निरुक्त में आदित्य का निरूपण

वेदों में ३३ देव कुछ स्थलों पर बताए गए हैं, जिनकी व्याख्या शतपथ ब्राह्मण १४।६।१-१०, तदनुसार बृहदारण्यकोपनिषद् ३।९।१-१०, में प्राप्त होती है । उन ३३ देवों के अन्तर्गत १२ आदित्य गिनाए गए हैं जिन्हें संवत्सर के १२ महीने बताया गया है । सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं, “संवत्सर के बारह महीने ’बारह आदित्य’ इसलिए हैं कि ये सबकी आयु को लेते जाते हैं”, अर्थात् ’अद भक्षणे’ धातु से ’आदित्य’ शब्द की निष्पत्ति होने से उसको आयु को ’खाने वाला’ बताया है । सो ये १२ आदित्य १२ मासों से सम्बद्ध सूर्य के ही नाम हैं । निरुक्त में यास्काचार्य ने एक और भी अर्थ दर्शाया है । उसी का इस लेख में निरूपण कर रही हूं । 

निरुक्त के बारहवें अध्याय में १२ आदित्य गिनाए गए हैं । ये भी सूर्य के ही नाम हैं, परन्तु संवत्सर के कालावयवों से सम्बद्ध न होकर, यहां पर अहोरात्र से सम्बद्ध विवरण दिया गया है । इनमें से कुछ की प्रभा के भी नाम गिनाए गए हैं । सभी शब्द वेदमन्त्रों के सन्दर्भ में बताए गए हैं । ये १२ आदित्य हैं – त्वष्टा, सविता, भग, सूर्य, पूषन्, विष्णु, विश्वानर, वरुण, केशी, वृषाकपि, यम, अज एकपात् । इनकी व्याख्या इस प्रकार हैं –

