ।  धन्विनामनु  चाश्वीयं  रथास्तदनु  योजयेत् ।

रथानां कुञ्जराश्चानुदातव्याः पृथिवीक्षिता … ॥ विष्णुधर्मोत्तर ॥

परन्तु इस रचना को भी परिस्थित्यानुसार बदला जा सकता था । ये क्रम घटती संख्यानुसार है – सामान्यतः किसी भी सेना में पैदल सैनिक सब से अधिक, धनुष या बन्दूक धारी उससे कम, अश्वारोही उससे कम, रथ उससे कम और हाथी सबसे कम होते हैं । और ये आक्रमण के क्रम में भी है – पैदल सेना को अश्वसेना, अश्वों को रथों से और रथों को हाथियों से नष्ट किया जाता है । सभी सैनानियों को इतनी दूरी पर खड़ा किया जाना चाहिए कि वे बिना एक-दूसरे से भिड़े लड़ सकें । इसलिए ऊपर का क्रम बढ़ती दूरी के क्रम में भी है । 

दूसरे के सामने पहले कितने हों, इस संख्या में विभिन्न ग्रन्थों में कुछ मतभेद है । एक सांकेतिक संख्या मैंने ऊपर दी थी । एक और इस प्रकार है –

व्यूहे  भेदावहं  कुर्याद्रिपुव्यूहस्य  पार्थिवः ।  गजस्य  देया  रक्षार्थं  चत्वारस्तु  रथा  द्विज ॥

रथस्य  चाश्वाश्चत्वारोऽश्वस्य  तस्य  च  वर्मिणः ।  वर्मिभिश्व  समास्तत्र  धन्विनः  परिकीर्तिताः ॥ विष्णुधर्मोत्तर ॥

अर्थात् राजा शत्रु के व्यूह को भेदने वाला ऐसा व्यूह बनाए जिसमें प्रत्येक हाथी की रक्षा के लिए ४ रथ रखे जाएं, प्रत्येक रथ के लिए ४ अश्व, प्रत्येक अश्वारोही के लिए ४ कवच पहने खड्गधारी और उतने ही धनुर्धर हों । 

महाभारत में चक्रव्यूह

महाभारत युद्ध के तेरहवें दिन दुर्योधन ने द्रोणाचार्य पर आक्षेप किया कि उनकी दृष्टि में कौरव ही शत्रु थे, इसीलिए वे पाण्डवों को मार नहीं रहे थे । इसपर दुःखित और विचलित होकर द्रोणाचार्य ने प्रतिज्ञा की कि आज पाण्डवों के किसी श्रेष्ठ महारथी का वे वध करेंगे । इसके लिए उन्होंने अजुर्न को युद्धक्षेत्र के दूसरे कोने में युद्ध में लगवा दिया और यहां चक्रव्यूह का सृजन किया । व्यास इस व्यूह के विषय में  लिखते हैं –

तत्र  द्रोणेन  विहितो  व्यूहो  राजन्  व्यरोचत ।

चरन्  मध्यन्दिने  सूर्यः  प्रतपन्निव  दुर्दृशः ॥

तं  चाभिमन्युर्वचनात्  पितुर्ज्येष्ठस्य  भारत ।

विभेद  दुर्भिदं  सङ्ख्ये  चक्रव्यूहमनेकधा ॥

स  कृत्वा  दुष्करं  कर्म  हत्वा वीरान्  सहस्रशः ।

षट्सु  वीरेषु  संसक्तो  दौःशासनिवशं गतः ॥ महाभारत, द्रोणपर्व में अभिमन्युवधपर्व, ३३।१८-१९ ॥

अर्थात् तेरहवें दिन का संक्षिप्त विवरण देते हुए सञ्जय धृतराष्ट्र से कहता है, “हे राजन् ! वहां द्रोण ने जो (चक्र-)व्यूह रचा, वह (इतना दुर्भेद था कि शत्रु को सन्ताप देता हुआ सा) मध्यन्दिन के सूर्य के समान देखने में ही कष्टदायक था । तथापि हे भारत (=भरत के वंशज) ! अजुर्न के पुत्र अभिमन्यु ने युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर उस दिन युद्ध में इस अत्यन्त दुर्भेद व्यूह का अनेक बार भेदन किया । इस दुष्कर कार्य को अकेले ही करके उसने सहस्रों वीरों को मारा, परन्तु अन्त में छः वीरों से एकसाथ भिड़ कर, वह दुःशासन के पुत्र के हाथों मारा गया ।

आगे जो युद्ध का विस्तृत वर्णन दिया गया है, उससे ज्ञात होता है कि यह व्यूह इतना ’चमक’ इसलिए रहा था क्योंकि द्रोण ने उसमें इन्द्र के समान युद्ध-कौशल में तेजस्वी सभी राजाओं को खड़ा कर रखा था । चक्र के अरों के स्थान में सारे राजकुमारों को खड़ा किया गया था । व्यास व्यूह में लगे योद्धाओं की कुल संख्या दश सहस्र बताते हैं । राजा दुर्योधन उस चक्र के बीचों-बीच विराजमान था । चोटि के महारथी – कर्ण, दुःशासन और कृपाचार्य –  ने उसको रक्षा-घेरे में घेर रखा था । यह भी व्यूह-संरचना की एक प्रणाली थी कि, यदि राजा लड़ रहा होता था, तो वह सबसे सुरक्षित स्थान में, सबसे मानी योद्धाओं से रक्षित, खड़ा होता था ।

