पञ्च महायज्ञ

    पञ्च महायज्ञों के विषय में महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश और संस्कारविधि में विस्तार से लिखा है । इस लेख में इस विषय पर, अन्य विषयों से जोड़कर, एक भिन्न ओर से प्रकाश डाल रही हूं ।

    पञ्च महायज्ञों के विषय में पहले तो यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि ये केवल गृहस्थियों के लिये कहे गये हैं । इनमें से एक-दो दूसरे आश्रमों के लिये कहे गये हैं, जैसे ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ में ब्रह्म और दैव यज्ञ, परन्तु वहां भी उनका स्वरूप भिन्न होता है । इसलिए उन्हें इन यज्ञों के नाम से नहीं पुकारा जाता । दूसरी ओर, गृहस्थियों के लिए ये अनिवार्य कर्म हैं, जिनको कि जहां तक हो सके, छोड़ा नहीं जाना चाहिए, ऐसा मनु महाराज ने कहा है । तब, यह प्रश्न उठता है कि केवल गृहस्थियों के लिए ही ये क्यों कहे गये हैं ? मनु लिखते हैं –

    पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ।

    कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ॥ मनुस्मृतिः ३।६८ ॥

अर्थात् गृहस्थी, अपने गृह कर्म करते हुए, निश्चित रूप से पांच प्रकार से हिंसा करता है । इन हिंसाओं के स्थान (सूना) हैं – चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली और पानी का घड़ा । यहां हिंसा इस प्रकार होती है – खाना पकाते हुए, कोई-न-कोई छोटे कीड़े-मकौड़े आग का शिकार हो ही जाते हैं; इसी प्रकार, चक्की, झाड़ू, ओखली में भी क्षुद्र कृमि-कीटों की हत्या हो जाती है; पानी के उबालने, आदि, में भी हम किसी-न-किसी बैक्टीरिया, आदि, को अवश्य मारते हैं । इस प्रकार, अपने दैनिक जीवन में, गृहस्थ, न चाहते या जानते हुए भी, कई हिंसाएं कर जाता है । जबकि ये हिंसाएं अन्य आश्रमों में भी होती होंगी, ये कर्म मुख्य रूप से गृहस्थी ही करता है । अन्य व्यापार-सम्बन्धी कर्मों में भी व्यावहारिक मनुष्य इसी प्रकार जाने-अनजाने में जीव-जन्तुओं को चोट पहुंचाता रहता है । सो, जबकि एक ब्रह्मचारी भी अपने पैरों के नीचे अवश्य ही चींटी को कुचलता है, परन्तु किसान के हल से अधिक हत्या होती है । इन कारणों से, प्रायश्चित्त के रूप में, गृहस्थ को निर्धारित पञ्च यज्ञ नित्य करने होते हैं । मनु कहते हैं कि इन कर्मों द्वारा गृहस्थी अपनी की हुई हिंसा के फल से निवृत्त हो जाता है –

    पञ्चैतान्यो महायज्ञान् न हापयति शक्तितः ।

    स गृहेऽपि वसन् नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते ॥ मनुस्मृतिः ३।७१ ॥ 

अर्थात् जो भी यथाशक्ति पञ्च महायज्ञों को नहीं छोड़ता है, नित्य करता है, वह घर में रहते हुए भी हिंसा-दोषों से लिप्त नहीं होता है । ये विधि ऋषियों ने स्थापित की है, यह भी वे बताते हैं ।

    इन पञ्च महायज्ञों का एक और आयाम भी है । मनुष्य के तीन ऋण माने गये हैं – ऋषि-ऋण, देव-ऋण और पितृ-ऋण । ये ऋण इस प्रकार हैं । अपने आचार्यों, गुरुओं से जो हम विद्या ग्रहण करते हैं, वह उन गुरुओं का हम पर महान उपकार है । वह उपकार दक्षिणा देने से नहीं उतरता, अपितु उस विद्या को आगे बढ़ाकर – या तो अन्यों को पढ़ाकर, या फिर प्रयोग से, नई खोजों से आगे बढ़ा कर – चुकाया जाता है । देवऋण वह है जो प्राकृतिक शक्तियों ने इस ब्रह्माण्ड और इस शरीर को रचकर हमारे अनेक प्रकार के भोगों के लिए समर्थ किया है, उसके कारण होता है । वैसे तो यह शक्तियां चेतन नहीं हैं । सो, ऋण का प्रश्न नहीं उठता, परन्तु हमारे भोग के कारण प्रदूषण उत्पन्न होता है, जिसे यदि दूर न किया जाये, तो वह बढ़ता जाता है । वास्तव में, यह प्राकृतिक शक्तियों का हमारे द्वारा घटाना ही ऋण (subtraction) है । इसका एक अकेला उपाय हैं – नित्य सायं-प्रातः हवन । तीसरा ऋण है पितरों का, हमारे पूर्वजों का, जिन्होंने, प्रजा-तन्तु को न तोड़ते हुए, सन्तति उत्पन्न की और उनको उपयुक्त संस्कार दिये । उस ऋण से उऋण होने का मुख्य उपाय है, उन ही की तरह सन्तति उत्पन्न करके परम्पराओं को आगे बढ़ाना ।

