भक्ष्याभक्ष्य और शाकाहार में पाप पर विचार

यह तो हम सभी जानते और समझते हैं कि मासांहार में पाप विहित है, क्योंकि इसमें एक प्राणी की हत्या आवश्यक है, जो कि निषिद्ध कर्म है । परन्तु शाकाहार के विषय में हम द्विविधा में पड़ जाते हैं – क्या इसमें भी पाप है या नहीं? यदि है, तो फिर मनुष्य खायेगा क्या ? मनुस्मुति के आधार पर, इस लेख में इन दोनों विषयों – भक्ष्याभक्ष्य और पाप – पर विचार किया जायेगा ।

भक्ष्याभक्ष्य

यहां पहले भक्ष्य और अभक्ष्य पदार्थों को देखते हैं, विशेषकर गृहस्थों के लिए । इस विषय में सबसे प्रामाणिक और सबसे प्राचीन ग्रन्थ मनुस्मृति प्राप्त होता है । उसके प्रक्षिप्त श्लोकों को निकाल दें (जो कि मांसभक्षण की भी अनुमति देते हैं !), तो हम पाते हैं कि ये निर्देश चार आश्रमों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास – के लिए अलग-अलग हैं । तथापि सभी वर्णों के लिए मांस और मदिरा का सेवन वर्जित है । मांसभक्षण को तो मनु ने बहुत नीच कर्म माना है, और उसमें आठ लोगों को पापी ठहराया है । शाकाहार में भी कुछ नियम हैं, जो कि इस प्रकार हैं – 

  • ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचारी गृहस्थी से ही भिक्षा ग्रहण करता है, इसलिए उसके लिए गृहस्थियों के समान ही नियम हैं ।
  • गृहस्थ – यह आश्रम तो उपभोग आश्रम है, इसलिए यहां बहुत कम पदार्थ वर्जित हैं । वे वर्जित पदार्थ इस प्रकार हैं –
    • लहसुन, शलगम, प्याज, कुकुरमुत्ता और अशुद्ध स्थान में उत्पन्न होने वाली कोई भी शाक निषिद्ध है । आज अधिकतर शाक कीचड़ आदि दूषित स्थानों में उत्पन्न किए जाते हैं । हो सके तो हमें इस विषय में जांच-पड़ताल करके ही सब्जी लेनी चाहिए ।
      उपर्युक्त को छोड़, सभी लाभकारी फल, फूल, मूल, धान और उनसे बने व्यञ्जन निर्दिष्ट हैं ।
    • गाय और भैंस का दूध भक्ष्य है, परन्तु ब्याही गाय के पहले १० दिन का दूध वर्जित है । बकरी, भेड़, ऊँट, सभी वन्य पशु और स्त्री का दुग्ध वर्जित है ।
    • खट्टे पदार्थों को नहीं खाना चाहिए, तथापि दूध के सभी विकार, चाहे वे खट्टे ही क्यों न हो, जैसे दही, वे सब मान्य हैं ।
    • बासी खाना वैसे तो नहीं खाना चाहिए, परन्तु यदि वह बहुत रूखा नहीं है, तो उसको खा सकते हैं । गेहूं, जौ, आदि के बने व्यञ्जन रूखे होते हुए भी बासी खाए जा सकते हैं ।

इस प्रकार गृहस्थाश्रम में मनुष्य को भोजन के विषय में पर्याप्त छूट है ।

  • वानप्रस्थाश्रम – ये सभी छूटें वानप्रस्थाश्रम में लुप्त हो जाती हैं, क्योंकि यह वह आश्रम है जहां मनुष्य को पापों का अपने जीवन से निवारण करना होता है । इसके लिए उसका आचरण बहुत ही शुद्ध होना पड़ता है और दिनचर्या बहुत ही नियमित । मोक्षपरक ग्रन्थों के स्वाध्याय और अग्निहोत्र करने में उसको समय व्यतीत करना चाहिए । उसके भोजन के विषय में मनु कहते हैं –
    • न  फालकृष्टमश्नीयादुत्सृष्टमपि  केनचित् ।
      न  ग्रामजातान्यार्तोऽपि  मूलानि  च  फलानि  च ॥मनुस्मृतिः ६।१६॥

