मनुष्य के छः शत्रु

मानवों को कर्म करने में जानवरों से कहीं अधिक स्वतन्त्रता है । यही नहीं उनके मानसिक भावों के भी इन्द्रधनुष जैसे अनगिनत रंग होते हैं । इतनी सारी भावनाएं पशुओं में नहीं पाई जातीं । इस स्वतन्त्रता के कारण ही मनुष्यों में सुख-दुःख भी विशेष रूप से चित्रित होते हैं । दुःखों से बचने के लिए, परमात्मा ने वेदद्वारा धर्म का निरूपण किया । तथापि हमारे कुछ मानसिक शत्रु हमें धर्म का निर्वहन करने में बाधित करते हैं । इस लेख में इन पर विजय पाने का एक उपाय दिया गया है ।

शास्त्रों में मनुष्य के षड् रिपु बताए गए है – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य । ये इस प्रकार हैं –

काम – सब प्रकार की इच्छाएं । जब ये इच्छाएं हम पर हावी हो जाती हैं, तब हम उनकी पूर्ति के लिए हत्या आदि भयंकर कृत्य करने में भी नहीं झिझकते ।

क्रोध – क्रोध के वश में तो हम सभी जानते हैं कि हम प्रायः ऐसे कृत्य कर डालते हैं जिनपर हमें बाद में पछतावा होता है ।

लोभ – काम की जब पराकाष्ठा हो जाती है, तब हम दूसरे की वस्तु का लोभ करने लगते हैं । इससे स्तेय (चोरी) आदि अनेकों पाप करते हैं ।

मोह – जहां एक ओर मोह वस्तुओं, परिजनों, आदि, से लगाव होता है, वहीं इसका विस्तृत अर्थ है सत्य न जानना । जिस प्रकार हम मृगतृष्णा में कुछ को कुछ देखते हैं, वैसे ही मोह के कारण हम अपने को अपना शरीर मानते हैं और शरीर की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में जीवन लगा देते हैं; अपने माता-पिता, सन्तान, आदि को अपना मानकर उनके सुख में सुखी और उनके दुःख में दुःखी होते हैं, आदि, आदि । वस्तुतः, अन्य सभी भावों के मूल में मोह या अविद्या ही होती है ।

मद – अभिमान करना मद है । इसके कारण हम क्रोध और मात्सर्य में अनेकों बार फंस जाते हैं ।

मात्सर्य – लोभ से उत्पन्न यह भाव, हमारी इष्ट वस्तु/सुख को दूसरे को पाते हुए देखकर, दूसरे के सुख में दुःखी होना है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ये सभी मानसिक विकार एक दूसरे से ही उत्पन्न होते हैं, एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं । गीता कहती है – 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।

सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधोद्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः ।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥ गीता २।६२-६३ ॥

अर्थात् विषयों के बारे में सोचते-सोचते मनुष्य का उनमें लगाव उत्पन्न हो जाता है । उस लगाव से काम, काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह (=मोह), सम्मोह से स्मृति का नाश, स्मृतिनाश से ज्ञान का नाश और ज्ञान के नाश से वह आत्मा स्वयं नष्ट हो जाती है, अर्थात् अधर्म में फंस जाती है ।

वस्तुतः इन सभी को इच्छा और द्वेष में बांटा जा सकता है – काम, लोभ, मोह इच्छा के रूप हैं, क्रोध और ईर्ष्या के और मोह की अतिशयिता है । न्यायदर्शन बताता है कि इच्छा और द्वेष आत्मा के लिङ्ग हैं –

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् ॥ १।१० ॥

अर्थात् इच्छा या काम, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख और ज्ञान आत्मा के सूचक हैं । इनको किसी वस्तु में देखकर हम जान सकते हैं कि इसमें आत्मा है ।

वैशेषिक भी यही कहता है – 

प्राणापाननिमेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नश्चात्मनो लिङ्गानि ॥ ३।२।४ ॥

अर्थात् श्वास-निःश्वास लेना, पलक झपकना, चेतन होना, चिन्तन करना और ज्ञान होना, इन्द्रियों का परस्पर मिलकर ज्ञान होना, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न करना – ये सब आत्मा के अस्तित्व को बताने वाले हैं ।

