वैदिक मन्त्रों के अर्थीकरण में ऋषि आदि का महत्त्व – ३
इस विषय के पिछले दो लेखों को ही आगे बढ़ाते हुए, और मन्त्रों के अर्थीकरण में ऋषि, छन्द व स्वर के महत्त्व को दर्शाने के लिए, इस लेख में मैं विभिन्न छन्दों के उदाहरण दे रही हूं । पहले लेख में मैंने अनुष्टुप् और त्रिष्टुप् के उदाहरण दे दिए हैं । दूसरे लेख में बताए अर्थों को परखने के लिए, शेष पाँच छन्दों को यहां दे रही हूं ।
गायत्री छन्द का उदाहरण
इस छन्द से सबसे पहले हमें गायत्री मन्त्र का ही स्मरण होता है । सो, उसी का उदाहरण देना यहां सबसे उपयुक्त है –
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ यजु० ३६।३ ॥
ऋषि – विश्वामित्र । देवता – सविता ।
छन्द/स्वर – ’भूर्भुवः स्वः’ का दैवी बृहती/मध्यम, शेष का निचृद्गायत्री/षड्जः ।
मन्त्र का तात्पर्य – प्रथम भाग के बड़े विशाल अर्थ हैं, जो कि तैत्तिरीयोपनिषद् आदि में द्रष्टव्य हैं । इसी से बृहती का अर्थ संगत हो जाता है । तथापि मैंने दैवी बृहती के विषय में पूर्व चर्चा नहीं की है, सो यहां भी नहीं कर रही हूं । यहां केवल गायत्री छन्द के अंश को देखते हैं – उस प्रेरक व (सब जगत् के) स्रष्टा, दिव्य गुणों के कारण देव-संज्ञक (परमात्मा) के शुद्ध, वरणीय (स्वरूप) का हम ध्यान करते हैं, जो (परमात्मा) हमारी बुद्धियों को (सन्मार्ग में) प्रेरित करता है ।
विशेष –
- मन्त्र का प्रधान विषय – देवता – ’सविता’ है, यह तो मन्त्र के तात्पर्य से स्पष्ट ही है । मन्त्र में भी यह शब्द है । सविता का मुख्य तात्पर्य यहां ’प्रेरक’ से है – वह प्रेरक ब्रह्म हमारी बुद्धियों को सदा सन्मार्ग में लगाए ।
- मन्त्र का दूसरा विषय – ऋषि – ’विश्वामित्र’ है । जिस परमात्मा का वर्णन इस मन्त्र में है, वह वो है जो सब का मित्र होने से सबका वरण करने योग्य है । जो भी प्रेरणा वह हमें देता है, वह हमारी भलाई के लिए देता है, जिस प्रकार एक सच्चा मित्र देता है, चाहे वह उस समय हमें कितनी ही कटु लगे ।
- पिछले मास के लेख में, गायत्री छन्द के मुख्य रूप से चार अर्थ हमने देखे थे – १) पाँच प्रकार की रक्षा प्रकरण २) स्तोता का रक्षण ३) परमात्मा की स्तुति ४) तीन प्रकार की प्राप्ति कराने वाला (’तीन पाद वाला’ अर्थ तो स्पष्ट ही है) । प्रकृत् मन्त्र में प्रथम अर्थ प्रतीत होता है कि सम्बद्ध नहीं है । सन्मार्ग में बुद्धि को प्रेरित करने से पापों से संरक्षण होता है, जिससे हम दुःखों से छुटकारा पाते हैं । इससे दूसरा अर्थ सही हो गया । तीसरे अर्थ में, हम परमात्मा की तीन स्तुतियां पाते हैं – सविता, भर्गः और देवः । इससे यह अर्थ सिद्ध होता है ।