      अर्थात् ग्राम में जुती भूमि पर उत्पन्न किसी भी पदार्थ को वानप्रस्थी न छूए, चाहे उसे कोई और ही क्यों न उखाड़ के दे । बुभुक्षा से पीड़ित होने पर भी वह ग्रामोत्पन्न शाक, मूल, आदि, का सेवन न करे । वह स्वयं भी हल से जोत कर भूमि पर धान आदि न उगाए । इसका कारण यह है कि हल जोतने से अनेकों कीटादि प्राणियों को कष्ट पहुंचता है । इस पाप से वानप्रस्थी को बचना होता है ।
    • वानप्रस्थी को नमक भी अपना बनाना चाहिए । इसका कारण भी शुद्धि बनाए रखना है ।
    • भूमि और जल में उत्पन्न होने वाले सभी जंगली शाक, पुष्प, मूल व फल वह खा सकता है, और उनके रस, तेल, अर्क, आदि, का भी प्रयोग कर सकता है । तथापि वेद कहता है कि बिल्कुल पके फल को खाना सबसे श्रेयस्कर है, जो कि बस टूटने वाला हो । सभी प्रकार के अन्न इसी श्रेणी में आते हैं, जो घासों के पक कर मर जाने के बाद ही खाए जाते हैं ।
    • मदिरा, मांस, कुकुरमुत्ते के साथ-साथ, कुछ विशेष प्रकार की घासें, सफेद सेंग और लसौड़े का फल उसके लिए वर्जित है ।
    • वन में वास करने वाले तापसिकों व विचरने वाले विद्वानों से वह अन्न ग्रहण कर सकता है और आए हुए आगन्तुकों का भोजनादि से स्वयं भी सत्कार कर सकता है ।
  • संन्यास – संन्यासी इन सब नियमों के परे चला जाता है । वह गृहस्थी से भिक्षा ग्रहण करता है और अपना कुछ भी न उगाता है, न पकाता है । सो, जो भी उसको प्राप्त हो जाए, उसे सहर्ष ग्रहण करता है । हां, उसके लिए यह नियम है  कि वह दिन में केवल एक बार भिक्षा ग्रहण करे और कम खाए । 

इस प्रकार भारतीय परम्परा में भोजनविषयक बहुत ही सुन्दर विधान प्राप्त होते हैं, जो आज हम अधिकतर भूल ही चुके हैं … 

शाकाहार में पाप

इस विषय में अनेकों सन्देह होते हैं, इसलिए मैं प्रश्नोत्तर-रूप में इस भाग को प्रस्तुत कर रही हूँ ।

प्रश्न – दूध को भक्ष्य माना गया है । परन्तु वह तो पशु का उत्पात है । उसे मांसाहार क्यों न माना जाए ?

उत्तर – अवश्य ही दूध पशु द्वारा निर्मित है, तथापि उसमें पाश्विक कोशिकाएं आदि नहीं होतीं । वह जल में मिले कुछ रसायन ही होते हैं, जो रसायन विशिष्ट मात्रा में होने से मनुष्य के लिए पुष्टिकारक होते हैं । इस प्रकार दुग्ध शाकाहारियों के लिए परमात्मा की एक अद्भुत देन है ।

प्रश्न – चलिए माना दुग्ध मांसाहार नहीं है, परन्तु गाय का दुग्ध होता तो बछड़े के लिए है । मानव उसको बछड़े से छीन कर स्वयं पी जाता है । क्या इसमें पाप नहीं ?