इससे हम जान सकते हैं कि शरीर के जुड़ते ही ये लिङ्ग भी हमसे चिपक जाते हैं । ये आत्मा के स्वभाव न होकर, प्रकृति के गुण होते हैं, जो हममें दिखने लगते हैं –

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ गीता ३।२७ ॥

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ गीता ३।३७ ॥

अर्थात् प्रकृति के गुण सारे कर्म हर प्रकार से करते हैं । आत्मा, अहंकार से अन्धी होकर, “मैंने किया” – ऐसा समझती है । काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न होते हैं । ये सब खा जाने वाले (सब नष्ट करने वाले), महान पापी (अत्यधिक पाप कराने वाले) होते हैं । इस संसार में इनको अपना वैरी मानना चाहिए ।

हमारा अज्ञान हमसे इतनी बलपूर्वक चिपका होता है कि इन शत्रुओं से छुटकारा पाना अत्यधिक कठिन हो जाता है । छुटकारा पाने के लिए विरक्ति के सारे उपाय करने पड़ते हैं, तप करना पड़ता है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है ।

परन्तु इनसे थोड़ा सरल एक उपाय भी है, जो हमको कठिन उपायों को करने में भी आसानी देता है । वह है – इन भावनाओं को अच्छे में, धर्म में मोड़ देना –

काम – अच्छी वस्तुओं की कामना करिए –सुख की, शान्ति की, दूसरों की भलाई की, विश्व में सुख-शान्ति की, धर्म की, सत्य की । धर्म को जानकर, कामना को उसके अनुसार कर दीजिए । सम्भवतः वेद ही संसार में एक ऐसा धार्मिक ग्रन्थ है जो कुछ कामनाओं को धार्मिक बताता है, उनको बढ़ावा देता है । महर्षि दयानन्द ने इसीलिए सदा कहा है कि भौतिक सुख-समृद्धि के लिए हर-सम्भव प्रयास करो । परन्तु भौतिक धनार्जन सदा धर्म की परिधि में होना चाहिए ।

क्रोध – इसे सात्त्विक बनाइये – अन्याय पर क्रोध करिए, अपराध पर क्रोध करिए । धैर्य न खोते हुए, अन्याय और अपराध का सामना करिए, उनका प्रतीकार करिए । इससे शान्ति भी मिलेगी और स्वोपकार व परोपकार भी होगा ।

लोभ – ज्ञान का लोभ करिए – जिस किसी से भी ज्ञान मिले उसे झट से दोनों हाथों से बटोर लीजिए । उसके लिए कष्ट उठाइये, उसके लिए रात-रात भर जागिए । परोपकार के लिए लोभ करिये । परोपकार करने का कोई अवसर मत छोड़िये, उसके लिए अवसर बनाइये । 

मोह – इसे विश्वप्रेम में बदल दीजिए । एक वस्तु, एक मनुष्य में से निकालकर, मोह को सब वस्तुओं, सब मनुष्यों में उड़ेल दीजिए । ये अनायास ही धर्म की ओर ले जायेगा । आप अफगानिस्तान में मां-बच्चों के लिए प्रार्थना करेंगे, आतंकवादियों को सद्बुद्धि मिले – ये मनायेंगे, पर्यावरण के शोषण का विरोध करेंगे ।

मद – आत्मविश्वास का करो । आत्मविश्वास का मद कभी न टूटे, हममें कभी हीन-भावना न हो, परन्तु कभी ये अभिमान में न बदले ।

मात्सर्य – दूसरों से स्पर्धा में बदल दो – मैं अधिक अच्छा कार्य करूंगी, मैं और अधिक परिश्रम करूंगा । विचारों को इस प्रकार परिवर्तित कर देने से, फल-प्राप्ति में ईर्ष्या न रहकर, स्वयं शिखर प्राप्त करने की इच्छा रह जायेगी ।

वास्तव में, ये उपाय भी बहुत सरल नहीं हैं । इनमें भी थोड़ी विरक्ति की आवश्यकता है । परन्तु इनमें विरक्ति की मात्रा पूर्ण विरक्ति से बहुत कम है । इसलिए ये हमारी पहुंच में हैं । और यही नहीं, ये पूर्ण विरक्ति की प्राप्ति में, अपने षड्रिपुओं से युद्ध करने में एक महत्त्वपूर्ण कदम हैं ।