  • त्वष्टा – रात्रिरादित्यस्यादित्योदयेऽन्तर्धीयते ॥निरुक्तम् १२।११॥ – अर्थात् त्वष्टा रात्रि का आदित्य है जिसका उदय होने पर अन्तर्धान हो जाता है । इस प्रकार जब सूर्य हम जहां पृथिवी पर स्थित हैं, उसके परली ओर होता है, तब उसकी संज्ञा ’त्वष्टा’ कही गई है । वेदों में ’विवस्वत्’ इसका पर्यायवाची शब्द है । इसका निर्वचन इस प्रकार किया गया है – त्वष्टा तूर्णमश्नुते इति नैरुक्ताः । त्विषेर्वा स्याद्दीप्तिकर्मणः, त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः ॥निरुक्तम् ८।१४॥ – ’त्वर + अशूङ् व्याप्तौ सङ्घाते च + तृङ्’ – शीघ्र फैलने वाला । अथवा ’त्विष दीप्तौ +तृन्’ – सम्भवतः पृथिवी के दूसरी ओर दीप्तिमान रहने वाला । अथवा ’त्वक्षू तनूकरणे + तृन्’ – यहां अर्थ प्रायः शुद्ध आदि करने से लिया जाता है; सम्भवतः आदित्य के विषय में यह निर्वचन उपयुक्त न हो ।  
    रात्रिकाल के अन्धकार को ’सरण्यू’ (सृ गतौ + अन्युच् (उणा० ३।८१)) संज्ञा दी गई है ।
  • सविता – तस्य कालो यदा द्यौरपहततमस्काकीर्णरश्मिर्भवति ॥निरुक्तम् १२।१२॥ – अर्थात् सविता का काल वह है जब रश्मियों के फैलने से अन्तरिक्ष में से अन्धकार नष्ट होने लगता है । यह सूर्योदय के पहले का काल है जब सूर्य तो उदय नहीं हुआ है, परन्तु उसकी रश्मियां आकाश में फैलने लगी हैं और धरती अभी भी अन्धकारमय है । यही काल मेधाशक्ति को बढ़ाने वाला और स्वास्थ्य-वर्धक ’ब्राह्म-मुहूर्त’ कहा गया है । निर्वचन : सविता सर्वस्य प्रसविता ॥निरुक्तम् १०।३१॥ – ’षु प्रेरणे + तृच्’ – सबको उत्पन्न करने वाला, प्रेरित करने वाला । सम्भवतः यहां इसके अर्थ हैं ’दिन को उत्पन्न करने वाला’ ।
    इस काल की प्रभा का नाम ’उषा’ है ।
  • भग – तस्य कालः प्रागुत्सर्पणात् ॥निरुक्तम् १२।१४॥ – भग का काल सूर्योदय से बिल्कुल पहले का है, जब सूर्य प्रकट होने को जैसे उद्यत हो रहा होता है । इस काल को ’उषा का पुत्र’ कहा गया है ।
  • सूर्य – यह उदयकालीन आदित्य होता है । सूर्यः  सर्तेर्वासुवतेर्वास्वीर्य्यतेर्वा ॥निरुक्तम् १२।१५॥ – ’सूर्य’ की निष्पत्ति ’सृ गतौ’, ’षू प्रेरणे’ व ’सु + ईर गतौ कम्पने च, क्षेपे वा + क्यप्’ से की गई है, जिससे इसका अर्थ हुआ ’दृष्ट अन्तरिक्ष में सरकना प्रारम्भ करने वाला’, ’जीवों को अपने-अपने कर्मों में प्रेरित करने वाला (सूर्य के उगते ही प्राणी व पेड़-पौधे अपने-अपने कामों में लग जाते हैं)’, व ’भली प्रकार आकाश में गति करने वाला, क्षितिज पर जैसे कम्पन करता हुआ, अथवा रश्मियों को भली प्रकार फेंकना प्रारम्भ करने वाला’ ।
    अवश्य ही इस सूर्य का बहुत महत्त्व है, क्योंकि कितने ही मन्त्रों में कहा गया है – पश्येम  सूर्यमुच्चरन्तम् – हम उगते हुए सूर्य को देखें । स्वास्थ्य और आंखों की ज्योति के लिए यह लाभकारी है ।
    इस सूर्य की प्रभा को ’सूर्या’ कहा गया है । 
  • पूषन् – अथ यद्रश्मिपोषं पुष्यति तत्  पूषा भवति ॥निरुक्तम् १२।१७॥ – जब सूर्य रश्मियों से सबका पोषण करने लगता है, तब वह ’पूषा’ होता है । यह काल सूर्योदय से लेकर मध्याह्न से पूर्व का है, अर्थात् पूर्वाह्णकालीन सूर्य । इस काल की रश्मियां सभी प्राणियों का पोषण करती हैं ।
  • विष्णु – अथ यद्विषितोर्भवतितद्विष्णुर्भवति । विष्णुर्विशतेर्वाव्यश्नोतेर्वा ॥निरुक्तम् १२।१९॥ – फिर जब सूर्य सम्यक् व्याप्त होता है, तब विष्णु होता है । इसकी निष्पत्ति इन धातुओं से यास्क बता रहे हैं – ’विष्लृ व्याप्तौ’, ’विश प्रवेशने’ व ’वि + अशूङ् व्याप्तौ सङ्घाते च’ + णु प्रत्यय + किद्भाव (उणादि: ३।३९) । यह मध्याह्नकालीन सूर्य का वर्णन है जब सूर्य रश्मियों द्वारा अन्तरिक्ष और पृथिवी पर पूर्ण रूप से व्याप्त होता है । जहां उसकी रश्मियां सीधी नहीं पड़ रही होतीं, वहां भी वे भली प्रकार प्रवेश कर जाती हैं (जैसे घरों के अन्दर) । उस काल में रश्मियां इस तरह एकत्रित होती हैं कि छाया भी लुप्त हो जाती है !
  • विश्वानर – यह मध्याह्नोत्तरकालीन सूर्य बताया गया है, जिस काल में उसकी किरणें प्रखर ही रहती हैं, और सब प्राणियों और वस्तुओं के अन्दर अभी भी प्रवेश किया हुआ होता है ।
  • वरुण – इसका काल स्पष्ट नहीं है, परन्तु इसको ऋचाओं ने रश्मिजाल से आच्छादन करने वाला अथवा रोगनिवारक आदित्य बताया है । इसलिए यह वरणीय, सेवन करने योग्य आदित्य है – वरुणो वृणोतीति सतः – वृञ् वरणे आवरणे वा + उनन् (उणादि० ३।५३) ।
