वेदों में अलंकार

क्या वेद काव्य हैं ? यदि हैं, तो क्या उनमें अलंकार पाए जाते हैं ? इस लेख में हम वेदों में कुछ अलंकारों के प्रयोगों को देखते हैं, जिससे वेदों की काव्यता सिद्ध होगी । अलंकार वे होते हैं जिससे भाषा भूषित होती है । इनसे कथन सुपोषित तो होता ही है, परन्तु श्रोता को सुनने में भी आनन्द आता है ।

वेद काव्य हैं, यह परमात्मा ने स्वयं उद्घोषित किया है – “… देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥अथर्ववेदः १०।८।३२॥” – अर्थात् वेद परमात्म-देव के काव्य हैं, जो न कभी लुप्त होते हैं, न कभी अप्रासंगिक होते हैं । इसी प्रकार वेद परमात्मा को कवि बताते हैं – “… कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूरयाथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥यजुर्वेदः ४०।८॥ – अर्थात् वह ईश्वर कवि = क्रान्तदर्शी है (क्योंकि वह उसको देख लेता है जो औरों को नहीं दिखता; इसीलिए लौकिक कवि को भी कवि कहते हैं क्योंकि वह अपनी कविता में एक ऐसा नया विचार गूंथ देता है, जो कि औरों को उस प्रकार नहीं दिखता); मनन करने वाला मनीषी है, सब ओर व्याप्त है, स्वयं प्रकट होता है, और अपनी सनातन प्रजाओं (=शरीरबद्ध आत्माओं) के लिए वेदों द्वारा लौकिक व अलौकिक विषयों को जनाता है । यहां ‘कवि’ पद के पूर्वपठित होने से, और बाद में वेदों का कथन होने से, वेदों के काव्य होने का पुनः संकेत मिलता है ।

परमात्मा के कवि होने और वेदों के काव्य होने के स्थापित हो जाने पर, वेदों में अलंकारों का होना निश्चित ही है । महर्षि दयानन्द ने यत्र-तत्र इनका संकेत दिया है । हम उनको और अन्य अलंकारों को पाने का भी यत्न करते हैं ।

  • यमक – यमक में स्वर और व्यंजनों की क्रम से आवृत्ति होती है । शब्दालंकार होने से यह समझने में सुगम है, इसलिए प्रथम इसको ही लेते हैं । तो इस लयपूर्ण मन्त्र को देखिए –
             सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका ।
             उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥ऋग्वेदः १०।१०६।६॥
    यहां ‘री’ ४ बार पठित है, ‘र्फरी’ ३ बार, ‘तुर्फरी’ २ बार, व ‘जरायु’ ‘ मरायु’ में भी साम्य है । इस प्रकार यहां यमकालंकार का सुन्दर प्रयोग है । इस सूक्त के अन्य मन्त्रों में भी यमक पाया जाता है, जैसे – “… मेषेवेषा सपर्या पुरीषा (५)”, “पज्रेव चर्चरं… तर्तरीथ… पर्फरत्… (७)” आदि ।
  • श्लेष – ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में ही यह अलंकार प्राप्त हो जाता है, जिसमें पदों के एक से अधिक अर्थ होते हैं, जैसे – 
             अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
             होतारं रत्नधातमम् ॥ऋग्वेदः १।१।१॥
    परमात्मा के आध्यात्मिक पक्ष में इसके अर्थ हुए – सर्वज्ञान-प्रकाशक, सृष्टि के आदि में उसको पहले धारण करने वाले, हमारे विशेष कर्मों को ग्रहण करने वाले, दिव्य गुणों वाले, ऋतु-ऋतु में पूजनीय, रत्नों के समान सब ऐश्वर्यों के धारण करने और देने वाले की मैं स्तुति करती हूं ।
    भौतिक अग्नि के आधिदैविक पक्ष में अर्थ हुआ – अन्धकार-नाशक, शिल्प, अग्निहोत्र, आदि कार्यों में सबसे पूर्व स्थापित किया जाने वाले, युद्धादि में विशेष शस्त्र प्रदान कराने से जिताने वाले, शिल्पादि के साधनभूत, स्वर्ण, रत्नादियों को प्राप्त कराने वाले की मैं इच्छा करती हूं और उसके गुणों का उपदेश करती हूं ।