उत्तर – हां, गाय का दुग्ध प्रमुखता से बछड़े के लिए होता है, और सर्वप्रथम बछड़े को दिया भी जाना चाहिए । परन्तु परमात्मा ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है कि गाय बछड़े की आवश्यकता से कहीं अधिक दुग्ध देती है । यदि वह अधिक दूध दुहा न जाए, तो गाय अस्वस्थ भी हो सकती है । जैसे, देशी गाय करीब २० से २५ लिटर दूध देती है, जबकि बछड़े कि लिए २-५ लिटर दूध ही पर्याप्त होता है । इस प्रकार करीब २० लिटर दूध अधिक होता है । इस अधिकता को उसी प्रकार समझा जा सकता है, जैसे पेड़ों पर फल । फल के बीज पेड़ के लिए होते हैं, परन्तु उसका गूदा पशु-पक्षी और मनुष्यों के लिए । उसके बदले में ये पशु पेड़ के बीज को दूरस्थ स्थान में वितरित करके पेड़ की पहुंच बढ़ा देते हैं । मानव को तो वह फल यदि अच्छा लगा, तो वह स्वयं बहुत सारे पेड़ उगा लेता है । इससे पेड़ का भला हो गया । इसी प्रकार दुग्ध के बदले में मानव गाय को सुरक्षा और भोजन प्राप्त कराता है । यह परस्पर लाभ का व्यापार है (symbiotic relationship) ।

हां, जो दूधवाले बछड़े को पूरा दूध नहीं पीने देते, उसे भूखा रखते हैं अथवा मार देते हैं, वह अवश्य पाप है, और उस पाप का भागी पीने वाला भी हो जाता है । इसलिए हमें अपने दूध के स्रोत का ज्ञान होना चाहिए ।

प्रश्न – क्या पेड़-पौधों में चेतना होती है ?

उत्तर – भारतीय ज्ञान परम्परा में तो कभी भी इस विषय पर सन्देह था ही नहीं ! जीवों की गणना करते हुए मनु कहते हैं – उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे … (मनुस्मृतिः १।४५) – अर्थात् सभी स्थावर, जो कि धरती को फाड़ कर निकलते हैं, वे जीव हैं । आगे वे इन स्थावरों के विभाग भी करते हैं जो कि आधुनिक विज्ञान के विभाजन से बहुत मिलते हैं । 

विज्ञान को यह तथ्य कुछ १०० वर्ष पूर्व ही दृढतया स्पष्ट हुआ है, और उसको स्थापित करने वाले भारतीय वैज्ञानिक डा० जगदीश चन्द्र बोस थे । उन्होंने स्थावरों में चेतना को विभिन्न प्रकार से प्रमाणित किया । अब यह तथ्य निर्विवाद है । 

प्रश्न – यदि पेड़ों में आत्मा बसती है, तो फिर तो उनको काटने, तोड़ने, आदि, में उनको कष्ट पहुंचेगा । परन्तु उनको कष्ट हो रहा है, ऐसा देखने में तो नहीं आता, अपितु उनमें कोई क्रिया ही दृष्टिगोचर नहीं होती । तो उनमें किसी भी संवेदना के होने को क्यों माना जाए ?

उत्तर – पेड़ों मे अवश्य संवेदना पाई जाती है । क्या आपने कभी छुईमुई के पौधे को छुआ है ? उसके एक ही भाग को छूने से, पूरे पौधे को ज्ञान हो जाता है और सारी पत्तियां बन्द हो जाती हैं । यह तो स्पष्ट दिखने वाली क्रिया है, परन्तु स्थावरों की अधिकतर क्रियाएं इतनी धीमी गति से होती हैं कि हमें आंखों से नहीं दिखती हैं, जैसे कि मूल का मिट्टी में नीचे की ओर जाना, तने का ऊपर की ओर जाना, लताओं का आश्रय से चिपक या लिपट जाना । इस प्रकार मूल और तने में भी संवेदना होती है । यहां तक कि सूखी धरती में मूल जल की ओर मुड़ जाएगी, और छांव के रहते तना प्रकाश की ओर मुड़ जाएगा । फिर कई फूल सुबह खिलते हैं, कुछ रात में, अर्थात् पौधे को समय का ज्ञान भी किसी प्रकार से होता है । ये सब क्रियाएं जीव की स्थिति को प्रमाणित करती हैं । आज विज्ञान इन क्रियाओं को समझने में बहुत कुछ समर्थ हो गया है । वैज्ञानिकों ने पाया है कि इन प्रक्रियाओं में अनेक रसायन कारण होते हैं, जैसे plant hormones (auxins), hormone signaling pathways, neurochemical signaling, electric potential signaling, reaction phytosomes, antibiotics, आदि आदि । 