  • केशी – केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति, काशनाद्वा ॥निरुक्तम् १२।२५॥ – केश रश्मियां हैं, उनसे युक्त आदित्य केशी है, अथवा प्रकाश करने से उसका यह नाम है (काशृ दीप्तौ + इनि)। इस आदित्य का भी काल स्पष्ट नहीं है ।
    सम्भवतः, क्रमानुसार वरुण व केशी मध्याह्नोत्तरकालीन सूर्य ही हैं ।
  • वृषाकपि – अथ यद्रश्मिभिरभिप्रकम्पन्नेति तद्वृषाकपिर्भवति वृषाकम्पनः ॥निरुक्तम् १२।२७॥ – जो यह रश्मियों से कांपता है, वह वृषाकपि आदित्य होता है । यह सूर्यास्त के समय का आदित्य है, जो क्षितिज पर कांपता-सा दीखता है । ’वृषु सेचने’ से यदि यहां ’वृषा’ की निष्पत्ति की जाए, तो ’रश्मियों की वर्षा’ अर्थ निकलता है, जैसा कि गोपथ ब्राह्मण में प्राप्त होता है – तद्यत् कम्पयमानो रेतो वर्षति तस्माद्वृषाकपिः॥गोपथ० ६।१२॥ – जो वह (अस्तंगत सूर्य) कांपती हुई रश्मियों की वर्षा करता है (अर्थात् कांपता-सा प्रतीत होता है), वह वृषाकपि आदित्य है । 
    परन्तु ’वृषा’ एक और प्रकार से निष्पन्न किया जा सकता है – ’वृष शक्तिबन्धने’ धातु से; ’कपि’ तो पुनः ’कपि चलने’ से ही बनेगा । इससे एक बहुत ही गूढ़ अर्थ कहा जा रहा है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है । रश्मि में एक विद्युत् शक्ति और दूसरी चुम्बकीय शक्ति (electro-magnetic fields) एक-साथ बन्धी हुई चलती हैं, जो कि लहर (sinusoidal wave) की तरह कम्पन करती हैं । क्या यहां ’वृषाकपि’ से प्रकाश के इस गुण का वर्णन किया जा रहा है, जो कि सूर्यास्त के समय लाल किरणों द्वारा विशेष रूप से अवगत होता है ? यदि हां, तो यहां एक बहुत गहरा वैज्ञानिक तथ्य सुन्दरता से कहा गया है ।
    वृषाकपि आदित्य की प्रभा को वृषाकपायी कहा गया है । वेद-मन्त्र में उसके लाल रंग की तुलना पलाश के लाल फूलों से की गई है ।
  • यम – निरुक्त में दिए वेदमन्त्र से ज्ञात होता है कि यह अस्त होने के बिल्कुल बाद का सूर्य है, जो रश्मियों को जैसे नियन्त्रित करके अपने में लपेट लेता है (देवैः  सङ्गच्छते रश्मिभिरादित्यः ॥निरुक्तम् १२।२८॥)।
  • अज एकपात् – अज एकपादजन एकः पादः, एकेन पादेन पातीति वा, एकेन पादेन पिबतीति वा, एकोऽस्य पाद इति वा । ’एकं पादं नोत्खिदति’ इत्यपि निगमो भवति ॥निरुक्तम् १२।२९॥ – अर्थात् चलने वाला (अज गतिक्षेपणयोः + अच् + वी का अभाव = अज) एक पाद (पाद के अकार का लोप) । छान्दोग्य० ५।१८ में आता है – तदेच्चतुष्पाद् ब्रह्म । अग्निः पादो, वायुः पाद, आदित्यः पादो, दिशः पादः – अर्थात् यह ब्रह्माण्ड चार पादों वाला है – अग्नि, वायु, आदित्य और दिशा । सो, आदित्य एक पाद है । यहां पर अस्त को प्राप्त आदित्य लक्षित है । अथवा एक पैर (अपनी परिधि) से (में रहकर) रक्षा करता है (पा रक्षणे + क्विप्) । अथवा एक पैर (अपनी परिधि) से (में रहकर) पीता है (पा पाने + क्विप्) अर्थात् पृथिवी पर से रस ग्रहण करता है । अथवा इसका एक ही पैर (परिधि) है । ’एक पैर नहीं उठाता (अपनी परिधि नहीं छोड़ता)’ – इस प्रकार से कहने वाला भी वेदमन्त्र है ।
    जबकि उपर्युक्त से अस्तंगत सूर्य का अर्थ स्पष्ट नहीं है, तथापि निरुक्त की व्याख्याओं में यह अर्थ पाया जाता है । क्रम से सम्भव है कि यह आदित्य रात्रि के पहले भाग, अर्थात् अहोरात्र का पाद होने से ’एकपात्’ कहा गया है । फिर त्वष्टा रात्रि के दूसरे अर्ध के लिए कहा गया हो, जिसकी ध्वनि ’उदयेऽन्तर्धीयते’ – उदय होने पर लुप्त हो जाता है से प्राप्त होती है । इस प्रकार दिवस के सभी अंशों की अलग-अलग संज्ञा निश्चित हो जायेगी, जिस प्रकार १२ मासों की है ।
    मेरे अनुसार, ’अज’ से ’अजन्मा’ भी ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि सूर्य पृथिवी से बहुत काल पहले उत्पन्न होता है और उसके बाद भी बहुत काल तक बना रहता है; और ’एकपात्’ से उसके स्थिर रहने का अर्थ है, क्योंकि एक पैर वाला, जैसे वृक्ष, चलता नहीं है । सो, यहां यह वैज्ञानिक तथ्य प्रकट किया गया है कि जबकि सूर्य आकाश में गतिशील प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में, पृथिवी के सम्बन्ध में वह स्थिर है, पृथिवी ही गतिशील है ।

