वेदों में महाभारत के नामपद
इस लेख में मैं महाभारत में पाए जाने वाले कुछ पात्रों के नामों का वैदिक आधार दे रही हूं । महाभारत के पात्र बहुत अधिक हैं । इसलिए कुछ रोचक उद्धरणों को ही हम देखेंगे ।
महाभारत के सबसे लोकप्रिय पात्र तो कृष्ण और अर्जुन ही हैं, परन्तु इनके नामों के अर्थ क्या हैं, इस विषय में हम अधिक नहीं जानते । इसलिए इन्हीं से प्रारम्भ करते हैं –
- कृष्णः – जनसामान्य में प्रसिद्ध है कि कृष्ण का अर्थ काला होता है और कृष्ण जी के सांवरे होने के कारण उनका यह नाम पड़ा । क्या वेद कुछ और कहते हैं ? आइये देखते हैं । यह पद वेदों में अनेक बार पाया जाता है, विशेषकर यजुर्वेद के २४वें अध्याय के ४० मन्त्रों के अधिकतर मन्त्रों में किसी न किसी रूप में यह पाया जाता है । समस्त (=जिनमें समास हो) पदों में भी इसकी भरमार है । स्त्रीलिंग में भी ’कृष्णा’ शब्द पाया जाता है । यह शब्द ’कृष विलेखने’ धातु से निष्पन्न हुआ है जिसके अर्थ हैं जोतना, खींचना और खोदना । इन्हीं अर्थों से ’कृषि’ और ’आकर्षण’ शब्द निकले हैं । औणादिक नक् से यहां ’वर्ण’ अर्थ का भी समागम हो जाता है – कृषेर्वर्णे (उणादि० ३।४) – जिसपर महर्षि दयानन्द की व्याख्या है – कृषतीति कृष्णः नीलवर्णो वा ’कृष्णा’ पिप्पली वा, अर्थात् कृष के सभी अर्थों में कर्ता के अर्थ में अथवा नीले वा काले वर्ण के अर्थ में अथवा एक प्रकार की इमली के अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त होता है । प्रधानतया वेदों में ये अर्थ ही पाए जाते हैं, इमली को छोड़कर । निरुक्त भी इस विषय में सम्मत है – कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः ॥निरु० २।२०॥
उदाहरण के लिए – कृष्णोऽस्याखरेष्ठोऽग्नये … ॥यजु० २।१॥ – जहां स्वामी जी का भाष्य है – अग्निना छिन्नो वायुनाकर्षितो यज्ञः, अर्थात् अग्नि से सूक्ष्म किया हुआ और वायु द्वारा आकर्षित किये जाने वाला अग्निहोत्र रूपी यज्ञ । इस प्रकार यहां ’कृष्ण’ के अर्थ यहां ’यज्ञ’ हुए । द्वितीयः – “… मेषो यमाय कृष्णो मनुष्यराजाय … ॥यजु० २४।३०॥” – जहां कृष्ण = काला हरिण । काले अर्थ में ही इसका अर्थ ’रात्रि’ भी हो जाता है, यथा – “अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च … ॥ऋक्० ६।९।१॥” इसी प्रकार ’अन्धकार’ के लिए यह शब्द कई बार प्रयुज्य हुआ है । तृतीयः – “कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा … ॥ऋक्० १।१६४।४७॥” – जहां अर्थ हैं – कर्षितुं योग्यः, खींचने योग्य (पृथिवी वा विमान) । चतुर्थः – “… श्वेतान् ग्रीष्माय कृष्णान् वर्षाभ्यो… ॥यजु०२४।११॥” – कृष्णवर्णान् कृषिसाधकान् वा – अर्थात् कृषि के साधक के अर्थ में ।
अन्य अर्थ कृष्ण महाराज के लिए तो सम्यक् नहीं बैठते, परन्तु, सांवले होने के साथ-साथ, आकर्षक अर्थ का भी हम ग्रहण कर सकते हैं । अवश्य ही कृष्ण जी के ऐसे-ऐसे गुण थे कि वे सभी के लिए आकर्षक थे, ऐसा महाभारत के वर्णनों से प्रतीत होता है । इस आकर्षक व प्रिय व्यक्तित्व के कारण ही वे सम्भवतः कौरवों के प्रति भेजे गए पाण्डवों के दूत बनाए गए । - अर्जुनः – जबकि यह पात्र तो प्रसिद्ध है, परन्तु इसके नाम के अर्थ अधिक ज्ञात नहीं हैं । यह शब्द अर्जनार्थक ’अज अर्जने’ अथवा ’अर्ज प्रतियत्ने’ से औणादिक उनन् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है, जिसकी व्याख्या में महर्षि कहते हैं – अर्जयतीति अर्जुनः शुक्लो मयूरो वृक्षभेदो वा – अर्थात् शुक्ल वर्ण, मयूर और शुक्ल काण्ड वाला वृक्षविशेष । ये अर्थ अर्जन से कैसे निकले, यह अन्वेषणीय है । प्रथम अर्थ का निरुक्त भी प्रतिपादन करता है – अर्जुनं शुक्लम् (निरु० २।२१), परन्तु निघण्टु में एक और अर्थ भी है – अजुर्नमिति रूपनाम (निघ० ३।७), अर्थात् सुन्दर । प्रायः इसी अर्थ में वेदों में प्रयोग पाए जाते हैं, जैसे – “यदर्जुन सारमेय… (ऋक्० ७।५५।२)” – सुस्वरूप (गृहस्थजन) । “इन्द्रो हर्यन्तमर्जुनं वज्रं … (ऋ० ३।४५।५)” – रूपम् । “… शंसमर्जुनस्य नंशे … (ऋक्० १।१२२।५)” – रूपस्य । “… त्वारिष्टो अर्जुनो मरुतां… (यजु० १०।२१)” – प्रशस्तं रूपं विद्यतेऽस्य सः (राजा), आदि अनेक उदाहरण वेदों में उपलब्ध हैं । सो महाभारत का अर्जुन रूपवान् था, यह तो प्रसिद्ध है ही, परन्तु, मेरे ज्ञान में, उसके गौर (श्वेत) वर्ण होने का उल्लेख नहीं प्राप्त होता ।