चौथा अर्थ यहां अत्यन्त सुन्दर है । यह मन्त्र अन्य सभी वैदिक मन्त्रों से अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है । राजर्षि मनु ने भी हर ब्राह्मण को दोनों सन्ध्याओं में इसका जप करने का आदेश दिया है । जहां तक मुझे समझ में आया है, इसका कारण यह है कि इस एक मन्त्र से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना सभी एक-साथ हो जाती हैं । स्तुति तो हमने अभी देखी । प्रार्थना यहां यह है कि परमात्मा हमारी बुद्धि को सदा सन्मार्ग में लगाए । उपासना के लिए मन्त्र आदेश देता है कि हम मन्त्र में बताए हुए उसके स्वरूप का ध्यान करें । यह स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही मन्त्र में तीन विषयों की प्राप्ति है । - षड्ज स्वर से छः वस्तुओं/विषयों से उत्पन्न या उनकी प्राप्ति अर्थ सम्भव है । मैंने पिछले लेख में भी थोड़ा संकेत दिया था, परन्तु उसमें पूर्व भाग भी सम्मिलित था । यथा – भूः, भुवः, स्वः, सविता, भर्गः, देवः – ये परमात्मा के छः नाम इस मन्त्र में मिलते हैं । इसके सिवा यहां क्या अर्थ हो सकता है, यह विचारणीय है ।
इस प्रकार विश्लेषण करने से, जबकि अर्थ में विशेष अन्तर नहीं आया, तथापि कौन-कौन से विषय महत्त्वपूर्ण हैं, इस पर हमारा ध्यान केन्द्रित हुआ, और किस प्रकार से हमें उपदेश देखना चाहिए (विश्वामित्र आदि), यह भी स्पष्ट हुआ । देवता, ऋषि, छन्द और स्वर की यही भूमिका है । दूसरे, स्वर षड्ज को छोड़कर, हमारे किए गए अर्थों का प्रमाण भी प्राप्त हुआ ।
शेष उदाहरणों के लिए मैंने, बिना अधिक विश्लेषण किए, यजुर्वेद का सत्रहवां अध्याय खोला, क्योंकि उसमें मन्त्रों की मात्रा अधिक है, और सभी छन्दों के उदाहरण पाना आसान था ।
उष्णिक् छन्द का उदाहरण
ऋतजिच्च सत्यजिच्च सेनजिच्च सुषेणश्च ।
अन्तिमित्रश्च दूरेअमित्रश्च गणः ॥ यजु० १७।८३ ॥
ऋषि – सप्तऋषयः । देवता – मरुतः ।
छन्द/स्वर – भुरिगार्ष्युष्णिक् / ऋषभः ।
मन्त्र का तात्पर्य – जो (ऋत=) विज्ञान की उन्नति करे/कराए, (सत्य=) धर्म की उन्नति करे/कराए, जो अपने पराक्रम से शत्रु सेनाओं को जीत ले, जिसकी स्वयं की सेना बलशाली हो, जिसके मित्र पास हों और शत्रु दूर हों, वह मनुष्य ही गणनीय = प्रशंसनीय है ।
विशेष –
- मन्त्र का मुख्य विषय – देवता – ’मरुत् (बहुवचन)’ हैं । ’मरुत्’ शब्द मृङ् प्राणत्यागे से औणादिक उति (उ० १।९४) प्रत्यय लगकर बना है, जिस पर ऋषि दयानन्द का भाष्य है – म्रियते मारयति वा स मरुत् मनुष्यजाति पवनो वा – अर्थात् जो मरे या मारे ,वह मरुत् होता है, और इसके मुख्य रूप से दो अर्थ हैं – मनुष्यजाति और पवन । सो, मरणधर्मा व अन्यों को मारने वाली मनुष्य-जाति के लिए यहां उपदेश है, जिसमें स्पष्टतः मरने-मारने का भी प्रसंग है (सेनजित्, सुषेणजित्) । हमारे प्राण किस प्रकार की प्राप्ति में लगें, हम अपना जीवन किन लक्ष्यों के लिए जीएं, यह भी पवन-सम्बन्धी प्रसंग यहां मिल रहा है ।
