प्रकृति के तीन रंग

हमारे प्राचीन शास्त्रों में मूल प्रकृति के तीन गुण बताए गये हैं । वे हैं – सत्त्व, रज और तम । क्योंकि ये प्रकृति के ही गुण हैं, सो ये सभी प्राकृतिक वस्तुओं, अर्थात् सब भूतों, में पाए जाते हैं । प्रत्येक भूत में इन तीन गुणों की मात्रा भिन्न होती है, और उस मात्रा से ही प्रत्येक भूत के गुणों में विशेषता आ जाती है । हमारा शरीर भी प्राकृतिक है । उस पर भी इन गुणों का प्रभाव पड़ता है, जो कि हमारे स्वभाव का निर्धारण करता है । ये स्वभाव कैसे होते हैं, और वे कैसे होने चाहिए, इस लेख में इनका विवरण प्रस्तुत किया गया है ।

मुख्य रूप से, तम को अन्धकार से, रज को चञ्चलता से, और सत्त्व को प्रकाश से जोड़ा गया है । प्रकृति-विषय में इससे अधिक विवरण प्राप्त नहीं होता । जीव के सन्दर्भ में, अन्धकार अज्ञान, चञ्चलता विषयों के संग की इच्छा और प्रकाश ज्ञान से जोड़े जाते हैं । राजर्षि मनु कहते हैं –

               सत्त्वं ज्ञानं तमोऽ ज्ञानं रागद्वैषौ रजः स्मृतम् ।

           एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः ॥ मनुस्मृतिः १२।२६ ॥

अर्थात् इस भूतों पर आश्रित शरीर में सत्त्व से ज्ञान, तम से अज्ञान और रज से राग और द्वेष उत्पन्न होता है । 

किस प्रकार हम अपने में या किसी अन्य व्यक्ति में एक गुण की प्रधानता जान सकते हैं, उसके लिए मनु कहते हैं –

                        तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत् ।

                  प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत् ॥ मनु० १२।२७ ॥

जिस मनुष्य में सत्त्व गुण की प्रधानता होती है, वह सब के लिए प्रीति रखता है, अत्यन्त शान्त होता है, प्रसन्न होता है और जैसे शुद्ध प्रकाश से उसका शरीर युक्त होता है ।

                        यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।

                  तद्रजो प्रतिपं विद्यात् सततं हारि देहिनाम् ॥ मनु० १२।२८ ॥

जिस मनुष्य में रजोगुण अधिक वर्त रहा होता है, वह दुःखी रहता है, औरों से प्रीति नहीं रखता है, और हर समय इधर-उधर दौड़ता रहता है – काम के लिए या अन्यथा । रजोगुणी विषयों की लालसा के कारण दुःखी रहता है । और उसका सुख भी विषयों पर निर्भर होता है । इसलिए वह सुख भी वस्तुतः दुःखतुल्य ही होता है ।

                        यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम् ।

                  अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ मनु० १२।२९ ॥

तमोगुण से युक्त मनुष्य मोह से भरा होता है । यहां ’मोह’ का अर्थ प्रेम नहीं, अपितु विपरीतज्ञान, या अज्ञान से है, जैसे चोरी को अच्छा मानना । वह विषयों में रजोगुणी व्यक्ति से भी अधिक आसक्त होता है । इन दोनों ही कारणों से उस अविवेकी के मन को जानना या उसको कुछ भी समझाना व्यर्थ होता है ।

इसी विषय पर, साङ्ख्य के मतानुसार –

                        प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम् ॥ सां० १।९२ ॥

अर्थात् सत्त्व से प्रीति, रज से अप्रीति, और तम से विषाद (मोह-जनित तीव्र दुःख) होता है, जो कि मनुस्मृति के समान ही है । प्रकृति के विषय में, कई व्याख्याकारों ने इन्हें क्रमशः positive proton, negative electron और neutral neutron माना है । परन्तु ये व्याख्या सही नहीं लगती है, क्योंकि, एक तो, ये अण्वांश मूल प्रकृति के नहीं हैं; दूसरे, यदि हम इन्हें प्रधानतया सत्त्व, रज और तम के बने हुए भी मानें, तब भी ’पौसिटिव’ से ’प्रीति’ समझना भ्रान्तिपूर्ण है । ये तो केवल नाम दिए गए हैं – पौसिटिव को नैगेटिव भी कहा जा सकता था । प्रीति से attraction और अप्रीति से repulsion, और विषाद से neutral forces समझना सम्भवतः अधिक योग्य हो, परन्तु यहां भी कुछ कठिनाइयां बच रहती हैं । 

स्वभाव बताने के पश्चात्, किस गुण से किस कर्म में रुचि होती है, यह भी मनु बताते हैं –

               वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

           धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम् ॥ मनु० १२।३१ ॥

सात्त्विक मनुष्य वेदाभ्यास, तप अर्थात् यम, नियम, आदि का आचारण, ज्ञानार्जन, शारीरिक शुद्धि, इन्द्रियों को वश में रखकर मानसिक शुद्धि, यज्ञादि धार्मिक क्रियाओं, अपने व्यवहार, स्वभाव पर विचार, और ध्यान, उपासना में रत रहता है । आगे, मनु इन्हीं को मोक्षपरक कर्म बताते हैं ।