    प्रभु की सबसे चमत्कारिक देन होने से, उनके नामों में साम्य जैसे दोनों ‘अग्नियों’ के गुणों को स्वतः उजागर करता है ! इस प्रकार वेदमन्त्रों मे अनेकत्र तीन अर्थ श्लिष्ट पाए जाते हैं – आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक । 
  • अतिशयोक्तिः – इस अलंकार में बढ़चढ़ के किसी वस्तु को बताया जाता है, जो कि वास्तविकता के परे होता है, परन्तु वस्तु की महानता का द्योतक होता है, यथा – 
             “… त्रीणि पदानि निहिता गुहा सत् यस्तानि वेद स पितुः पितासत् ॥यजुर्वेदः ३२।९॥” 
    अर्थात् जिसकी बुद्धि-रूपी गुफा में परमात्मा के तीन पद – महर्षि द्वारा बताए गए सृष्टि, स्थिति व प्रलय अथवा भूत, भविष्य व वर्तमान काल – निहित होते हैं, वह अपने पिता का भी पिता होता है । अवश्य ही तत्त्वज्ञानी अपने पिता का पिता नहीं बन जाता, परन्तु ज्ञान में उससे आगे निकल जाने से, वह अपने पिता को भी ज्ञान देन में समर्थ हो जाता है, जिस प्रकार एक पिता अपनी सन्तान को ज्ञान देता है । कितनी सुन्दरता से यह बात कही गई है कि इसको भूलना ही असम्भव है !
  • उत्प्रेक्षा – इस अलंकार में उपमान कल्पित होता है और उसकी उपमेय में केवल सम्भावना होती है । इसका उदाहरण हमें इस प्रकार प्राप्त होता है – 
             श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम् । …॥यजुर्वेदः ३१।२२॥ 
    अर्थात् उस पुरुष-रूपी ब्रह्म की जैसे श्री और लक्ष्मी दो पत्नियां हैं, दिन और रात जैसे दो बगले हैं, नक्षत्र रूप को जैसे चित्रित करते हैं और सूर्य व चन्द्रमा जैसे फैले मुख के समान वर्तमान हैं । यहां अवश्य ही परमात्मा में ये सब अंगरूप में नहीं घटते, परन्तु इस उत्प्रेक्षा द्वारा यह सम्भावना प्रकट करके,  श्री, लक्ष्मी, अहोरात्र, नक्षत्र और अश्वियों का महत्त्व दर्शाया गया है ।
  • परिणाम – इस अलंकार में उपमेय को उपमान में आरोपित किया जाता है, जहां उसकी अर्थ बताने में केवल पदवाच्य ही नहीं, परन्तु कुछ अन्य उपयोगिता भी होती है, यथा – 
             ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीः … ॥ऋग्वेदः४।२३।८॥ 
    अर्थात् सच्चाई की सेनाएं अतिप्राचीन हैं । यहां सत्य-वाक्यों, सत्य-शास्त्रों को ‘सेना’ कहने से यह तात्पर्य है कि वे वाक्य असत्य वाक्यों को निरस्त कर देते, उखाड़ फेंकते हैं, अन्यथा सत्य की कोई वास्तविक सेनाएं नहीं होतीं । इससे सहसा हमारे मन में एक चित्र बन जाता है, जिससे कि वाक्य का महत्त्व पूर्णतया बुद्धि में बैठ जाता है । यहां ‘सेना’ उपमान ‘वचन’ उपमेय पर आरोपित है, और ‘ऋत’ (सत्य) के वचन की शक्ति का ग्रहण करा रहा है ।
  • दृष्टान्त – इस अलंकार में प्रस्तुत (=लक्ष्य) अंश को समझाने के लिए, अन्य एक वाक्य दिया जाता है जिसमें धर्म एकरूप नहीं होता, परन्तु वाक्य के सब अंश मिलकर समानता दर्शाते हैं । इन प्रस्तुत और अप्रस्तुत अंश के विभिन्न भागों की समानता को ‘बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव’ कहते हैं । इसका एक सुन्दर उदाहरण है – 
             अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः ।
             आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे ह्रदाइव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे ॥ऋग्वेदः १०।७१।७॥
    अर्थात् सब मनुष्य आंख-कान वाले होने से समान ख्यान = वर्णन वाले (अर्थात् ‘सखा’) होते हैं, तथापि मन की तीव्रता में वे असमान होते हैं, जिस प्रकार भिन्न लम्बाई वाले शरीर वाले जन एक ही तालाब में जब नहाते हैं, तब एक के जल मुंह तक आता है, जबकि दूसरे के कमर तक आता है । यहां आंख-कान व तालाब, और मन की गति व शरीर की लम्बाई में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव दृष्टिगोचर होता है ।
    इस सूक्त में अन्य भी अनेक अलंकार प्राप्त होते हैं, इसलिए यह सूक्त बहुत ही प्रिय लगता है ।
  • निदर्शना – यह अलंकार दृष्टान्त के समान होता है, परन्तु यहां अप्रस्तुत वाक्य प्रस्तुत वाक्य की पूर्ति करता है, यथा – 
             उत त्वः पश्वयन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् ।
             उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ऋग्वेदः १०।७१।४॥
    अर्थात् भाषा, विशेषकर वैदिक संस्कृत भाषा, जिसका यहां प्रकरण है, उसको लिखा देखाकर कोई तो उसको समझ नहीं पाते (लिपि के अज्ञान से); कोई तो उसे सुनकर समझ नहीं पाते, शब्दार्थ का बोध न होने से; और किसी के लिए यह भाषा अपने ‘तन’ को – अपने गूढ़, छुपे हुए अर्थ को – प्रकट कर देती है, जिस प्रकार गृहस्थ-कर्म की कामना करती हुई, सुन्दर वस्त्र पहनी हुई पत्नी अपने पति के लिए अपने शरीर को प्रकट कर देती है । यहां ‘भाषा का तन प्रकट होने’ का अर्थ पत्नी के ऊपर ही समाप्त होता है, इसलिए यह निदर्शना अलंकार है ।