- मन्त्र का दूसरा विषय – ऋषि – ’सप्तऋषि (बहुवचन)’ हैं । ’ऋषि’ शब्द ऋषी गतौ धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसके अर्थ हैं ’ज्ञान, प्राप्ति व गमन करने वाला’ । यहां हमें सात प्रापणीय विषय मिलने चाहिए, और आशानुसार वे मिलते भी हैं ! ये हैं – ऋतजित्, सत्यजित्, सेनजित्, सुषेणजित्, अन्तिमित्रः, दूरेअमित्रः और गणः । आश्चर्य ! यही नहीं, मैंने आगे-पीछे के मन्त्रों को भी परखा, जिनके ऋषि ’सप्तऋषयः’ हैं । सभी मन्त्रों में इस प्रकार एक विषय वाले सात-सात शब्द प्राप्त होते हैं । आप भी स्वयं देखें । इस तथ्य से भी ’ऋषि’ का मन्त्रार्थवाची होना सिद्ध होता है ।
- उष्णिक् छन्द के अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा था – त्रयः कर्मोपासनाज्ञानानि वत्सा इव यस्य सः पराक्रमम् यद् दुःखानि दहन्ति तम् – अर्थात् जिस पराक्रम के तीन – कर्म, उपासना और ज्ञान – बेटों के समान हैं, और जो दुःखों को जला देता है । यह अर्थ महर्षि की दिव्य दृष्टि और प्रगाढ़ ज्ञान को ही दर्शाता है कि प्रस्तुत मन्त्र के विषय में न सोचते हुए भी उन्होंने ’पराक्रम’ शब्द का प्रयोग किया ! वस्तुतः, यहां पराक्रम ही विषय है, जो कि कर्म (सेनजित्, सुषेणजित्), उपासना (=पास बैठना) (अन्तिमित्र, दूरेअमित्र) और ज्ञान (ऋतजित्, सत्यजित्) में झलक रहा है । इन सब से हमारे दुःखों का दहन होता है ।
दूसरा जो विषय हमने देखा था, वह था ’स्नेह’ । सो, यहां ’गणः’ से यही प्रियत्व कहा गया है – जो उपर्युक्त छः गुणों वाला होता है, वह सब का प्रिय हो जाता है ।
तीसरा अर्थ जो शौच था, उसका भी यहां सम्बन्ध बनता है – उपर्युक्त गुण तभी प्राप्त होते हैं, जब हम अपनी बुद्धि, कर्म व संग शुद्ध करते हैं । - ऋषभ स्वर से बल का ग्रहण होना चाहिए, तो वह तो सर्वत्र ’जित्’ शब्द से स्पष्ट ही है ।
इस प्रकार यहां भी हमको ऋषि आदि से कुछ ध्यातव्य बिन्दु मिले, और हमारे पूर्वोक्त अर्थ सिद्ध हुए ।
बृहती छन्द का उदाहरण
पृथिव्या अहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् ।
दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिर्रगामहम् ॥ यजु० १७।६७ ॥
ऋषि – विधृतिरृषिः । देवता – अग्निः ।
छन्द/स्वर – पिपीलिकामध्या बृहती / मध्यमः ।
मन्त्र का तात्पर्य – जीवन्मुक्त योगी के देहत्याग पर क्या होता है, उसका यहां वर्णन मिलता है – मैं पृथिवी से अन्तरिक्ष पर चढ़ जाती हूं । अन्तरिक्ष से सूर्य पर चढ़ जाती हूं । सूर्यलोक से, ’नाक’ के ऊपर से, स्वर्ग की ज्योति मैं प्राप्त करती हूं ।
विशेष –
- मन्त्र का मुख्य विषय – देवता – ’अग्नि’ है । यहां ’अग्नि’ का अर्थ ’पूर्ण विद्वान्’ है । इसमें वेद का ही प्रमाण है – ’यो अग्निः कव्यवाहनः … ऋतावृधः… ॥यजु० १९।६५॥ – अग्निरिव विद्यासु प्रकाशमानः (म०व्या०)’ अर्थात् जो अग्नि के समान विद्याओं में प्रकाशमान है, प्रशस्त कर्म कर्ता है और वेद के ज्ञान से पूर्ण है । ऐसा ही व्यक्ति मोक्ष की कामना कर सकता है । उसी की इस मन्त्र में चर्चा है ।