                  आरम्भरुचिताधैर्यमसत्कार्यपरिग्रहः ।

                  विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम् ॥ मनु० १२।३२ ॥

दूसरी ओर, राजसिक मनुष्य सर्वदा कार्यों में जुटा रहना चाहता है; उससे खाली नहीं बैठा जाता । वह धैर्यरहित होता है और विषयों के सेवन के लिए उत्सुक होता है । इसलिए बुरे कार्यों में भी फंस जाता है । इस सब का दूसरा पहलू है कि ज्ञानार्जन उसके लिए कष्टप्रद होता है ।

                        लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृतिता ।

                  याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम् ॥ मनु० १२।३३ ॥

वहीं तामसिक मनुष्य लोभी होते हैं, आलसी, धैर्यरहित, क्रूर, परमात्मा को न मानने वाले, जग से उलटी चाल चलने वाले, विषयों में अति आसक्त और एकाग्र-रहित होते हैं । लोभ को मनु ने सब व्यसनों, या पापकारी कर्मों, का मूल माना है । अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए तामसी व्यक्ति किसी हद तक जा सकता है ।

भगवद्गीता में इसी विषय को इस प्रकार कहा गया है –

               तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् ।

           सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ गीता १४।६ ॥

अर्थात् हे निष्पाप अर्जुन ! निर्मल होने से, सत्त्व प्रकाश करने वाला होता है, और विकार-रहित होता है । वह सुख और ज्ञान से जीव को बांधता है । इस प्रकार व्यास ने सत्त्व को भी प्रकृति से बांधने वाला बताया, जो मोक्ष की ओर तो ले जाता है, परन्तु मोक्ष के लिए उसके भी पार जाना होता है, जबकी मनु ने आत्मचिन्ता के अन्तर्गत ही परमात्म-दर्शन मानकर, उसी को मोक्ष-प्रदायक माना है ।

                        रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।

                  तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ गीता १४।७ ॥

हे कौन्तेय ! विषयों के संग की इच्छा से रज उत्पन्न होता है, और राग (और द्वेष) उत्पन्न करता है । वह देही को कर्मों से बांधता है । यहां रज के कारण और कार्य उल्टे प्रतीत होते हैं – रज से विषयों का संग उत्पन्न होता है, न कि संग से रज !

                        तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।

                  प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ गीता १४।८ ॥

हे भारत ! तम तो अज्ञान से उत्पन्न होता है, और सब देहियों को मोहित (अज्ञान से पूर्ण) करता है (पुनः, यहां कारण-कार्य उल्टे बताये हैं) । और वह सब को प्रमाद, आलस्य और निद्रा से बांधता है । सो, कुछ अर्थभेद से, गीता भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करती है ।

कैसे प्रकृति इस प्रकार से जीव का स्वभाव बदल सकती है, यह समझने में थोड़ा कष्ट होता है । सभी तो चेतन के गुण प्रतीत होते हैं ! सो, इनमें से स्वप्न या सोना समझने में सबसे आसान है । सोना शरीर की आवश्यकता होती है । जब हम बुद्धि या शरीर से थक जाते हैं, तो अनायास ही निद्रा हमें घेर लेती है । हमारी आत्मा को थकान नहीं होती है, क्योंकि वह कोई कर्म नहीं करती, केवल शरीर को आदेश देती है । फिर भी निद्रावस्था में वह पूरी तरह अज्ञान में डूब जाती है, जैसे प्रकृति ने हमें पूरी तरह ढांप लिया हो । इसी प्रकार, प्रकृति हमारी अपनी अनुभूति को भी ढांप कर, हमें यह ज्ञान (वास्तव में, अज्ञान) कराती है कि हम अपना भौतिक शरीर हैं । कुछ इसी प्रकार वह हम में विषय-सेवन की लालसा, लोभ, क्रूरता, आदि, प्रवृत्तियां भी उत्पन्न करती है ।

इस सब में हम देख सकते हैं कि तम की परत हमपर सबसे गहरी पड़ती है – हमें अपने से सबसे अधिक दूर करती है । सुषुप्तावस्था हमारी चेतनता का ही लोप कर देती है । इसके विपरीत, हम समझ सकते हैं कि सत्त्व हमें अपने सबसे करीब ले जाता है, उसकी परत झिल्ली जैसी ही होती है । इससे हमारा स्वाभाविक ज्ञान उभर आता है । ज्ञान तो हममें पहले से ही होता है, प्रकृति उसको छिपा देती है । जब हम दर्पण को बाहर के ज्ञान से साफ करते हैं, तो हमारा अपना प्रतिबिम्ब, हमारा स्वयं का ज्ञान स्पष्ट दिखने लगता है । बीच में, रज हमें इतना तो विवेक देता है कि बुरे कर्मों से हमें बुरा फल मिलेगा, और अच्छे से अच्छा, लेकिन वह हमें विषयों के सेवन में बांधे रखता है । संक्षेप में, मनु कहते हैं –

               तमसो लक्षणं कामो रजस्त्वर्थ उच्यते ।

           सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यमेषां यथोत्तरम् ॥ मनु० १२।३८॥

अर्थात् तम का लक्षण काम है, रज का अर्थ और सत्त्व का धर्म । इससे सुन्दर लक्षण-परिभाषा तो कठिन है !