चक्रव्यूह की विशेषता यह थी कि उसको भेदने के लिए – उसके मध्य तक जाने के लिए – उसके अन्दर प्रवेश करना आवश्यक था । बाहर के किनारों में खड़ी सेना इतनी अधिक होती थी कि वहां से भेदना प्रायः असम्भव होता है । उसका एक ही द्वार होता था जिसको भेदने का भी एक रहस्य था । इसीलिए युधिष्ठिर को अभिमन्यु से यह कार्य करवाना पड़ा, जब कि वह एक कुमार ही था । वह अभिमन्यु को कहते हैं, “तुम, अर्जुन, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न – ये चार जन ही चक्रव्यूह को भेदना जानते हैं । क्योंकि वे अन्य यहां नहीं हैं, इसलिए तुम पर यह कार्य सौंपना पड़ रहा है ।” 

तब अभिमन्यु कहता है कि, आपत्ति पड़ने पर, वह व्यूह से बाहर निकलना नहीं जानता । यह इस व्यूह की दूसरी विशिष्टता थी – अन्दर घुसने के साथ-साथ इससे बाहर निकलना भी जानना आवश्यक था । 

युधिष्ठिर उत्तर देते हैं, “तुम रास्ता बनाओ । हम तुम्हारे पीछे-पीछे आते हैं ।” परन्तु ऐसा हो नहीं पाया और पाण्डव सेना बाहर ही रह गई । यह इस व्यूह की तीसरी विशेषता थी । उसमें भेद हो जाने पर, उस छिद्र को शीघ्र बन्द किया जा सकता था ।

चौथी विशेषता हम चित्र २ से देख सकते हैं । उपरिलिखित जो संजय ने बताया कि अभिमन्यु ने अनेकों बार व्यूह को भेदा, वह चित्र से स्पष्ट हो जाता है । सेना की छोटी टुकड़ी, या जैसे अकेला अभिमन्यु, जब व्यूह में प्रवेश भी कर लेते, तो पग-पग पर उन्हें चारों ओर से घेरा जा सकता था । और ऐसा ही वर्णन महाभारत में मिलता है । अनेकों बार अभिमन्यु को घेरा गया, अनेकों बार उसने सबको परास्त किया, अनेकों बार कौरव सेना का वह अंश भाग खड़ा हुआ, तथापि अभिमन्यु को लड़ते रहने पड़ा, क्योंकि कुण्डलाकार व्यूह में उसको अन्दर एक-एक कुण्डली से निकलकर जाना था । इसी कारण से उसमें से भाग खड़ा होना भी दुष्कर था । एक प्रकार से यह सांप की कुण्डली की तरह ही शत्रु पर कसता जाता था, जिससे अन्ततः शत्रु उसके अन्दर ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता था । दूसरी ओर, व्यूह में खड़ी सेना को अपने सैनिकों को व्यूह में आगे पीछे करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी ।

जो व्यूहों के वर्णन पुराने ग्रन्थों में पाए जाते हैं, वे आधुनिक युग के युद्ध के लिए उपयुक्त नहीं प्रतीत होते । तथापि सेना के सभी भागों में व्यूह का महत्त्व आज भी माना जाता है । इसलिए भूमिगत सेना ही नहीं, वायुसेना और नौसेना भी व्यूह बना के चलते हैं । व्यूह बनाने से सेना की अव्याहत गति होती है । अपनी कम-से-कम हानि के साथ-साथ, वह शत्रु पर अधिकतम प्रहार कर पाती है । शत्रु के छिद्रों को जान, व्यूह से वह उनका भरसक लाभ उठा सकती है । यही कुछ कारण हैं कि व्यूह द्वारा हारा युद्ध भी जीता जा सकता है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण महाभारत में मिलता है, जहां पाण्डवों की छोटी-सी सेना ने कौरवों के महान बल को धराशायी कर दिया । इसलिए सम्भव है कि पुरानी युद्धविद्या, कुछ अंश में, आज भी प्रयोग में आ सके । 

वेदों में भी युद्धविद्या की अनेक बार चर्चा आती है । वेदों के इन अंशों को समझने के लिए धनुर्वेद जानना आवश्यक है । इसीलिए इस विद्या को उपवेद माना गया है । अवश्य ही वेदाध्येताओं को इस विद्या का भी, अधिक नहीं तो थोड़ा, लाभ अवश्य उठाना चाहिए ।


[1] अथर्ववेद के ११वें काण्ड के नवें और दशम सूक्तों में सेना और आयुध सम्बन्धी और भी अनेकों तथ्य दिए गए हैं ।