- मन्त्र का दूसरा विषय – ऋषि – ’विधृति’ है । यजु० ११।६६ में महर्षि इसका अर्थ करते हैं – विविधं धारणं यस्य सः (आश्चर्य की बात है कि इस ११।६६ मन्त्र में ’विधृतिमग्निम्’ करके पुनः ये दोनों पद अगल-बगल मिलते हैं !) । यहां ’विविध प्रकार के ज्ञानों को धारण करने वाला’ अर्थ है ।
- बृहती छन्द के ’प्रकाशवाहक’ और ’महत्ता दर्शाने वाला’ अर्थ देखे थे, दोनों ही अर्थ यहां सही हैं – इस मन्त्र में प्रकाशवाहक , अग्नि-सदृश, ज्ञान से ज्वलन्त आत्मा का वर्णन है, और उसकी महान सिद्धि दर्शाई गई है ।
- मध्यम स्वर से सम्भवतः ज्योति के बीच की स्थिति का ग्रहण हो । तथापि यहां कुछ संशय है, क्योंकि जिस दशा का यहां वर्णन है वह तो मनुष्य की सर्वोच्च दशा है ।
पङ्क्ति छन्द का उदाहरण
अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्द्धञ्छतं ते प्राणाः सहस्रं व्यानाः ।
त्वं साहस्रस्य राय ईशेषे तस्मै ते विधेम वाजाय स्वाहा ॥ यजु० १७।७१ ॥
ऋषि – कुत्सः । देवता – अग्निः ।
छन्द/स्वर – भुरिगार्षी पङ्क्तिः / पञ्चमः ।
मन्त्र का तात्पर्य – साधना में सिद्ध योगी का सम्बोधन करते हुए, अन्य सेवाभावी जन कहते हैं – हे ज्ञानाग्नि-स्वरूप ! हे असंख्य आंखों वाले ! हे असंख्य सिरों वाले ! तेरे असंख्य प्राण (जीव के साधन) और व्यान (चेष्टा के निमित्त) हैं; तुम अपरिमित धन के ईश्वर हो; इसलिए तुम विज्ञानी के लिए हमारी सेवाएं अर्पित हैं । स्वामी दयानन्द ने इसका अर्थ यह किया है कि योगजनित सिद्धि से योगी अनेकों प्राणियों के शरीर में प्रवेश कर सकता है और विपुल धन प्राप्त कर सकता है ।
विशेष –
- मन्त्र का मुख्य विषय – देवता – ’अग्नि’ है, जो कि पूर्ववत् ज्ञान की पराकाष्ठा को पहुंचे मनुष्य के लिए है ।
- मन्त्र का दूसरा विषय – ऋषि – ’कुत्स’ है । यह शब्द निघण्टु (२।२०) में वज्रार्थक पढ़ा गया है, और निरुक्त (३।११) में यास्क इसका निरूपण इस प्रकार करते हैं – वज्रः कस्मात्? वर्जयतीति सतः । तत्र कुत्स इत्येतत् कृन्ततेः । ऋषिः कुत्सो भवति, कर्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवः । अत्राप्यस्य वधकर्मैव भवति । – अर्थात् वज्र इसलिए कि वह निवारण करता है । ’कुत्स’ कृती छेदने से काटने के अर्थ में है । ऋषि को कुत्स कहते हैं, जो कि वेद के ज्ञाता होते हैं । क्योंकि वे अज्ञान का वध करते हैं, इसलिए भी वज्र शब्द उनके लिए सही है । इस प्रकार स्पष्ट रूप से इस मन्त्र में उस आत्मा का वर्णन है जिसने अपने सारे अज्ञान का उस प्रकार नाश कर दिया है, जैसे कि वज्र से शत्रु का किया जाता है ।
- पङ्क्ति छन्द के मुख्य अर्थ ’पाँच की अभिव्यक्ति’ लें, तो यहां पाँच सिद्धियां दर्शाई गई हैं – सहस्राक्षः, शतमूर्धा, शतप्राणः, सहस्रव्यानः और सहस्ररायः । योगी की शक्तियों, उसकी प्राण वायुओं और व्यवहारों की भी यहां चर्चा है, जो कि पङ्क्ति के अपर अर्थ थे ।
- पञ्चम स्वर से अतीन्द्रिय रहस्य को व्यक्त करने वाला अर्थ तो यहां सौ प्रतिशत सही बैठता है !