हमारी दादी-नानियों ने सदैव कहा कि पौधे को रात में मत छूओ, क्योंकि रात को पेड़ सो जाते हैं ! पेड़ों को भी कष्ट आदि होता है, यह एक-एक भारतीय बच्चा समझता है ।

प्रश्न – यदि पेड़ों में आत्मा है, तो फिर तो शाकाहार में पाप हो जाएगा ! तो मनुष्य खाएगा क्या ?!

उत्तर – अवश्य ही साधारण रूप से शाकाहार में भी पाप संयुक्त है, परन्तु उसकी मात्रा मांसाहार से कम है । और क्योंकि जिस प्रकार शेर के लिए मांसाहार अनिवार्य है, और वह उतने पाप से नहीं बच सकता, इसी प्रकार साधारण मनुष्य के लिए भी शाकाहार के पाप से बचना कठिन है । देखिए, मनु कहते हैं –

पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ।

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ॥मनुस्मृतिः ३।६८॥

अर्थात् गृहस्थियों के पांच हिंसा के स्थान हैं – चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली और पानी का घड़ा, जिनको प्रयोग में लाते हुए, गृहस्थी जीवन-मरण के चक्र से बन्ध जाता है । इन सब से कीट आदि की ही हिंसा नहीं इंगित है, परन्तु पेड़-पौधों की हिंसा भी यहां सम्मिलित हैं । वानप्रस्थी जीवन में हमने देखा कैसे इस पाप को न के तुल्य किया जा सकता है । गृहस्थ जीवन में वे संयम कठिन हैं । इसीलिए मोक्षप्राप्ति के लिए वानप्रस्थ आश्रम अनिवार्य है ।

उपर्युक्त आधुनिक अनुसन्धान में पाया गया है कि कटने, जलने, आदि पर पेड़ों में कष्ट होता है, जिसके कारण वे कुछ रसायन छोड़ते हैं । जैसे टमाटर के पौधे के कहीं कट जाने पर, वह पौधा एक गन्ध छोड़ता है, जिससे कि दूसरे पौधे अपना सुरक्षा कवच ऊपर कर लेते हैं । इस प्रकार स्थावर जैसे ‘चीख’ छोड़ते हैं और अन्य पेड़ उनकी इस चेतावनी को समझने में सक्षम होते हैं । यहां तक कि यह भी पाया गया है कि संगीत आदि से पेड़ों की पैदावार बढ़ जाती है । इसलिए जो ये समझते हैं कि वृक्षों में कोई ज्ञान अथवा संवेदना नहीं होती, वे गलत हैं । इस तथ्य में अब कोई भी संशय नहीं रहा है कि स्थावरों में भी संवेदना होती है ।

प्रश्न – आपने यह क्यों कहा कि स्थावरों के भक्षण में कम पाप है – प्राणी तो प्राणी है, चाहे वह पौधा हो, चाहे हाथी?