प्रकृति का यह सामर्थ्य, कि वह हममें इतने भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तित्व उत्पन्न कर देती है, बहुत ही विलक्षण है । परन्तु इन पर हमारा कोई भी वश न हो, यह भी सही नहीं । अपितु, हमारा जीवन ही हमें इस लिए मिला है, कि हम प्रकृति के वश से अपने को छुड़ा सकें । इसीलिए मनु ने विस्तार से धर्म का वर्णन किया है, जिसमें पञ्च महायज्ञ मुख्य हैं, और उनमें भी ब्रह्मयज्ञ, अर्थात् ज्ञानार्जन प्रमुख है । इससे हममें सत्त्व बढ़ता है और रज व तम की मात्रा घटती है ।

आयुर्वेद के अनुसार, भोजन भी इन मात्राओं पर प्रभाव डालता है । फल, कन्द, मूल, दूध, घी, आदि सात्त्विक भोजन कहाते हैं, मसालेदार आदि भोजन राजसिक कहाता है; और मांस, मदिरा, आदि तामसिक भोजन कहाते हैं । सात्त्विक भोजन शरीर में सत्त्व की मात्रा में वृद्धि करता है, और इसी प्रकार अन्य दो अपनी-अपनी मात्राओं का वर्धन करते हैं । परन्तु अपने को और जग में अन्यों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, कि जब हम सात्त्विक होते हैं, तभी हमें सात्त्विक भोजन भी रुचिकर लगता है ! तभी हम इस ओर ध्यान भी देते हैं और अपने भोजन में से राजसिक और तामसिक तत्त्वों को हटाते हैं । जब हम राजसिक या तामसिक होते हैं, तब हम अपनी मनमानी करते हैं, और कोई हमें कुछ नहीं समझा सकता !

कठिनाई यह है कि जो हम तामसिक कर्म करेंगे, तो हमें तामसिक ही योनि प्राप्त होगी, जिसमें हम पुनः तामसिक कर्म करने की चेष्टा करेंगे ! इसीलिए अपने स्वभाव से जूझना सबसे कठिन होता है । मनु बताते हैं –

           देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः ।

           तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः ॥ मनु० १२।४० ॥

अर्थात् सात्त्विक जन अगले जन्म में देव या अतीव विद्वान् बनते हैं, राजसिक जन मनुष्य का जन्म लेते हैं, और तामसिक जन पशु योनियों को प्राप्त करते हैं । इस सरल वाक्य का सत्य हम अपने में देख सकते हैं – मनुष्य होने के कारण, हम सब अधिकतर अर्थार्जन में दिन-रात लगे रहते हैं, प्रौढ़ावस्था में ज्ञानार्जन हमारे लिए अत्यधिक कठिन होता है (सात्त्विक व्यवहार), और क्रूरता भी (तामसिक व्यवहार) । हम में से कुछ ही होते हैं जो जीवन-पर्यन्त ज्ञान पाने में लगे रहते हैं, और कुछ ही होते हैं जो हिट्लर या इदी अमीन् जैसी क्रूरता कर सकते हैं । इसी प्रकार हम पशुओं में भी देखते हैं कि उनमें ज्ञान का कितना अभाव होता है – न तो वे संसार को अच्छे प्रकार समझने में समर्थ होते हैं, और न ही अपने समझे हुए को भाषा द्वारा प्रकट करने में समर्थ होते हैं । देव योनि तो आजकल कठिनता से ही दृष्टिगोचर होती है, फिर भी कुछ आचार्यों और वैज्ञानिकों को हम इस श्रेणी में समझ सकते हैं । वे सदा धर्मपरायण और परोपकारी होते हैं ।

इस प्रकार प्रकृति के तीन रंगों – सत्त्व का शुक्ल, रज का लाल और तम का काला – को समझकर, हम अपने जीवन में सुधार ला सकते हैं । जब हममें तामसिक या राजसिक प्रवृत्तियां प्रबल हों, तो हमें स्वाध्याय में, या धार्मिक कार्यों में लगना चाहिए, अपना आहार बदलना चाहिए । एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जब तक हम राजसिक और तामसिक स्थितियों को नहीं समझेंगे, तब तक हम उनसे अपना बचाव नहीं कर सकते । यह प्रसिद्ध वैदिक मन्त्र का ही उदाहरण है – अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते (यजु० ३१।१४) – अविद्या से मृत्यु को पार करके, विद्या से अमृत पाया जाता है ।