जगती छन्द का उदाहरण
ईदृक्षास एतादृक्षास ऊ षु सदृक्षासः प्रतिदृक्षास एतन ।
मितासश्च सम्मितासो नो अद्य सभरसो मरुतो यज्ञे अस्मिन् ॥ यजु० १७।८४ ॥
ऋषि – सप्तऋषयः । देवता – मरुतः ।
छन्द/स्वर – निचृदार्षी जगती / निषादः ।
मन्त्र का तात्पर्य – यह मन्त्र उष्णिक् छन्द के उदाहरण (यजु० १७।८३) के अनन्तर आता है, और उससे सम्बद्ध है । जिन विद्वानों ने उस मन्त्र की शिक्षा को जीवन में उतार लिया हो, उनको यहां ’मरुत्’ शब्द से सम्बोधित किया जा रहा है । हे मरुतों ! जो तुम ऊपर कहे हुए लक्षणों से युक्त हो, अन्य जो इस लक्षण वालें हैं उनके समान हो, पक्षपात-रहित हो, सत्यज्ञानियों के सदृश हो, वो आप हमें अच्छी प्रकार प्राप्त हों । इस जगत् (’यज्ञ’ का ’जगत्’ भी एक अर्थ है) में या हमारे इन व्यवहारों में, आज आप सम्यक् ज्ञान वाले, सत्य के विवेचक हमें भी अपने समान उस ज्ञान से भर दें ।
विशेष –
- मन्त्र का मुख्य विषय – ’मरुत-जन’ – जहां एक ओर साधारण मनुष्यों के लिए जीवन जीने के लिए सत्संग का उपदेश है, वहीं यहां विशेष रूप से धर्मात्मा विद्वानों के लिए है । पद मन्त्र में भी प्राप्त है ।
- मन्त्र का दूसरा विषय – ऋषि – ’सप्तऋषि’ हैं । आश्चर्यतया, हम यहां भी केवल सात गुणों का उपदेश पाते हैं – ईदृक्षास:, एतादृक्षासः, सदृक्षासः, प्रतिदृक्षास:, मितासः, सम्मितासः, सभरसः !
- जगती छन्द से जगत् के उपकार का विषय होना चाहिए । सो, यहां हम पाते हैं कि विद्वानों से साधारण जन विनती कर रहे हैं कि वे अपना ज्ञान उनमें भी बांटें, जिससे कि उनका सांसारिक व्यवहार भी यज्ञरूप हो जाए ।
- निषाद स्वर का एक अर्थ हमने देखा था – ’पूरी तरह स्थापित करने वाला’ या ’जनाने वाला’ । दोनों ही अर्थ यहां मरुतों के लिए सही बैठते हैं ।
मैंने उपर्युक्त मन्त्र बिना परखे उठाए थे । फिर भी हम देख सकते हैं कि मन्त्रों के अवयवों के अर्थ जो हमने पिछले दो लेखों में जानें, वे अधिकतर सम्यक् हैं । षड्ज और मध्यम स्वरों के अर्थ अवश्य कुछ असम्यक् लगे ।
इस विश्लेषण से यह भी सिद्ध हुआ कि इन अवयवों को समझने से मन्त्र में किस बात पर जोर दिया जा रहा है, या किस प्रकार उपदेश को समझना चाहिए, इसको जानने में हमें सहायता मिलती है । अब यदि आप वेद में जो मन्त्र एक से अधिक स्थलों पर आए हैं, उनका पुनरवलोकन करेंगे, तो आप पायेंगे कि उन समान मन्त्रों के इन अवयवों में भेद होगा । वह भेद ही हमें उस प्रसंग में मन्त्र के सही अर्थ करने में प्रवृत्त करेगा । इसलिए बिना इन अवयवों को ध्यान में रखे, वेद-मन्त्रों का सही अर्थ करना असम्भव नहीं, तो कठिन तो अवश्य है !