    पञ्च महायज्ञों और ऋणों का सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए अब पञ्च महायज्ञों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं । मनु ने स्वयं इनका सार इस प्रकार बताया है –

    अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

    होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥ मनुस्मृतिः ३।७० ॥

    स्वाध्यायेनार्चयेदर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि ।

    पितॄन् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा ॥ मनुस्मृतिः ३।८१ ॥ 

१) ब्रह्मयज्ञ – स्वाध्याय और अध्यापन । स्वाध्याय में मोक्षपरक ग्रन्थों का वाचन और ओम् का जप, अर्थात् उपासना, सम्मिलित है । ऊपर हमने देखा कि पढ़ना-पढ़ाना ही ऋषि-ऋण को उतारना है । और यज्ञ का दूसरा भाग, जो ब्रह्म में तल्लीन होना है, वह विशेष रूप से अपने लिए होता है । हमारे तीन प्रकार के सम्बन्ध होते हैं – एक हमसे महत्तर शक्ति परमात्मा से; दूसरा, हमसे लघुतर शक्ति प्रकृति से; तीसरा, प्रकृति से सम्बद्ध होकर, अन्य जीवात्माओं से । प्राकृतिक सम्बन्धों में तो हम दिन-भर निकाल देते हैं, परन्तु ब्रह्म के साथ के लिए समय निकालना पड़ता है ! वास्तव में, वहीं हमारी सच्ची उन्नति होती है ।

    इस यज्ञ के फल हैं – हमारे शुभ-गुणों में वृद्धि, परमात्मा से प्रेम, मोक्ष में आस्था व उसका मार्ग प्रशस्त होना ।

२) दैवयज्ञ – हवन करना । पुनः, जैसे हमने ऊपर देखा, यह देव-ऋण से उऋण होना ही है ।

    इसका फल है – वातावरण-शुद्धि व स्वास्थ्य-लाभ ।

३) पितृयज्ञ – जिन ऋषियों, विद्वानों, और, विशेष रूप से, अपने वृद्ध बन्धु-जनों, जिनसे हम प्रतिदिन के सम्पर्क में हों, या जो हमारे आश्रय में हों, का तर्पण व श्राद्ध । तर्पण का अर्थ है तृप्त करना, सुख देना; श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से सेवा करना । सो, यह पितृ-ऋण से मुक्त होने का एक और उपाय है । जिन्होंने हमारा अन्न से या ज्ञान से पालन-पोषण किया, उनका प्रत्युपकार करना हमारा धर्म है, यही मनु कह रहे हैं । उनके विवरण से यह भी सन्देह मिट जाता है कि श्राद्ध मृत पूर्वजों का किया जाये, या जीवितों का । जीवितों के लिए ही मनु बताते हैं कि हम नित्य-प्रति भोजन-छादन, आदि, दें, और प्रेमपूर्वक व्यवहार से उनको सुखी करें ।

    फलस्वरूप, गुरुजनों के कृपा व आशीर्वाद से, हमारे ज्ञान और गुणों में वृद्धि होती है, हमें आयु, बल व यश प्राप्त होते हैं ।

४) भूतयज्ञ वा बलिवैश्वदेवयज्ञ – बलि = खाद्य पदार्थों की आहुति देना । यहां बलि का अर्थ पशु-हत्या नहीं है, इसमें तो कोई संशय है ही नहीं । इस यज्ञ के दो भाग हैं । पहला, घर में पके खाने के घृत या मिष्ट युक्त कुछ अंश को गृह्य-अग्नि में आहुत करना । वह आहुत भाग पुनः वैश्वदेव = प्राकृतिक शक्तियों के लिए होता है । दूसरा, सिद्ध अन्न के एक अन्य भाग को घर में इधर-उधर बिखेरना । यह क्षुद्र जीव-जन्तुओं, जैसे चींटी, कौआ, कुत्ता, या रोगियों, आदि, के लिए होता है । इसी के साथ, हमपर आश्रित भृत्यों को भी हमें पहले अन्न-भाग देकर ही स्वयं ग्रहण करना चाहिए । सही दृष्टि से देखें तो यह ’भूत-ऋण’ से मुक्ति है । हमसे हीनतर प्राणी भी हमपर उपकार करते हैं । इसलिए हमें भी उनका उपकार करना है, यही इस यज्ञ का आशय है ।