  • अप्रस्तुतप्रशंसा – इस अलंकार में केवल अप्रस्तुत विषय का वर्णन होता है जिससे प्रस्तुत की प्रतीति व्यंग्य से होती है । इसका प्रसिद्ध उदाहरण है – 
             द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
                            समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
             तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य-
                      नश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥ऋग्वेदः १०।१६४।२०, अथर्ववेदः ९।९।२०॥
    अर्थात् दो सुन्दर परों वाले पक्षी, जो एक-दूसरे से साथ जुड़े हैं, वे एक वृक्ष का आश्रय लिए हैं । उनमें से एक तो वृक्ष के स्वादिष्ट फल खा रहा है, जबकि दूसरा उसको सामने से देख रहा है । यहां स्पष्ट ही है कि दो पक्षियों की चर्चा लक्षित नहीं है । और लक्षित = प्रस्तुत विषय परमात्मा, जीवात्मा व प्राकृत संसार भी स्पष्ट ज्ञात होता है – दो पक्षी का जोड़ा परमात्मा व जीवात्मा का है जो कि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से जुड़ा हुआ है; और यह संसार वृक्ष है । प्रकृति वृक्षरूपी संसार के विभिन्न स्वादिष्ट भोगों को उत्पन्न करने में जुटी है, परमात्मा संसार के सुखों का भोग नहीं कर रहे, जीवात्मा कर रहा है और परमात्मा उसके प्रत्येक कर्म को अनिमिष देख रहे हैं । इस प्रकार यह अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है । 
    महर्षि दयानन्द ने यहां रूपकालंकार कहा है । पुरानी पद्धति के अनुसार वह ठीक भी है, परन्तु अर्वाचीन आलंकारिकों ने अलंकारों के बहुत विभाजन कर दिए हैं । मैंने इस अर्वाचीन मत के अनुसार ही यहां अलंकारों का निर्देश किया है । 
    इस अलंकार का एक और प्रसिद्ध उदाहरण है – 
             चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा
                      द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
             त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति
                      महो देवो मर्त्याँ आ विवेश ॥ऋग्वेदः ४।५८।३, यजुर्वेदः १७।९१॥
     अर्थात् एक महान् कान्तियुक्त बैल के चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं और सात हाथ हैं । तीन प्रकार से बन्धा हुआ यह बैल बहुत चिल्लाता है और मरण-युक्तों में घुस जाता है । यहां परमात्मा वह बैल हैं और मनुष्य वे मरणयुक्त हैं जिनमें चार वेदादियों से परमात्मा व्याप्त हो रहा है । यास्क ने निरुक्त में बैल की यज्ञपरक और शब्दपरक व्याख्या भी करी है । इस प्रकार यहां श्लेषालंकार भी है ।
  • विषम – इस अलंकार में कारण और कार्य के गुणों की विषमता = विरुद्धता को प्रस्तुत करके चमत्कार उत्पन्न किया जाता है । यथा – 
             को ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति ।…॥ऋग्वेदः १।१६४।४॥
    अर्थात् किसने देखा है प्रथम उत्पन्न होने वाले को, जिस अस्थि वाले को बिना अस्थि वाला धारण करता है । यहां जीवात्मा अस्थिहीन है और प्राणी अस्थियुक्त । मन्त्र का तात्पर्य है कि जीवात्मा तो प्रकृति-शून्य है, सो उसमें अस्थि होना सम्भव ही नहीं है । तथापि वह इस अस्थिवाले शरीर को धारण करता है । और प्राणियों की इस पहली उत्पत्ति को किसने देखा है ? अर्थात् किसी ने भी नहीं ! यहां बिना अस्थि वाला कारण जीवात्मा अस्थि वाले प्राणी (कार्य) में परिवर्तित हो जाता है । यह कार्य-कारण गुणों में विषमता है, और उससे जनित चमत्कार भी स्पष्ट ही है ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि वेदों में सब प्रकार के अलंकार भरे पड़े हैं और यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि वेद काव्य के उत्कृष्ट व अद्भुत उदाहरण हैं । मैंने तो यहां केवल एक  विहंगम दृष्टि प्रस्तुत की है । इससे आप भी अन्य अलंकार पहचानने में समर्थ हो जायेंगे, और आपके मन में यह दुविधा न रहेगी कि वेद में अलंकार हैं भी कि वह एक नीरस ग्रन्थ है जिसे केवल छन्दयुक्त होने के कारण काव्य की पदवी दे दी गई है । अपितु जो अलंकारों की विशेषताएं नहीं भी जानते, वे भी वेदों को पढ़के इसीलिए भाव-विभोर हो जाते हैं कि वेदों में विषय इतने रोचक, मार्मिक व हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किए गए हैं !