उपर्युक्त में सर्वत्र अर्थ स्पष्ट नहीं प्राप्त हैं, तथापि यह स्पष्ट हो जाता है कि आदित्य की विभिन्न स्थितियों को वेद ने बहुत महत्त्व दिया है । जहां मास के रूप में वेद संवत्सर को विभाजित करने का प्रकार समझा रहे हैं, वहीं अहोरात्र के सम्बन्ध में वे दिवस-भर के आदित्य के विभिन्न गुणों का भी संकेत कर रहे हैं । जहां आदित्य की प्रभा को भी विशेष संज्ञाएं दी गई हैं, वे भी अवश्य ही किसी वैज्ञानिक कारण से होंगी । इनमें से ’उषा’ के महत्त्व को तो हम समझते हैं, परन्तु अन्यों के महत्त्व से हम अनभिज्ञ हैं । 

एक स्रोत से मुझे जान पड़ा है कि ज्योतिष शास्त्र में ये १२ आदित्य भी गिनाए गए हैं – विवस्वत्, अर्य्यमा, पूषन्, त्वष्टा, भगः, धाता, विधाता, वरुणः, मित्रः, शक्रः, उरुक्रमः । इनमें से कुछ तो समान हैं, परन्तु कुछ भिन्न हैं । ज्योतिष में इन आदित्यों का क्या महत्त्व है, यह अन्वेषणीय है ।

इस सब से प्रतीत होता है कि आदित्य के विषय में हमारा ज्ञान अब बहुत क्षीण हो चला है और इस विषय में शोध की आवश्यकता है । वेदमन्त्रों की व्याख्याओं में प्रायः उपर्युक्त अर्थ नहीं किए गए हैं – अधिकतर पद परमात्मा अथवा जीवात्मा के अर्थ में ही व्याख्यात हैं, जैसे भग, पूषन्, विष्णु, आदि । इससे मन्त्रों में आदित्य के आधिदैविक अर्थों को भी प्रकाशित करने की आवश्यकता जान पड़ती है । अवश्य ही इससे सूर्य के विषय में अत्यधिक ज्ञानवर्धन होगा ।

यहां यह भी समझना चाहिए कि महर्षि ने जो अर्थ बताए हैं, वे सदा सम्पूर्ण हों, यह आवश्यक नहीं है । उन्होंने तो स्वयं सर्वदा कहा था कि वेद के अर्थ अनन्त हैं । फिर जो महर्षि के दिए अर्थों के आगे नहीं देख पाते, वह उनकी दूरदृष्टि का अभाव है…