उत्तर – जीवों का एक क्रम है जो कम विकसित जीवों से अधिक विकसित जीव तक जाता है । जितना कोई जीव विकसित होता है, उतना ही उसके प्रौढ़ होने में समय लगता है । इसलिए जो एक कोशिका वाले जीव होते हैं (जो निम्नतर स्थान पर विद्यमान हैं), वे केवल कोशिका के दो में बंट जाने से दो जीव बन जाते हैं, जबकि मनुष्य (जो इस शृंखला में शीर्ष पर विद्यमान है) के बच्चे को ९ महीने तो मां के उदर में व्यतीत करने पड़ते हैं, फिर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने के लिए और १७-२० वर्ष निकल जाते हैं । यह दीर्घ काल इसलिए आवश्यक होता है क्योंकि इसमें उसके शरीर का पूर्ण विकास होता है और साथ ही उसकी सब क्षमताएं विकसित हो जाती हैं । मां के उदर से निकलते ही वह खाना जुटाने में क्या, स्वयं चलने में भी असमर्थ होता है । अब इस विकसित जीव को यदि मारा जाए, तो उस सब परिश्रम और सामग्रियों का भी हनन होता है जो कि इस जीव के विकास में लगीं । इस कारण से विकसित जीव के मारने में अविकसित जीव के मारने से अधिक पाप होता है । यह देखा गया है कि अविकसित जीव अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, वे शीघ्र उत्पन्न होते हैं, शीघ्र बढ़ते हैं और शीघ्र मर जाते हैं । विकसित जीवों का जीवन-चक्र इसका उल्टा होता है – वे संख्या में कम होते हैं, और उन्हें जन्म लेने, बढ़ने और मरने में अधिक काल लगता है । इसलिए मनु कहते हैं –

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।

स जीवंश्च मृतश्च न क्वचित् सुकमेधते ॥

यो बन्धनवधक्लेशान् प्राणिनां न चिकीर्षति ।

स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते ॥मनुस्मुतिः५।४५-६॥

अर्थात् जो मनुष्य अपने सुख की इच्छा से अहिंसनीय प्राणियों को मारता है, वह जीते हुए और मरकर – कहीं भी सुख नहीं पाता है । (इसके विपरीत,) जो प्राणियों को बांधने, मारने या पीड़ा देना नहीं चाहता, वह सबका हितैषी अत्यन्त सुख प्राप्त करता है । यहां बन्धन, वध, आदि से स्पष्ट है कि मनु विशेष रूप से पशुओं की बात कर रहे हैं; प्रसंगानुकूल भी यही अर्थ है । इससे ज्ञात होता है कि मांस के लिए पशुओं का हनन अत्यन्त निन्दनीय कर्म है । अर्थापत्ति से यह भी ज्ञात होता है कि वृक्षों के हनन आदि इतने निन्दनीय कर्म नहीं हैं । तथापि वानप्रस्थी के भोजन-विषयक निर्देशों से यह भी समझना चाहिए कि शाकाहार पूर्णतया पापमुक्त नहीं है ।

यहां यह बताना प्रसंगानुकूल होगा कि भारतीय ऋषियों ने बताया है कि स्थावरों में एक नहीं, परन्तु अनेक आत्माएं बसतीं हैं । ये ‘अनुशायी’ जीव कहलाते हैं । पेड़ के कष्ट व सुख को वे मिलकर भोगते हैं । इसके प्रमाण में देखिए कि अनेक पेड़ कलम से उगाए जा सकते हैं – पेड़ की एक छोटी शाखा भूमि में थोड़ा गाड़ देने पर, वह पुनरुज्जीवित हो जाती है, और एक पेड़ के दो बन जाते हैं । इसका यह अर्थ हुआ कि पेड़ में तो जीव था ही, परन्तु शाखा में भी जीव था ! इसी प्रकार, केले जैसी अनेक वृक्षजातियां हैं जो बिना बीज के एक से बहुत हो जाती हैं । ऐसा पशुओं में नहीं हो सकता । ये सब स्थावर में अनेक आत्माओं के प्रमाण हैं । (क्योंकि वैज्ञानिक अभी आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानते, केवल चेतन-शक्ति को मानते हैं, इसलिए इस ज्ञान से तो वे बहुत दूर हैं !)

इस प्रकार हम पाते हैं कि मनुष्य के लिए शाकाहार सबसे उत्तम पद्धति है, और मांसाहार पूर्णतया त्याज्य है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि शाकाहार पापरहित है । उसमें भी पाप का अंश है, क्योंकि स्थावर प्रकृति में भी जीव बसते हैं, परन्तु वह पाप मासांहार से कम है । उस पापांश को विविध नियमों से और भी कम किया जा सकता है, जिससे वह न के तुल्य रह जाए ।

Pic Credit: Food photo created by onlyyouqj – www.freepik.com