    फल में, हमें सब जन्तुओं के उपकार का बोध, उनके और हमारे सूक्ष्म सम्बन्ध (web of life) का ज्ञान, उनपर किए हिंसा-कर्म का प्रायश्चित्त (वस्तुतः, यही यज्ञ मुख्यरूप से ऊपर कहे गृहस्थ हिंसा-कर्म का प्रायश्चित्त है । अन्य यज्ञ प्रायः अन्य प्रत्युपकारों के लिए हैं) ।

    पश्चिमी सभ्यता ने जब अनेकों जीव-प्रकारों को पृथ्वी पर समाप्त कर दिया, तब ही उन्होंने यह जाना कि कैसे, बड़े ही विचित्र रूप से, सभी जीव एक-दूसरे से जुड़े हैं, और कैसे अफ्रीका की कोई प्रजाति अमेरिका में मनुष्यों का उपकार कर रही थी !

५) अतिथियज्ञ वा नृयज्ञ – विद्वान, परोपकारी, संन्यासी, उपदेशकों को निवास व भोजन देना, और उनसे उपदेश ग्रहण करना । संन्यासियों का एक धर्म होता है गृहस्थियों को उपदेश देना, क्योंकि गृहस्थी को अधिक गूढ़ विषय पढ़ने की शक्ति नहीं बच रहती, और धर्म-कर्म के विषय में उसके अनेकों संशय भी जागृत होते रहते हैं । इनका उपदेश व समाधान संन्यासी का कर्तव्य है । इसके प्रत्युपकार में गृहस्थी को संन्यासी को अपने घर में शरण देनी होती है । परन्तु, मनु ने संन्यासी के लिए भी निर्देश दिया है कि वह एक रात्रि से अधिक किसी घर में न ठहरे ।

    फल तो, स्पष्ट-रूप से, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सम्बन्धी संशयों का निवारण, व कर्तव्याकर्तव्य का बोध ।

    मनु यह भी स्पष्ट करते हैं कि, इन पांचों यज्ञों में, ब्रह्म और दैव सबसे महत्त्वपूर्ण हैं । ब्रह्मयज्ञ तो हमें प्रतिदिन के मलिन विचारों से मुक्त करता है, और दैवयज्ञ हमारे वातावरण की मलिनता दूर करता है । दूसरे यज्ञ छूट भी जाएं, इन दो यज्ञों को हमें यथाशक्ति करते रहना चाहिए ।

    उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि ये पञ्च महायज्ञ किसी न किसी प्रत्युपकार से जुड़े हैं । क्योंकि गृहस्थी सबसे अधिक इस संसार का भोग करता है, इसीलिए ये कर्म उसी के धर्म बताये गये हैं । अन्य आश्रमी केवल आवश्यकतानुसार भोग करते हैं, परन्तु गृहस्थी सुखदायक, शृंगार, भूषण, आदि, अनेकों वस्तुओं का निर्माण, क्रय-विक्रय, आयात-निर्यात, प्रयोग व सेवन करता है । इस कारण से उसपर उनका प्रत्युपकार करने का भी सबसे अधिक भार है । कुछ जनसंख्या के कारण, कुछ अत्यधिक उत्पाद के कारण, कुछ अत्यधिक अपशिष्ट करने (waste करने) के कारण, और कुछ अत्यधिक प्रदूषण के कारण, प्रकृति की यह ’हिंसा’ भयावह रूप ले चुकी है । साथ ही गृहस्थियों ने दैवयज्ञ करने की प्रथा भी ’अग्नि-पूजा का ढकोसला’ समझ के त्याग दिया है । इस कारण से मनु के वचन सत्य सिद्ध हो रहे हैं – “दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम् (मनु० ३।७५) “, अर्थात् दैवकर्म से युक्त होकर ही गृहस्थी चराचर जगत् का भरण-पोषण करता है । इस भरण-पोषण के अभाव में प्रकृति का महान् प्रकोप सर्वत्र दृष्टिगोचर है ।