इस पद के कुछ और भी अर्थ हमें वेदों में प्राप्त होते हैं । इनमें से एक रोचक है – “अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च … ॥ऋक्० ६।९।१॥” – ऋजुगत्यादिगुणं दिनम् – अर्थात् सरल स्वभाव वाला । यहां महर्षि ने ’ऋज गतिस्थानार्जनोपार्जनेषु’ धातु से यह शब्द निष्पन्न किया है, जिस धातु के अर्थ गति, स्थिति, संचय, समीप में वस्तु जोड़ना अर्थ होते हैं । सो, मन्त्र में सीधी, सरल गति वाले के लिए यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । जहां अर्जुन के सरल स्वभाव की चर्चा तो हम नहीं पाते, तथापि उसके स्वभाव में कुटिलता भी नहीं पाते । सम्भव है, इस गुण के ऊपर उनका नामकरण हुआ हो । - गान्धारी – गन्धार देश की होने के कारण, धृतराष्ट्र की पत्नी का नाम गान्धारी था । जबकि ’गान्धारी’ पद तो मुझे प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु रानी के गुणों को बताने वाले मन्त्र में ’गन्धारी’ पद अवश्य मिला, यथा – “… गन्धारीणामिवाविका (ऋक्० १।१२६।७)” – यथा पृथिवीराज्यधर्त्रीणां मध्ये (महर्षेर्व्याख्या) – अर्थात् पृथिवी पर राज्य का धारण करने वाली (रक्षिका रानी) । यदि स्वार्थ में हम अण् प्रत्यय मानें, तो ’गान्धारी’ निष्पन्न होगा, और एक राज्ञी के लिए यह उपयुक्त नाम है । सम्भवतः, गन्धार देश का नाम भी इसी अर्थ में रखा गया हो – पृथिवी पर धारण किया हुआ सुरक्षित राज्य ।
- अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका – एक और अति रोचक उद्धरण मुझे इन तीनों बहनों के नाम का मिला – “… अम्बे अम्बिके अम्बालिके न मा नयति कश्चन । … (यजु० २३।१८)” – हे मातः, पितामहि, प्रपितामहि ! – अर्थात् इन नामों के क्रमशः अर्थ हैं – माता, दादी और परदादी । जबकि ये तीनों थीं तो बहनें, परन्तु वेदमन्त्र में ये तीन नाम एक के बाद एक पढ़े गए हैं । ये बहनें एक उम्र वाली तो थीं नहीं, तो उनके माता-पिता को पहले ही कैसे ज्ञात हुआ कि उनके तीन बेटियां होंगी जिनके नाम उन्होंने इस वेदमन्त्र से एकसाथ चुन लिए ? अथवा, और यह अधिक सम्भव है, उन सभी के जन्मों के बाद उनके नाम परिवर्तित कर दिए गए हों । तथापि यह उद्धरण दर्शाता है कि रामायण, महाभारत काल में हमारे पूर्वजों को वेदों का कितना गहन ज्ञान था !
अन्य जो नाम हम महाभारत में पाते हैं, वे या तो अत्यन्त सरल हैं, जैसे कर्ण, भीम, भीष्म, नकुल, कुन्ती अथवा समस्त पद हैं, जिनके भी अर्थ सुगम हैं, जैसे धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, दुर्योधन, दुश्शासन, सञ्जय । कुछ अन्य पात्र अपने सम्बन्धों से जनित तद्धित-प्रत्ययान्त नामों से अधिक प्रसिद्ध हैं, जैसे गान्धारी, माद्री । इससे यह भी ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वजों को अतीव सरल नाम भी अत्यन्त प्रिय थे, चाहे वे राजवंशियों के ही क्यों न हों । आजकल के अवशिष्ट राजघरानों में नकुल (नेवला) जैसे नाम को अत्यन्त हेय दृष्टि से देखा जायेगा, परन्तु प्राचीन काल में ऐसा नहीं था ।
अन्य जो पद हमें ऊपर मिले उससे कुछ रोचक अंश सामने आए और हमारे पूर्वजों में वेदज्ञान की प्रचुरता पुनः स्थापित हुई । अब यदि हम अपनी सन्तानों के नाम इन महाकाव्यों पर आधारित रखते हैं, तो हम गलत नहीं जा सकते हैं !